21 August, 2016

काफल पाको ! मिन नि चाखो

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'काफल' एक लोककथा 
उत्‍तराखंड के एक गांव में एक विधवा औरत और उसकी 6-7 साल की बेटी रहते थे। गरीबी में किसी तरह दोनों अपना गुजर बसर करते। एक दिन माँ सुबह सवेरे जंगल में घास के लिए गई, और घास के साथ 'काफल' (पहाड़ का एक बेहद प्रचलित और स्‍वादिष्‍ट फल) भी साथ में तोड़ के लाई। जब बेटी ने काफल देखे तो वह बड़ी खुश हुई।

माँ ने कहा- मैं खेत में काम करने जा रही हूँ। दिन में जब लौटूंगी तब दोनों मिलकर काफल खाएंगे। और माँ ने काफलों को टोकरी में रखकर कपड़े से ढक दिया।
बेटी दिन भर काफल खाने का इंतज़ार करती रही। बार बार टोकरी के ऊपर रखे कपड़े को उठाकर देखती और काफल के खट्टे-मीठे रसीले स्वाद की कल्पना करती। लेकिन उस आज्ञाकारी बिटिया ने एक भी काफल नहीं खाया। सोचा जब माँ आएगी तब खाएंगे।
आखिरकार शाम को माँ लौटी, तो बच्ची दौड़ के माँ के पास गई और बोली- माँ.. माँ.. अब काफल खाएं?
माँ बोली- थोडा साँस तो लेने दे छोरी..।
फिर माँ ने काफल की टोकरी निकाली।  उसका कपड़ा उठाकर देखा..
अरे ! ये क्या ? काफल कम कैसे हुए ? तूने खाये क्या ?
नहीं माँमैंने तो एक भी नहीं चखा..।
जेठ की तपती दुपहरी में माँ का दिमाग पहले ही गर्म हो रखा था। भूख और तड़के उठकर लगातार काम करने की थकान से कुपित माँ को बच्ची की बात को झूठ समझकर गुस्सा आ गया। माँ ने ज़ोर से एक झांपड़ बच्ची को दे मारा।
उस अप्रत्याशित वार के सिर पर लगने से बच्‍ची तड़प के नीचे गिर गई, और "मैंने नहीं चखे माँ" कहते हुए उसके प्राण पखेरू उड़ गए !
अब माँ का क्षणिक आक्रोश जब उतरा, वह होश में आई, तो अपने किए पर पच्‍छतावा करते हुए बच्ची को गोद में लेकर प्रलाप करने लगी। ये क्या हो गया। वह बच्‍ची ही तो उस दुखियारी का एक मात्र सहारा था। उसे भी अपने ही हाथ से खत्म कर दिया!! वो भी तुच्छ काफल की खातिर। आखिर लायी किस के लिए थी! उसी बेटी के लिये ही तो.. तो क्या हुआ था जो उसने थोड़े खा भी लिए थे।
माँ ने गुस्‍से में ही काफल की टोकरी उठाकर बाहर फेंक दी। बेटी की याद में वह रातभर बिलखती रही।
दरअसल जेठ की गर्म हवा से काफल कुम्हला कर थोड़े कम हो गए थे। रातभर बाहर ठंडी व नम हवा में पड़े रहने से वे सुबह फिर से खिल गए, और टोकरी फिर से पूरी भरी दिखी। अब माँ की समझ में आयाऔर रोती पीटती वह भी मर गयी।
लोकजीवन में कहते हैं, कि मृत्‍यु के बाद वह दोनों ने पक्षी के रुप में नया जन्‍म लिया।
और... जब भी हरसाल 'काफल' पकते, तो एक पक्षी बड़े करुण भाव से गाता है "काफल पाको! मिन नि चाखो" (काफल पके हैंपर मैंने नहीं चखे हैं)।
..तो तभी दूसरा पक्षी चीत्कार उठता है "पुर पुतई पूर पूर" (पूरे हैं बेटी पूरे हैं) !!!




लोकजीवन की कथाओं से साभार

16 August, 2016

सामयिक गीतों से दिलों में बसे 'नेगी'

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     अप्रतिम लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के उत्तराखंड से लेकर देश दुनिया में चमकने के कई कारक माने जाते हैं. नेगी को गढ़वाली गीत संगीत के क्षितिज में लोकगायक जीत सिंह नेगी का पार्श्व में जाने का भी बड़ा लाभ मिला. वहींमुंबईदिल्‍ली जैसे महानगरों में सांस्‍कृतिक कार्यक्रमों में सक्रियतासुरों की साधनासंगीत की समुचित शिक्षागीतों में लोकतत्‍व की प्रधानता जैसी कई बातों ने नरेंद्र सिंह नेगी को लोगों के दिलों में बसाया.
अपनी गायकी में संगीत के नियमों का पूरा अनुपालन का ही कारण हैकि उनके गीतों की धुनें न सिर्फ कर्णप्रिय रहीबल्कि वह अपने वैशिष्‍टय से भी भरपूर रहे हैं.
जब नरेंद्र सिंह नेगी आचंलिक संगीत के धरातल पर कदम रख ही रहे थेतो सी दौर में टेप रिकॉर्डर के साथ ऑडियो कैसेट इंडस्‍ट्री में भी क्रान्ति शुरू हुई. जिसकी बदौलत जहां तहां बिखरे पर्वतजनों को अपने लोक के संगीत की आसान उपलब्‍धता सुनिश्चित हुई. उन्‍हें नरेंद्र सिंह नेगी सरीखे गायकों के गीतों को सुनने के अवसर मिल गये. ऑडियो कैसेट इंडस्‍ट्री के विकास से आंचलिक गायकों के बीच प्रतिस्‍पर्धा भी बढ़ी. जिसमें नेगी अपने सर्वोत्‍तम योगदान के कारण खासे सफल रहे. वह इस प्रतिस्‍पर्धा में हीरे की मानिंद चमके.
आंचलिक गीत संगीत में नरेंद्र सिंह नेगी की कामयाबी में उनकी साहित्यिक समझ ने भी बड़ा रोल अदा किया. वह स्‍वयं को भी एक लोकगायक से पहले गीतकार ही मानते रहे हैं. गीतों में कविता की मौजूदगी का असर उन्‍हें लोगों के और करीब ले गया. इससे उनके गीतों में सामयिक विषय भी खूब उभरे. यह गुण हर कलाकार को लोक से जुड़ने में सबसे अधिक सहायक सिद्ध होता है.
प्रारंभिक दौर में उनका गाया गीत 'ऊंचा निसा डांडो मांटेढ़ा मेढ़ा बाटों माचलि भै मोटर चलि ... को खूब पसंद किया गया.  उस वक्‍त पहाड़ों में पब्लिक ट्रांसपोर्ट के हालात बुरे थे. बसों में सफर करने के लोगों के भी अपने ही तौर तरीके थे. उन्‍हीं अनुभवों को समेटे इस गीत ने हर व्‍यक्ति के मन को छुआ. मौजूदा दौर में भी कमोबेश पहाड़ों की यात्रा करते हुए पब्लिक ट्रांसपोर्ट के अनुभव ऐसे ही हैं. गीतों में इसी तरह सामयिक विषयों के चुनाव ने नेगी को पर्वतजनों ही नहीं बल्कि गैर पहाड़ी समाज में भी पहचान दी.
वहींब्रिटिश काल से ही पहाड़ों में वनों के दोहन हेतू जंगलों का प्रान्तीयकरण करना शुरू कर दिया था. भारतीय सरकारों ने भी ब्रिटिश नीति को ही आगे बढ़ाया. अपने जंगल जब सरकारी होने लगे तो इस अधिनियम की सबसे बड़ी मार पहाड़ की महिलाओं को सहनी पड़ी. जिन्हें चारा और जलावन लकड़ी के लिए हर रोज संघर्ष करना पड़ा. ढाई सौ वर्षों से आज तक पहाड़ी महिलाएं आज तक सरकारी नीतियों के कारण जूझ रही हैं. जलजंगल, जमीन की समस्‍या को संवेदनशील जनकवि नरेंद्र सिंह नेगी ने बखूबी समझाऔर उसे अपने गीत का तानाबाना बनाया. इस गीत '' बण भी सरकारी तेरो मन भी सरकारीतिन क्या समझण हम लोगूं कि खैरिआण नि देंदी तू सरकारी बौण ... गोर भैंस्युं मिन क्या खलाण '' नेगी को स्‍वत: ही महिलाओं से जोड़ दिया.
पलायन के कारण अपनी धरती से दूर प्रत्येक मनुष्य जड़ों को खोजता हैअपने इतिहास को खोजना उसकी विडम्बना बन जाती है. इसी जनभावना को नेगी ने समझा. तभी उनकी गायकी में 'बावन गढ़ों  को देश मेरो गढवालउभरा. आज भी गढ़वाल हो या विशाखापत्‍तनम आपको प्रवासियों को नेगी के गीत बावन गढ़ो को देस...सुनने को मिल जाएगा.
गैरसैण को उत्‍तराखंड की राजधानी बनाना पर्वतीय समाज के लिए भावुकता पूर्ण विषय है. मगरइसके निर्माण में सरकारों की हीलाहवाली से पहाडि़यों की भावनाओं का आदर नहीं हुआ. नरेंद्र सिंह नेगी ने इस भावना को भी बखूबी समझा. और तब जन्‍मा '' तुम भि सुणा मिन सुणियालि गढ़वाल ना कुमौं जालि... उत्तरखंडै राजधानी... बल देहरादून रालिदीक्षित आयोगन बोल्यालि... ऊंन बोलण छौ बोल्यालि हमन सुणन छौ सुण्यालि...'' एक और सामयिक गीत.
उत्तराखंड में नारायण दत्त तिवारी के मुख्यमंत्रीत्व काल में श्रृंगार रस की जो नदी बहीवह आम जनता को अभी भी याद है. आमजन के दिलों की आवाज को पहचाने में नेगी को महारत हासिल रही है. तभी तो 'नौछमी नारयणजैसा कालजयी गीत रचा गया. जिसने सरकार की नींव को ही हिलाकर रख दिया था. इस गीत ने रचनाकारों को सामयिक विषयों की ताकत को बताया.
ऐसे ही एक और गीत अब कथगा खैल्‍यो रे...ने भी सत्‍ता के गलियारों में भूचाल लाया. कविगीतकार नेगी ने इस गीत के जरिए राजनीति में भ्रष्‍टाचार की परतों को बखूबी उघाड़ा. आमजन केवल दूसरों पर व्यंग्य ही पसंद नहीं करताबल्कि खुद को भी आइने में देखना चाहता है. नरेंद्र सिंह नेगी का सामयिक गीत 'मुझको  पहाड़ी मत बोलो मैं देहरादूण वाला हूं..उतना ही प्रसिद्ध हुआ जितना कि नौछमी नारेण और अब कथगा खैल्‍यो रे जैसा खिल्‍ली उड़ाने वाले गीत.
मेरी दृष्टी में श्री नरेंद्र सिंह नेगी की प्रसिद्धि  में जितना योगदान उनके सुरीले गले, संगीत में महारथसाहित्‍यकार प्रतिभा का हैउससे कहीं अधिक उनका समाज की हर नब्‍ज को पहचान कर उन्‍हें गीतों में समाहित करने का है. जिसके कारण वह मातृशक्ति युवाशक्ति के साथ ही आयु वर्ग और समाज से जुडे़.

आलेख- भीष्‍म कुकरेती

10 August, 2016

सिल्‍वर स्‍क्रीन पर उभरीं अवैध खनन की परतें

फिल्म समीक्षा
गढ़वाली फीचर फिल्म
उत्तराखंड में अवैध खननसिर्फ राजनीतिक मुद्दा भर नहीं है। बल्कि, यह पहाड़ों, नदियों, गाड-गदेरों की नैसर्गिक संरचना और परिस्थितिकीय तंत्र में बदलाव की चिंताओं का विषय भी है। लिहाजा, ऐसे मुद्दे को व्यापक रिसर्च के बिना ही रूपहले फिल्मी परदे पर उतारना आसान नहीं। हालिया रिलीज गढ़वाली फीचर फिल्म भुली ऐ भुलीके साथ ही यही हुआ है।
बहन के प्रति भाई का भावुक प्रेम और नेता-माफियातंत्र में जकड़ा अवैध खनन फिल्म की कहानी के दो छोर हैं। रियल ग्राउंड पर स्वामी निगमानंद, स्वामी शिवानंद और मलेथा की महिलाओं के आंदोलन के बतर्ज नायक इंस्पेक्टर सूरजमाफिया से अपने हिस्से की जंग लड़ता है, और जीतता भी है। मगर, तब भी फिल्म खननका दंश झेलते इस राज्य के सच को फौरी चर्चासे आगे नहीं बढ़ा पाती है।
वैष्णवी मोशन पिक्चर्स के बैनर पर बतौर निर्माता ज्योति एन खन्ना की पहली आंचलिक फिल्म भुली ऐ भुलीमें खनन के विस्फोट में मां-बाप को खोने के बाद सौतेली बहन चंदा (प्रियंका रावत) की जिम्मेदारी सूरज (बलदेव राणा) के कंधों पर आ जाती है। जिससे वह अगाध प्रेम करता है। उनके बीच प्रेम के इस धागे को सूरज की पत्नी सुषमा (गीता उनियाल) भी मजबूत रखती है। वहीं, सूरज अपने प्रेरणा पुरुष सकलानी (राकेश गौड़) की सलाह पर मेहनत और लगन के बूते पुलिस इंस्पेक्टर बनकर अवैध खननको खत्म करने का संकल्प भी लेता है। नतीजा, खनन माफिया कृपाराम (रमेश रावत) की तकलीफें बढ़ जाती हैं।
... और फिर चलता है दोनों के बीच शह-मात का खेल। कृपाराम सूरज पर नकेल कसने के लिए मंत्रीके साथ अपने भांजे जसबीर (अतुल रावत) का सहारा लेता है। कृपाराम के षडयंत्र से जसबीर और चंदा आपस में एक दूजे के तो हो जाते हैं, लेकिन यह राज ज्यादा दिन नहीं छुपता। खनन के खेल और कृपाराम से जसबीर के संबंध, भाई (सूरज) पर आत्मघाती हमले की क्लिप उसके दिमागी संतुलन को बिगाड़ देते है। चंदा (भुली) की कुशलता के लिए सूरज सब उपाय करता है। असलियत सामने आने पर वह कृपाराम के विरूद्ध आखिरी मोर्चा खोलता है, और इस जीत के बाद भाई-भुलीके संसार में एकबार फिर से खुशियां लौट आती हैं।
निर्देशक नरेश खन्ना ने ही भुली ऐ भुलीकी कथा-पटकथा भी लिखी है। जिसपर काफी हद तक रूटीन हिंदी फिल्मों की छाप दिखती है। रीमेकजैसे स्क्रीनप्ले में अवैध खननका ज्वलंत मसला गंभीर विमर्श की बजाय माफिया कृपाराम के हरम में नाचने वाली के ठुमकेतक सिमटा सा लगता है। फाइट सीन्स में सह कलाकारों के चेहरे पर हंसीफिल्मांकन की कमियों को उजागर करती हैं। गणेश वीरानके लिखे संवाद भी फीके से लगते हैं।
आंचलिक फिल्मों में बतौर खलनायक चर्चित अभिनेता बलदेव राणा फिल्म चक्रचालके बाद एकबार फिर भुली ऐ भुलीमें नायकबनें हैं। पुलिस इंस्पेक्टर का गेटअप उनपर खूब फबता है। मगर, कई जगह उनके अभिनय पर खलनायकही हावी दिखता है। अपनी पहली ही फीचर फिल्म में रमेश रावत विलेन के किरदार में दमदार रहे हैं। वह पूरी फिल्म पर हावी दिखते हैं। प्रियंका रावत का चुलबुलापन और बच्चों संग मस्ती अच्छी लगती है। गीता उनियाल, राजेश यादव, राकेश गौड़ ने भी खुद को साबित किया है। बच्चों के किरदारों में बाल कलाकार उम्मीदें जगाते हैं। संजय कुमोला का संगीत और विक्रम कप्रवाण के गीत ठीकठाक है।
रुद्र्रप्रयाग, टिहरी, श्रीनगर आदि की मनोहारी लोकेशंस पर बेहतर सिनेमेटोग्राफी की बदौलत फिल्म खूबसूरत होकर उभरी है। हां, स्पॉट रिकॉर्डिंग ने जरूर मजा किरकिरा भी किया है। कुल जमा भुली ऐ भुलीजहां भाई बहन के बीच कई भावुक सीन से दर्शकों को बांधे रखती है। वहीं, कामचलाऊ स्क्रिप्ट राइटिंग, संवाद, तकनीकी खामियां उसकी रेटिंग कम भी करते हैं। खनन के खेलमें नौकरशाहों के तीसरे कोण को क्यों नहीं छुआ गया, यह सवाल अनुत्तरित ही रह गया। बावजूद, ‘भुली ऐ भुलीआंचलिक सिनेमा के भविष्य के प्रति कुछ आश्वस्त जरूर करती है।

समीक्षक- धनेश कोठारी

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