नाथ संप्रदायी साहित्य का प्रभाव

चूँकि गढवाल में नाथ सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव सातवीं सदी से होना शुरू हो गया था और इस साहित्य ने गढ़वाल के जनजीवन में स्थान बनाना शुरू कर दिया था और ग्यारवीं सदी तक यह साहित्य जनजीवन का अभिन्न अंग बन गया था। अथ इस साहित्य के भाषा ने खश जनित गढ़वाली भाषा में परिवर्तन किये। नाथ साहित्य ने खश जनित गढ़वाली भाषा पर शैलीगत एवम शब्द सम्पदा गत प्रभाव डाला किन्तु उसकी आत्मा एवं व्याकरणीय संरचना पर कोई खास प्रभाव ना डाल सकी। 

हाँ नाथ सप्रदायी साहित्य ने गढवाली भाषा को खड़ी बोली, बर्ज और राजस्थानी भाषाओँ के निकट लाने में एक उत्प्रेरणा का काम अवश्य किया। यदि गढ़वाल में दरिया वाणी में मन्तर पढ़े जायेंगे तो राजस्थानी भाषा का प्रभाव गढवाली पर आना ही था। जिस तरह कर्मकांड की संस्कृत भाषा ने गढ़वाली भाषा को प्रभावित किया उसी तरह नाथ साहित्य ने गढवाली भाषा को प्रभावित किया। किन्तु यह कहना कि नाथ साहित्य गढवाली कि आदि भाषा है, इतिहास व भाषा के दोनों के साथ अन्याय करना होगा। यदि ऐसा होता तो अन्य लोक साहित्य में भी हमें इसी तरह क़ी भाषा के दर्शन होते। 

अबोधबंधु बहुगुणा ने क्योंकर नाथ संप्रदायी काव्य को आदि-गढवाली काव्य/गद्य नाम दिया होगा? किन्तु यह भी सही है नाथ सम्प्रदायी साहित्य ने मूल गढवाली भाषा को प्रभावित अवश्य किया है। नाथ समप्रदायी साहित्य के प्रभाव ने कुछ बदलाव किये किन्तु गढवाली भाषा में आमूल चूल परिवर्तन नहीं किया। यदि ऐसा होता तो आज की नेपाली सर्वथा गढवाली से भिन्न होती। हमें किसी भी भाषा के इतिहास लिखते समय निकटस्थ क्षेत्र के कृषिगत या कृषि में होने वाली भाषा /ज्ञान पर भी पुरा ध्यान देना चाहिए जिस पर अबोधबंधु बहुगुणा ने ध्यान नहीं दिया कि गढवाली, कुमाउनी और नेपाली भाषाओँ में कृषि गत ज्ञान या कृषि सम्बन्धी शब्द एक जैसे हैं। इस दृष्टि से भी नाथपंथी साहित्य गढवाली का आदि साहित्य नहीं माना जाना चाहिए। 

@Bhishma Kukreti