28 January, 2011
27 January, 2011
26 January, 2011
25 January, 2011
21 January, 2011
गैरसैंण जनता खुणि चुसणा च
जब बिटेन उत्तराखंड अन्दोलनै पवाण लग अर राज्यौ राजधनी छ्वीं लगी होली त गैरसैंण कु इ नाम गणेंगे। गैरसैंण राजधानी त नि बौण सौक। पण, कथगों खुणि गैरसैंण भौत कुछ च। म्यार दिखण मा त हैंको जलम तक गैरसैंण सब्युं खुणि कुछ ना कुछ त रालों इ।
उत्तराखंड क्रान्ति दलौ (उक्रांद) कुण त गैरसैंण बिजणै दवा च, दारु च, इंजेक्सन च। गैरसैंण उक्रान्दौ आँख उफर्ने पाणि छींटा च, गैरसैंण उक्रान्दौ की निंद बर्र से बिजाळणे बान कंडाल़ो झुप्पा च, घच्का च। कत्ति त बुल्दन बल गैरसैंण आईसीयू च। ज्यूंद रौणे एकी दवा च। गैरसैंण नामै या दवा नि ह्वाऊ त उक्रांद कि कै दिन डंड़ोळी सजी जांदी। गैरसैंण उक्राँदै खुणि कृत्रिम सांसौ बान ऑक्सीजन च। दिवाकर भट्ट जन नेता कुण गैरसैंण अपण दगड्या, अपण बोटरूं, जनता, तै बेळमाणो ढोल च, दमौ च, मुसक्बाज च। दिवाकर भट्ट जन नेतौं कुण सब्युं तैं बेवकूफ बणाणो माध्यम च गैरसैंण।
उत्तराखंड मा नै राजकरण्या (राजनैतिक) पार्टी कुणि गैरसैंण राजकरणि क थौळ मा आणो कुणि कंधा च, सीडी च, खाम च, पुळ च, भुम्या च, भैरब च अर जनी काम निकळीगे तन्नी गैरसैंण तैं गैरो गदन मा दफनै जालो। जब दिल्ली या मुंबई सरीखा जगा बिटेन उत्तराखंड क बान नै राजकरण्या पार्टी बणाण ह्वाऊ त गैरसैंण दगड पल्लाबंद करण मा शरम ल्याज क्येकी ? उत्तराखंड का राष्ट्रीय अर प्रांतीय अखब़ारूं कुणि गैरसैंण की खबर क्वी खबर नी च, बस कखिम भितर खज्जी, बबासीर कि दवा क विज्ञापन नि मिलन त वीं जगा मा गैरसैण अखबरूं मा छपे जांद। अड़गें (स्थानीय, आंचलिक) अखब़ारूं सम्पद्कुं, लिख्व्वारूं खुणि गैरसैंण बाछी क काँध च। जब क्वी काम नि ह्वाऊ त बाछी क काँध मलासी द्याओ।
पहाड़ी बुद्धिजीव्युं जु पहाड़ मा ह्वावन या उत्तराखंड से दूर दिल्ली, चंडीगढ़, मुंबई, या फार अमेरिका, कनाडा मा ह्वावन ऊं बुद्धिजीव्युं कुण मगज शांत करणो बान या समौ बितौणो, टैम पास करणो बान गैरसैंण तास कि गडि च, चौपड़ च, खेल च। अफु तैं अफिक बौगाणो बान खिल्वणि च। कांगेसी या भारतीय जनता पार्टी वलूँ कुण गैरसैंण कि अवाज पहाडी जनता की अवाज नी च, बलकण मा कै ख्ज्जी से त्रस्त-परेसान, लंडेर कुकुर की अवाज च अर इन अवाज पर टक्क लगाण या ध्यान दीण राजनीती मा बेवकूफी माने जांद। जनता त राजनीती वलूं दियुं चुसणा तैं इलै चुस्णी च बल सैत च ये चुसणा मा दूध हो।
Copyright@ Bhishma Kukreti
उत्तराखंड क्रान्ति दलौ (उक्रांद) कुण त गैरसैंण बिजणै दवा च, दारु च, इंजेक्सन च। गैरसैंण उक्रान्दौ आँख उफर्ने पाणि छींटा च, गैरसैंण उक्रान्दौ की निंद बर्र से बिजाळणे बान कंडाल़ो झुप्पा च, घच्का च। कत्ति त बुल्दन बल गैरसैंण आईसीयू च। ज्यूंद रौणे एकी दवा च। गैरसैंण नामै या दवा नि ह्वाऊ त उक्रांद कि कै दिन डंड़ोळी सजी जांदी। गैरसैंण उक्राँदै खुणि कृत्रिम सांसौ बान ऑक्सीजन च। दिवाकर भट्ट जन नेता कुण गैरसैंण अपण दगड्या, अपण बोटरूं, जनता, तै बेळमाणो ढोल च, दमौ च, मुसक्बाज च। दिवाकर भट्ट जन नेतौं कुण सब्युं तैं बेवकूफ बणाणो माध्यम च गैरसैंण।
उत्तराखंड मा नै राजकरण्या (राजनैतिक) पार्टी कुणि गैरसैंण राजकरणि क थौळ मा आणो कुणि कंधा च, सीडी च, खाम च, पुळ च, भुम्या च, भैरब च अर जनी काम निकळीगे तन्नी गैरसैंण तैं गैरो गदन मा दफनै जालो। जब दिल्ली या मुंबई सरीखा जगा बिटेन उत्तराखंड क बान नै राजकरण्या पार्टी बणाण ह्वाऊ त गैरसैंण दगड पल्लाबंद करण मा शरम ल्याज क्येकी ? उत्तराखंड का राष्ट्रीय अर प्रांतीय अखब़ारूं कुणि गैरसैंण की खबर क्वी खबर नी च, बस कखिम भितर खज्जी, बबासीर कि दवा क विज्ञापन नि मिलन त वीं जगा मा गैरसैण अखबरूं मा छपे जांद। अड़गें (स्थानीय, आंचलिक) अखब़ारूं सम्पद्कुं, लिख्व्वारूं खुणि गैरसैंण बाछी क काँध च। जब क्वी काम नि ह्वाऊ त बाछी क काँध मलासी द्याओ।
पहाड़ी बुद्धिजीव्युं जु पहाड़ मा ह्वावन या उत्तराखंड से दूर दिल्ली, चंडीगढ़, मुंबई, या फार अमेरिका, कनाडा मा ह्वावन ऊं बुद्धिजीव्युं कुण मगज शांत करणो बान या समौ बितौणो, टैम पास करणो बान गैरसैंण तास कि गडि च, चौपड़ च, खेल च। अफु तैं अफिक बौगाणो बान खिल्वणि च। कांगेसी या भारतीय जनता पार्टी वलूँ कुण गैरसैंण कि अवाज पहाडी जनता की अवाज नी च, बलकण मा कै ख्ज्जी से त्रस्त-परेसान, लंडेर कुकुर की अवाज च अर इन अवाज पर टक्क लगाण या ध्यान दीण राजनीती मा बेवकूफी माने जांद। जनता त राजनीती वलूं दियुं चुसणा तैं इलै चुस्णी च बल सैत च ये चुसणा मा दूध हो।
Copyright@ Bhishma Kukreti
न्युतो
दगड्यों!
पैथ्राक दस सालों बटि नामी-गिरामी चिट्ठी-पतरी(गढ़वळी पत्रिका) कि गढ़वळी भाषै बढ़ोत्तरी मा भौत बड़ी मिळवाक च। यीं पतड़ीन् गढ़वळी साहित्य संबन्धी कथगा इ ख़ास सोळी(विशेषांक) छापिन्। जनकि लोकगीत, लोककथा, स्वांग(नाटक), अबोधबंधु बहुगुणा, कन्हैयालाल डंडरियाल, भजनसिंह ’सिंह’, नामी स्वांग लिखनेर(लिख्वार) ललितमोहन थपलियाळ पर खास सोळी (विशेषांक) उल्लेखनीय छन। पत्रिका कू एक हौर पीठ थप थप्यौण्या पर्यास गढ़वळी कविता पर खास सोळी च। जैं सोळी मा १२३ कवियुं कि १४३ कविता छपेन्। दगड़ मा एक भौत बड़ी किताब बि छप्याणि च जख मा सन १७०० से लेकी २०११ तक का हरेक कवि की कविता त छपेली ई दगड़ मा गढ़वळी कविता कू पुराण इतियास बि शामिल होलू।
अग्वाड़ी (भविष्य मा) आपै अपणि "चिट्ठी पतरी" कि मन्शा गढ़वळी कथा-सोळी(विशेषांक) छापणै च। इख्मा आपौ सौ-सय्कार(सहकार) मिळवाक चयाणि च। आपसे हथजुड़े च बल ईं ख़ास सोळी क बान बन्नि-बन्नि कथा भ्याजो जी! कथा क विष्यूं मा श्रृंगार (प्रेम, विच्छोह, काम (erotika), समाज विद्रोही प्रेम, प्रेम मा टूटन, तलाक, ब्यौ पैथरां प्रेम संबन्ध(विवाहेत्तर प्रेम), बाळकथा, जात्रा संस्मरण, समळौण(संस्मरण), जासूसी, सल्ली-पट्टी(विज्ञानं अर तकनीक), मिथक, उद्योंगुं बढ़ण से समाज मा बदलौ अर वांको असर, पलायन सम्बन्धी, प्रवाशी गढ़वाल्यूं कू सुख-दुःख, गौं-गौळ मा राजनीतिक/समाजिक अनाचार, भ्रष्टाचार, विकाश (जनकि रस्ता बणण, पाणि, बिजली आण से कुछ नयो घटण, गौं-गौळ नई पाळी (घटक, समीकरण) को जनम होण)। सामजिक आदि विशयूं पर बीर, शांत, रौद्र, घृणा रस, कळकळी (करूण रस) हंसौडि, चाबोड्या-च्खन्युरि (व्यंग्यात्मक), धार्मिक, रोष कि कथा, खौंल्य़ाण(आश्चर्य ) वली कथा आदि। हौरि बि जनकि, रौन्सदार कथा, दुबारो जनम कि कथा, शिल्पकारूं/ जनान्यूं संबन्धी कथा आदि। बकै आप तैं जु सै लगद।
Dear all,
Chitthi Patri a representative magazine of Gadhwali language is bringing a special issue on Gahdwali Stories. You are requested to post your contribution on various subjects to-
Shri Madan Duklan (chief editor)
Chitthi Patri
16 A rakhsapuram (Ladpur )
P.O Raipur
Dehradun -248008
Contact - 0941299417
Email- m_duklan@yahoo.com
Or
Bhishma kukreti
(Coordinating editor)
17 Garhwal darshan, natwar nagar road -1
Jogeshwari east
Mumbai 400060
Contact- 09920066774
14 January, 2011
गढवाल में मकरैण (मकर संक्रांति) और गेंद का मेला
गंगासलाण याने लंगूर, ढांगु, डबरालस्युं, उदयपुर, अजमेर में मकरसंक्रांति का कुछ अधिक ही महत्व है। सेख या पूस के मासांत के दिन इस क्षेत्र में दोपहर से पहले कई गाँव वाले मिलकर एक स्थान पर हिंगोड़ खेलते हैं। हिंगोड़ हॉकी जैसा खेल है। खेल में बांस कि हॉकी जैसी स्टिक होती है तो गेंद कपड़े कि होती है। मेले के स्थान पर मेला अपने आप उमड़ जाता है। क्योंकि सैकड़ो लोग इसमें भाग लेते हैं। शाम को हथगिंदी (चमड़े की) की क्षेत्रीय प्रतियोगिता होती है और यह हथगिंदी का खेल रात तक चलता है हथगिंदी कुछ-कुछ रग्बी जैसा होता है। पूर्व में हर पट्टी में दसेक जगह ऐसे मेले सेख के दिन होते थे। सेख की रात को लोग स्वाळ पकोड़ी बनाते हैं और इसी के साथ मकर संक्रांति की शुरुआत हो जाती है। मकर संक्रांति की सुबह भी स्वाळ पकोड़ी बनाये जाते हैं। दिन में खिचड़ी बनाई जाती है व तिल गुड़ भी खाया जाता है। इस दिन स्नान का भी महत्व है।
इस दिन गंगा स्नान के लिए लोग देवप्रयाग, ब्यास चट्टी, महादेव चट्टी, बंदर भेळ, गूलर गाड़, फूलचट्टी, ऋषिकेश या हरिद्वार जाते हैं। इन जगहों पर स्नान का धार्मिक महत्व है। गंगा सलाण में संक्रांति के दिन कटघर, थलनदी, देवीखेत व डाडामंडी में हथगिंदी की प्रतियोगिता होती है। इस दिन यहां मेला लगता है। कटघर में ढांगु व उदयपुर वासियों के बीच व थलनदी में उदयपुर व अजमेर पट्टी के मध्य, देवीखेत में डबरालस्यूं के दो भागों के मध्य व डाडामंडी में लंगूर पट्टी के दो भागों के मध्य हथगिंदी की प्रतियोगिता होती है। गेंद के मेले में धार्मिक भावना भी सम्पूर्ण रूप से निहित है। सभी जगहों पर देवी व भैरव कि पूजा की जाती है।
इस दिन खेल के लिए चमड़े की गेंद बनायी जाती है। जिस पर पकड़ने हेतु कंगड़ें बने होते हैं। इस गेंद को शिल्पकार ही बनाना जानते हैं। दोपहर तक गाँवों से सभी लोग अपने-अपने औजियों, मंगलेरों, खिलाडियों व दर्शकों के साथ तलहटियों में गेंद मेले के स्थान पर पहुँच जाते है। देवी, भैरव, देवपूजन के साथ गेंद का मेला शुरू होता है। प्रतियोगिता का सरल नियम है कि गेंद को अपने पाले में स्वतंत्र रूप से ल़े जाना होता है। जो गेंद को स्वतंत्र रूप से अपने गधेरे में ल़े जाय वही पट्टी जीतती है। गेंद पर दसियों सैक्दाक लोग पिलच पड़ते हैं और गेंद लोगों के बीच ही दबी रहती है। कई बार गेंद के एक-एक इंच सरकने में घंटो लग जाते हैं अधिकतर यह देखा जाता है कि देर रात तक भी कोई जीत नहीं पता है। जीतने वाले को बहुत इनाम मिलता है। यदि निर्णय नहीं हुआ तो गेंद को मिटटी में दबा दिया जाता है।
इसी दौरान मेले में रौनक भी बढ़ती रहती है। दास/औजी पांडव शैली में ढोल दमौं बजाते हैं। लोग पांडव, कैंतुरा, नरसिंह (वीर रस के नृत्य) नाचते हैं। मंगल़ेर मांगल (पारंपरिक गीत) लगाते हैं। बादी ढ्वलकी गहराते हैं और टाल में बादण नाचती हैं। लोग झूमते हुए उन्हें इनाम देते रहते हैं। कहीं पुछेर या बाक्की बाक बोलते हैं। कहीं छाया पूजन भी होता है। तो कहीं रखवाळी भी होती रहती है। मेले में मिठाई, खिलोनों की खरीदारी होती है। पुराने ज़माने में तो जलेबी मिठाईयों कि राणी बनी रहती थी। बकरे कटते थे और शराब का प्रचलन तो चालीस साल पहले भी था अब तो ...... गेंद के मेलों में बादी-बादण के गीत प्रसिद्ध थे। मटियाली कालेज के प्रधानाध्यापक श्री पीताम्बर दत्त देवरानी व श्री शिवानन्द नौटियाल द्वारा संकलित एक लोकगीत जो गेंद के मेलों अधिक प्रचलित था-
चरखी टूटी जाली गोविंदी ना बैठ चरखी मा
चरखी मा त्यारो जिठाणो गोविंदी ना बैठ चरखी मा
ना बैठ ना बैठ गोविंदी ना बैठ चरखी मा
पाणि च गरम गोविंदी ना बैठ चरखी मा
त्वेकू नि च शरम गोविंदी ना बैठ चरखी मा
मरे जालो मैर गोविंदी ना बैठ चरखी मा
मरण कि च डौर गोविंदी ना बैठ चरखी मा
ताल की कुखडी गोविंदी ना बैठ चरखी मा
तेरी दिखेली मुखडी गोविंदी ना बैठ चरखी मा
खेली जाला तास गोविंदी ना बैठ चरखी मा
शरील च उदास गोविंदी ना बैठ चरखी मा गोविंदी ना बैठ चरखी मा॥
इस तरह गेंद के मेलों में उत्साह, उमंग एक दुसरे से मिलना सभी कुछ होता था।
Copyright @ Bhishma Kukreti
इस दिन गंगा स्नान के लिए लोग देवप्रयाग, ब्यास चट्टी, महादेव चट्टी, बंदर भेळ, गूलर गाड़, फूलचट्टी, ऋषिकेश या हरिद्वार जाते हैं। इन जगहों पर स्नान का धार्मिक महत्व है। गंगा सलाण में संक्रांति के दिन कटघर, थलनदी, देवीखेत व डाडामंडी में हथगिंदी की प्रतियोगिता होती है। इस दिन यहां मेला लगता है। कटघर में ढांगु व उदयपुर वासियों के बीच व थलनदी में उदयपुर व अजमेर पट्टी के मध्य, देवीखेत में डबरालस्यूं के दो भागों के मध्य व डाडामंडी में लंगूर पट्टी के दो भागों के मध्य हथगिंदी की प्रतियोगिता होती है। गेंद के मेले में धार्मिक भावना भी सम्पूर्ण रूप से निहित है। सभी जगहों पर देवी व भैरव कि पूजा की जाती है।
इस दिन खेल के लिए चमड़े की गेंद बनायी जाती है। जिस पर पकड़ने हेतु कंगड़ें बने होते हैं। इस गेंद को शिल्पकार ही बनाना जानते हैं। दोपहर तक गाँवों से सभी लोग अपने-अपने औजियों, मंगलेरों, खिलाडियों व दर्शकों के साथ तलहटियों में गेंद मेले के स्थान पर पहुँच जाते है। देवी, भैरव, देवपूजन के साथ गेंद का मेला शुरू होता है। प्रतियोगिता का सरल नियम है कि गेंद को अपने पाले में स्वतंत्र रूप से ल़े जाना होता है। जो गेंद को स्वतंत्र रूप से अपने गधेरे में ल़े जाय वही पट्टी जीतती है। गेंद पर दसियों सैक्दाक लोग पिलच पड़ते हैं और गेंद लोगों के बीच ही दबी रहती है। कई बार गेंद के एक-एक इंच सरकने में घंटो लग जाते हैं अधिकतर यह देखा जाता है कि देर रात तक भी कोई जीत नहीं पता है। जीतने वाले को बहुत इनाम मिलता है। यदि निर्णय नहीं हुआ तो गेंद को मिटटी में दबा दिया जाता है।
इसी दौरान मेले में रौनक भी बढ़ती रहती है। दास/औजी पांडव शैली में ढोल दमौं बजाते हैं। लोग पांडव, कैंतुरा, नरसिंह (वीर रस के नृत्य) नाचते हैं। मंगल़ेर मांगल (पारंपरिक गीत) लगाते हैं। बादी ढ्वलकी गहराते हैं और टाल में बादण नाचती हैं। लोग झूमते हुए उन्हें इनाम देते रहते हैं। कहीं पुछेर या बाक्की बाक बोलते हैं। कहीं छाया पूजन भी होता है। तो कहीं रखवाळी भी होती रहती है। मेले में मिठाई, खिलोनों की खरीदारी होती है। पुराने ज़माने में तो जलेबी मिठाईयों कि राणी बनी रहती थी। बकरे कटते थे और शराब का प्रचलन तो चालीस साल पहले भी था अब तो ...... गेंद के मेलों में बादी-बादण के गीत प्रसिद्ध थे। मटियाली कालेज के प्रधानाध्यापक श्री पीताम्बर दत्त देवरानी व श्री शिवानन्द नौटियाल द्वारा संकलित एक लोकगीत जो गेंद के मेलों अधिक प्रचलित था-
चरखी टूटी जाली गोविंदी ना बैठ चरखी मा
चरखी मा त्यारो जिठाणो गोविंदी ना बैठ चरखी मा
ना बैठ ना बैठ गोविंदी ना बैठ चरखी मा
पाणि च गरम गोविंदी ना बैठ चरखी मा
त्वेकू नि च शरम गोविंदी ना बैठ चरखी मा
मरे जालो मैर गोविंदी ना बैठ चरखी मा
मरण कि च डौर गोविंदी ना बैठ चरखी मा
ताल की कुखडी गोविंदी ना बैठ चरखी मा
तेरी दिखेली मुखडी गोविंदी ना बैठ चरखी मा
खेली जाला तास गोविंदी ना बैठ चरखी मा
शरील च उदास गोविंदी ना बैठ चरखी मा गोविंदी ना बैठ चरखी मा॥
इस तरह गेंद के मेलों में उत्साह, उमंग एक दुसरे से मिलना सभी कुछ होता था।
Copyright @ Bhishma Kukreti
12 January, 2011
क्या नपुंसकों की फ़ौज गढ़वाली साहित्य रच रही है ?
भीष्म कुकरेती
जो जीवविज्ञान की थोड़ी बहुत जानकारी रखते हैं वे जानते हैं कि, जीव-जंतुओं में पुरुष कि भूमिका एकांस ही होती है, और वास्तव में पुरुष सभी बनस्पतियों, जानवरों व मनुष्यों में नपुंसक के निकटतम होता है। एक पुरुष व सोलह हजार स्त्रियों से मानव सभ्यता आगे बढ़ सकती है। किन्तु दस स्त्रियाँ व हजार पुरुष से मानव सभ्यता आगे नहीं बढ़ सकती है। पुरुष वास्तव में नपुंसक ही होता है, और यही कारण है कि, उसने अपनी नपुंसकता छुपाने हेतु अहम का सहारा लिया और देश, धर्म(पंथ), जातीय, रंगों, प्रान्त, जिला, भाषाई रेखाओं से मनुष्य को बाँट दिया है। यदि हम आधुनिक गढ़वाली साहित्य कि बात करें तो पायेंगे कि आधुनिक साहित्य गढ़वाली समाज को किंचित भी प्रभावित नहीं कर पाया है। गढ़वालियों को आधुनिक साहित्य की आवश्यकता ही नहीं पड़ रही है। तो इसका एक मुख्य करण साहित्यकार ही है।
जो ऐसा साहित्य सर्जन ही नहीं कर पाया की गढ़वाल में बसने वाले और प्रवासी गढ़वाली उस साहित्य को पढने को मजबूर हो जाय। वास्तव में यदि हम मूल में जाएँ तो पाएंगे कि गढवाली साहित्य रचनाकारों ने पौरुषीय रचनायें पाठकों को दी और पौरुषीय रचना हमेशा ही नपुंसकता के निकट ही होती है। एक उदारहण ले लीजिये कि जब गढ़वाल में "ए ज्योरू मीन दिल्ली जाण" जैसा लोकगीत जनमानस में बैठ रहा था। तो हमारे गढ़वाली भाषा के साहित्यकार पलायन कि विभीषिका का रोना रो रहे थे। "ए ज्योरू मीन दिल्ली जाण" का रचनाकार स्त्री या शिल्पकार थे। जोकि जनमानस को समझते थे। किन्तु उस समय के गढवाली साहित्यकार उलटी गंगा बहा रहे थे।
स्व. कन्हैयालाल डंडरियाल जी को महाकवि का दर्जा दिया गया है। यदि उनके साहित्य को ठीक से पढ़ा जाय तो पाएंगे कि जिस साहित्य कि रचना उन्होंने स्त्रेन्य अंतर्मन से लिखा वह कालजयी है। किन्तु जो डंडरियाल जी ने पौरुषीय अंतर्मन से लिखा वह कालजय नहीं है। तुलसीदास, सूरदास को यदि सामान्य जन पढ़ता है या गुनता है तो उसका मुख्य कारण है कि उन्होंने स्त्रेन्य अंतर्मन से साहित्य रचा। बलदेव प्रसाद शर्मा ’दीन’ जी क़ी "रामी बौराणी" या जीतसिंह नेगी जी कि "तू होली बीरा" गीतों का आज लोकगीतों में सुमार होता है तो उसका एकमेव कारण है कि, ये गीत स्त्रेन्य अंतर्मन से लिखे गए हैं।
नरेन्द्र सिंह नेगी के वही गीत प्रसिद्ध हुए जिन्हें उन्होंने स्त्रेन्य अंतर्मन से रचा। जो भी गीत नेगी ने पौरुषीय अंतर्मन से रचे /गाये वे कम प्रसिद्ध हुए। उसका मुख्य कारण है कि, पौरुषीय अंतर्मन नपुन्सकीय ही होता है। जहाँ अभिमान आ जाता है वह पौरुषीय नहीं नपुंसकीय ही होता है। जहाँ गढ़वाल में "मैकू पाड़ नि दीण पिताजी" जैसे लोकगीत स्त्रियाँ या शिल्पकार रच रहे थे। वहीं हमारे साहित्यकार अहम के वशीभूत पहाड़ प्रेम आदि के गीत/कविता रच रहे थे। स्त्री अन्तर्मन से न रची जाने वाल़ी रचनायें जनमानस को उद्वेलित कर ही नहीं सकती हैं।
गढ़वाली में दसियों महिला साहित्यकार हुए हैं। किन्तु उन्होंने भी पौरुषीय अंतर्मन से गढ़वाली में रचनाये रचीं और वे भी गढ़वाली जनमानस को उद्वेलित कर पाने सर्वथा विफल रही हैं। मेरा मानना है कि जब तक आधुनिक गढ़वाली साहित्य लोक साहित्य को जनमानस से दूर करने में सफल नहीं होगा तब तक यह साहित्य पढ़ा ही नहीं जाएगा। इसके लिए रचनाकारों में स्त्री/ हरिजन/ शिल्पकार अंतर्मन होना आवश्यक है। न कि पौरुषीय अंतर्मन या नपुंसकीय अंतर्मन। स्त्रीय/ हरिजन/ शिल्पकार अंतर्मन जनमानस की सही भावनाओं को पहचानने में पूरा कामयाब होता है। किन्तु पौरुषीय अंतर्मन (जो कि वास्तव में नपुंसक ही होता है) जनमानस की भावनाओं को पहचानना तो दूर जन भावनाओं कि अवहेलना ही करता है।
जब कोई भी किसी भी प्रकार की रचना स्त्रेन्य अंतर्मन से रची जाय वह रचना पाठकों में ऊर्जा संप्रेषण करने में सफल होती है। वह रचना संभावनाओं को जन्म देती है। अतः गढ़वाली साहित्यकारों को चाहिए की अपनी स्त्रेन्य/ शिल्पकारी/ हरिजनी अंतर्मन की तलाश करें और उसी अंतर्मन से रचना रचें। हमारे गढ़वाली साहित्यकारों को ध्यान देना चाहिए कि सैकड़ों सालों से पंडित श्लोको से पूजा करते आये हैं और जनमानस इस साहित्य से किंचित भी प्रभावित नहीं हुआ। किन्तु शिल्पकारों/ हरिजनों/ दासों/ बादी/ ड़ळयों (जो बिट्ट नहीं थे) क़ी रचनाओं को जनमानस सहज ही अपनाता आया है। उसका एक ही कारण है, पंडिताई साहित्य पौरुषीय साहित्य है। किन्तु शिल्पकारों/ बादियों/ ड़लयों/ दासों का साहित्य स्त्रेन्य अंतर्मन से रचा गया है।
जो जीवविज्ञान की थोड़ी बहुत जानकारी रखते हैं वे जानते हैं कि, जीव-जंतुओं में पुरुष कि भूमिका एकांस ही होती है, और वास्तव में पुरुष सभी बनस्पतियों, जानवरों व मनुष्यों में नपुंसक के निकटतम होता है। एक पुरुष व सोलह हजार स्त्रियों से मानव सभ्यता आगे बढ़ सकती है। किन्तु दस स्त्रियाँ व हजार पुरुष से मानव सभ्यता आगे नहीं बढ़ सकती है। पुरुष वास्तव में नपुंसक ही होता है, और यही कारण है कि, उसने अपनी नपुंसकता छुपाने हेतु अहम का सहारा लिया और देश, धर्म(पंथ), जातीय, रंगों, प्रान्त, जिला, भाषाई रेखाओं से मनुष्य को बाँट दिया है। यदि हम आधुनिक गढ़वाली साहित्य कि बात करें तो पायेंगे कि आधुनिक साहित्य गढ़वाली समाज को किंचित भी प्रभावित नहीं कर पाया है। गढ़वालियों को आधुनिक साहित्य की आवश्यकता ही नहीं पड़ रही है। तो इसका एक मुख्य करण साहित्यकार ही है।
जो ऐसा साहित्य सर्जन ही नहीं कर पाया की गढ़वाल में बसने वाले और प्रवासी गढ़वाली उस साहित्य को पढने को मजबूर हो जाय। वास्तव में यदि हम मूल में जाएँ तो पाएंगे कि गढवाली साहित्य रचनाकारों ने पौरुषीय रचनायें पाठकों को दी और पौरुषीय रचना हमेशा ही नपुंसकता के निकट ही होती है। एक उदारहण ले लीजिये कि जब गढ़वाल में "ए ज्योरू मीन दिल्ली जाण" जैसा लोकगीत जनमानस में बैठ रहा था। तो हमारे गढ़वाली भाषा के साहित्यकार पलायन कि विभीषिका का रोना रो रहे थे। "ए ज्योरू मीन दिल्ली जाण" का रचनाकार स्त्री या शिल्पकार थे। जोकि जनमानस को समझते थे। किन्तु उस समय के गढवाली साहित्यकार उलटी गंगा बहा रहे थे।
स्व. कन्हैयालाल डंडरियाल जी को महाकवि का दर्जा दिया गया है। यदि उनके साहित्य को ठीक से पढ़ा जाय तो पाएंगे कि जिस साहित्य कि रचना उन्होंने स्त्रेन्य अंतर्मन से लिखा वह कालजयी है। किन्तु जो डंडरियाल जी ने पौरुषीय अंतर्मन से लिखा वह कालजय नहीं है। तुलसीदास, सूरदास को यदि सामान्य जन पढ़ता है या गुनता है तो उसका मुख्य कारण है कि उन्होंने स्त्रेन्य अंतर्मन से साहित्य रचा। बलदेव प्रसाद शर्मा ’दीन’ जी क़ी "रामी बौराणी" या जीतसिंह नेगी जी कि "तू होली बीरा" गीतों का आज लोकगीतों में सुमार होता है तो उसका एकमेव कारण है कि, ये गीत स्त्रेन्य अंतर्मन से लिखे गए हैं।
नरेन्द्र सिंह नेगी के वही गीत प्रसिद्ध हुए जिन्हें उन्होंने स्त्रेन्य अंतर्मन से रचा। जो भी गीत नेगी ने पौरुषीय अंतर्मन से रचे /गाये वे कम प्रसिद्ध हुए। उसका मुख्य कारण है कि, पौरुषीय अंतर्मन नपुन्सकीय ही होता है। जहाँ अभिमान आ जाता है वह पौरुषीय नहीं नपुंसकीय ही होता है। जहाँ गढ़वाल में "मैकू पाड़ नि दीण पिताजी" जैसे लोकगीत स्त्रियाँ या शिल्पकार रच रहे थे। वहीं हमारे साहित्यकार अहम के वशीभूत पहाड़ प्रेम आदि के गीत/कविता रच रहे थे। स्त्री अन्तर्मन से न रची जाने वाल़ी रचनायें जनमानस को उद्वेलित कर ही नहीं सकती हैं।
गढ़वाली में दसियों महिला साहित्यकार हुए हैं। किन्तु उन्होंने भी पौरुषीय अंतर्मन से गढ़वाली में रचनाये रचीं और वे भी गढ़वाली जनमानस को उद्वेलित कर पाने सर्वथा विफल रही हैं। मेरा मानना है कि जब तक आधुनिक गढ़वाली साहित्य लोक साहित्य को जनमानस से दूर करने में सफल नहीं होगा तब तक यह साहित्य पढ़ा ही नहीं जाएगा। इसके लिए रचनाकारों में स्त्री/ हरिजन/ शिल्पकार अंतर्मन होना आवश्यक है। न कि पौरुषीय अंतर्मन या नपुंसकीय अंतर्मन। स्त्रीय/ हरिजन/ शिल्पकार अंतर्मन जनमानस की सही भावनाओं को पहचानने में पूरा कामयाब होता है। किन्तु पौरुषीय अंतर्मन (जो कि वास्तव में नपुंसक ही होता है) जनमानस की भावनाओं को पहचानना तो दूर जन भावनाओं कि अवहेलना ही करता है।
जब कोई भी किसी भी प्रकार की रचना स्त्रेन्य अंतर्मन से रची जाय वह रचना पाठकों में ऊर्जा संप्रेषण करने में सफल होती है। वह रचना संभावनाओं को जन्म देती है। अतः गढ़वाली साहित्यकारों को चाहिए की अपनी स्त्रेन्य/ शिल्पकारी/ हरिजनी अंतर्मन की तलाश करें और उसी अंतर्मन से रचना रचें। हमारे गढ़वाली साहित्यकारों को ध्यान देना चाहिए कि सैकड़ों सालों से पंडित श्लोको से पूजा करते आये हैं और जनमानस इस साहित्य से किंचित भी प्रभावित नहीं हुआ। किन्तु शिल्पकारों/ हरिजनों/ दासों/ बादी/ ड़ळयों (जो बिट्ट नहीं थे) क़ी रचनाओं को जनमानस सहज ही अपनाता आया है। उसका एक ही कारण है, पंडिताई साहित्य पौरुषीय साहित्य है। किन्तु शिल्पकारों/ बादियों/ ड़लयों/ दासों का साहित्य स्त्रेन्य अंतर्मन से रचा गया है।
टिहरी बादशाहत का आखिरी दिन
टिहरी आज भले ही अपने भूगोल के साथ उन तमाम किस्सों को भी जलमग्न कर समाधिस्थ हो चुकी है। जिनमें टिहरी रियासत की क्रुर सत्ता की दास्तानें भी शामिल थीं। जिनमें ‘राजा’ को जिंदा रखने के लिए दमन की कई कहानियां बुनी और गढ़ी गई। वहीं जिंदादिल अवाम का जनसंघर्ष भी जिसने भारतीय आजादी के 148 दिन बाद ही बादशाहत को टिहरी से खदेड़ दिया था। इतिहास गवाह है ‘भड़’ इसी माटी में जन्में थे।
टिहरी की आजादी के अतीत में 30 मई 1930 के दिन तिलाड़ी (बड़कोट) में वनों से जुड़े हकूकों को संघर्षरत हजारों किसानों पर राजा की गोलियां चली तो जलियांवाला बाग की यादें ताजा हो उठी। इसी वक्त टिहरी की मासूम जनता में तीखा आक्रोश फैला और राज्य में सत्याग्रही संघर्ष का अभ्युदय हुआ। जिसकी बदौलत जनतांत्रिक मूल्यों की नींव पर प्रजामण्डल की स्थापना हुई और पहला नेतृत्व जनसंघर्षों से जन्में युवा श्रीदेव सुमन को मिला। यह राजतंत्र के जुल्मों के खिलाफ समान्तर खड़े होने जैसा ही था। हालांकि, राजा की क्रूरता ने 25 जुलाई 1944 के दिन सुमन की जान ले ली थी। 84 दिनों की ऐतिहासिक ‘भूख हड़ताल’ के बाद क्रांतिकारी श्रीदेव सुमन ‘बेड़ियों’ से हमेशा के लिए रिहा हो गये। जनसंघर्ष यहां भी न रुका। तब तक अवाम लोकशाही व राजशाही के फर्क को जान चुकी थी। फिर जुल्मों से जन्मीं जनक्रांति का झण्डा कामरेड नागेन्द्र सकलानी ने संभाला। यह नागेन्द्र और साथियों का ही मादा था कि, उन्होंने आखिरी सांसों तक 1200 साला हकूमत से टिहरी को रिहाई दिलाई।
सामन्ती जंक-जोड़ को पिघलाने वाले इस जांबाज का जन्म टिहरी की सकलाना पट्टी के पुजारगांव में हुआ था। 16 की उम्र में ही सामाजिक सरोकारों को समझने वाला नागेन्द्र सक्रिय साम्यवादी कार्यकर्ता बन चुका था। इसी बीच रियासत अकाल के दैवीय प्रकोप से गुजरी तो राजकोष को पोषित करने व आयस्रोतों की मजबूती के लिए भू-व्यवस्था एंव पुनरीक्षण के नाम पर जनता को ढेरों करों से लाद दिया गया। नागेन्द्र ने गांव-गांव अलख जगा आंदोलन को धार दी। इसी दौर में उनकी कार्यशैली व वैचारिकता के करीब एक और योद्धा दादा दौलतराम भी उनके हमकदम हुए। नतीजा, राजा का बंदोबस्त कानून क्रियान्वित नहीं हो सका।
राजशाही से क्षुब्ध लोगों ने सकलानी व दौलतराम की अगुवाई में लामगद्ध होकर कड़ाकोट (डांगचौरा) से बगावत का श्रीगणेश किया। और करों का भुगतान न करने का ऐलान कर डाला। किसानों व राजशाही फौज के बीच संघर्ष का दौर चला। नागेन्द्र को राजद्रोह में 12 साल की सजा सुनाई गई। जिसे ठुकरा सुमन के नक्शेकदम पर चलते हुए नागेन्द्र ने 10 फरवरी 1947 से आमरण अनशन शुरू किया। मजबूरन राजा को अनचाही हार स्वीकारते हुए सकलानी को साथियों सहित रिहा करना पड़ा। राजा जानता था कि सुमन के बाद सकलानी की शहादत अंजाम क्या हो सकता है। तभी जनता ने वनाधिकार कानून संशोधन, बराबेगार, पौंणटोंटी जैसी कराधान व्यवस्था को समाप्त करने की मांग की। मगर राजा ने इसे अनसुना कर दिया। इसी दौर में प्रजामण्डल को राज्य से मान्यता मिली। पहले अधिवेशन में कम्युनिस्टों के साथ अन्य वैचारिक धाराओं ने भी शिरकत की। यह अधिवेशन आजादी के मतवालों के लिए संजीवनी साबित हुआ।
सकलाना की जनता ने स्कूलों, सड़कों, चिकित्सालयों की मौलिक मांगों के साथ ही राजस्व अदायगी को भी रोक डाला। विद्रोह को दबाने के लिए विशेष जज के साथ फौज सकलाना पहुंची। यहां उत्पीड़न और घरों की नीलामी के साथ निर्दोंष जेलों में ठूंस जाने लगे। ऐसे में राजतंत्रीय दमन की ढाल को सत्याग्रहियों की भर्ती शुरू हुई। मुआफीदारों ने आजाद पंचायत की स्थापना की तो इसका असर कीर्तिनगर परगना तक हुआ। क्रांति के इस बढ़ते दौर में बडियार में भी आजाद पंचायत की स्थापना हुई।
10 जनवरी 1948 को कीर्तिनगर में बंधनों से मुक्ति को जनसैलाब उमड़ पड़ा। राजा के चंद सिपाहियों ने जनाक्रोश के भय से अपनी हिफाजत की एवज में बंदूकें जनता को सौंप दी। इसी बीच सत्याग्रहियों की जनसभा में कचहरी पर कब्जा करने का फैसला हुआ। पहले ही एक्शन में कचहरी पर ‘तिरंगा’ फहराने लगा। खबर जैसे ही नरेन्द्रनगर पहुंची तो वहां से फौज के साथ मेजर जगदीश, पुलिस अधीक्षक लालता प्रसाद व स्पेशल मजिस्टेªट बलदेव सिंह 11 जनवरी को कीर्तिनगर पहुंचे। राज्य प्रशासन ने कचहरी को वापस हासिल करने की पुरजोर कोशिश की। लेकिन जनाक्रोश के चलते उन्हें मुंह की खानी पड़ी। फौज ने आंसू गैस के गोले फेंके तो भीड़ ने कचहरी को ही आग के हवाले कर दिया।
उधर, प्रजामण्डल ने राज्यकर्मियों के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी कर इन्हें पकड़ने का जिम्मा सत्याग्रहियों को सौंपा। हालातों को हदों से बाहर होता देख अधिकारी जंगल की तरफ भागने लगे। आंदोलनकारियों के साथ जब यह खबर नागेन्द्र को लगी तो उन्होंने साथी भोलू भरदारी के साथ पीछा करते हुए दो अधिकारियों को दबोच लिया। सकलानी बलदेव के सीने पर चढ़ गये। खतरा भांपकर मेजर जगदीश ने फायरिंग का आदेश दिया। जिसमें दो गोलियां नागेन्द्र व भरदारी को लगी, और इस जनसंघर्ष में दोनों क्रांतिकारियों शहीद हो गये। शहादत के गमगीन माहौल में राजतंत्र एक बार फिर हावी होता कि, तब ही पेशावर कांड के वीर योद्धा चन्द्रसिंह गढ़वाली ने नेतृत्व अपने हाथ में लिया था।
12 जनवरी 1948 के दिन शहीद नागेन्द्र सकलानी व भोलू भरदारी की पार्थिव देहों को लेकर आंदोलनकारी टिहरी रवाना हुए। अवाम ने पूरे रास्ते अमर बलिदानियों को भावपूर्ण श्रद्धांजलियां दी। 15 जनवरी को शहीद यात्रा के टिहरी पहुंचने से पहले ही वहां भारी आक्रोश फैल चुका था। जिससे डरकर राजा मय लश्कर नरेन्द्रनगर भाग खड़ा हुआ। ऐसे में सत्ता जनता के हाथों में आ चुकी थी। और फिर आखिरकार 1 अगस्त 1949 को टिहरी के इतिहास में वह भी दिन आ पहुंचा जब भारत सरकार ने उसे उत्तर प्रदेश में शामिल कर पृथक जिला बनाया। निश्चित ही नया राज्य ऐसे ही जनसंघर्षों का फलित है। जोकि ‘एक बेहतर आदमी की सुनिश्चिता’ के बगैर आज भी अधूरी हैं।
आलेख - धनेश कोठारी
टिहरी की आजादी के अतीत में 30 मई 1930 के दिन तिलाड़ी (बड़कोट) में वनों से जुड़े हकूकों को संघर्षरत हजारों किसानों पर राजा की गोलियां चली तो जलियांवाला बाग की यादें ताजा हो उठी। इसी वक्त टिहरी की मासूम जनता में तीखा आक्रोश फैला और राज्य में सत्याग्रही संघर्ष का अभ्युदय हुआ। जिसकी बदौलत जनतांत्रिक मूल्यों की नींव पर प्रजामण्डल की स्थापना हुई और पहला नेतृत्व जनसंघर्षों से जन्में युवा श्रीदेव सुमन को मिला। यह राजतंत्र के जुल्मों के खिलाफ समान्तर खड़े होने जैसा ही था। हालांकि, राजा की क्रूरता ने 25 जुलाई 1944 के दिन सुमन की जान ले ली थी। 84 दिनों की ऐतिहासिक ‘भूख हड़ताल’ के बाद क्रांतिकारी श्रीदेव सुमन ‘बेड़ियों’ से हमेशा के लिए रिहा हो गये। जनसंघर्ष यहां भी न रुका। तब तक अवाम लोकशाही व राजशाही के फर्क को जान चुकी थी। फिर जुल्मों से जन्मीं जनक्रांति का झण्डा कामरेड नागेन्द्र सकलानी ने संभाला। यह नागेन्द्र और साथियों का ही मादा था कि, उन्होंने आखिरी सांसों तक 1200 साला हकूमत से टिहरी को रिहाई दिलाई।
सामन्ती जंक-जोड़ को पिघलाने वाले इस जांबाज का जन्म टिहरी की सकलाना पट्टी के पुजारगांव में हुआ था। 16 की उम्र में ही सामाजिक सरोकारों को समझने वाला नागेन्द्र सक्रिय साम्यवादी कार्यकर्ता बन चुका था। इसी बीच रियासत अकाल के दैवीय प्रकोप से गुजरी तो राजकोष को पोषित करने व आयस्रोतों की मजबूती के लिए भू-व्यवस्था एंव पुनरीक्षण के नाम पर जनता को ढेरों करों से लाद दिया गया। नागेन्द्र ने गांव-गांव अलख जगा आंदोलन को धार दी। इसी दौर में उनकी कार्यशैली व वैचारिकता के करीब एक और योद्धा दादा दौलतराम भी उनके हमकदम हुए। नतीजा, राजा का बंदोबस्त कानून क्रियान्वित नहीं हो सका।
राजशाही से क्षुब्ध लोगों ने सकलानी व दौलतराम की अगुवाई में लामगद्ध होकर कड़ाकोट (डांगचौरा) से बगावत का श्रीगणेश किया। और करों का भुगतान न करने का ऐलान कर डाला। किसानों व राजशाही फौज के बीच संघर्ष का दौर चला। नागेन्द्र को राजद्रोह में 12 साल की सजा सुनाई गई। जिसे ठुकरा सुमन के नक्शेकदम पर चलते हुए नागेन्द्र ने 10 फरवरी 1947 से आमरण अनशन शुरू किया। मजबूरन राजा को अनचाही हार स्वीकारते हुए सकलानी को साथियों सहित रिहा करना पड़ा। राजा जानता था कि सुमन के बाद सकलानी की शहादत अंजाम क्या हो सकता है। तभी जनता ने वनाधिकार कानून संशोधन, बराबेगार, पौंणटोंटी जैसी कराधान व्यवस्था को समाप्त करने की मांग की। मगर राजा ने इसे अनसुना कर दिया। इसी दौर में प्रजामण्डल को राज्य से मान्यता मिली। पहले अधिवेशन में कम्युनिस्टों के साथ अन्य वैचारिक धाराओं ने भी शिरकत की। यह अधिवेशन आजादी के मतवालों के लिए संजीवनी साबित हुआ।
सकलाना की जनता ने स्कूलों, सड़कों, चिकित्सालयों की मौलिक मांगों के साथ ही राजस्व अदायगी को भी रोक डाला। विद्रोह को दबाने के लिए विशेष जज के साथ फौज सकलाना पहुंची। यहां उत्पीड़न और घरों की नीलामी के साथ निर्दोंष जेलों में ठूंस जाने लगे। ऐसे में राजतंत्रीय दमन की ढाल को सत्याग्रहियों की भर्ती शुरू हुई। मुआफीदारों ने आजाद पंचायत की स्थापना की तो इसका असर कीर्तिनगर परगना तक हुआ। क्रांति के इस बढ़ते दौर में बडियार में भी आजाद पंचायत की स्थापना हुई।
10 जनवरी 1948 को कीर्तिनगर में बंधनों से मुक्ति को जनसैलाब उमड़ पड़ा। राजा के चंद सिपाहियों ने जनाक्रोश के भय से अपनी हिफाजत की एवज में बंदूकें जनता को सौंप दी। इसी बीच सत्याग्रहियों की जनसभा में कचहरी पर कब्जा करने का फैसला हुआ। पहले ही एक्शन में कचहरी पर ‘तिरंगा’ फहराने लगा। खबर जैसे ही नरेन्द्रनगर पहुंची तो वहां से फौज के साथ मेजर जगदीश, पुलिस अधीक्षक लालता प्रसाद व स्पेशल मजिस्टेªट बलदेव सिंह 11 जनवरी को कीर्तिनगर पहुंचे। राज्य प्रशासन ने कचहरी को वापस हासिल करने की पुरजोर कोशिश की। लेकिन जनाक्रोश के चलते उन्हें मुंह की खानी पड़ी। फौज ने आंसू गैस के गोले फेंके तो भीड़ ने कचहरी को ही आग के हवाले कर दिया।
उधर, प्रजामण्डल ने राज्यकर्मियों के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी कर इन्हें पकड़ने का जिम्मा सत्याग्रहियों को सौंपा। हालातों को हदों से बाहर होता देख अधिकारी जंगल की तरफ भागने लगे। आंदोलनकारियों के साथ जब यह खबर नागेन्द्र को लगी तो उन्होंने साथी भोलू भरदारी के साथ पीछा करते हुए दो अधिकारियों को दबोच लिया। सकलानी बलदेव के सीने पर चढ़ गये। खतरा भांपकर मेजर जगदीश ने फायरिंग का आदेश दिया। जिसमें दो गोलियां नागेन्द्र व भरदारी को लगी, और इस जनसंघर्ष में दोनों क्रांतिकारियों शहीद हो गये। शहादत के गमगीन माहौल में राजतंत्र एक बार फिर हावी होता कि, तब ही पेशावर कांड के वीर योद्धा चन्द्रसिंह गढ़वाली ने नेतृत्व अपने हाथ में लिया था।
12 जनवरी 1948 के दिन शहीद नागेन्द्र सकलानी व भोलू भरदारी की पार्थिव देहों को लेकर आंदोलनकारी टिहरी रवाना हुए। अवाम ने पूरे रास्ते अमर बलिदानियों को भावपूर्ण श्रद्धांजलियां दी। 15 जनवरी को शहीद यात्रा के टिहरी पहुंचने से पहले ही वहां भारी आक्रोश फैल चुका था। जिससे डरकर राजा मय लश्कर नरेन्द्रनगर भाग खड़ा हुआ। ऐसे में सत्ता जनता के हाथों में आ चुकी थी। और फिर आखिरकार 1 अगस्त 1949 को टिहरी के इतिहास में वह भी दिन आ पहुंचा जब भारत सरकार ने उसे उत्तर प्रदेश में शामिल कर पृथक जिला बनाया। निश्चित ही नया राज्य ऐसे ही जनसंघर्षों का फलित है। जोकि ‘एक बेहतर आदमी की सुनिश्चिता’ के बगैर आज भी अधूरी हैं।
आलेख - धनेश कोठारी
11 January, 2011
संघर्ष की प्रतीक रही टिहरी की कुंजणी पट्टी
देवभूमि उत्तराखंड वीरों को जन्म देने वाली भूमि के नाम पर भी जानी जाती है। इसी राज्य में टिहरी जनपद की हेंवलघाटी के लोगों की खास पहचान व इतिहास रहा है। इतिहास के पन्नों पर घाटी के लोगों की वीरता के किस्से कुछ इस तरह बयां हैं कि उन्होंने कभी अन्याय व अत्याचार सहन नहीं किया और अपने अधिकारों व संसाधनों की लड़ाई को लेकर हमेशा मुखर रहे।
राजशाही के खिलाफ विद्रोह व जनता के हितों के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले अमर शहीद श्रीदेव सुमन का नाम आज हर किसी की जुबां पर है, लेकिन सचाई यह है कि हेंवलघाटी के लोग उनसे भी पहले टिहरी रियासत के खिलाफ बगावत का बिगुल बजा चुके थे। श्रीदेव सुमन से 30 वर्ष पूर्व तक हेंवलघाटी के नागणी के नीचे ऋषिकेश तक कुंजणी पट्टी कहलाती थी। वर्ष 1904 में टिहरी गढ़वाल रियासत में जंगलात कर्मचारियों का आतंक बेतहाशा बढ़ गया था। रियासत के अन्य इलाकों में जहां उनके अन्याय बढ़ते गए तो कुंजणी पट्टी के लोगों ने इसके खिलाफ आवाज बुलंद की। उनके इस अभियान को इतिहास में 'कुंजणी की ढंडक' के नाम से जाना जाता है।
राजशाही के खिलाफ विद्रोह व जनता के हितों के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले अमर शहीद श्रीदेव सुमन का नाम आज हर किसी की जुबां पर है, लेकिन सचाई यह है कि हेंवलघाटी के लोग उनसे भी पहले टिहरी रियासत के खिलाफ बगावत का बिगुल बजा चुके थे। श्रीदेव सुमन से 30 वर्ष पूर्व तक हेंवलघाटी के नागणी के नीचे ऋषिकेश तक कुंजणी पट्टी कहलाती थी। वर्ष 1904 में टिहरी गढ़वाल रियासत में जंगलात कर्मचारियों का आतंक बेतहाशा बढ़ गया था। रियासत के अन्य इलाकों में जहां उनके अन्याय बढ़ते गए तो कुंजणी पट्टी के लोगों ने इसके खिलाफ आवाज बुलंद की। उनके इस अभियान को इतिहास में 'कुंजणी की ढंडक' के नाम से जाना जाता है।
जुलाई 1904 में नरेन्द्रनगर के मौण, खत्याण के भैंस पालकों के डेरे थे। तब भैंसपालकों से पुच्छी वसूला जाता था। तत्कालीन कंजर्वेटर केशवानंद रतूड़ी समेत जंगलात के कर्मचारी मौके पर गए व मौण, खत्याड़ के भैंसपालकों से मनमाने ढंग से पुच्छी मांगी। मना करने पर कर्मचारियों ने उनके दूध-दही के बर्तन फोड़ दिए। इस पर भैंसपालक भड़क गए। भैंसपालकों के मुखिया रणजोर सिंह ने कंजर्वेटर के गाल पर चाटे जड़ दिए। इस पर रणजोर व उसके छह साथी गिरफ्तार कर लिए गए। रास्ते में फर्त गांव के भीम सिंह नेगी, जो उस समय मुल्की पंच व प्रतिष्ठित व्यक्ति थे, ने कंजर्वेटर को रोका व रणजोर को छोड़ने को कहा, लेकिन कंजर्वेटर नहीं माना। इस पर भीम सिंह ने बेमर गांव के अमर सिंह को बुलावा भेजा। अमर सिंह की गिनती तब क्षेत्र के दबंग लोगों में होती थी। अमर सिंह मौके पर पहुंचे, हालात की जानकारी ली और भैंसपालकों से विरोध करने को कहा। इस पर राणजोर सिंह सहित दूसरे लोगों ने हथकड़ियां पत्थर पर मारकर तोड़ दी। सबने मिलकर जंगलात के लोगों की धुनाई की और कंजर्वेटर को घोड़े से गिराकर कमरे में बंद कर दिया।
इसके बाद अमर सिंह ने तमाम मुल्की पंचों को बुलाकर बैठक की, जिसमें कखील के ज्ञान सिंह, स्यूड़ के मान सिंह, आगर के नैन सिंह, कुड़ी के मान गोपाल सहित दर्जन भर लोग बुलाए गए। लोगों को इकट्ठा कर आगराखाल, हाडीसेरा, भैंस्यारौ, बादशाहीथौल में विशाल सभाएं की गई। उसके बाद लोग जुलूस लेकर टिहरी पहुंचे। पंचों ने ऐलान कर दिया था कि जो व्यक्ति और गांव इस ढंडक में शामिल नहीं होगा, उसे बिरादरी से अलग कर दिया जाएगा। कंजर्वेटर ने पंचों सहित दूसरे लोगों पर मारपीट सहित कई आरोप लगाए। राजमाता गुलेरिया के कहने पर कीर्तिशाह ने लोगों की मांगों पर गंभीरता से विचार किया तथा देवगिरी नामक साध्वी, जो क्षेत्र में वर्षो से रह रही थीं, के कहने पर लोगों को आरोपों से बरी कर दिया। इसके अलावा पुच्छीकर भी समाप्त कर दिया। लोगों की वन में चरान-चुगान खुला रखने की मांग भी मान ली गई।
साभार
07 January, 2011
वरिष्ट साहित्याकार श्री भीष्म कुकरेती का दगड़ वीरेंद्र पंवार कि छ्वीं-बत्थ
वीरेन्द्र पंवार : तुमारा दिखण मा अच्काल गढवाळी साहित्य कि हालात कनि च ?
भीष्म : मी माणदो गढवाळी साहित्य कु हाळ क्वी ख़ास भलु नि च। थ्वाड़ा कविता अर गीतुं बटें आश छ बि च। स्वांगूं बटें उम्मेद छै पण, जब स्वांग इ नि खिल्येणा छन त क्य बोले सक्यांद। बकै गद्य मा त जख्या भन्गलु जम्युं च। जु साहित्यऔ छपण तैं कैंड़ो/मानदंड मानिल्या त बोले सक्यांद बल कुछ होणु च। पण, साहित्य छपण से जादा हमथैं यू दिखण चयांद कि बंचनेरूं तैं गढवाळी साहित्य औ भूक कथगा च। कथगा बंचनेर गढवाळी साहित्य अर लिख्नदेरुं छ्वीं गौं गौळौं (समाज) मा लगाणा छन। कथगा बन्चनेर अपण गेड़ीन् गढवाळी साहित्य थैं बरोबर खरीदणा छन? बंचनेरुं
बिज्वाड़/पौध क हिसाबन् त गढवाळी साहित्य मा सुखो इ च। हाँ कवि सम्मेल्नुं बटिन उम्मेद च बल बन्चनेर बौडी सक्दन। असल मा गढ़वाळी साहित्य रच्नेंदारों/रचनाकार मा पैलि बिटेन एक इ कमी राई बल हिंदी का पिछवाड़ी चलण कि अर याँ से हम बंचनेरुं तादात नी बढ़ाई सकवां। फिर एक ह्वेका बि लिख्युं साहित्य फुळणो (वितरण / प्रचार / प्रसार) कबि बि नी ह्व़े। जब कि कवि सम्मेलन / गीत संध्या क बान संगठन काम कर्दन त उखमा सुणदेर/श्रोता छें छन। गढवाळीs हिसाब से साहित्य नि लिख्येण अर साहित्य तैं फुळणो (वितरण) बान एक ह्वेका (संगठनात्मक) कामकाज नि होण से गढवाळी साहित्य हीण हालात मा इ च
वीरेन्द्र पंवार : आप क्या समजदन! गढ़वाळी मा कै बि विधा मा अच्काल काम नि होणु च ?
भीष्म कुकरेती : कविता अर नरेंद्र कठैतऔ च्बोड़ / चखन्यौ छोड़िक कखी बि कुच्छ काम नि होणु च। गढवाळी जन भाषा तैं अग्वाड़ी ल़ाण मा स्वांग(स्टेज या फिल्म या टी वी) भौत जरोरी च पण स्टेजूं मा स्वांग होणा नि छन। फिल्मोंs स्वांग हिंदीs भद्दी गंदी नकल छन कन्ना, याँ से फिल्मों से जथगा फैदा होण चयांद छौ उथगा फैदा नि होणु च।
वीरेन्द्र पंवार : गढ़वाळी मा हौंस-चबोड़ चखन्यौ-म्सगरी (हास्य-व्यंग्य) लिखणो पवाण (शुरुवात ) कख बिटेन लगी अर कबारी ह्व़े छयाई ?
भीष्म कुकरेती : कैपणि बोल च बल उ मनिख नी च जैन हंसण वाळ / चबोड़ / च्ख्नायाऊ / म्सगरी वळी छ्वीं नी लगे होलू। इन्नी ये जग मा क्वी साहित्यकार नी होई जैन हसाण वाळ साहित्य या चबोड़ी साहित्य नी रची होलू। त लिख्युं गढ़वाळी साहित्य मा बि हंसाण वाल/ च्बोड़/ चखन्यौ करण वाळ साहित्य पैली बिटेन छ। हाँ कम जादा को भेद दिखण पोडल। जख तलक पद्य को सवाल च इख्मा हसण खिलण खूब रै अर अबी बि च/ गद्य मा त आजे जमाने पैली गढवाळी कथा "गढवाळी ठाट " हंसोड़ी च्ख्न्यौरी कथा च। सदानंद कुकरेती की 'गढ़वाळी ठाट' कथा आज बि रस्याण लांद। आज बि तज्जी च। भोळ बि यीं कथा मा रस्याण राली अर तज्जी राली। स्वांगूं (नाटक) मा त हौंस, चबोड़, चखन्यौ, मजाक, मस्करी खूब छकै क च। चाहे सन् १९१३ का थपलियालऐ "प्रल्हाद" स्वांग होऊ या आजु २०१० क घ्न्सेला कु "मनखी बाघ" स्वांग हो। हौंस चबोड़ को छळबल़ाट गढवाळी स्वांगूं खूब च। उनत भौतुन च्बोड़ी/ ह्न्स्दारी/ चखन्यौरी लेख लेखिन पण गणतs / मात्रा को हिसाब से लिख्युं साहित्य मा भीष्म कुकरेती अर नरेंद्र कठैत दुयुं नाम जादा च। खबरसार अखबार मा त्रिभुवन क चबोड़ घौण जन चोट कर्दन अर रस्याण वाल हौंस बि च। अर इंटरनेट मा पाराशर गौड़ से जादा चबोड़ गढवाळी मा कैन नि कॉरी।
वीरेंद्र पंवार : गढवाळी साहित्य मा हास्य व्यंग्य को लेखा-जोखा क्या च ?
भीष्म कुकरेती ; यो त लम्बो विषय च भै! सन द्वी हजार तलक को ब्यौरा तुम तैं गढवाळी साहित्य मा हास्य (अबोध बन्धु बहुगुणा अर मेरी छ्वीं) मा मिल जालो। यांका-परान्त/ पैथर मि कुछ समौ उपरान्त जबाब दे द्योलू। उन कवितों मा अच्काल हौंस चबोड़ जादा ही च। स्वांग जु बि २००० क पैथर छपीं उँमा बि चबोड़ चखन्यौ जादा ही च। कथौं क त उनी बि अकाळ च। एक ओमप्रकाश सेमवाळ नाम अर तड़ीयालऔ उपन्यास छोड़िक मैन ख़ास नि देखि।
वीरेंद्र पंवार ; तुमन सन १९८५ परांत गढ़ऐना मा अर होरी बि पत्रों/पत्रिकाओं मा १००० से बिंडी हंसौण्या/चबोड़ी/च्खन्युरया/म्जाक्या (हास्य-व्यंग्य लेख) लेख छापिन। वूं क क्वी संस्करण किले नि छपाई ? गढवाळी साहित्यौ बान आपकू लेख छपण जरोरी छन?
भीष्म कुकरेती : हाँ बनि-बनि पत्रिकाओं/ अख्बरून अर गढ़ऐना मिलैक १२०० से बिंडी लेख त होला ही। पोथी रूप मा लेखुन, कथों संस्करण नि आणो पैलू कारण च जन्म जाती अळगस। मि भौत इ अळगसी छौं। मि एक दें लिखणो परांत दिख्दु बि नि छौं क्या ल्याख। फिर मेरी नौकरी बि गौन्त्या बिरती की च (घुम्क्ड्डी) यां से बि गयेळी ह्व़े। मुंबई मा सहित्यौ माहोल नि च एक वजे या बि च। सन् ग्यारा मा जरोर छ्पौल। हैंको कारण च मेरो १९९१ से २००४ तलक साहित्यौ बणवास। अब हैंको साल जरोर छापौल।
वीरेंद्र पंवार ; गढ़वाळी साहित्य मा कार्टून विधा की शुरुव्वत कैन कार अर कने ह्व़े ?
भीष्म कुकरेती : यो बि एक मजाक इ च बल। गढवाळी मा लिख्वारून अर रिख्डाकारुं/चित्र्कारु कमी नि च पण च्बोडया रिख्डाकार (व्यंग्य चित्रकार) गौणि गाणिक द्वी चार इ ह्वेन। गढवाळी मा सबसे पैल चबोड़ी रिख्डा (व्यंग्य चित्र) हिलांस को जुलाई १९८७ मा छप। मतलब गढवाळी मा पैला व्यंग्य चित्रकार छन गढवाळ का शिर्मौरी चित्रकार बर्जमोहन नेगी (बी मोहन नेगी) उनका चबोड्या रिख्डों मा चित्र भौत इ बढिया होंदन। मेरी समज से बी मोहन नेगी क बीसेक व्यंग्य चित्र त छपी होला "खबरसार" अर "गढवाळी धै" अखबार मा उनक एकी चित्र हरेक अंक मा छ्प्दो अर सम्पादक व्यंग्य बदलणा रौंदन बी मोहन नेगी क चित्रों मा वतावरण पर जादा जोर हुन्द। किशोर कदम, रमेश डबराल, डा नन्द किशोर हटवाल, जगेश्वर जोशी, डा नरेंद्र गौनियाल जना विद्वानूं गढवाळी मा व्यंग्य चित्र छापिन। संख्या कु हिसाब से म्यार (भीष्म कुकरेती ) चबोडी रिख्डा सबसे बिंडी छन।
वीरेंद्र पंवार : आपन अब तक कथगा व्यंग्य चित्र छपैन ?
भीष्म कुकरेती : नी बि होला त ६०० से जादा व्यंग्य चित्र त आज तलक छपी इ होला।
वीरेंद्र पंवार : अबका अर बीस बरसून् पैलि लिखेण वाळ साहित्य मा क्या फरक चिताणा छ्न्वां ?
भीष्म कुकरेती : कविता, गीतुं अर फिल्मों मा त फरक कुछ हद तलक दिख्यांद च। पण गद्य मा कुछ फरक नी च। कविता मा बि फरक जादा गात को च, सरेल को च। भौण स्टाइल (Body, format, style) को च। अर कवि एक्सपेरिमेंट करण मा अग्वाड़ी आण चाणा छन। कत्ति नई विधा जन गजल, हाइकु, नवाड़ी गीत कविता मा ऐन। पण गद्यात्मक कविता पर जरा जादा इ जोर च। अर जन की गां- गौळ (समाज) मा बादलौ आणु च त कविताओं मा विषय को बदलौ आण इ च। फिर एक भौत बडो फरक जगा को ह्वेई। पैलि दिल्ली गढवाळी साहित्यऔ राजधानी छे। अब देहरादून च। अर कथगा इ उपराजधानी बि छन- पौड़ी, कोटद्वार, गोपेश्वर, श्युन्सी बैज्रों जन अड़गें (क्षेत्र) मा सन्गठनऔ हिसाब से काम हूणु च। या इन बुले सक्यांद गढवाळी साहित्य अब श्हरून बनिस्पत गाऊं मा जादा लिख्याणु च। मतलब अनुभव पर जोर जादा ऐगे। कल्पना से जादा असलियत को जोर ह्व़ेगे। उदारण- खबरसार क ख्ब्रून अर ख्ब्रून छाण-निराळ (न्यूज़ एंड व्व्युज ) मा साफ़ दिखेंद। उन्नी डा नरेंद्र गौनियाल, गिरीश सुंदरियाल, हरीश जुयाल, आपकी कविताओं मा अनुभव कल्पना पर हाव्वी होंद। नरेंद्र कठैत या त्रिभुवन का गद्य मा आजौ समौ दिखेंद त मतलब अनुभव कल्पना पर जादा हाव्वी च। कविताओं मा व्यंग्य जादा च त एकी कारण च। अब अनुभव कल्पना से अग्वाडी छ। अब का कवि मुख्मुल्य्जा नी छ। अब वो चरचरा छन (जादा मुखर ह्व़ेगेन)। व्यंग्य कल्पना को भरवस नी लिखे सक्यांद इख्मा अनुभव/भुग्युं/दिख्युं की भौत जादा ज्रोरात होंद। मतलब अब कविता लोगूँ जादा नजिक ऐगे। कवि एक्सपेरिमेंट जादा करण चाणा छन। अब कवि अन्तराष्ट्रीय परिधि मा आणों बान अतुर्दी च। वो अब गढवाळी भाषा तैं कुवा क मिंढुक नी रखण चांदन. गढवाळी साहित्य मा जनान्युं आण बतांद/ इशारा कर्द बल समाज बदल्याणु च अर गढवाळी भाषा पर जु बि खतरा च वै खतरा तैं टाळणा बान मात्रिश्क्ति की जरोरात च। कविता मा गद्य ब्युंत (गद्यात्मक लय) हावी होणु च त वांको पैथर एक कारण च अच्काल सरा जग मा यि हाळ छन कवियुं कविता मा लय से जादा ध्यान अब कंटेंट पर च। फिर कवि जादा मेनत नी करण चाणा होला? आप कवि छन आप जादा बतै सक्दवां।
वीरेंद्र पंवार : अच्काल कविता जादा लिख्याणि छन आपक क्या बुलण च ?
भीष्म कुकरेती : गढवाळी मा पैलि बिटेन कविता जादा लिख्याणि छन। कविता अर अध्यात्म वलू साहित्य तभी जादा लिख्यांद जब चित्वळ मनिख यू स्म्ज्दो बल समाज फर क्वी भीत/भय/डौर आण वाळ च। यांको मतलब च रचनाकारुं तैं क्वी अणजाणो भय/डौर दिखयाणु च।
वीरेंद्र पंवार : क्या कवि कविता लिखण जादा सोंग सरल समजणा छन ?
भीष्म कुकरेती : मीन याँ पर क्वी छ्वीं कबि कै कवि से नि लगै। मी तैं त कविता लिखण गद्य से जादा कठण लगद। आप कवि छन आप जादा जाणदा ह्वेला। हाँ जु मूड ऐगे। विषय मन मा भीजीगे, शब्द मगज मा आई जावन त कविता लिखण सरल/सोंग च। पण श्ब्दुं क ग्न्ठ्याणऔ बान कवि तैं भौत मेनत मस्कत त करण इ पोडद। आप अपणो इ उदारण ल़े ल्याओ बीच मा आप सेगे छ्या। नेत्र सिंग अस्वाळ को उदारण ल़े ल्याओ। कविता गंठयाणऔ बान कथगा इ मानसिक बिसौंण (पड़ाव) से गुजरण पोडद। एक स्वील पीड़ा क अनुभव से गुजरण पोडद। मन मा एक बौळ ल्ह़ाण पोडद। हाँ जु कविता या गद्य तैं अपण इ मजा क बान लिख्दन उ सैत च घड्यावन/स्वाचन बल कविता गंठयाँण सौंग च सरल च। गढवाळी साहित्य मा लिख्वार आप तैं घपरोळया साहित्यकार क रूप मा जादा जाणदन।
वीरेंद्र पंवार : याँ फर क्या बुलण चैल्य़ा ?
भीष्म कुकरेती : इखम मीन क्या बुलण असल मा आप तैं इ कुछ बुलण चयेंद। खैर बात या च बल मीन द्वी सिंगार/स्तम्भ/कॉलम का नाम से लेख लिखीं "घपरोळ अर खीर मा ल़ूण" द्वी कॉलम मा घपरोळ की गंध आन्द त मीतैं साहित्यकार घपरोळया बुल्दन त क्वी गलत नी च। असल मा जब मि कै बात पर बहस चांदु त सिंगार/स्तम्भ/कॉलम क नाम घपरोळ धैरि लींदु अर जब विषय परिपाटी से कुछ बिगलीं/भिन्न/अलग ह्वाऊ त मि खीर मा ल़ूण नाम ध्री लीन्दु।
वीरेंद्र पंवार : लिख्वार इन बि बुल्दन बल कथगा लिखवारूं तैं आपन गाळी बि देनी ?
भीष्म कुकरेती : हाँ ह्व़े सकद च आप यीं भाषा तैं गाळी मा गणत करी सकदवां। एक चिट्ठी मा "बुलणो को आलोचक" श्री भगवती परसाद नौटियाल पर मीन भगार लगे छे की उनतैं गढवाळी लिखण इ नि आन्द अर अपण मजा क बान जन आदिम हस्तमैथुन करदू उनी नौटियाल जी अपण मजा बान गढवाळी मा आलोचना लिख्दन। मीन इन बि बोली बल नौटियाल हिंदी क जासूस छन जु गढवाळी तैं निपटाण पर अयाँ छन। फिर एक लेख मा मीन बोली की भगवती परसाद नौटियाल हिंदी उपनिवेशवाद क बाईसराय छन। एक चिट्ठी मीन जु भौत स लिख्वारूं खुणि भेज छे उखमा मीन बोली बल गढवाळी सभा का साहित्य कोष क नौटियाल जी गढवाळी शब्दकोष का संयोजक बौणिगेन यानि की "गढवाळ सभा न स्याळ तैं चिनख्यों/बखरों ग्वेर बणे दे। जु लिख्वार आलोचक छौंद गढवाळी शब्दुं हिंदी शब्द इस्तेमाल करू वै पर भगार लगाण मा मी तैं क्वी शर्म नी लगद। मीन प्रूफ दे बल नौटियाल जी अपण लेखुन मा ९९ टका हिंदी शब्द इस्तेमाल कर्दन। आप ये तैं गाळी माणदवां त मीन गाळी दे च। ना त लिखद दें ना इ आज मी तैं क्वी मलाल च की मीन नौटियाल जी क वास्ता इन श्ब्दुं प्रयोग करी जै तैं आप गाळी माणदवां। आलोचक सिर्फ साहित्य औ छाण - निराळी नि करदो बल्कण मा साहित्यकारूं तैं बाटु बि दिखांद। अब जब गुरु इ भेळ जाणु हो त च्यालों क्या होलू ? जख तलक बकै साहित्य्कारून सवाल च मीन व्यक्ति क रूप मा मदन डुकल़ाण पर भगार लगे बल "लोक नाटक विशेषांक मा सम्पादकन् ब्राह्मणवाद चलाई" हमारी चिट्ठी क नाट्य विशेषांक मा सौब लेख बामण लेख्कुं का छन एक बि जजमान या शिल्पकार क लेख नाटक सम्बन्धी नि छ्या। इन्टरनेट पर याँ पर बडो घपरोळ ह्व़े। गढवाल पोस्ट का सम्पादक न त मेखुणि इक तलक बोल बल मि बोल़ेग्यौं या मेरी दिमागी हालत ठीक नी च। सम्पादकीय जुम्मेवारी पर बि बहस ह्व़े। अंग्रेजी अख्बरूं सम्वाददाता अर हिंदी अख्बरूं सम्पद्कुं न ईं बहस मा भाग ल़े। कत्ति आम बंचनेरुं न बहस बांचिक हमारी चिठ्ठी पत्रिका मंगाई। डा. दाताराम पुरोहितन् डुक्लाण पर भगार लगे (आलोचना करी) बल ये विशेषांक मा स्वांगु/नाटकुं बाबत भौत सी ब्त्था नी छपेगेन। हमारी चिट्ठी क गढवाळी नाट्य विशेषांक मा डा. राजेश्वर उनियाळन् लेख लिखी थौ। मीन ल्याख बल यू लेख हिंदी की नकल च गढवाळी नात्कुं बारा मा कुछ छें इ नी च। इख पर बि भौत घपरोळ ह्व़े। डा. राजेश्वर उनियाळन् अपणा लेख मा बादी, मिरासी कुं उल्लेख इ नी करी अर लेखी दे बल गढ़वाळ मा नाटकुं शुरुवात रामलीला से ह्व़े। मीन तेज, करकरा, कैडा बचनुं मा राजेश्वर उनियल फर भगार लगै.. काट करी। अब यूँ तेज /कैडा /करकरा बचनुं तैं गाळी माने जाओ त मि क्य करी सकदु ! इन्नी नरेंद्र कठैत की किताब मा एक वाक्य की मीन खूब छांछ छोळी ये वाक्य से इन ल्ग्दो छयो बल जन की उत्तराखंड खबरसार अखबार मा इ गढवाळी व्यंग्य छपी ह्वावन अर याँ से पैलि गढवाळी मा व्यंग्य इ नी छपी होला। इख पर बि खबरसार अर रिजनल रिपोर्टर मा मेरी भौत काट करेगे। मीन बात अग्वाड़ी नी बढाई निथर बहस भौत अगने बि जै सकदी छे। मि नी माणदो मीन नरेंद्र कठैत तैं क्वी गाळी दे होऊ। मीन जु बि इन्टरनेट मा ल्याख उ खबरसार मा छ्प्युं च बांची ल्याओ। कखिम बि गाळी नी छन। अब काट तैं करकरा / कैड़ो बचनों तैं गाळी माने जाओ त मि कुछ नी बोली सकदो। जख तलक अबोध बहुगुणा अर मेरो बोल बचनो सवाल च ओ निपट साहित्य की बहस छे अर ओ सब बहुगुणा जी क किताब "कौंळी किरण" मा छ्प्युं च। गाळी क क्वी बात नी च। हाँ भौत बडो घपरोळ म्यार वात्सायन कु कामसूत्र क इंटरनेट मा अनुवाद से ह्व़े। गढवाळी साहित्य मा इथगा बहस कबि नी ह्व़े ज्थ्गा कामसूत्र को अनुवाद से ह्व़े। तकरीबन पचासेक लोगूँ न इख्मा हिस्सा ल़े होलू। भौत बड़ें बि ह्वेई अर भौत गाळी बि खैन। पण यीं बहस से गढवाळी भाषा कु फैदा इ ह्व़े। लोग चित्वळ ह्वेन बल गढवाळी मा कुछ लिख्याणु च। मीन एक अंग्रेजी मा इन्टरनेट मेल मा लेखी बल रामी बौराणी गीत बंद करे जाण चयेंद त म्यार लेख क विरुद्ध त्याईस लोगुन लेख लिखी उखमा उन्नीस कुमाउनी लिख्वार या बन्च्नेर छ्या। इकम बि गाळी नि छई मीन इंटरनेट मेल मा अंग्रेजी मा लेख ल्याख बल गढवाळी भाषा क नंबर एक दुश्मन हिंदी च त बबाल ही खड़ो ह्व़ेगे। हिंदी क समर्थकन् मेरी काट करी। पण यो बि ठीक बहस छे। याँ से बि गढवाळी भाषा का प्रति लोग चित्वळ ह्वेन। इंटरनेट मेल मा इ मीन पराशर गौड़, विनोद जेठुरी अर जगमोहन जयारा जना गढ़वाळी कवियुं कुण कैडा बचनुं मा बोली बल भै गढ़वाळी शब्द ह्वेका कविता की मुंडळी या कविता मा हिंदी शब्द कुच्याण जरोरी च क्या ? मि नि माणदो मीन कैतैं गाळी दे हो ! जैन छेज तैं लोक गाळी माणना छन वो मेरो हिसाब से ख्चांग च अर में हिंदी प्रेम्युं (जु छौंद गढ़वाळी श्ब्दुं हिंदी शब्द प्रयोग करदन ) पर ख्चांग लगाण चांदो। ये तैं लोक गाळी बुल्दन मि आन्दोलन बोल्दु।
वीरेंद्र पंवार : सन २००७ मा तुम तैं अदित्य्राम नवानी इनाम मील, क्न लग ?
भीष्म कुकरेती : लग त अछू इ च। मीतैं त छ्वाड़ो म्यार घर वालोँ तै अर रिश्तेदारों तैं लग बल मि इथगा सालुं से झक नि मारणो छौ। असल मा मीन प्रसिधीs बान गढवाळी मा नि ल्याख बल्कण मा गढवाळी तैं सजाण बिग्रैली बणाणऔ बान ल्याख। प्रसिधी त मी तै मार्केटिंग का अंग्रेजी लेखुं से जादा मिलदी।
वीरेंद्र पंवार : नवाडी साखी (नयी पीढ़ी) मा गढवाळी साहित्य की हालत से संतुष्ट छ्न्वां क्या ?
भीष्म कुकरेती : जख तलक नवाडी कवियुं बात च त इन लगद बल नया लोग गढ़वाळी मा आणा छन। कुछ नया करणो बान आण चाणा छन। गढवळी कविता मा बुढाण बस्याण खत्म करणो इच्छा नया कवियुं मा दिखयाणि त च पण गद्य मा त सुखो च। नया आणा छन पण क्वी ख़ास उद्देश्य ऊँ मा नि दिख्यांद। जख तलक नया बंचनेरूं सवाल च यो त अखबार आर प्रकाश्कुं सम्पादक प्रकाशक ही बताई सक्दन की नया बन्च्नेरू क्या हाल छन
वीरेंद्र पंवार : ए बगत गडवाळी क लिख्वारून लेखा जोखा ?
भीष्म कुकरेती : भई ! यो सवाल त लम्बो चळण वाळ च। गद्य च, पद्य च , स्वांग च. कविता इतिहास बंचणो होत हमारी चिट्ठी क कविता विशेषांक औ जगवाळ कारो। मीन गढवाळी कविता इतिहास लिख्युं च गद्य पर अब काम करलो। उन इन्टरनेट मा तकरीबन ३००-४०० लेख (कविता समीक्षा अर कवियुं परिचय) मीन छपाई ऐन वां से बि पता चलदो की कविता मा काम हूणो च खबरसार अखबार देखि ल्यो त इन ल्ग्दो गद्य मा बस्याण ही च नरेंद्र कठैत, त्रिभुवन छोड़िक क्वी गद्य मी तैं इन दिख्याई की जै तैं याद करे जौ. ग्र्ह्जाग्र बाँचो त उखमा सौब बासी साहित्य छ्प्दो. मतलब गद्य साहित्य मा सुखो च।
वीरेंद्र पंवार : तुमन गढ़वाळी लिखवारूं कुण मोबइल से एसेमेस भ्याज बल अपण साहित्य इन्टरनेट मा छापो। अर फोन पर बि हिदायत दीण रौंदवां बल इंटरनेट मा साहित्य छापो। इंटरनेट से गढवाळी साहित्य तैं कथगा फैदा होलू ?
भीष्म कुकरेती : हाँ ! मि जैक बि दगड छ्वीं ल्गान्दो मेरी सल्ला रौंदी बल इन्टरनेट मा गढवाली साहित्य छपवाओ। इंटरनेट एक नयो माध्यम च इख्मा गढवाळी साहित्य छपण चएंद। गढवाळी साहित्य हेरेक माध्यम मा छपणि चएंद की ऩा? इंटरनेट माध्यम एक बडो माध्यम च जखमा साहित्य वितरण की समस्या नी च। जगमोहन जयारा, पराशर गौड़ जन कवियुं तैं आज सरा संसार मा गढवाळी जाणदन त इंटरनेट का बदोलत। धनेश कोठारी, विनोद जेठुरी क ब्लॉग लोक बांचण मिसेगेन। विजय कुमार अर वीणापाणी जोशी तैं बि कुछ लोक पछ्याण मिसेगेन। जख अख्बरून अर किताबुन वितरण कर्दा-कर्दा प्र्काश्कुं टकटूटी जांद वख इन्टरनेट से एक सेकंड मा बात इखं उख पौंची जांद फिर प्रतिक्रिया बि चौड़ मिली जांद। पराशर गौड़ का क्थ्गा इ कविताओं फर दसेक पाठकों से प्रतिक्रिया आई जान्दन। इंटरनेट से बंचनेरूं दगड छ्वीं (सम्वाद) भौत सरल सौंग च जु ऑफलाइन माध्यम मा नी ह्व़े सकद मेलिंग ग्रुप मा साहित्य भीजे जांद अर जैन बांचणाइ वु बांची लेन्दो। साहित्य उपलब्ध होऊ त ही लोक बांचल की ऩा? इनि वेबसाईंटूं मा छ्प्युं साहित्य तैं बन्चनेर जब चाहे तब बांची सकद। गढवाळी साहित्य तैं इन्टरनेट से जादा इ फैदा च किलैकि सहित्यौ वितरण समस्या को हल मिलीगे।
वीरेंद्र पंवार : इंटरनेट मा गढवाल्यूं तादाद भौत कम च याने पाठक सीमित च त ..?
भीष्म कुकरेती : त ऑफलाइन मा आप तैं कौं से बिंडी पाठक मिल्दन ? उत्तराखंडी मेलिंग रूप मा पाँच छे हजार सदस्य छन सौ बि बन्चनेर बौ नी गेत समजी काम ह्व़ेगे फिर वेबसाईट मा लगातार पाठक मिलदा इ रौंदन। इन्टरनेट का पाठक जादा सजग अर काम कु बि छन
वीरेन्द्र : इंटरनेट से गढवाळी साहित्य तैं क्थ्गा भलु होलू ?
भीष्म कुकरेती : भै नयो माध्यम च ज्थ्गा बि पाठक मिलल़ा त भलो ही होलू। चलो इन्टरनेट तैं बोनस समजी ल्यो फिर बि फैदा इ च। मै तैं त बहुत फ़ायदा ह्व़े। लोक मेरी बात समजणा छना म्यार दगड गढ़वाळी भाषा विकास, रक्षा बाबत छ्वीं (interaction) लगाणा रौंदन जु ऑफलाइन माध्यम मा नी ह्व़े सक्दो।
वीरेंद्र पंवार ; तुम तैं विश्व साहित्य की जानकारी च पण इंटरनेट मा क्थ्गा इ विसयुं पर घपरोल्य़ा बात उठै लीन्द्वां। वां से जादा तुम गढ़वाळी पर फॉक्स करो त गढ़वाळी को फैदा होलू।
भीष्म कुकरेती : उन त जादातर विषय भाषा सम्बन्धी ही होंदन (जै तै तुम घपरोल्या विषय बुल ऩा छ्न्वां)। भाषा पर क्थ्गा इ बहस की पवाण मिन इ लगें। जब मीन गढवाळी व्यंजन गढवाळी मा लेख त लोकुं तैं बांचण इ पोड। इनि आवा गढवाळी सिकला तैं पाठक पढ़णा छन। पण लिख्वार सामजिक मनिख बि होंद त सामजिक जुम्मेवारी बि निभाण जरोरी च। में अंग्रेजी मा व्यंग बि लिख्दु त उख पर बि बहस ह्व़ेजांद। हाँ या बात सै च मेरा अंग्रेजी व्यंग्य क्वी इन व्यंग्य नी होलू जै पर बहस नी होऊ। पर लिखण मेरो ढब च बौळ च।
वीरेन्द्र पंवार : तुम गढवाळी साहित्यकारुं तैं समजाणा छ्न्वां। धै लगणा छ्न्वां बल इंटरनेट मा अपणो साहित्य छपाओ। इंटरनेट से गढवाळी भाषा तैं क्य फ़ायदा ?
भीष्म कुकरेती : म्यार अनुभव से भौत फ़ायदा छन। जन कि ईमेल ग्रुपिंग, ग्रुप एमैलिंग से आप अपणि बात गढवाळी मा ब्लॉग सदस्यों तलक पौंछे सक्दवां। तकरीबन उत्तराखंडी ग्रुप मा ६०००/७००० सदस्य होला। आप सबि ग्रुप का सदस्य बौणो अर गढवाळी साहित्य भ्याजो। सौ बि आपको साहित्य बांचल त भौत ह्व़ेगे।
वीरेंद्र पंवार : आप साहित्य मा रस/रूचि ल़ीण वल़ा बंचनेरूं/पाठ्कुं ग्रुप बणऐ स्क्द्वान अर ऊँ तैं गढवाळी साहित्य रोज भेजी सकदवां.
भीष्म कुकरेती : आप तैं यूँ ग्रुपुं सदस्यों से चौड़ प्रतिक्रिया मिली जांदी अर आप जाणि जैल्या बल बंचनेरूं रूचि क्या च। मेरो इन्टरनेट का बदोलत भौत सा साहित्यकारुं (हिंदी, अंगरेजी, गढवाळी, कुमौनी) दगड सम्पर्क ह्व़े अर हम भौत तरां कि साहित्यिक छ्वीं लागौन्दा। इन्नी साहित्य्कारून सम्बधित ग्रुप बणैक रन्त रैबार भीजे सक्यांद। साहित्य कु अदला-बदली ह्व़े सकद जु ऑफलाइन मा सम्भव नि च। आप अपणो साहित्य बगैर परेशानी क उत्तराखंडी वेब साईट मा छपै सक्दां। जु ऑफलाइन माध्यम मा सॉंग सरल नी च। आप अपणो ब्लॉग बणावो अर उख्म्मा साहित्य छपवाओ अर पाठ्कुं/बंचनेरूं दगड सम्पर्क बढ़ाई सक्दन। गढवाळी पत्रिका बि इन्टरनेट से छपी सकदी च। इन्टरनेट से आप गढवाळी साहित्य तैं जख बि गढवाळी छन पौंचे सकदवां हाँ विषय जरा काम को हूँण च्यान्द। जनकि मेरो गढवाळी मा लिख्युं गढ़वाली व्यंजन लेखमाला तैं ऊन बि बांच/पौढ़ जौं तै गढवाळी नि औंदी छे/ कत्युन प्रतिक्रिया गढवाळी मा भ्याज। याँसे पैल ऊं लोकुन गढवाळी मा कबि बि नि लिखी छौ। इंटरनेट मा छ्प्युं विषय स्द्यानी कुणि कखी ना कखि जिन्दा रौंद पाठक अपणो औ सुविधा हिसाब से साहित्य बांची सकद।
वीरेंद्र पंवार : आप पर जादातर साहित्यकार भगार ल्गान्दन बल आप इन्टरनेट मा गढवाळी भाषा साहित्य औ छ्वीं हिंदी या गढ़वाळी छोड़िक अंग्रेजी मा करदवां ?
भीष्म कुकरेती : हाँ मि गढवाळी की बात हिंदी मा कतई नि करदों। पण इन बि नी च बल मि गढवाळी छ्वीं गढवाळी मा नी करदो हों। मि इन जरोर दिख्दु बल मेरो इन्टरनेट का पाठक कु छन। उत्तराखंड तैं छोड़िक जु बि भैराक पाठक इन्टरनेट पर छन वु अंग्रेजी मा बांचणो/पढणो ढब्याँ छन। मेरो पैलो मकसद छयो बल यूँ प्रवाश्युं तैं गढवाळी साहित्य/भाषा औ बार मा मालूमात दिए जाऊ। त अंग्रेजी इ इन भाषा च जु फैदाम्न्द च। जौं तैं गढ़वाळी नी औंदी/जौं तै गढवाळी भाषा/साहित्य की जानकारी नी च ऊंथैं ध्यान मा रौखिक मीन अंग्रेजी भाषा औ सारा ल़े। मेरो टार्गेट ही उ छ्या जु अंग्रेजी जाणदन पण गढवाळी भासा बार म अणजाण छन जख तक जौं तैं हिंदी जादा औंदी या अंग्रेजी ठीक से नी औंदी वो जादातर गढ़वाळी भाषा बारा मा जाणदा छन। दुसर कम्प्यूटर मा अंग्रेजी मा लिखण सरल बि च। फिर मेरो उद्देश्य गढ़वाळी भाषाs बार मा ग्यान दुनिया का हौरी भाषाई लोकुं तक बि पौंछाणो च। इलै मि इन्टरनेट मा गढवाळी साहित्य बार मा अंग्रेजी मा लिखदों। जां से भारत से भीतर का लोकुं तैं बि गढवाळी साहित्या बार मा मालुमात ह्व़े जाऊ।
वीरेंद्र पंवार : आपन इंटरनेट मा अंग्रेजी भाषा मा गढ़वाळी साहित्य सम्बन्धी साहित्य क्या ल्याख ?
भीष्म कुकरेती : मेलिंग मा त भौत कुछ अपणा विचार भेजिन। हाँ वेबसाईट मा मीन गढ़वाळी कवि अर गढ़वाळी कविताओं बार मा जादा लिखी।
वीरेंद्र पंवार : जन की ?
भीष्म कुकरेती : मीन पिछ्तर से बिंडी कविता किताबुं समीक्षा वेबसाईटु मा छाप या इन बोली सक्दों जो बि गढवाळी कविता किताब मीम छै मिन हरेक किताब की समीक्षा अंग्रेजी मा वेबसाईट मा छाप। इनि द्वी सौ से बिंडी कवियुं बार मा जीवनी अर उंको साहित्यिक विवरण वेबसाईटउं मा छाप। इनि लोक गीतुं समीक्षा बि छापिन। लोक कहावतों बारा मा बि जानकारी वेबसैट मा छाप। सैद च चार सौ से जादा लेख छपीगे होला।
वीरेंद्र पंवार ; तुम जब कै कवि की समीक्षा कर्द्वान त वै कवि की तुलना दुसर मुल्कों साहित्य्कारून दगड करदवां। इन किले ?
भीष्म कुकरेती : हाँ जु कवि या वेकी कविता उन/विशेष ह्वाऊ त मि कवि/कविताओं तुलना भैर देसूं कवियुं/कविताओं दगड करदों। वजे साफ़ च मि दुन्य तैं बताण चांदो बल गढवाळी मा बि अन्तराष्ट्रीय भाषा बणणों पुन्यात च, स्क्यात च।
वीरेंद्र पंवार : तुम गद्यकार छ्न्वां पण समीक्षा कविता की ही कार ?
भीष्म कुकरेती : इकु बात च ज़रा कविता इतिहास पुरो ह्व़े जावू त गद्य पर काम करलो। अबी गढवाळी कवितायौ इतहास को काम बाकी च। यू इतिहास पुरु ह्व़ेजालो त फिर गद्य औ बार मा छाप्लो।
वार्ताकार- वीरेंद्र पंवार, पौड़ी
भीष्म : मी माणदो गढवाळी साहित्य कु हाळ क्वी ख़ास भलु नि च। थ्वाड़ा कविता अर गीतुं बटें आश छ बि च। स्वांगूं बटें उम्मेद छै पण, जब स्वांग इ नि खिल्येणा छन त क्य बोले सक्यांद। बकै गद्य मा त जख्या भन्गलु जम्युं च। जु साहित्यऔ छपण तैं कैंड़ो/मानदंड मानिल्या त बोले सक्यांद बल कुछ होणु च। पण, साहित्य छपण से जादा हमथैं यू दिखण चयांद कि बंचनेरूं तैं गढवाळी साहित्य औ भूक कथगा च। कथगा बंचनेर गढवाळी साहित्य अर लिख्नदेरुं छ्वीं गौं गौळौं (समाज) मा लगाणा छन। कथगा बन्चनेर अपण गेड़ीन् गढवाळी साहित्य थैं बरोबर खरीदणा छन? बंचनेरुं
बिज्वाड़/पौध क हिसाबन् त गढवाळी साहित्य मा सुखो इ च। हाँ कवि सम्मेल्नुं बटिन उम्मेद च बल बन्चनेर बौडी सक्दन। असल मा गढ़वाळी साहित्य रच्नेंदारों/रचनाकार मा पैलि बिटेन एक इ कमी राई बल हिंदी का पिछवाड़ी चलण कि अर याँ से हम बंचनेरुं तादात नी बढ़ाई सकवां। फिर एक ह्वेका बि लिख्युं साहित्य फुळणो (वितरण / प्रचार / प्रसार) कबि बि नी ह्व़े। जब कि कवि सम्मेलन / गीत संध्या क बान संगठन काम कर्दन त उखमा सुणदेर/श्रोता छें छन। गढवाळीs हिसाब से साहित्य नि लिख्येण अर साहित्य तैं फुळणो (वितरण) बान एक ह्वेका (संगठनात्मक) कामकाज नि होण से गढवाळी साहित्य हीण हालात मा इ च
वीरेन्द्र पंवार : आप क्या समजदन! गढ़वाळी मा कै बि विधा मा अच्काल काम नि होणु च ?
भीष्म कुकरेती : कविता अर नरेंद्र कठैतऔ च्बोड़ / चखन्यौ छोड़िक कखी बि कुच्छ काम नि होणु च। गढवाळी जन भाषा तैं अग्वाड़ी ल़ाण मा स्वांग(स्टेज या फिल्म या टी वी) भौत जरोरी च पण स्टेजूं मा स्वांग होणा नि छन। फिल्मोंs स्वांग हिंदीs भद्दी गंदी नकल छन कन्ना, याँ से फिल्मों से जथगा फैदा होण चयांद छौ उथगा फैदा नि होणु च।
वीरेन्द्र पंवार : गढ़वाळी मा हौंस-चबोड़ चखन्यौ-म्सगरी (हास्य-व्यंग्य) लिखणो पवाण (शुरुवात ) कख बिटेन लगी अर कबारी ह्व़े छयाई ?
भीष्म कुकरेती : कैपणि बोल च बल उ मनिख नी च जैन हंसण वाळ / चबोड़ / च्ख्नायाऊ / म्सगरी वळी छ्वीं नी लगे होलू। इन्नी ये जग मा क्वी साहित्यकार नी होई जैन हसाण वाळ साहित्य या चबोड़ी साहित्य नी रची होलू। त लिख्युं गढ़वाळी साहित्य मा बि हंसाण वाल/ च्बोड़/ चखन्यौ करण वाळ साहित्य पैली बिटेन छ। हाँ कम जादा को भेद दिखण पोडल। जख तलक पद्य को सवाल च इख्मा हसण खिलण खूब रै अर अबी बि च/ गद्य मा त आजे जमाने पैली गढवाळी कथा "गढवाळी ठाट " हंसोड़ी च्ख्न्यौरी कथा च। सदानंद कुकरेती की 'गढ़वाळी ठाट' कथा आज बि रस्याण लांद। आज बि तज्जी च। भोळ बि यीं कथा मा रस्याण राली अर तज्जी राली। स्वांगूं (नाटक) मा त हौंस, चबोड़, चखन्यौ, मजाक, मस्करी खूब छकै क च। चाहे सन् १९१३ का थपलियालऐ "प्रल्हाद" स्वांग होऊ या आजु २०१० क घ्न्सेला कु "मनखी बाघ" स्वांग हो। हौंस चबोड़ को छळबल़ाट गढवाळी स्वांगूं खूब च। उनत भौतुन च्बोड़ी/ ह्न्स्दारी/ चखन्यौरी लेख लेखिन पण गणतs / मात्रा को हिसाब से लिख्युं साहित्य मा भीष्म कुकरेती अर नरेंद्र कठैत दुयुं नाम जादा च। खबरसार अखबार मा त्रिभुवन क चबोड़ घौण जन चोट कर्दन अर रस्याण वाल हौंस बि च। अर इंटरनेट मा पाराशर गौड़ से जादा चबोड़ गढवाळी मा कैन नि कॉरी।
वीरेंद्र पंवार : गढवाळी साहित्य मा हास्य व्यंग्य को लेखा-जोखा क्या च ?
भीष्म कुकरेती ; यो त लम्बो विषय च भै! सन द्वी हजार तलक को ब्यौरा तुम तैं गढवाळी साहित्य मा हास्य (अबोध बन्धु बहुगुणा अर मेरी छ्वीं) मा मिल जालो। यांका-परान्त/ पैथर मि कुछ समौ उपरान्त जबाब दे द्योलू। उन कवितों मा अच्काल हौंस चबोड़ जादा ही च। स्वांग जु बि २००० क पैथर छपीं उँमा बि चबोड़ चखन्यौ जादा ही च। कथौं क त उनी बि अकाळ च। एक ओमप्रकाश सेमवाळ नाम अर तड़ीयालऔ उपन्यास छोड़िक मैन ख़ास नि देखि।
वीरेंद्र पंवार ; तुमन सन १९८५ परांत गढ़ऐना मा अर होरी बि पत्रों/पत्रिकाओं मा १००० से बिंडी हंसौण्या/चबोड़ी/च्खन्युरया/म्जाक्या (हास्य-व्यंग्य लेख) लेख छापिन। वूं क क्वी संस्करण किले नि छपाई ? गढवाळी साहित्यौ बान आपकू लेख छपण जरोरी छन?
भीष्म कुकरेती : हाँ बनि-बनि पत्रिकाओं/ अख्बरून अर गढ़ऐना मिलैक १२०० से बिंडी लेख त होला ही। पोथी रूप मा लेखुन, कथों संस्करण नि आणो पैलू कारण च जन्म जाती अळगस। मि भौत इ अळगसी छौं। मि एक दें लिखणो परांत दिख्दु बि नि छौं क्या ल्याख। फिर मेरी नौकरी बि गौन्त्या बिरती की च (घुम्क्ड्डी) यां से बि गयेळी ह्व़े। मुंबई मा सहित्यौ माहोल नि च एक वजे या बि च। सन् ग्यारा मा जरोर छ्पौल। हैंको कारण च मेरो १९९१ से २००४ तलक साहित्यौ बणवास। अब हैंको साल जरोर छापौल।
वीरेंद्र पंवार ; गढ़वाळी साहित्य मा कार्टून विधा की शुरुव्वत कैन कार अर कने ह्व़े ?
भीष्म कुकरेती : यो बि एक मजाक इ च बल। गढवाळी मा लिख्वारून अर रिख्डाकारुं/चित्र्कारु कमी नि च पण च्बोडया रिख्डाकार (व्यंग्य चित्रकार) गौणि गाणिक द्वी चार इ ह्वेन। गढवाळी मा सबसे पैल चबोड़ी रिख्डा (व्यंग्य चित्र) हिलांस को जुलाई १९८७ मा छप। मतलब गढवाळी मा पैला व्यंग्य चित्रकार छन गढवाळ का शिर्मौरी चित्रकार बर्जमोहन नेगी (बी मोहन नेगी) उनका चबोड्या रिख्डों मा चित्र भौत इ बढिया होंदन। मेरी समज से बी मोहन नेगी क बीसेक व्यंग्य चित्र त छपी होला "खबरसार" अर "गढवाळी धै" अखबार मा उनक एकी चित्र हरेक अंक मा छ्प्दो अर सम्पादक व्यंग्य बदलणा रौंदन बी मोहन नेगी क चित्रों मा वतावरण पर जादा जोर हुन्द। किशोर कदम, रमेश डबराल, डा नन्द किशोर हटवाल, जगेश्वर जोशी, डा नरेंद्र गौनियाल जना विद्वानूं गढवाळी मा व्यंग्य चित्र छापिन। संख्या कु हिसाब से म्यार (भीष्म कुकरेती ) चबोडी रिख्डा सबसे बिंडी छन।
वीरेंद्र पंवार : आपन अब तक कथगा व्यंग्य चित्र छपैन ?
भीष्म कुकरेती : नी बि होला त ६०० से जादा व्यंग्य चित्र त आज तलक छपी इ होला।
वीरेंद्र पंवार : अबका अर बीस बरसून् पैलि लिखेण वाळ साहित्य मा क्या फरक चिताणा छ्न्वां ?
भीष्म कुकरेती : कविता, गीतुं अर फिल्मों मा त फरक कुछ हद तलक दिख्यांद च। पण गद्य मा कुछ फरक नी च। कविता मा बि फरक जादा गात को च, सरेल को च। भौण स्टाइल (Body, format, style) को च। अर कवि एक्सपेरिमेंट करण मा अग्वाड़ी आण चाणा छन। कत्ति नई विधा जन गजल, हाइकु, नवाड़ी गीत कविता मा ऐन। पण गद्यात्मक कविता पर जरा जादा इ जोर च। अर जन की गां- गौळ (समाज) मा बादलौ आणु च त कविताओं मा विषय को बदलौ आण इ च। फिर एक भौत बडो फरक जगा को ह्वेई। पैलि दिल्ली गढवाळी साहित्यऔ राजधानी छे। अब देहरादून च। अर कथगा इ उपराजधानी बि छन- पौड़ी, कोटद्वार, गोपेश्वर, श्युन्सी बैज्रों जन अड़गें (क्षेत्र) मा सन्गठनऔ हिसाब से काम हूणु च। या इन बुले सक्यांद गढवाळी साहित्य अब श्हरून बनिस्पत गाऊं मा जादा लिख्याणु च। मतलब अनुभव पर जोर जादा ऐगे। कल्पना से जादा असलियत को जोर ह्व़ेगे। उदारण- खबरसार क ख्ब्रून अर ख्ब्रून छाण-निराळ (न्यूज़ एंड व्व्युज ) मा साफ़ दिखेंद। उन्नी डा नरेंद्र गौनियाल, गिरीश सुंदरियाल, हरीश जुयाल, आपकी कविताओं मा अनुभव कल्पना पर हाव्वी होंद। नरेंद्र कठैत या त्रिभुवन का गद्य मा आजौ समौ दिखेंद त मतलब अनुभव कल्पना पर जादा हाव्वी च। कविताओं मा व्यंग्य जादा च त एकी कारण च। अब अनुभव कल्पना से अग्वाडी छ। अब का कवि मुख्मुल्य्जा नी छ। अब वो चरचरा छन (जादा मुखर ह्व़ेगेन)। व्यंग्य कल्पना को भरवस नी लिखे सक्यांद इख्मा अनुभव/भुग्युं/दिख्युं की भौत जादा ज्रोरात होंद। मतलब अब कविता लोगूँ जादा नजिक ऐगे। कवि एक्सपेरिमेंट जादा करण चाणा छन। अब कवि अन्तराष्ट्रीय परिधि मा आणों बान अतुर्दी च। वो अब गढवाळी भाषा तैं कुवा क मिंढुक नी रखण चांदन. गढवाळी साहित्य मा जनान्युं आण बतांद/ इशारा कर्द बल समाज बदल्याणु च अर गढवाळी भाषा पर जु बि खतरा च वै खतरा तैं टाळणा बान मात्रिश्क्ति की जरोरात च। कविता मा गद्य ब्युंत (गद्यात्मक लय) हावी होणु च त वांको पैथर एक कारण च अच्काल सरा जग मा यि हाळ छन कवियुं कविता मा लय से जादा ध्यान अब कंटेंट पर च। फिर कवि जादा मेनत नी करण चाणा होला? आप कवि छन आप जादा बतै सक्दवां।
वीरेंद्र पंवार : अच्काल कविता जादा लिख्याणि छन आपक क्या बुलण च ?
भीष्म कुकरेती : गढवाळी मा पैलि बिटेन कविता जादा लिख्याणि छन। कविता अर अध्यात्म वलू साहित्य तभी जादा लिख्यांद जब चित्वळ मनिख यू स्म्ज्दो बल समाज फर क्वी भीत/भय/डौर आण वाळ च। यांको मतलब च रचनाकारुं तैं क्वी अणजाणो भय/डौर दिखयाणु च।
वीरेंद्र पंवार : क्या कवि कविता लिखण जादा सोंग सरल समजणा छन ?
भीष्म कुकरेती : मीन याँ पर क्वी छ्वीं कबि कै कवि से नि लगै। मी तैं त कविता लिखण गद्य से जादा कठण लगद। आप कवि छन आप जादा जाणदा ह्वेला। हाँ जु मूड ऐगे। विषय मन मा भीजीगे, शब्द मगज मा आई जावन त कविता लिखण सरल/सोंग च। पण श्ब्दुं क ग्न्ठ्याणऔ बान कवि तैं भौत मेनत मस्कत त करण इ पोडद। आप अपणो इ उदारण ल़े ल्याओ बीच मा आप सेगे छ्या। नेत्र सिंग अस्वाळ को उदारण ल़े ल्याओ। कविता गंठयाणऔ बान कथगा इ मानसिक बिसौंण (पड़ाव) से गुजरण पोडद। एक स्वील पीड़ा क अनुभव से गुजरण पोडद। मन मा एक बौळ ल्ह़ाण पोडद। हाँ जु कविता या गद्य तैं अपण इ मजा क बान लिख्दन उ सैत च घड्यावन/स्वाचन बल कविता गंठयाँण सौंग च सरल च। गढवाळी साहित्य मा लिख्वार आप तैं घपरोळया साहित्यकार क रूप मा जादा जाणदन।
वीरेंद्र पंवार : याँ फर क्या बुलण चैल्य़ा ?
भीष्म कुकरेती : इखम मीन क्या बुलण असल मा आप तैं इ कुछ बुलण चयेंद। खैर बात या च बल मीन द्वी सिंगार/स्तम्भ/कॉलम का नाम से लेख लिखीं "घपरोळ अर खीर मा ल़ूण" द्वी कॉलम मा घपरोळ की गंध आन्द त मीतैं साहित्यकार घपरोळया बुल्दन त क्वी गलत नी च। असल मा जब मि कै बात पर बहस चांदु त सिंगार/स्तम्भ/कॉलम क नाम घपरोळ धैरि लींदु अर जब विषय परिपाटी से कुछ बिगलीं/भिन्न/अलग ह्वाऊ त मि खीर मा ल़ूण नाम ध्री लीन्दु।
वीरेंद्र पंवार : लिख्वार इन बि बुल्दन बल कथगा लिखवारूं तैं आपन गाळी बि देनी ?
भीष्म कुकरेती : हाँ ह्व़े सकद च आप यीं भाषा तैं गाळी मा गणत करी सकदवां। एक चिट्ठी मा "बुलणो को आलोचक" श्री भगवती परसाद नौटियाल पर मीन भगार लगे छे की उनतैं गढवाळी लिखण इ नि आन्द अर अपण मजा क बान जन आदिम हस्तमैथुन करदू उनी नौटियाल जी अपण मजा बान गढवाळी मा आलोचना लिख्दन। मीन इन बि बोली बल नौटियाल हिंदी क जासूस छन जु गढवाळी तैं निपटाण पर अयाँ छन। फिर एक लेख मा मीन बोली की भगवती परसाद नौटियाल हिंदी उपनिवेशवाद क बाईसराय छन। एक चिट्ठी मीन जु भौत स लिख्वारूं खुणि भेज छे उखमा मीन बोली बल गढवाळी सभा का साहित्य कोष क नौटियाल जी गढवाळी शब्दकोष का संयोजक बौणिगेन यानि की "गढवाळ सभा न स्याळ तैं चिनख्यों/बखरों ग्वेर बणे दे। जु लिख्वार आलोचक छौंद गढवाळी शब्दुं हिंदी शब्द इस्तेमाल करू वै पर भगार लगाण मा मी तैं क्वी शर्म नी लगद। मीन प्रूफ दे बल नौटियाल जी अपण लेखुन मा ९९ टका हिंदी शब्द इस्तेमाल कर्दन। आप ये तैं गाळी माणदवां त मीन गाळी दे च। ना त लिखद दें ना इ आज मी तैं क्वी मलाल च की मीन नौटियाल जी क वास्ता इन श्ब्दुं प्रयोग करी जै तैं आप गाळी माणदवां। आलोचक सिर्फ साहित्य औ छाण - निराळी नि करदो बल्कण मा साहित्यकारूं तैं बाटु बि दिखांद। अब जब गुरु इ भेळ जाणु हो त च्यालों क्या होलू ? जख तलक बकै साहित्य्कारून सवाल च मीन व्यक्ति क रूप मा मदन डुकल़ाण पर भगार लगे बल "लोक नाटक विशेषांक मा सम्पादकन् ब्राह्मणवाद चलाई" हमारी चिट्ठी क नाट्य विशेषांक मा सौब लेख बामण लेख्कुं का छन एक बि जजमान या शिल्पकार क लेख नाटक सम्बन्धी नि छ्या। इन्टरनेट पर याँ पर बडो घपरोळ ह्व़े। गढवाल पोस्ट का सम्पादक न त मेखुणि इक तलक बोल बल मि बोल़ेग्यौं या मेरी दिमागी हालत ठीक नी च। सम्पादकीय जुम्मेवारी पर बि बहस ह्व़े। अंग्रेजी अख्बरूं सम्वाददाता अर हिंदी अख्बरूं सम्पद्कुं न ईं बहस मा भाग ल़े। कत्ति आम बंचनेरुं न बहस बांचिक हमारी चिठ्ठी पत्रिका मंगाई। डा. दाताराम पुरोहितन् डुक्लाण पर भगार लगे (आलोचना करी) बल ये विशेषांक मा स्वांगु/नाटकुं बाबत भौत सी ब्त्था नी छपेगेन। हमारी चिट्ठी क गढवाळी नाट्य विशेषांक मा डा. राजेश्वर उनियाळन् लेख लिखी थौ। मीन ल्याख बल यू लेख हिंदी की नकल च गढवाळी नात्कुं बारा मा कुछ छें इ नी च। इख पर बि भौत घपरोळ ह्व़े। डा. राजेश्वर उनियाळन् अपणा लेख मा बादी, मिरासी कुं उल्लेख इ नी करी अर लेखी दे बल गढ़वाळ मा नाटकुं शुरुवात रामलीला से ह्व़े। मीन तेज, करकरा, कैडा बचनुं मा राजेश्वर उनियल फर भगार लगै.. काट करी। अब यूँ तेज /कैडा /करकरा बचनुं तैं गाळी माने जाओ त मि क्य करी सकदु ! इन्नी नरेंद्र कठैत की किताब मा एक वाक्य की मीन खूब छांछ छोळी ये वाक्य से इन ल्ग्दो छयो बल जन की उत्तराखंड खबरसार अखबार मा इ गढवाळी व्यंग्य छपी ह्वावन अर याँ से पैलि गढवाळी मा व्यंग्य इ नी छपी होला। इख पर बि खबरसार अर रिजनल रिपोर्टर मा मेरी भौत काट करेगे। मीन बात अग्वाड़ी नी बढाई निथर बहस भौत अगने बि जै सकदी छे। मि नी माणदो मीन नरेंद्र कठैत तैं क्वी गाळी दे होऊ। मीन जु बि इन्टरनेट मा ल्याख उ खबरसार मा छ्प्युं च बांची ल्याओ। कखिम बि गाळी नी छन। अब काट तैं करकरा / कैड़ो बचनों तैं गाळी माने जाओ त मि कुछ नी बोली सकदो। जख तलक अबोध बहुगुणा अर मेरो बोल बचनो सवाल च ओ निपट साहित्य की बहस छे अर ओ सब बहुगुणा जी क किताब "कौंळी किरण" मा छ्प्युं च। गाळी क क्वी बात नी च। हाँ भौत बडो घपरोळ म्यार वात्सायन कु कामसूत्र क इंटरनेट मा अनुवाद से ह्व़े। गढवाळी साहित्य मा इथगा बहस कबि नी ह्व़े ज्थ्गा कामसूत्र को अनुवाद से ह्व़े। तकरीबन पचासेक लोगूँ न इख्मा हिस्सा ल़े होलू। भौत बड़ें बि ह्वेई अर भौत गाळी बि खैन। पण यीं बहस से गढवाळी भाषा कु फैदा इ ह्व़े। लोग चित्वळ ह्वेन बल गढवाळी मा कुछ लिख्याणु च। मीन एक अंग्रेजी मा इन्टरनेट मेल मा लेखी बल रामी बौराणी गीत बंद करे जाण चयेंद त म्यार लेख क विरुद्ध त्याईस लोगुन लेख लिखी उखमा उन्नीस कुमाउनी लिख्वार या बन्च्नेर छ्या। इकम बि गाळी नि छई मीन इंटरनेट मेल मा अंग्रेजी मा लेख ल्याख बल गढवाळी भाषा क नंबर एक दुश्मन हिंदी च त बबाल ही खड़ो ह्व़ेगे। हिंदी क समर्थकन् मेरी काट करी। पण यो बि ठीक बहस छे। याँ से बि गढवाळी भाषा का प्रति लोग चित्वळ ह्वेन। इंटरनेट मेल मा इ मीन पराशर गौड़, विनोद जेठुरी अर जगमोहन जयारा जना गढ़वाळी कवियुं कुण कैडा बचनुं मा बोली बल भै गढ़वाळी शब्द ह्वेका कविता की मुंडळी या कविता मा हिंदी शब्द कुच्याण जरोरी च क्या ? मि नि माणदो मीन कैतैं गाळी दे हो ! जैन छेज तैं लोक गाळी माणना छन वो मेरो हिसाब से ख्चांग च अर में हिंदी प्रेम्युं (जु छौंद गढ़वाळी श्ब्दुं हिंदी शब्द प्रयोग करदन ) पर ख्चांग लगाण चांदो। ये तैं लोक गाळी बुल्दन मि आन्दोलन बोल्दु।
वीरेंद्र पंवार : सन २००७ मा तुम तैं अदित्य्राम नवानी इनाम मील, क्न लग ?
भीष्म कुकरेती : लग त अछू इ च। मीतैं त छ्वाड़ो म्यार घर वालोँ तै अर रिश्तेदारों तैं लग बल मि इथगा सालुं से झक नि मारणो छौ। असल मा मीन प्रसिधीs बान गढवाळी मा नि ल्याख बल्कण मा गढवाळी तैं सजाण बिग्रैली बणाणऔ बान ल्याख। प्रसिधी त मी तै मार्केटिंग का अंग्रेजी लेखुं से जादा मिलदी।
वीरेंद्र पंवार : नवाडी साखी (नयी पीढ़ी) मा गढवाळी साहित्य की हालत से संतुष्ट छ्न्वां क्या ?
भीष्म कुकरेती : जख तलक नवाडी कवियुं बात च त इन लगद बल नया लोग गढ़वाळी मा आणा छन। कुछ नया करणो बान आण चाणा छन। गढवळी कविता मा बुढाण बस्याण खत्म करणो इच्छा नया कवियुं मा दिखयाणि त च पण गद्य मा त सुखो च। नया आणा छन पण क्वी ख़ास उद्देश्य ऊँ मा नि दिख्यांद। जख तलक नया बंचनेरूं सवाल च यो त अखबार आर प्रकाश्कुं सम्पादक प्रकाशक ही बताई सक्दन की नया बन्च्नेरू क्या हाल छन
वीरेंद्र पंवार : ए बगत गडवाळी क लिख्वारून लेखा जोखा ?
भीष्म कुकरेती : भई ! यो सवाल त लम्बो चळण वाळ च। गद्य च, पद्य च , स्वांग च. कविता इतिहास बंचणो होत हमारी चिट्ठी क कविता विशेषांक औ जगवाळ कारो। मीन गढवाळी कविता इतिहास लिख्युं च गद्य पर अब काम करलो। उन इन्टरनेट मा तकरीबन ३००-४०० लेख (कविता समीक्षा अर कवियुं परिचय) मीन छपाई ऐन वां से बि पता चलदो की कविता मा काम हूणो च खबरसार अखबार देखि ल्यो त इन ल्ग्दो गद्य मा बस्याण ही च नरेंद्र कठैत, त्रिभुवन छोड़िक क्वी गद्य मी तैं इन दिख्याई की जै तैं याद करे जौ. ग्र्ह्जाग्र बाँचो त उखमा सौब बासी साहित्य छ्प्दो. मतलब गद्य साहित्य मा सुखो च।
वीरेंद्र पंवार : तुमन गढ़वाळी लिखवारूं कुण मोबइल से एसेमेस भ्याज बल अपण साहित्य इन्टरनेट मा छापो। अर फोन पर बि हिदायत दीण रौंदवां बल इंटरनेट मा साहित्य छापो। इंटरनेट से गढवाळी साहित्य तैं कथगा फैदा होलू ?
भीष्म कुकरेती : हाँ ! मि जैक बि दगड छ्वीं ल्गान्दो मेरी सल्ला रौंदी बल इन्टरनेट मा गढवाली साहित्य छपवाओ। इंटरनेट एक नयो माध्यम च इख्मा गढवाळी साहित्य छपण चएंद। गढवाळी साहित्य हेरेक माध्यम मा छपणि चएंद की ऩा? इंटरनेट माध्यम एक बडो माध्यम च जखमा साहित्य वितरण की समस्या नी च। जगमोहन जयारा, पराशर गौड़ जन कवियुं तैं आज सरा संसार मा गढवाळी जाणदन त इंटरनेट का बदोलत। धनेश कोठारी, विनोद जेठुरी क ब्लॉग लोक बांचण मिसेगेन। विजय कुमार अर वीणापाणी जोशी तैं बि कुछ लोक पछ्याण मिसेगेन। जख अख्बरून अर किताबुन वितरण कर्दा-कर्दा प्र्काश्कुं टकटूटी जांद वख इन्टरनेट से एक सेकंड मा बात इखं उख पौंची जांद फिर प्रतिक्रिया बि चौड़ मिली जांद। पराशर गौड़ का क्थ्गा इ कविताओं फर दसेक पाठकों से प्रतिक्रिया आई जान्दन। इंटरनेट से बंचनेरूं दगड छ्वीं (सम्वाद) भौत सरल सौंग च जु ऑफलाइन माध्यम मा नी ह्व़े सकद मेलिंग ग्रुप मा साहित्य भीजे जांद अर जैन बांचणाइ वु बांची लेन्दो। साहित्य उपलब्ध होऊ त ही लोक बांचल की ऩा? इनि वेबसाईंटूं मा छ्प्युं साहित्य तैं बन्चनेर जब चाहे तब बांची सकद। गढवाळी साहित्य तैं इन्टरनेट से जादा इ फैदा च किलैकि सहित्यौ वितरण समस्या को हल मिलीगे।
वीरेंद्र पंवार : इंटरनेट मा गढवाल्यूं तादाद भौत कम च याने पाठक सीमित च त ..?
भीष्म कुकरेती : त ऑफलाइन मा आप तैं कौं से बिंडी पाठक मिल्दन ? उत्तराखंडी मेलिंग रूप मा पाँच छे हजार सदस्य छन सौ बि बन्चनेर बौ नी गेत समजी काम ह्व़ेगे फिर वेबसाईट मा लगातार पाठक मिलदा इ रौंदन। इन्टरनेट का पाठक जादा सजग अर काम कु बि छन
वीरेन्द्र : इंटरनेट से गढवाळी साहित्य तैं क्थ्गा भलु होलू ?
भीष्म कुकरेती : भै नयो माध्यम च ज्थ्गा बि पाठक मिलल़ा त भलो ही होलू। चलो इन्टरनेट तैं बोनस समजी ल्यो फिर बि फैदा इ च। मै तैं त बहुत फ़ायदा ह्व़े। लोक मेरी बात समजणा छना म्यार दगड गढ़वाळी भाषा विकास, रक्षा बाबत छ्वीं (interaction) लगाणा रौंदन जु ऑफलाइन माध्यम मा नी ह्व़े सक्दो।
वीरेंद्र पंवार ; तुम तैं विश्व साहित्य की जानकारी च पण इंटरनेट मा क्थ्गा इ विसयुं पर घपरोल्य़ा बात उठै लीन्द्वां। वां से जादा तुम गढ़वाळी पर फॉक्स करो त गढ़वाळी को फैदा होलू।
भीष्म कुकरेती : उन त जादातर विषय भाषा सम्बन्धी ही होंदन (जै तै तुम घपरोल्या विषय बुल ऩा छ्न्वां)। भाषा पर क्थ्गा इ बहस की पवाण मिन इ लगें। जब मीन गढवाळी व्यंजन गढवाळी मा लेख त लोकुं तैं बांचण इ पोड। इनि आवा गढवाळी सिकला तैं पाठक पढ़णा छन। पण लिख्वार सामजिक मनिख बि होंद त सामजिक जुम्मेवारी बि निभाण जरोरी च। में अंग्रेजी मा व्यंग बि लिख्दु त उख पर बि बहस ह्व़ेजांद। हाँ या बात सै च मेरा अंग्रेजी व्यंग्य क्वी इन व्यंग्य नी होलू जै पर बहस नी होऊ। पर लिखण मेरो ढब च बौळ च।
वीरेन्द्र पंवार : तुम गढवाळी साहित्यकारुं तैं समजाणा छ्न्वां। धै लगणा छ्न्वां बल इंटरनेट मा अपणो साहित्य छपाओ। इंटरनेट से गढवाळी भाषा तैं क्य फ़ायदा ?
भीष्म कुकरेती : म्यार अनुभव से भौत फ़ायदा छन। जन कि ईमेल ग्रुपिंग, ग्रुप एमैलिंग से आप अपणि बात गढवाळी मा ब्लॉग सदस्यों तलक पौंछे सक्दवां। तकरीबन उत्तराखंडी ग्रुप मा ६०००/७००० सदस्य होला। आप सबि ग्रुप का सदस्य बौणो अर गढवाळी साहित्य भ्याजो। सौ बि आपको साहित्य बांचल त भौत ह्व़ेगे।
वीरेंद्र पंवार : आप साहित्य मा रस/रूचि ल़ीण वल़ा बंचनेरूं/पाठ्कुं ग्रुप बणऐ स्क्द्वान अर ऊँ तैं गढवाळी साहित्य रोज भेजी सकदवां.
भीष्म कुकरेती : आप तैं यूँ ग्रुपुं सदस्यों से चौड़ प्रतिक्रिया मिली जांदी अर आप जाणि जैल्या बल बंचनेरूं रूचि क्या च। मेरो इन्टरनेट का बदोलत भौत सा साहित्यकारुं (हिंदी, अंगरेजी, गढवाळी, कुमौनी) दगड सम्पर्क ह्व़े अर हम भौत तरां कि साहित्यिक छ्वीं लागौन्दा। इन्नी साहित्य्कारून सम्बधित ग्रुप बणैक रन्त रैबार भीजे सक्यांद। साहित्य कु अदला-बदली ह्व़े सकद जु ऑफलाइन मा सम्भव नि च। आप अपणो साहित्य बगैर परेशानी क उत्तराखंडी वेब साईट मा छपै सक्दां। जु ऑफलाइन माध्यम मा सॉंग सरल नी च। आप अपणो ब्लॉग बणावो अर उख्म्मा साहित्य छपवाओ अर पाठ्कुं/बंचनेरूं दगड सम्पर्क बढ़ाई सक्दन। गढवाळी पत्रिका बि इन्टरनेट से छपी सकदी च। इन्टरनेट से आप गढवाळी साहित्य तैं जख बि गढवाळी छन पौंचे सकदवां हाँ विषय जरा काम को हूँण च्यान्द। जनकि मेरो गढवाळी मा लिख्युं गढ़वाली व्यंजन लेखमाला तैं ऊन बि बांच/पौढ़ जौं तै गढवाळी नि औंदी छे/ कत्युन प्रतिक्रिया गढवाळी मा भ्याज। याँसे पैल ऊं लोकुन गढवाळी मा कबि बि नि लिखी छौ। इंटरनेट मा छ्प्युं विषय स्द्यानी कुणि कखी ना कखि जिन्दा रौंद पाठक अपणो औ सुविधा हिसाब से साहित्य बांची सकद।
वीरेंद्र पंवार : आप पर जादातर साहित्यकार भगार ल्गान्दन बल आप इन्टरनेट मा गढवाळी भाषा साहित्य औ छ्वीं हिंदी या गढ़वाळी छोड़िक अंग्रेजी मा करदवां ?
भीष्म कुकरेती : हाँ मि गढवाळी की बात हिंदी मा कतई नि करदों। पण इन बि नी च बल मि गढवाळी छ्वीं गढवाळी मा नी करदो हों। मि इन जरोर दिख्दु बल मेरो इन्टरनेट का पाठक कु छन। उत्तराखंड तैं छोड़िक जु बि भैराक पाठक इन्टरनेट पर छन वु अंग्रेजी मा बांचणो/पढणो ढब्याँ छन। मेरो पैलो मकसद छयो बल यूँ प्रवाश्युं तैं गढवाळी साहित्य/भाषा औ बार मा मालूमात दिए जाऊ। त अंग्रेजी इ इन भाषा च जु फैदाम्न्द च। जौं तैं गढ़वाळी नी औंदी/जौं तै गढवाळी भाषा/साहित्य की जानकारी नी च ऊंथैं ध्यान मा रौखिक मीन अंग्रेजी भाषा औ सारा ल़े। मेरो टार्गेट ही उ छ्या जु अंग्रेजी जाणदन पण गढवाळी भासा बार म अणजाण छन जख तक जौं तैं हिंदी जादा औंदी या अंग्रेजी ठीक से नी औंदी वो जादातर गढ़वाळी भाषा बारा मा जाणदा छन। दुसर कम्प्यूटर मा अंग्रेजी मा लिखण सरल बि च। फिर मेरो उद्देश्य गढ़वाळी भाषाs बार मा ग्यान दुनिया का हौरी भाषाई लोकुं तक बि पौंछाणो च। इलै मि इन्टरनेट मा गढवाळी साहित्य बार मा अंग्रेजी मा लिखदों। जां से भारत से भीतर का लोकुं तैं बि गढवाळी साहित्या बार मा मालुमात ह्व़े जाऊ।
वीरेंद्र पंवार : आपन इंटरनेट मा अंग्रेजी भाषा मा गढ़वाळी साहित्य सम्बन्धी साहित्य क्या ल्याख ?
भीष्म कुकरेती : मेलिंग मा त भौत कुछ अपणा विचार भेजिन। हाँ वेबसाईट मा मीन गढ़वाळी कवि अर गढ़वाळी कविताओं बार मा जादा लिखी।
वीरेंद्र पंवार : जन की ?
भीष्म कुकरेती : मीन पिछ्तर से बिंडी कविता किताबुं समीक्षा वेबसाईटु मा छाप या इन बोली सक्दों जो बि गढवाळी कविता किताब मीम छै मिन हरेक किताब की समीक्षा अंग्रेजी मा वेबसाईट मा छाप। इनि द्वी सौ से बिंडी कवियुं बार मा जीवनी अर उंको साहित्यिक विवरण वेबसाईटउं मा छाप। इनि लोक गीतुं समीक्षा बि छापिन। लोक कहावतों बारा मा बि जानकारी वेबसैट मा छाप। सैद च चार सौ से जादा लेख छपीगे होला।
वीरेंद्र पंवार ; तुम जब कै कवि की समीक्षा कर्द्वान त वै कवि की तुलना दुसर मुल्कों साहित्य्कारून दगड करदवां। इन किले ?
भीष्म कुकरेती : हाँ जु कवि या वेकी कविता उन/विशेष ह्वाऊ त मि कवि/कविताओं तुलना भैर देसूं कवियुं/कविताओं दगड करदों। वजे साफ़ च मि दुन्य तैं बताण चांदो बल गढवाळी मा बि अन्तराष्ट्रीय भाषा बणणों पुन्यात च, स्क्यात च।
वीरेंद्र पंवार : तुम गद्यकार छ्न्वां पण समीक्षा कविता की ही कार ?
भीष्म कुकरेती : इकु बात च ज़रा कविता इतिहास पुरो ह्व़े जावू त गद्य पर काम करलो। अबी गढवाळी कवितायौ इतहास को काम बाकी च। यू इतिहास पुरु ह्व़ेजालो त फिर गद्य औ बार मा छाप्लो।
वार्ताकार- वीरेंद्र पंवार, पौड़ी
03 January, 2011
02 January, 2011
स्वागत सत्कार
नयि सदी नया बरस
तेरु स्वागत तेरु सत्कार
हमरा मुल्क कि
मोरी मा नारेंण
खोळी मा गणेश
चौंरौं कि शक्ति
द्यब्तौं कि भक्ति
कर्दी जग्वाळ्
तेरु त्यौहार
हमरि गाणि
बस्स इतगा स्याणि
पछाण कि च लपस्या
साक्यूं कि च तपस्या
हमरा बाग हमरा बग्वान
पसर्यूं बसंत
गुणमुणौंद भौंर सी
उलार्या बगच्छट बणिं
घड़ेक थौ बिसौ
हमरा गुठ्यार
ऐंसू धारि दे
हळ्या का कांद मा हौळ्
बळ्दुं दग्ड़ि
बारामासी टुटीं वीं कुल बटै
हमरि डोखरी पुंगड़्यों मा
लगैदे धाण कि पवांण
सेरा उखड़ उपजै नयिं नवांण
कर कुछ यन सुयार
औजि तैं पकड़ै लांकुड़
गौळा उंद डाळी दे ढोल
गुंजैदे डांडी कांठ्यों मा
पंडौं अर जैंति का बोल
अणसाळ् गड़्वै छुणक्याळी दाथुड़ी
बुंणि दे दाबला अर पैलुड़ी
अपणा ठक्करूं दिशा कि खातिर
मिली जैलि
त्वै बि ड्डवार
कुळैं देवदारुं बिटि छिर्की
पैटैदे पौन बणैक रैबार
वे मुल्क हपार
जखन बौडिक नि ऐनि
हमरा बैख
बैण्यों कि रखड़ी
ब्वै कु उलार
जग्वाळ् च
बादिण बौ का ठुमकौं थैं
अर पठाळ्यों का घार
हे चुचा
अब त बणिजा
हमरा ब्यौ कु मंगल्यार।
Source- Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari
तेरु स्वागत तेरु सत्कार
हमरा मुल्क कि
मोरी मा नारेंण
खोळी मा गणेश
चौंरौं कि शक्ति
द्यब्तौं कि भक्ति
कर्दी जग्वाळ्
तेरु त्यौहार
हमरि गाणि
बस्स इतगा स्याणि
पछाण कि च लपस्या
साक्यूं कि च तपस्या
हमरा बाग हमरा बग्वान
पसर्यूं बसंत
गुणमुणौंद भौंर सी
उलार्या बगच्छट बणिं
घड़ेक थौ बिसौ
हमरा गुठ्यार
ऐंसू धारि दे
हळ्या का कांद मा हौळ्
बळ्दुं दग्ड़ि
बारामासी टुटीं वीं कुल बटै
हमरि डोखरी पुंगड़्यों मा
लगैदे धाण कि पवांण
सेरा उखड़ उपजै नयिं नवांण
कर कुछ यन सुयार
औजि तैं पकड़ै लांकुड़
गौळा उंद डाळी दे ढोल
गुंजैदे डांडी कांठ्यों मा
पंडौं अर जैंति का बोल
अणसाळ् गड़्वै छुणक्याळी दाथुड़ी
बुंणि दे दाबला अर पैलुड़ी
अपणा ठक्करूं दिशा कि खातिर
मिली जैलि
त्वै बि ड्डवार
कुळैं देवदारुं बिटि छिर्की
पैटैदे पौन बणैक रैबार
वे मुल्क हपार
जखन बौडिक नि ऐनि
हमरा बैख
बैण्यों कि रखड़ी
ब्वै कु उलार
जग्वाळ् च
बादिण बौ का ठुमकौं थैं
अर पठाळ्यों का घार
हे चुचा
अब त बणिजा
हमरा ब्यौ कु मंगल्यार।
Source- Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari