06 August, 2022

‘इमोशन’ की डोर से बंधी ‘खैरी का दिन’ (Garhwali Film Review)

 - धनेश कोठारी

भारतीय सिनेमा के हर दौर में सौतेले भाई के बलिदान की कहानियां रुपहले पर्दे पर अवतरित होती रही हैं। हालिया रिलीज गढ़वाली फीचर (Garhwali Feature Film) फिल्म खैरी का दिन’ (Khairi Ka Din) का कथानक भी ऐसे ही एक तानेबाने पर बुनी गई है। जिसमें नायक से लेकर खलनायक तक हर कोई अपने हिस्से की खैरि’ (दर्द) को पर्दे पर निभाता है, और क्लाईमेक्स में यही खैरिदर्शकों को उनकी आंखें भिगोकर थियेटर से लौटाती है।

माहेश्वरी फिल्मस (Maheshwari Films) के बैनर पर डीएस पंवार कृत और अशोक चौहान आशुद्वारा निर्देशित फिल्म खैरी का दिनएक देवस्थल पर नायक कुलदीप (राजेश मालगुड़ी) के सवालों से शुरू होकर फ्लैश बैक में चली जाती है। जहां सौतेली मां की मौत के बाद तीन भाई-बहनों की जिम्मेदारी कुलदीप पहले खुद और फिर संयोगवश उसकी पत्नी बनी दीपा (गीता उनियाल) मिलकर निभाते है। उनके त्याग की बुनियाद पर सौतेले भाई-बहन बड़े और कामयाब होते हैं।

वहीं, विलेन किरतु प्रधान (रमेश रावत) के कारनामों से तंग गांववासी चुनाव में कुलदीप को प्रधान चुनते हैं। जिसके बाद कुलदीप के खिलाफ शुरू होते हैं किरतु के षडयंत्र। मंझले भाई प्रद्युम्न (पुरूषोत्तम जेठुड़ी) की नई नवेली दुल्हन (पूजा काला) परिवार में फूट डालने के लिए उसका हथियार बनती है। रही सही कसर सबसे छोटा भाई अरुण (रणवीर चौहान) मंदिर में शादी के बाद दुल्हन (शिवांगी देवली) को घर लाकर पूरी कर देता है। बहस के दौरान अरुण बंटवारा मांगता है, तो कुलदीप बीमार पत्नी दीपा को लेकर घर छोड़ देता है। बहन अरुणा (निशा भंडारी) भी अरुण को गरियाते हुए बड़े भाई के साथ चल देती है।

अस्पताल में भर्ती दीपा के इलाज के लिए कुलदीप जब भाईयों से मदद मांगता है, तो बदले में उसे सिर्फ बहाने मिलते हैं। दीपा की मौत कुलदीप को तोड़ देती है। यहीं पर फिल्म फ्लैश बैक से वापस लौट आती है। यहां कुलदीप को देवता से जवाब तो नहीं मिलते, मगर पश्चाताप से भरा परिवार वहां जरूर साथ दिखता है। हालांकि तब देर हो चुकी होती है और एक हादसा कुलदीप को उनसे जुदा कर देता है।

फिल्म की स्टोरी, स्क्रिप्ट, डायलॉग सब निर्देशक अशोक चौहान ने रचे हैं। फिल्म का सबसे स्ट्रॉन्ग प्वाइंट है इमोशन। जो कि दर्शकों को अपील भी करता है। बाकी स्क्रीनप्लेअधिकांश जगह कट टू कट सिर्फ स्विचहोता दिखता है। दृश्य कई बार अधूरे में ही कहानी के नए सिरे को पकड़ लेते हैं। फिल्म जहां-जहां स्विच करती है, दर्शक वहां स्टोरी को खुद अंडरस्टूडकर आगे बढ़ा देते हैं। जैसे कि नायिका के विवाह के यकायक बदलते सीन, कुलदीप की बिना परंपराओं की शादी, एक फाइट सीन में प्रद्युम्न का घायल होना और अगले ही दृश्य में ठीक दिखना, अरुण का शादी कर घर पहुंचना और आंगन में ही सारे फैसले हो जाना... आदि।

फिल्म का सामयिक गीत किरतु परधान अब खुलली तेरि पोल..दर्शकों को याद रह सकता है। बाकी जुबां पर शायद ही चढ़ें। होली के गीत रंगूं कि मचि छरोळ...फिल्मांकन के लिहाज से कुछ अच्छा लगता है। डायलॉग और डिलीवरी में शिद्दत की कमी महसूस होती है। कलाकारों द्वारा अपने ही डायलेक्ट्समें डायलॉग डिलीवरी भाषायी विविधता के लिहाज से काबिले तारीफ है।

फिल्म के किरदारों में निशा भंडारी, रवि ममगाईं, गोकुल पंवार खासा प्रभावित करते हैं। राजेश मालगुड़ी, गीता उनियाल, पुरूषोत्तम जेठुड़ी की अदाकारी औसत रही है। रणवीर चौहान के हिस्से ज्यादा मौका नहीं आया। विलेन रमेश रावत इस फिल्म में अपनी पहली फिल्म भूली ऐ भूलीजैसा असर नहीं छोड़ सके।

फिल्म की शुरूआती रील का धुंधलापन पेशेवर नजरिए से अच्छा नहीं माना जा सकता। टिहरी झील और उसके आसपास के अलावा सितोनस्यूं कोट ब्लॉक के गांव धनकुर में फिल्माकन बेहतर दिखा। फिल्म में महंगी बाइक, रेस्टोरेंट, कुछ शहरी कल्चर आदि का तड़का बुरा नहीं लगता। मगर, विवाहित महिला किरदारों का हर सीन में गुलाबंद (गले का गहना) पहने रहना स्क्रीनप्ले और निर्देशन के सेंस को सवालों में ला देता है।

सो, ‘इमोशनकी डोर पर बंधी खैरी का दिनको तकनीकी खामियों के लिहाज से इतर देखें तो पारिवारिक पृष्ठभूमि की ये फिल्म दर्शकों को थियेटर तक जरूर खींच रही है। इसकी कामयाबी भविष्य में निश्चित ही निर्माताओं को पारिवारिक कहानियों पर फिल्म बनाने के लिए उत्साहित करेगी। जो कि आंचलिक सिनेमा के लिए अच्छी बात कही जा सकती है।

27 June, 2022

जसपुर के बहुगुणाओं का ज्योतिष का गढ़वाली टीका साहित्य- 3


 

भीष्म कुकरेती

यह लेखक हिंदी टीकाओं से गढ़वाली शब्दों की खोज कर रहा था कि उसे कुछ पंक्तियों के बाद गढ़वाली पक्तियों की टीका भी मिली। याने की पहले हिंदी में टीका फिर गढ़वाली और फिर हिंदी में। इस भाग में भी ग्रहों की गणना करने की विधि और फलादेश की टीका है।

गढ़वाली टीका का भाग इस प्रकार है -

।। भाषालिख्यते ।। प्रथम भूजबोल्याजांद ।। पैले २१२९  अंशतौ भुज होयु होयो जषते ३ राश होया तव ६ राशिमा घटाणो याने ६। ०। ०। ० । मा घटाणो ५ राश २९ अंश तक जषते फिर ६। ७। ८ राश होयातो ६। ०। ०। ० ।  मा उलटा घटाणो ९ राश उप्र १२। ०। ०। ० मा घटाणो।  सो भुज होयो ना सूर्य को मन्दो च्च ७८ अंश को होयो तो सो ३० न चढ़णो।। अथ सूर्य स्फष्ट ।। पैलो सूर्य मध्य माउ को २।  १८।  ०।  ० मा घटाणो। तव तैको नामकेंद्र होयो २ राश से केंद्र अधिक होवूत भुज करनो तव भुजकी राश ३० न गुणनि तलांक जीउणा तव ९ न भाग लीणो ३ अंक पौणा . तव सो तीन अंक। २०। ०। ० ०। मा घटाणो।

...तव इन तरह से गोमूत्री करणी तव जो ९ उन मौगपाय सो दुई जगा रखणा सो गो मूत्री काका उपर रखणो विष। २० मा घटायूं जो छ सो नीचे रखणो तव आपस मा गुणी देणा.सो ६० से उपर चंद्रांद जाण आखीरमा ३ तीन पौणा सो तीन ३ अंक ५७ मा घटाण तव ऊं अंक को लिप्तापिंड गणणो सो भाजक होयो. तव जो ९ से भाग पायुं जो दूसरी रख्युं छ तैको भी लिप्तापिंड वनांणो सोभाज्य होयो भाज्य मा भाजक को भाग पाणो. सो ३ अंक पाणा तव जो भागपाय सो सूर्य को मध्यमामा मेषादौ धन तुलादौ ऋण देखिक दिणो सो प्रातः काल स्फष्ट होयो. ऋण घटाणो समझणो धन जोड़णो होयो ... ८

इसके बाद हिंदी टीका शुरू हो जाती है।

इस टीका और पहले की टीकाओं में कुछ अंतर

यह टीका शायद १९०० ईश्वी के करीब है। 

पहली दो टीकाओं में श्रीनगरया गढ़वाली का प्रभाव है जैसे लेणो, देणो किन्तु इस टीका में ढांगू में प्रचलित लीणो शब्द आया है।

Prose of Nineteenth Century from Garhwal



26 June, 2022

जसपुर के बहुगुणाओं का संस्कृत से गढ़वाली टीका साहित्य में योगदान- 2



भीष्म कुकरेती    

अन्य दो गढ़वाली में टीका के पृष्ठ जो मुझे प्राप्त हुए उनसे लगता है कि ये पृष्ठ किसी विषय के बीच के अंश हैं और उपरोक्त दो पृष्ठों के बाद के लिखे गए हैं। कारण है स्याही अभी भी ताज़ी हैं और लाल स्याही से बनाए गए दोनों ओर दो दो हाशिए हैं। प्रथम पृष्ठ में दाहिने हाशिए के अंदर वर्टिकली श्री गणेशाय नमः और सीधा गोरी लिखा है। नीचे साकलं और गोरी लिखा है।

 इबारत इस प्रकार है -

ग लेणो फिर शेष ३०  न भाग लेणो फिर शेष ६० न गुणणो टीवी ता को धक (अस्पष्ट) व क कर्नो अपणी दशान गुणणो योग नी दशा की तरह रीत र्नी ।। 2 ।। अष्टो तरि दशा होवू : अथ काल चक्री दशा : अ । आ । ध । श । मृ । सुर्य्य दशा अ । कृ । पु । श्ले । ह। मूल पू। र्भा । भौम दशा उः षा। रे । भ । ति । चि । शनि दशाः पू। षा । स्वा । शुक्र दशा उत्र। भा । चन्द्र दशाः रो । म । वि । श्र ।  गुरु दशा = पु । फा ।  उ । फा । ज्ये. वुध दशाः काल चक्री जै न क्षेत्र को भुक्त हो वू तैमा १५ घटाणो नी घट त रण देणो जैकी दशा होवू तै तै गुणणो १५ न भाग लेणो शेष १२ न गुणों १५ ना भाग लेणो प्रथम दशा गो छ ढीस तै का वर्ष घटाण स्या प्रथम दशा होवू दसौं का वर्ष जोड़ दो जांणो काल चक्री दशा होवू : ।। ३ ।। अथ स्वर दशा कि भाकाः साकल दो २ जगा धर्नो एक जगा २२ न गुणणो ४२ ६१ जोड़णो १८७५ न भाग लेणो सो भाग पृथक जो साकाल धरयूं छ तैमा जोड़णो ६० न नष्ट कर्नो शेष जो छ सम्ब्त्सर होवू तै सम्ब्त्सर मा ५ न भाग लेणो शेष । वाल १ कुमार २ युवा ३ वृद्धि ४ मृति स्वर दशा होवू जैमा १८७५ को भाग लेय सो सेष अंक १२ न गुणणो १८७५ न भाग लेणो फिर शेष ३० न गुणणो १८७५ न भाग लेणो फिर सेष ६० न गुणणो १८७५ को भाग लेणो तैमा टुप्प स्फुट युक्त कर्नो ढीस वर्सुमा १२ जोड़ दो जाणो स्यास्वर दशा होवू ।। ४ ।।

अथ कलुयुग दशा की भाशाः जन्म नक्षेत्र मा ७ जोड़नो ९ न नष्ट कर्नो शेष जतना रवू गर्भ १ जन्म २ उत्स्व ३ काम ४ क्रोध ५ लोभ ६ माह ७ अहंकार ८ मृत्यु ९ माह दशा का धक्र वक युंका वर्षुन गुणणो फेर वर्ष जोड़ दो जांणो कलियुग दशा होवू ।। ५ ।।

(आभार- जसपुर के समस्त बहुगुणा परिवार विशेषतः श्री शत्रुघ्न प्रसाद पुत्र स्व. पंडित खिमानन्द बहुगुणा )

Prose of Nineteenth Century from Garhwal



25 June, 2022

जसपुर के बहुगुणाओं का गढ़वाली टीका साहित्य में योगदान



• भीष्म कुकरेती

गढ़वाली साहित्यकार एवं इतिहासकार अबोध बंधु बहुगुणा ने ’गाड म्यटेकी गंगा’ पुस्तक में संस्कृत ज्योतिष व कर्मकांड साहित्य का गढ़वाली में टीका का उल्लेख किया है। अबोध बंधु ने 1925 का धोरा खोळा, कटळस्यूं निवासी पंडित रतनमणि घिल्डियाल द्वारा ज्योतिष गणित का गढ़वाली टीका (प्दजमतचतमजंजपवद) का जिक्र किया है (गाड म्यटेकी गंगा- पृष्ठ 59 )। 

उसके बाद के गढ़वाली साहित्य इतिहासकारों ने इस दिशा में कोई खोजपूर्ण कार्य नही किया। मेरा मानना था कि सन् 1890 से पहले जब कोई स्कूल नही थे और हिंदी का कोई स्थान गढ़वाल में नही था तो कर्मकांडी पंडित अवश्य ही अपने शिष्य (पुत्र, पौत्र, भतीजे, भ्राता आदि) को संस्कृत श्लोकों को गढ़वाली में ही समझाते होंगे और पाण्डुलि। में गढ़वाली में ही टीका करते रहे होंगे।

मेरे गांव जसपुर, ढांगू, पौड़ी गढ़वाल में कर्मकांडी चौथ ब्राह्मण बहुगुणा सन् 1875 के आसपास कुकरेतियों द्वारा बसाए गए थे। अतः मुझे इस दिशा में कुछ-कुछ ज्ञान था कि बहुगुणा पंडितो के पास हस्तलिखित पांडुलिपियां होती थीं।

इस साल के प्रथम चरण में जसपुर के पंडित स्व. पंडित तोताराम बहुगुणा के पौत्र व स्व. विद्यादत्त के द्वितीय पुत्र कर्मकांडी पंडित महेशानन्द बहुगुणा से मुंबई में मिलने का अवसर मिला। मैंने रिश्ते में भ्राता किन्तु सांस्कृतिक रू। से गुरु महेशानन्द बहुगुणा से यही प्रश्न किया कि जब जसपुर में ब्रिटिश शिक्षा नही थी तो कर्मकांड, ज्योतिष टीका अवश्य ही गढ़वाली में हुई होगी। पंडित महेशा नन्द बहुगुणा ने मेरा समर्थन करते कहा कि जसपुर के बहुगुणाओं में ज्योतिष, कर्मकांड को श्रुति रू। से लिखित रू। देने का काम स्व. पंडित जयराम बहुगुणा ने प्रारम्भ किया था। स्व. पंडित जयराम बहुगुणा स्व. तोताराम के भाई थे।

पंडित महेशानन्द ने मुझे आश्वासन सूचना दी थी कि पंडित जयराम बहुगुणा की पांडुलिपियां गांव में पंडित पद्मादत्त बहुगुणा के पास हैं, जिसमे गढ़वाली में टीका उपलब्ध हैं। पंडित पद्मादत्त बहुगुणा पंडित जयराम के भतीजे के पुत्र हैं। पंडित महेशा नन्द ने आश्वासन दिया था कि वे मुझे इस प्रकार के साहित्य को फोटोकॉपी द्वारा उपलब्ध कराएंगे।

इसी दौरान मुझे नागराजा पूजन हेतु मई में गांव जाना पड़ा। वहां सभी बहुगुणा पंडितों से मुलाकात अवश्यम्भावी थी और मैं आश्वस्त था कि मुझे गढ़वाली साहित्य का प्राचीन खजाना अवश्य मिलेगा। किन्तु गांव में त्रिवर्षीय नागराजा पूजन होने से सभी प्रवासी चाहते थे कि अपने कुल गुरुओं बहुगुणाओं से पूजन भी कराया जाए। आसपास के गांवों में भी प्रवासी आए थे, जो इन कुल गुरुओं से पूजा करवाने को इच्छित थे।

अतः सभी बुजुर्ग (मेरे समकक्ष आयु वाले) व युवा पंडित इतने व्यस्त थे कि उन्हें सांस लेने की फुर्सत नही थी। मैंने जिससे भी गढ़वाली टीका की बात की उन पंडित ने साहित्य उपलब्ध कराने का आश्वासन दिया किन्तु काम फारिग होने के बाद। मैं निराश था कि मुझे खजाना नहीं मिलेगा और फिर यह अवसर नही मिलेगा। दूसरी दिक्कत थी कि पंडित पद्मादत्त बहुगुणा के अतिरिक्त सभी पंडित कोटद्वार या अन्य शहरों में निवास करते हैं अतः यह महत्वपूर्ण साहित्य को देखना व फोटोकॉपी करना कठिन ही था।

मुझे 29 मई को ऋषिकेश के लिए प्रस्थान करना था और मुझे कोई साहित्य उपलब्ध नही हो सका था। एक कारण यह भी था कि प्रिंटिंग सुविधा उपलब्ध होने से पाण्डुलि। साहित्य की अब किसी भी कर्मकांडी पंडित को आवश्यकता नहीं है और पाण्डुलिपि अब किसी कोने में ही मिल सकतीं हैं।

अचानक 7 बजे सांय, मेरी धर्मपत्नी ने मेरे स्कूल के सहपाठी बड़े भाई शत्रुघ्न प्रसाद की दी गई पोथी मेरे हाथ में पकड़ा दी। इस पोथी में कई पोथियां (Boolete) थीं। मूल पोथी नीलकंठी कर्मकांड का है और अंदर कि छोटी पोथियां अन्य ज्योतिषीय विषय।

मुझे निम्न पंडितों की हस्तलिखित पोथियां मिलीं

पंडित सदानंद द्वारा लिखित दो संस्कृत विषयी लघु आकार की पोथियां।

पंडित खिमानन्द द्वारा लिखित व हिंदी में टीका की हुई पोथी।

पंडित तोताराम की दो या तीन विषयों में लिखी पोथियां और सभी में हिंदी में टीका लिखी गईं हैं। उपरोक्त तीनों लेखकों ने द. लिखकर अपने हस्ताक्षर किए हैं। नीलकंठी प्रकरण में एक जगह पंडित जयराम के हस्ताक्षर या नाम हैं दो जगह पंडित लोकमणि के हस्ताक्षर हैं व दो तीन जगह उनका नाम भी लिखा है। पंडित विद्यादत्त का नाम भी है।

पंडित जयराम ने जातक चन्द्रिका संस्कृत में छांटे-छांटी पंक्तियों में कलम से लिखी है और फिर बाद में किसी ने निब से बीच की पंक्ति में हिंदी में टीका लिखी है। कहीं भी लेखकों ने बहुगुणा शब्द नहीं लिखा है बल्कि पंडित शब्द का प्रयोग किया है। पंडित सदानंद ने तो पंडित शब्द भी प्रयोग नहीं किया है।

पंडित तोताराम लिखित टीका व श्लोकों से पहले गणेश का चित्र भी बनाया है व दूसरे पृष्ठ में भी रंगीन चित्रकारी की है। पंडित खिमानन्द ने जसपुर, ढांगू व कुमाऊं कमिनशनरी लिखा है और इसका कारण है कि वे पंडिताई से पहले चकबंदी विभाग में नौकरी की थी।

गढ़वाली टीका पोथी के कुछ भाग

जहां तक गढ़वाली टीका का प्रश्न है इन पोथियों के अंदर चार पृष्ठ की निखालिस गढ़वाली टीका मिलीं हैं। गढ़वाली टीका वाली पोथी में पंडित सदानंद की पोथी में पंडित शब्द भी नहीं है।

मेरे सहपाठी श्री शत्रुघ्न बहुगुणा व कुलगुरु पंडित विवेकानन्द बहुगुणा के अनुसार यह टीका पंडित खिमानन्द बहुगुणा की है। किन्तु मैं आदर सहित लिखना चाहूंगा कि पंडित खिमानन्द ने गढ़वाली टीका नहीं लिखी है।  उसके कारण निम्न हैं -

1- इस पुस्तिका का आकार पंडित खिमानन्द लिखित पोथी से मेल नहीं खाती है। 

2- पंडित खिमानन्द ने हिंदी टीका निब से लिखी है।

3- पंडित खिमानन्द का हस्थलि। भी मेल नहीं खाती है। जबकि पंडित जयराम की हस्थलि। से मेल खाती है।

4- मूल पोथी का आकार भी छोटा है किन्तु पंडित सदानंद द्वारा लिखित पोथी से एक इंच बड़ा होगा।

5- कागज भी अन्य पोथियों से मेल नहीं खाते हैं।

6- एक पोथी के उपलब्ध भाग लाल रंग के दो लाइनों से बनी हाशिए दोनों तरफ हैं व स्याही अब मटमैली हो गई है। इसी तरह काली स्याही केवल पंडित जयराम द्वारा लिखित श्लोकों से मेल खाती है। दूसरी पोथी के भाग का पृष्ठ पर दोनो ओर लाल स्याही से दो दो हाशिए बने हैं। जो अन्य पोथियों से भिन्न हैं।

7- चूंकि पंडित लोकमणि, पंडित सदानंद, पंडित खिमानन्द, पंडित तोताराम ने सन् 1890 में ब्रिटिश स्थापित स्कूल टंकाण स्कूल में शिक्षा पाई है अतः इन्हे हिंदी का पूरा ज्ञान था। पंडित जयराम ने टंकाण में शिक्षा नहीं पाई थी अतः उन्होंने गढ़वाली में टीका लिखी होगी जो पंडित महेशानन्द व पंडित पद्मादत्त ने भी स्वीकारा है।

अतः साफ़ है कि जो दो पोथियों के एक-एक पृष्ठ मेरे पास हैं वे पंडित जयराम द्वारा या उनसे पहले किसी अन्य द्वारा लिखी टीका है। पंडित जयराम की जीवनी विश्लेषण से लगता है यह टीका सन् 1900 से पहले की होगी।

पोथियों के उपलब्ध पृष्ठों की इबारत इस प्रकार हैं

दस दोष निरोपण की गढ़वाली टीका

संस्कृत शोक के बाद टीका ।। १ ।। भाषा आद्य भद्रा नी होवूः दुतिय शूल चक्र नि होवूः जनु सूर्य नक्षेत्र तक गणणो। १। १२। १५। १८। २८। होवू त शूल हूंदः शुभ काम बर्जित बोले= तृतीय ग्रह संजोगः जोदिन नक्षेत्र पर पा। ग्रह हो वो त नी लेणो दुसरी एक बात या छ कि जनु अशु नक्षेत्र प्रः आश्वार दग्ध तिथी और वार जोडिक तेर हो वू त वारदग्ध होंद अथमासदग्ध

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बै। ज्येष्ठ । आषा । श्रावण । भाद्रपद । असूज । कार्तिक । मंगसीर।  पुख । माघ। फा । चैत्र । ६ । ४ । ८। ६। १०। ८ । १२। ८। २ । ।१२।   

अवरविरेखावोदः सूर्जन न क्षेत्र ते सताईस रेखा धरणी अश्लेषा -मघा -चीत्राः अनुराधा. रेवत. श्रवण. यूंका निचे भि रेखा मारणी तव असुनी ते दिन नक्षेत्र तक गणणो जो निचे को चिरो आवत नी लेणो. जामैत्रिवोद . दिन का नक्षेत्र ते चौदवें नक्षेत्र पर पा। ग्रह होवू त नी लेणो शुभ होवू त दोस नी होंदो - गरहवेद तथा अष्टम वेद दोष चक्रमा देखणो जनु नी नक्षेत्र पर विवाह और पु र्फालगुनी पर पा। ग्रह क्षेत्र वेद होयो सो नी लिणोः अथः तलातवोद -दिन नक्षेत्र ते १२ वूंआ नक्षेत्र पर सूर्य्यत्वात मार ३ तीसरा नक्षेत्र पर मंगल ६ छटा नक्षेत्र पर वृहस्पति ८ आटवूआं नक्षेत्र पर शनी

इस प्रकरण का इतना ही साहित्य उपलब्ध है।



08 May, 2022

माँ अब कुछ नहीं कहती - (हिंदी कविता)



माँ

अब कभी-कभी

आती है सपनों में

चुप रहती है,

कुछ नहीं कहती


माँ

सुनाती थी बातों-बातों में

जीवन के कई हिस्से

सुने हुए कई किस्से

भोगे हुए यथार्थ

जिनके थे कुछ निहितार्थ


माँ

आगाह करती थी

लोगों से, बुरे दौर से

सलाह देती थी

चारों तरफ देखने की


माँ

डाँट देती अक्सर मुझे

मेरी गलतियों पर

मेरी कमियों पर

मृत्यु के कुछ दिन पहले

आखिरी बार भी डाँटा था


माँ

अब आती है सपनों में

चुपचाप देखती है

शायद महसूस करती है

मेरा आज, मेरा कल


मगर,

माँ अब कुछ नहीं कहती

माँ अब कुछ नहीं कहती


• धनेश कोठारी

08 मई 2022, ऋषिकेश (उत्तराखंड)

22 August, 2021

अब....!

https://www.bolpahadi.in/2021/08/uttarakhand-ab-hindi-poetry.html

गिर्दा !
आपने कहा था
हमारी हिम्मत बांधे रखने के लिए
‘जैंता इक दिन त आलो ये दिन ये दुनि में’

तब से हम भी इंतजार में हैं
वो ‘दिन’ आने के 
हिम्मत हमने अब भी बांधी हुई है
उसी एक पंक्ति के भरोसे

दिन हमारे आएंगे; नहीं मालूम
हाँ, उन ब्योपारियों के आ गए
जिनसे तुमने पूछा था
‘बोल ब्योपारी अब क्या होगा..’

तुम्हारे चले जाने के दस साल/ और
उत्तराखंड राज्य बनने के बीस साल/ बाद
हमारे अंदर टूटते ‘पहाड़’ को 
अब कौन थामे हुए रखेगा

गिर्दा!
कदाचित अब हम 
हिम्मत को बांध कर नहीं रख सके
तो कौन कहेगा फिर हमसे
‘जैंता इक दिन त आलो ये दिन ये दुनि में’

गिर्दा!
चले आओ फिर से
और गाओ बार बार गाओ
... धन मयेड़ी मेरो यो जनम
तेरि कोखि महान, मेरा हिमाला.....

• धनेश कोठारी - 

फोटो साभार - Google

20 August, 2021

साहित्यकारों के कमरों की कहानी 'मेरा कमरा'


https://www.bolpahadi.in/2021/08/story-of-the-writers-room-in-mera-kamra.html

प्रबोध उनियाल द्वारा संपादित 'मेरा कमरा' चालीस लेखकों के अपने अध्ययन कक्ष के संबन्ध में सुखद-दुःखद अनुभवों को समेटे पठनीय व संग्रहणीय कृति है। 

पुस्तक में साहित्यकारों के अध्ययन कक्ष या आवासीय लेखन कक्ष का लेखा-जोखा अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। समकालीन और तत्कालीन जीवन शैली की विविध चुनौतियों, रचनाधर्मिता में उपस्थित होने वाली समस्याओं, अनेक विसंगतियों और कुछ सकारात्मक पक्षों पर प्रकाश डालने वाली यह कृति लेखकों के जीवन के अनछुए पक्षों को प्रस्तुत करती है। इसमें संगृहीत वरिष्ठ व नए लेखकों के लेखों का सार प्रस्तुत करते हुए हर्ष हो रहा है। 

पुस्तक का पहला आलेख स्वयं सम्पादक प्रबोध उनियाल का है; शीर्षक है- वह अपना कमरा। इस आलेख को पढ़ते हुए लेखक के जीवन की अविस्मरणीय झलकियाँ मिलती हैं। उनके जीवन की अध्ययन और साहित्यिक प्रतिबद्धता स्पष्ट होती है। वे किस प्रकार से किसी कम्पनी में नौकरी करते हुए भी किस प्रकार साहित्य को समर्पित रहे और उनके सामने क्या परिवारिक परिदृश्य उपस्थित हुए यही प्रमुख बात उभरकर आती है। साहित्य के प्रति लेखक की तन्मयता प्रेरणादायक है। 

अगला आलेख प्रसिद्ध साहित्यकार स्मृतिशेष गंगा प्रसाद विमल का है। मुझे 2019 में उनसे मिलने का सौभाग्य मिला था, उन्हें और मुझे नई दिल्ली में स्मृतिशेष डॉ. मृदुला सिन्हा द्वारा अंतरराष्ट्रीय जेपी अवार्ड से साहित्य सेवा के क्षेत्र में एक ही मंच पर सम्मानित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 

विमल जी सरल और विद्वान व्यक्ति थे। उनका आलेख इस पुस्तक में संगृहीत होना प्रसन्नता देता है। विमल जी के अंतिम आलेखों में से यह आलेख 'उस एकांत का अकेलापन' टिहरी गढ़वाल के चम्बा और सुरकण्डा क्षेत्र की सुंदरता के साथ ही लेखक के तत्कालीन अध्ययन और लेखन सम्बन्धी विवेचन को प्रस्तुत करता है। यह सुन्दर विवेचन है। 
अगला आलेख जनकवि और लाखों हृदयों के प्रिय डॉ. अतुल शर्मा का 'वो बुलाता है... हमेशा पास रहता है' शीर्षक से है। अतुल जी ने अपने पिता स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व कवि श्रीराम शर्मा 'प्रेम' के के संदर्भों को प्रस्तुत करते हुए अपने बचपन, किशोरवय और युवावस्था के दिनों की स्मृतियों को अपने कमरे के साथ जोड़ते हुए प्रस्तुत किया है। 

उन्होंने बाबा नागार्जुन सहित अनेक साहित्यकारों की यादों को उकेरने के साथ ही उत्तराखण्ड आंदोलन के लिए लिखे गए अपने जनगीतों को भी उद्धृत किया है। लिटन रोड स्थित अपने घर के अध्ययन कक्ष को उन्होंने बहुत रोचक ढंग से प्रस्तुत किया। 

सुरेश उनियाल जी का आलेख 'जहाँ मेरे लेखक ने जन्म लिया' में गढ़वाल में पुराने समय में लैंप की रोशनी में अध्ययन करने से लेकर सुविधाओं के पहुँचने तक का सुन्दर शब्द चित्रण किया है। 

इसी क्रम में गंभीर सिंह पालनी का लेख 'किसको कहूँ - मेरा कमरा' ऋण लेकर बनाए गए शहरी आवासों की व्यवस्था और गहरा चिंतन है। उन्होंने अपनी समय-समय पर प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित और पुरस्कृत कहानियों की चर्चा आलेख में की है। उनके आलेख से प्रेरणा मिलती है कि विपरीत परिस्थितियों में भी व्यक्ति साहित्य को समर्पित रह सकता है। 

फिर शिवप्रसाद जोशी द्वारा लिखित 'जिंदगी के कमरे से होकर गुजरती दुनिया' टिहरी गढ़वाल के जाख-मरोड़ा से जयपुर, बॉन और फ्राईबुर्ग तक का सफर है। ग्रामीण जीवन के अध्ययन से शहरी जीवन तक कि झलकियों से सजा आलेख सुन्दर है। 

मदन शर्मा का लेख 'बीसवें मकान का कोने वाला कमरा' एक ही शहर में बदले गए अनेक कमरों का लेखा-जोखा है। इस लेख में लेखकों की पीड़ा प्रस्तुत की गई है। पत्नी हो या घर के सदस्य लेखक द्वारा रची गयी, प्राप्त हुई या प्रकाशनाधीन पुस्तकों के साथ कितनी उपेक्षा, दुराग्रह और निंदा का भाव रखते हैं यह आलेख में पठनीय और विचाणीय है। 

डॉ. सविता मोहन का लेख 'जब कमरा आकाश हो गया' बचपन की सुन्दर स्मृतियों- जिनमें उनकी दीदी की मार, लैंप, गिट्टे, पुराना पिचका सन्दूक और उनके पिता के नैनीताल के मकान की एक कोठरी इत्यादि हैं। निश्चित रूप से आलेख श्रेष्ठ है। बिना लाग-लपेट के लेखिका ने मन के उद्गार और तत्कालीन परिस्थितियों को प्रस्तुत किया है। 

कृष्ण कुमार भगत का लेख 'कमरा सँवारने का अधूरा ख्याल' में उन्होंने गृहशोभा, जाह्नवी और सरिता आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित अपनी कहानियों तथा अपना कमरा न बन पाने की पीड़ा उकेरी है। 

शालिनी जोशी का लेख 'सन्दूक वाला कमरा' उनके बचपन, दादी, मायके और एक सन्दूक की स्मृतियों को प्रस्तुत करते हुए महिलाओं की गहन पीड़ा को प्रस्तुत करता है। 

रामकिशोर मेहता का लेख 'मैं और मेरा कमरा' अपने कमरे पर एकछत्र अधिकार की पठनीय संकल्पना को प्रस्तुत करता है। 

डॉ. एचसी पाठक के लेख 'कई कमरों से गुजरी जिंदगी' छात्रावास से लेकर सरकारी आवास मिलने तक का चित्र खींचता है; जो पठनीय है। 

रणवीर सिंह चौहान का लेख 'पुराने घर की सूरत टटोलता हूँ' उर्दू के कुछ शब्दों को सहेजते हुए  उनके जीवन की झलकियों को प्रस्तुत करता है।

ललित मोहन रयाल का लेख 'कमरे के केंद्र में रहता हूँ मैं' लोकसेवक के जीवन के चित्रांकन से प्रारम्भ होता है और होम तथा स्वछंद कमरे की अवधारणा को पुष्ट करता है। लेख अच्छा है। 

अमित श्रीवास्तव का लेख 'मैं बार-बार लौटता हूँ वहाँ' सपनों और हकीकत के घर के बीच का तारतम्य प्रस्तुत करता है। 

हेमचंद्र सकलानी का लेख 'मेरा कमरा और माँ की सीख' टिहरी गढ़वाल भगवतपुर गाँव की स्मृतियों और उनकी माँ के संस्कारों पर प्रकाश डालता है; सुन्दर लेखन है। 

शशिभूषण बडोनी का लेख 'अपना कमरा जो आज भी सपना है' पारिवारिक जीवन की भेंट चढ़े कमरे के बाद अपना कोई निजी अध्ययन कक्ष न होने की पीड़ा प्रस्तुत करता है।

गुरुचरन लिखित 'कमरे का कंसेप्ट सोचकर अच्छा लगता है' श्रीनगर गढ़वाल में अपनी पढ़ाई के दिनों से लेकर बाद में परिवार तक का चित्रण है। 

जहूर आलम लिखित 'अपने कोने की तलाश आज भी' अभावों के जीवन को चित्रित करता पठनीय लेख है।
 
महिपाल सिंह नेगी 'हम किताबों के कमरे में रहते हैं' किताबों के साथ परिवार और अपना सामंजस्य और आत्मीयता को प्रस्तुत करता सुन्दर लेख है। 

जगमोहन रौतेला का लेख 'आज भी प्रतीक्षा है उस कोने की' पत्रकारिता के जीवन में अध्ययन कक्ष की महत्ता का सुन्दर प्रस्तुतीकरण है। 

योगेश भट्ट का लेख 'मैं, मेरा कमरा और खुली खिड़कियाँ' घर में अपने एक अलग कमरे की विशेषता को दर्शाता सुन्दर आलेख है। 

रंजना शर्मा का लेख 'हम बहते धारे' यादों के कैनवास पर अतीत और वर्तमान के दृश्यों को सुन्दर ढंग से प्रस्तुत करता है। 

शिवप्रसाद सेमवाल का लेख 'न मालूम कितने घर और कमरे बदले' गढ़वाल के रुद्रप्रयाग, उखीमठ से शुरू करते हुए बेसिक शिक्षा अधिकारी, देहरादून बनने तक और उसके बाद कि उनकी जीवन यात्रा को प्रस्तुत करता है। 

मुकेश नौटियाल का लेख 'जहाँ शब्द ढल जाए वही लेखन कक्ष' उनके गाँव से लेकर अपना व्यक्तिगत अध्ययन कक्ष तक के सफर को सुन्दर ढंग से प्रस्तुत करता है। 

अनिल कार्की का लेख 'मेरे पढ़ने-लिखने का कमरा' कुमायूँ मण्डल के पिथौरागढ़ और नैनीताल की स्मृतियों को पठनीय बनाता है। 

डॉ. एमआर सकलानी का लेख 'मेरा कमरा' उनके दादाजी के घर चम्बा तथा उनके ननिहाल (जो अमर शहीद श्रीदेव सुमन का भी गाँव है- जौल) की महत्त्वपूर्ण स्मृतियों को दर्शाता श्रेष्ठ आलेख है। 

जगमोहन 'आजाद' 'वजूद का हिस्सा है वह कोना'  गाँव से शुरू करके परिवार और बेराजगारी की  पीड़ा को प्रस्तुत करता उत्तम आलेख है। 

चंद्र बी. रसाइली का लेख 'मेरे दिल और दिमाग का वर्कशॉप' उनकी अपनी आलमारियों में 30 वर्ष का स्केच है। यह लेख उनकी अध्ययनशीलता को दर्शाता है। 

राजेश पाण्डेय का लेख 'जिसकी दीवारों से बातें की मैंने' कमरे की सजीवता को प्रस्तुत करने वाला सुन्दर आलेख है। 

दिनेश कुकरेती का लेख 'एक कमरा बने न्यारा' देहरादून और मेरठ की उनकी स्मृतियों को प्रस्तुत करते हुए अध्ययन कक्ष की आवश्यकता व महत्त्व को दर्शाता है।

राजेश सकलानी का लेख 'लेखन की जगहें' अध्ययन कक्ष की उनकी संकल्पना को प्रस्तुत करता है। 

रुचिता उनियाल का लेख 'मेरा कमरा मेरा साथी' उनके विद्यार्थी जीवन में उनके मायके के कमरे से विवाहोपरांत बिछड़ने की पीड़ा को प्रस्तुत करता है। 

नवीन चन्द्र उपाध्याय का लेख 'जहाँ रहा वहाँ अपना कोना दूँढ लिया' परिवर्तनशील जीवन का यथार्थ दर्शाता है। 

महेश चिटकारिया का लेख 'बिना खिड़की के वह कमरा' उनके कॉलेज के दिनों की यादों को सुन्दर ढंग से प्रस्तुत करता है। 

ज्योति शर्मा का लेख 'कमरे की दीवारें अब आँसुओं से भीग गई' ससुराल के रिवाजों और मायके के विविध घटनाक्रम और पीड़ाओं को अभिव्यक्त करता है।

डॉ. अशोक शर्मा का लेख 'कमरों के साथ होता रहा बदलाव' ऋषिकेश, पठानकोट और लैंसडाउन इत्यादि स्थानों पर प्राचार्य रहते हुए उनके जीवन के विविध पक्षों का चित्रण है। 

प्रीति बहुखंडी के लेख ' कमरे में मैं और मुझमें कमरा' 'घर' और मन की संकल्पना को दर्शाता है। 

वैशाली डबराल का लेख 'साहित्य साधक का कमरा' 20 वर्षों के उनके अनुभव और अध्ययन को समेटे हुए है। 

रोशनी उनियाल का लेख 'मिट्टी की महक वाला कमरा' उनके बचपन की यादों को सँजोये हुए है।


किताब- मेरा कमरा, 
सम्पादक- प्रबोध उनियाल, 
प्रकाशक- काव्यांश प्रकाशन, ऋषिकेश, 
पृष्ठ- 180  
मूल्य- रु. 250
समीक्षक- डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'

अद्भुत थी कवि चंद्रकुँवर बर्त्वाल की काव्य-दृष्टि

https://www.bolpahadi.in/2021/08/uttarakhand-wonderful-poetic-vision-of-chandrakunwar-bartwal.html
• बीना बेंजवाल / 

कैलासों पर उगे रैमासी के दिव्य फूलों को निहारने वाली कवि चंद्रकुँवर बर्त्वाल की काव्य-दृष्टि उस विराट सौंदर्य चेतना से संपन्न हो उन्हें रैमासी कविता का कवि बना गई। प्रकृति के इस सान्निध्य में ऋषियों जैसी सौम्यता लिए कवि स्वयं कहते हैं- 

मेरी आँखों में आए वे
रैमासी के दिव्य फूल! 
मैं भूल गया इस पृथ्वी को
मैं अपने को ही भूल गया! 

सम्मोहन की इस स्थिति में जागृत हुई उनकी काव्य चेतना! और ऐसी उच्च भावभूमि पर खिली कविता का परिवेश भी हिमालयी हो गया! फूलों के ऐसे देश चलकर घन छाया में नाचते मनोहर झरने देखने तथा तरुओं के वृंतों पर बैठे विहगों की मधुर ध्वनियाँ सुनने के साथ कविता समवेत स्वर में गाने का भी ’आमंत्रण’ देने लगी-

आओ गाएँ छोटे गीत
पेड़ और पौधों के गीत
आओ गाएँ सुन्दर गीत
नदी और पर्वत के गीत
आओ गाएँ मीठे गीत
पवन और माटी के गीत
आओ गाएँ प्यारे गीत
भूमि और भुवन के गीत। 

कवि इस पर्वत प्रदेश में ’नागनाथ’ की महापुरातन नगरी के बाँज, हिम-से ठण्डे पानी, लाल संध्या-से फूलों को देखते हुए काफल से स्नेह रखने वाले काफल पाक्कू का स्वर पूरे साहित्य जगत को सुनाने लगा-
मेरे घर के भीतर, आकर लगा गूंजने धीरे एक मधुर परिचित स्वर-

’काफल-पाक्कू’ ’काफल-पाक्कू’
’काफल-पाक्कू’ ’काफल-पाक्कू’। 

प्रेम को गहराई से जीने वाला यह कवि गिरि शिखरों पर छाये ’घन’ के गर्जन में सागर का संदेश पढ़ता रहा। मछलियों की चल-चितवन देखता रहा। और ’मन्दाकिनी’ से उसकी कविता इस तरह संवाद करती रही-

हे तट मृदंगोत्ताल ध्वनिते,
लहर वीणा-वादिनी
मुझको डुबा निज काव्य में 
हे स्वर्गसरि मन्दाकिनी।

प्रकृति की स्थानीयता के साथ कवि की वैश्विक दृष्टि संपन्नता मानवता की रक्षा हेतु वृक्षों से छाया, नदियों से पानी लेने वाले ’मनुष्य’ से स्वार्थ छोड़ प्रेम भाव अपनाने की बात कहते हुए ’नवयुग’ का आह्वान करती है-

आओ, हे नवीन युग, आओ हे सखा शान्ति के 
चलकर झरे हुए पत्रों पर गत अशान्ति के। 

’हिमालय’ और ’कालिदास के प्रति’ जैसी कविता लिखने वाली कवि की कलम यथार्थ के धरातल पर खड़ी हो ’कंकड़-पत्थर’ के माध्यम से बदलाव का संकेत देती हुई प्रयोगधर्मिता की ओर बढ़ती नजर आती है। 

प्रकृति के विराट रूप के दर्शन कराती कवि की कविता उनकी अस्वस्थता के कारण अंत में ’क्यों ये इतने फूल खिले’, ’रुग्ण द्रुम’ और ’क्षयरोग’ की बात करती हुई द्वार पर अतिथि बन आए मृत्युदेव ’यम’ को भी संबोधित करने लगी। ’पृथ्वी’ कविता का यह कवि प्राणों के दीपक को विलीन कर देने वाले अंधकार में अपने उर की ज्योति को शब्दों में सहेज यह कहकर 14 सितम्बर 1947 को अपनी इहलीला संवरण कर गया कि -

मैं न चाहता युग-युग तक 
पृथ्वी पर जीना
पर उतना जी लूँ
जितना जीना सुंदर हो।

https://www.bolpahadi.in/2021/08/uttarakhand-wonderful-poetic-vision-of-chandrakunwar-bartwal.html

( लेखिका बीना बेंजवाल उत्तराखंड की वरिष्ठ साहित्यकार हैं )

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