May 2020 ~ BOL PAHADI

28 May, 2020

त्राही-त्राही त्राहिमाम... (गढ़वाली कविता)

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• दुर्गा नौटियाल

त्राही-त्राही त्राहिमाम, 
तेरि सरण मा छां आज।
कर दे कुछ यनु काज, 
रखि दे हमारि लाज।।

संगता ढक्यां छन द्वार,
मुस्कौं न घिच्चा बुज्यान।
खट्टी-मिट्ठी भितर-भैर,
ह्वेगे कनि या जिबाळ।
बिधाता अब त्वी बचो, 
ईं विपदा तैं हरो।
करदे कुछ यनु काज, 
रखि दे हमारी लाज।।
त्राही-त्राही त्राहिमाम...

पित्र होला दोष देंणा,
देवता होलु नाराज क्वी।
लोग सब्बि बोळ्न लग्यां,
त्वी कारण निवारण त्वी।
मेरा इष्ट, कुल देबतों, 
अब त दिश्ना द्या चुचों।
करदे कुछ यनु काज, 
रखि दे हमारी लाज।।
त्राही-त्राही त्राहिमाम...

धाण काज अब नि राई,
खिस्सा बटुवा ह्वेगे खालि।
लोण तेल लौण कनै,
लाला बंद करिगे पगाळी।
हे भगवती अब दैणि हो, 
ईं बैतरणी तै तरो।
करदे कुछ यनु काज, 
रखि दे हमारी लाज।।
त्राही-त्राही त्राहिमाम...

रीता गौं बच्याण लग्यां,
तिवारी हैंसण बैठिगे।
बिसरिगे था जु बाटा,
आज तखि उलार बौडिगे।
हे भूमि का भूम्याल, 
तुम दैणा ह्वेजा आज।
करदे कुछ यनु काज, 
रखि दे हमारी लाज।।
त्राही-त्राही त्राहिमाम...

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(लेखक दुर्गा नौटियाल वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार हैं)

21 May, 2020

मैं पहाड़ हूं (हिन्दी कविता)

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• मदन मोहन थपलियाल ’शैल’

मैं पहाड़ (हिमालय) हूं
विज्ञान कहता है
यहां पहले हिलोरें मारता सागर था
दो भुजाएं आपस में टकराईं
पहाड़ का जन्म हुआ
हिमालय का अवतरण हुआ
सदियों वीरान रहा
धीरे-धीरे 
वादियों और कंदराओं का उद्गम हुआ
गंगा पृथ्वी पर आईं
कंद मूल फलों से धरा का श्रंगार हुआ
सब खुशहाल थे
मेरे ही गीत गुनगुनाते थे
शांत एकांत निर्जन विजन
ऋषि मुनियों को बहुत भाया
देवताओं ने अपनी शरणस्थली बनाई
तपस्वी रम गए प्रभु आराधना में
मनीषियों ने ग्रंथ लिखे
काव्य खंड लिखे
चहुंओर 
संस्कृति औ संस्कृत की ध्वनि गूंजने लगी
वेदों की ऋचाएं गाई जाने लगीं
आक्रमणकारियों ने मेरी शांति भंग कर दी
आततायियों के भय से
मनुज ने पहाड़ों का आश्रय लिया
पहाड़ सैरगाह बन गए
सब खुशहाल थे
मेरे ही गीत गुनगुनाते थे
मैदानी क्षेत्रों में बस्तियां बसने लगीं
आधुनिक चकाचौंध ने 
मेरे अस्तित्व को कम करके आंकना शुरू कर दिया
फिर क्या था
चल पड़े दरिया के मानिंद
मैदानों के विस्तार में अपने को खोने
बस वहीं के हो गए
नौकर बन गए
श्रम, पसीना, मनोबल सब बेच दिया
भौतिक सुख और दो जून रोटी के लिए
बाजार हो गए
योग्यतानुसार दाम तय होने लगे
पैसे की हवस का जादू सिर चढ़कर बोला
सब अधिकार की लड़ाई लड़ने लगे
लेकिन सब व्यर्थ
पलायन रुका नहीं
बहाने लाख बने
मैं आज भी वहीं खड़ा हूं
शांत एकांत सा
अपनों की प्रतीक्षा में
मैंने नहीं, उन्होंने मुझे ठुकराया
मेरी छाती में धमाचौकड़ी करने
फिर आओगे न
मैं सदियों प्रतीक्षा करूंगा
तुम्हारी पग ध्वनि सुनने को उत्सुक
तुम्हारा अपना वैभव
पहाड़ (हिमालय)

पेंटिंग फोटो - ईशान बहुगुणा

20 May, 2020

कल की सी ही बात है

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•  डॉ. अतुल शर्मा

प्रकृति के सुकुमारतम कवि श्री सुमित्रानंदन पंत की आज शुभ जयंती है। कल की सी ही बात लगती है कि 1980 के दशक में लेखिका और दिल्ली दूरदर्शन की निदेशिका डॉ. कांता पंत के नई दिल्ली गोल मार्केट एसई जोड एरिया स्थित आवास पर प्रायः पंत जी के दर्शन का सौभाग्य मिलता रहता था। कांता भारती जी का पंत जी ने अपने भतीजे गोर्की पंत से विवाह करा दिया था। इस प्रकार वह कांता पंत हो गयी थीं। 

‘‘मैं पंत जी के दर्शनार्थ प्रायः कवि एवं समीक्षक श्री गोपाल कृष्ण कौल के साथ जाया करता था, कभी-कभी अकेला भी जाता था। पंत जी की बादल और परिवर्तन जैसी कविताएं और उनका सौम्य सुदर्शन व्यक्तित्व आज भी स्मृति में सुरक्षित है। उनकी पावन स्मृति को सश्रद्ध नमन!’’ यह कहना है प्रसिद्ध कवि धनंजय सिह का।

कवि सुमित्रानन्दन पंत का जन्म 20 मई 1900 के दिन कौसानी उत्तराखंड में हुआ था। वे छायावादी युग के स्तंभ थे। उनके काव्य साहित्य पर जहां गांधी का प्रभाव था वहीं कई जगह मार्क्स और फ्रायड का प्रभाव बताया गया। आप हिन्दी साहित्य की काव्य परम्परा के कीर्ति स्तंभ हैं। उन्होंने पद्य के साथ गद्य रचनाएं की। 

कवि पंत को पद्मभूषण सम्मान प्रदान किया गया था। साथ ही भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ। साहित्य अकादमी सम्मान प्रदान किया गया। उनकी काव्य पुस्तकें हैं- वीणा, ग्रन्थि, पल्लव, गुंजन, युगवाणी, ग्राम्या, उत्तरा आदि। गद्य पुस्तकों में ‘हार’ उपन्यास, ज्योत्सना,  पांच कहानी साठ वर्ष और अन्य निबन्ध, कला और संस्कृति निबंध आदि। सुमित्रानन्दन पन्त की स्मृति में कौसानी में संग्रहालय है।


(लेखक डॉ. अतुल शर्मा जाने माने साहित्यकार एवं जनकवि हैं।)


19 May, 2020

जरा बच के ... (व्यंग्य)

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•  प्रबोध उनियाल


बहुत समय पहले की बात है, तब इतनी मोटर गाड़ियां नहीं थीं। सबके अपने-अपने घोड़े होते थे। भले ही हम तब भी गधे ही रहे। अस्तु! उस समय मकान की दीवारें 'टच' नहीं होती थी बीच में नाली या नाला आपकी सुविधा अनुसार होता था। 'टच' के जमाने तो अब आये, चाहे दीवारें 'टच' हो या मोबाइल टच...।

पुराने लोग गवाह हैं। उनके जमाने की फिल्मों में शम्मी कपूर और मनोज कुमार पेड़ के ही आसपास घूमते हुए हीरोइन को रिझाते थे लेकिन 'टच' नहीं करते थे। ये सोशल डिस्टेंस ( Social distance ) के जमाने थे। यही वजह थी कि ये फिल्में बेहद मनोरंजक और घर के लोगों के साथ देखने वाली होती थीं। साम्बा इसीलिए हमेशा दूर पत्थर पर बैठा रहता था।

सोशल डिस्टेंस पर कई हिट गाने भी बने हैं। 'दूर रहकर न करो बात करीब आ जाओ..।' लेकिन साहब मजाल है जो हीरो या हीरोइन इतने करीब आ जाएं। समय बैल गाड़ियों से होता हुआ इलेक्ट्रॉनिक रेलगाड़ियों तक आ गया। दूरियां घटने लगी। यानि no distance ...

गांव की बात छोड़ दें तो शहरों में बहुमंजिला इमारतें खड़ी हो गयीं। इन इमारतों में घर तो थे लेकिन छत नहीं। इन घरों में रह रहे लोग एक दूसरे से डिस्टेंस में ही रहते हैं। फ्लैट कल्चर है साहब! सही बात कहें तो ये डिस्टेंस तो आम लोगों के लिए है। उसे संभलना होगा। तभी कोरोना से बचा जा सकता है ...!


(लेखक प्रबोध उनियाल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

11 May, 2020

लॉकडाउन में गूंज रही कोयल की मधुर तान

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• प्रबोध उनियाल

ये एक भीड़ भरा इलाका है, जहां मैं रहता हूं। मेरी घर की बालकनी से सड़क पर अक्सर भागते लोग और दौड़ती गाड़ियां ही दिखती हैं। तब कहीं न कहीं इस भीड़ में आप भी हैं। अभी तक मैंने इस सड़क को देर रात में ही थोड़ी सी सांस लेते देखा है। लेकिन लॉकडाउन के चलते एक निश्चित समय की छूट के बाद ये सुनसान सी पसरी पड़ी देख रहा हूं।

आजकल दिनचर्या सामान्य नहीं है। कामकाज के दिनों में आपका समय उसी हिसाब से बंधा होता है। पूरे दिन के इस खाली समय में आपको अपने आप को नियत करना होता है। तब आप कहीं ना कहीं सुकून ढूंढ रहे होते हैं।

लेकिन कुछ दिनों से मेरे लिए ढलती सांझ सुकून भरी आती है। बचपन यूं ही उन तमाम बच्चों की चुहलबाजियों सा ही बीता। मुझे याद है कि मेरे घर के पास तब इस तरह की ये तमाम सीमेंटेड अट्टालिकाएं नहीं थी। घर में सिर्फ कमरे होते थे दुकाने नहीं! बाजारीकरण के चलते दृश्य बदला और कई कमरे दुकानों में तब्दील हो गए।

मैं लौटता हूं आजकल की अपनी सांझ पर। पानी पीने के लिए फ्रिज को खोलते हुए मैं अचानक कोयल की मधुर तान सुन रहा हूं। बचपन में, मैंने कोयल की इस कुहू को बखूबी सुना है जो अभी तक भी मेरी स्मृतियों में है। हमारे दौर के बचपन आंगन में ही खेलते हुए बड़े होते थे। आज की तरह बच्चों के हाथ में मोबाइल और सामने टीवी स्क्रीन नहीं होता था।

कोयल का वैज्ञानिक नाम यूडाइनेमिस स्कोलोपेकस है। कोयल सभी पक्षियों में अपनी तरह की एक नीड परजीविता पक्षी है जो कभी भी अपने घोंसला नहीं बनाती। सभी पक्षियों में कोयल की बोली सबसे मधुर होती है। लेकिन केवल नर कोयल ही गाता है। कोयल कभी जमीन पर नहीं उतरती है, पेड़ों पर ही गुनगुनाती है और वह भी आम के पेड़ों पर। 

उर्वर जमीन को उगल रहे यूकेलिप्टस के पेड़ पर तो ये बिल्कुल भी नहीं मंडराती। दुनियाभर के साहित्यकारों ने कोयल की मीठी बोली पर खूब लिखा है। रोमांटिक कवि विलियम वर्ड्सवर्थ कहते हैं- O Cuckoo! Shell I Call Thee Birds, Or but a Wandering Voice! (ओ कोयल! क्या मैं तुम्हें पक्षी कहूंगा, या फिर भटकती आवाज?)

बसंत आते ही कोयल कूकने लगती है। लेकिन इनदिनों सन्नाटे के बीच मैं कोयल की कूक को बेहतर सुन रहा हूं। हो सकता है कि ये इत्तेफाक हो कि वह आजकल हर शाम को मुझे कुकते हुए सुनाई दे रही है। मौसम कोई भी हो कोयल गा रही है, आओ हम सब भी इसकी तान के संग हो लें...।

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लेखक प्रबोध  उनियाल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। 
Photo Source - Google

01 May, 2020

भाई साहब घर में हैं (व्यंग्य)


• प्रबोध उनियाल

कुछ भाई साहब तो आजकल बर्तनों के साथ फर्श को भी रगड़-रगड़ कर चमका रहे हैं। आजकल अधिकांश पत्नियां, पतियों को क्या काम देना है इसका खूब गुपचुप सलाह मशविरा सहेलियों से ले रही हैं?
        पहली बार आप कई दिनों से चौबीस घंटे पत्नी के साथ हैं। कुछ गजब ही हो रहा है। आदमी जहां हर वक्त दरवाजे से बाहर जाने की जुगत देखता था वहीं कुछ ऐसा हो रहा है कि पत्नी उठे, आगे चले तो पीछे-पीछे भाई साहब भी! 

इनदिनों कुछ यंत्रवत से तमाम पति, पत्नी के चारों ओर ना जाने कितनी बार एक संपूर्ण कोण घूम जा रहे हैं? ‘पत्नीश्री’ किचन की ओर चले तो भाई साहब भी किचन की ओर, पत्नी ड्राइंगरूम  की ओर घूमे तो पति पहले ही घूम जाये।
आखिर पत्नी झल्ला कर बोल ही उठी- ’अरे! तुम एक जगह बैठ जाओ ना, मेरे पीछे-पीछे क्यों चल पड़ते हो?’

भाई साहब को बहुत आत्मग्लानि हुई। वह बता रहे थे कि यार! जीवन में ऐसा पहली बार हो रहा है। इतना तो यार तब भी नहीं हुआ था जब कुछ- कुछ हुआ था। भाई साहब! भाभी जी को ‘कुछ-कुछ होता है’ पिक्चर देखने के बाद ही घर लाए थे। मित्रों! ऐसे कई भाई साहब आजकल परेशान हैं तो कई पत्नीश्री भी। 

एक भाई साहब को मैंने फोन लगाया और पूछा-’कहां हो? ’बोले- ’यार! क्या करूं, छत पर झूला झूल रहा हूं?’ दूसरे भाई साहब के किस्से सुनो, इन्होंने जिंदगीभर चाय नहीं बनाई लेकिन दिन में जितनी बार मिल जाये पीने से गुरेज नहीं करते। आजकल घर में टंगे हैं। बेचारे जब हर एक-दो घंटे बाद बीवी से चाय की फरमाइश करने लगे तो एक दिन बीवी ने झल्लाते हुए कह ही दिया- ’सुनो जी! चाय पीने का इतना शौक है तो खुद उठो और बना लो’। मुझे दुखड़ा सुना रहे थे कि 'यार! इतनी घनघोर बेइज्जती कभी नहीं हुई?'

कुछ भाई साहब तो आजकल बर्तनों के साथ फर्श को भी रगड़-रगड़ कर चमका रहे हैं। आजकल अधिकांश पत्नियां, पतियों को क्या काम देना है इसकी खूब गुपचुप सलाह मशविरा सहेलियों से ले रही हैं? एक भाई साहब को तो जब पत्नी ने मजाक में कहा कि ’उठ जाओ, ऑफिस जाना है’ तो बेचारे ने बिना देरी किए झाड़ू थाम लिया। 

हे भगवान! ये कैसा संकट आया है। पता नहीं दिमाग तो लॉकडाउन हो रखा है, काम ही नहीं कर रहा है। बार-बार गलती से मिस्टेक हो जा रही है, पत्नी हंस दी। मैं भी हैरत में हूं! और तमाम भाई साहब भी। क्या कहें- दरअसल "हम हेरत, हम आप हेरानी--।

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लेखक प्रबोध उनियाल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। 

महा क्रांति आमंत्रित कर (हिन्दी कविता)


• श्रीराम शर्मा ‘प्रेम’

तेरे शोणित, तेरी मज्जा से - 
सने धवल प्रासाद खड़े।
तेरी जीवन से ही निर्मित,
तेरी छाती पर किन्तु अड़े
इनको करके दृढ़ से दृढ़तर,
तू स्वयं बना कृश से कृशतर।
नर कहूं तूझे।

तेरे विनाश के नित नूतन
षडयंत्रों के मंत्रणागार।
तेरी ही शोषण का इनमें,
होता है क्षण-क्षण पर विचार।
तेरी करुणा, तेरे कुन्दन,
ठुकराए जाते हँस हँस कर
कर महा क्रान्ति आमंत्रित कर
नर कहूं तुझे।

अपना जीवन यौवन देकर,
अपना प्यारा तन-मन देकर,
कुछ, चांदी के टुकड़ों पर ही -
अपने जीवन को खो, खोकर,
तूने ही इनको खड़ा किया,
तेरे गवाह ईटें पत्थर।
कर महा क्रांन्ति आमंत्रित कर
नर कहूं तुझे।

अपना सब कुछ खोकर जीना
यह ग्लानि-गरल पीना, पीना।
कैसे सह लेता है सीना ?
यह भी कुछ मानव का जीना।
थोड़ी ही हिम्मत कर उठ जा!
उठकर कह दे जय प्रलयंकर।
कर महा क्रान्ति आमंत्रित कर
नर कहूं तुझे।

पृथ्वी काँपे आकाश हिले,
तारे नभ के कुछ, थर्राये।
अत्याचारी जग के प्रहरी -
ये सूर्य चन्द्र कुछ घबरावें।
ऐसी हो क्रान्ति विशाल विपलु।
काँपे हिमनग थर-थर-थर-थर।
कर महा क्रान्ति कर
नर कहूं तुझे।

सब कुछ, समाप्त करने वाला-
प्रलयंकर नृत्य भयंकर हो।
उस सर्वनाश की ज्वाला में -
जलता सब अशिव अशंकर हो।
ओ रे! शोषित! ओ रे! पीड़ित!
गा क्रान्ति गीत! पंचम स्वर भर।
कर महा क्रान्ति आमंत्रित कर,
नर कहूं तुझे।

काव्य संग्रह - अग्निपुरुष से साभार
कविता काल- 1946
द्वारा- डॉ. अतुल शर्मा 

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