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Showing posts from August, 2018

तन के भूगोल से परे

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निर्मला पुतुल/ तन के भूगोल से परे एक स्त्री के मन की गांठें खोलकर कभी पढ़ा है तुमने उसके भीतर का खौलता इतिहास..? अगर नहीं तो फिर जानते क्या हो तुम रसोई और बिस्तर के गणित से परे एक स्त्री के बारे में...? साभार - कविता

क्योंकि दिल्ली से ‘हिमालय’ नहीं दिखता

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बचपन में गांव से हिमालय देखने को आतुर रहने वाले प्रसिद्ध साहित्यकार, वरिष्ठ पत्रकार और मंच संचालक गणेश खुगशाल ‘गणी’ को जब दिल्ली में प्रवास के दिनों में हिमालय नहीं दिखा तो उन्होंने दिल्ली को नमस्कार कर दिया और पौड़ी आ गए। इसके बाद वे पौड़ी के ही होकर रह गए। कई बार पौड़ी से बाहर मीडिया में नौकरी करने के मौके मिले, लेकिन उन्होंने पौड़ी नहीं छोड़ा। गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी के मंचों का संचालन करने वाले ‘गणीदा’ कुशल संचालक के साथ ही वरिष्ठ कवि भी हैं। उन्हें गढ़वाली लोक साहित्य में ‘हाइकू’ शैली की कविता का जनक भी माना जाता है। लोक साहित्य में उनका लंबा सफर रहा है, जो अभी जारी है। हिमालयी सरोकारों का प्रतिनिधित्व करने वाली धाद पत्रिका के संपादक गणीदा इस माध्यम से भी लोकभाषा के संरक्षण में जुटे हैं। उन्हीं के साथ पत्रकार साथी मलखीत रौथाण की बातचीत के अंश- मलखीत - गणीदा, आज आप बड़े मंचों के कुशल संचालक हैं, ये हुनर बचपन से ही आपके अंदर था? गणीदा - नहीं जी! ये हुनर बचपन में नहीं था। बचपन में तो स्कूली कार्यक्रमों में सांस्कृतिक कार्यक्रमों से दूर ही रहता था। गुरूजी कहते थे गीत गाओ या

उत्तराखंड में राजनीतिक महत्वाकांक्षा का फ्रंट !

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धनेश कोठारी - उत्तराखंड की राजनीति नई करवट बदलने को है। इसबार जिस नए मोर्चे की हलचल सामने आई है, उसकी जमीन तैयार करने में कोई और नहीं बल्कि भाजपा और कांग्रेस से बागी व नाराज क्षत्रप ही जुटे हैं। इसलिए राज्य के सियासी हलकों में इस कसरत के मायने निकाले और समझाए जा रहे हैं। कुछ इसे राज्य की बेहतरी, तो कुछ मूल दलों में वापसी के लिए दबाव बनाने की रणनीति का हिस्सा मान रहे हैं। लिहाजा, ऐसी राजनीतिक पैंतरेबाजी के बीच उत्तराखंड में तीसरे मोर्चे पर चर्चा तो लाजिमी है। सन् 2000 में नए राज्य उत्तराखंड (तब उत्तरांचल) के गठन के साथ ही सियासी जमीन पर भाजपा और कांग्रेस के अलावा क्षेत्रीय और तीसरी ताकत के तौर पर यूकेडी को सामने रखा गया। 2002 में पहले आमचुनाव में यूकेडी को महज चार सीटें मिलीं। जबकि बसपा के खाते में उससे ज्यादा 07 सीटें रही। 2007 और 2012 में भी वह तीन और एक सीट के साथ चौथे नंबर पर सिमटी। बसपा तब भी क्रमशः 08 व 03 सीटों के साथ तीसरा स्थान कब्जाए रही। सन् 2007 में भाजपा और 2012 में कांग्रेस की अल्पमत सरकारों को समर्थन देने में यूकेडी ने कतई देरी नहीं की। नतीजा 2017 आते-आते वह

ग़ज़ल (गढ़वाली)

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दिनेश कुकरेती (वरिष्ठ पत्रकार) - जख अपणु क्वी नी, वख डांडा आगि कु सार छ भैजी, जख सौब अपणा सि छन, वख भि त्यार-म्यार छ भैजी। बाटा लग्यान नाता-पाथौं तैं, कुर्चिऽ सौब अपणि रौ मा, जै परैं अपण्यास सि लगद, ऊ भि ट्यार-ट्यार छ भैजी। सच त ई छ कि सिरफ दिखौ कीऽ, छपल्यास रैगे अब, भितरी-भितरऽ जिकुड़्यों मा, सुलग्यूं अंगार छ भैजी। जौं तिबरी-डंड्ळयों उसंकद छोड़ी, धार पोर ह्वै ग्यां हम, सुणदौं कि अब ऊंकी जगा, सिरफ खंद्वार छ भैजी। ब्याळ स्वीणा मा दिख्ये झळ, अर दिख्येंदी हर्चिग्ये। कन बिसरुलु वीं तै, जिकुड़ि मा बसिं अन्वार छ भैजी। खीसा देखी त, क्वी भि अपणु बणि जांद परदेस मा, जु तुम द्यखणा छा मुखिड़ि परैं, झूठी चलक्वार छ भैजी।

उत्तराखंड में पारंपरिक बीज भंडारण विधियां और उपकरण

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डॉ. राजेन्द्र डोभाल - मेरे लिए उत्तराखंड अपने अद्भुत व समृद्ध पारंपरिक ज्ञान के लिए हमेशा से एक शोध का विषय रहा है आज ऐसे ही एक विषय (बीज भंडारण) पर अपने विचार साझा करना चाहता हूं। बीज में मूल डीएनए है, जो एक ही तरह के पौधे का उत्पादन करने में सक्षम है। जहां एक ओर बीज भंडारण, घरेलू और सामुदायिक खाद्य सुरक्षा को अगले फसल तक सुनिश्चित करने में मदद करता है, वहीं दूसरी ओर अच्छे बीज भंडारण का मूल उद्देश्य बीज की सुरक्षा, गुणवत्ता और उसकी मात्रा को बनाए रखने के लिए पर्यावरणीय स्थितियों का निर्माण करना है। जिससे घरेलू खाद्य सुरक्षा पूर्ति के साथ साथ कम से कम बीज की हानि हो। सीड स्टोरेज यानि की बीज भंडारण, फसलों की कटाई के फलस्वरूप होने वाली एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। बीज और अनाज सामग्री को लंबे समय तक स्टोर करने के लिए उत्तराखंड के स्थानीय लोगों द्वारा अपने निजी अनुभवों, सूझबूझ और स्थानीय संसाधनों से निर्मित सामग्री का प्रयोग एक उत्कृष्ट तरीके से किया जाता है। इन-वीवो या ऑन साइट प्रिजर्वेशन (कटाई के पहले संरक्षण): इस शैली के अंतर्गत एक विशेष तकनीक याद आती है, जिसमे क

जैसे को तैसा

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( लघुकथा ) गांव में एक किसान रहता था जो दूध से दही और मक्खन बनाकर बेचने का काम करता था... एक दिन उसकी बीबी ने उसे मक्खन तैयार करके दिया। वो उसे बेचने के लिए अपने गांव से शहर की तरफ रवाना हुआ... वो मक्खन गोल पेढ़ों की शकल में बना हुआ था और हर पेढ़े का वजन एक किलो था... शहर में किसान ने उस मक्खन को हमेशा की तरह एक दुकानदार को बेच दिया और दुकानदार से चायपत्ती, चीनी, तेल और साबुन वगैरह खरीदकर वापस अपने गांव को रवाना हो गया... किसान के जाने के बाद - दुकानदार ने मक्खन को फ्रिज में रखना शुरू किया... उसे खयाल आया के क्यूं ना एक पेढ़े का वजन किया जाए... वजन करने पर पेढ़ा सिर्फ 900 ग्राम का निकला... हैरत और निराशा से उसने सारे पेढ़े तोल डाले, मगर किसान के लाए हुए सभी पेढ़े 900-900 ग्राम के ही निकले। अगले हफ्ते फिर किसान हमेशा की तरह मक्खन लेकर जैसे ही दुकानदार की दहलीज पर चढ़ा... दुकानदार ने किसान से चिल्लाते हुए कहा- दफा हो जा, किसी बेईमान और धोखेबाज शख्स से कारोबार करना... पर मुझसे नहीं। 900 ग्राम मक्खन को पूरा एक किलो कहकर बेचने वाले शख्स की वो शक्ल भी देखना गवारा नहीं करत