उत्तराखंड में पारंपरिक बीज भंडारण विधियां और उपकरण



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डॉ. राजेन्द्र डोभाल -
मेरे लिए उत्तराखंड अपने अद्भुत व समृद्ध पारंपरिक ज्ञान के लिए हमेशा से एक शोध का विषय रहा है आज ऐसे ही एक विषय (बीज भंडारण) पर अपने विचार साझा करना चाहता हूं। बीज में मूल डीएनए है, जो एक ही तरह के पौधे का उत्पादन करने में सक्षम है। जहां एक ओर बीज भंडारण, घरेलू और सामुदायिक खाद्य सुरक्षा को अगले फसल तक सुनिश्चित करने में मदद करता है, वहीं दूसरी ओर अच्छे बीज भंडारण का मूल उद्देश्य बीज की सुरक्षा, गुणवत्ता और उसकी मात्रा को बनाए रखने के लिए पर्यावरणीय स्थितियों का निर्माण करना है। जिससे घरेलू खाद्य सुरक्षा पूर्ति के साथ साथ कम से कम बीज की हानि हो। सीड स्टोरेज यानि की बीज भंडारण, फसलों की कटाई के फलस्वरूप होने वाली एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। बीज और अनाज सामग्री को लंबे समय तक स्टोर करने के लिए उत्तराखंड के स्थानीय लोगों द्वारा अपने निजी अनुभवों, सूझबूझ और स्थानीय संसाधनों से निर्मित सामग्री का प्रयोग एक उत्कृष्ट तरीके से किया जाता है।

इन-वीवो या ऑन साइट प्रिजर्वेशन (कटाई के पहले संरक्षण):
इस शैली के अंतर्गत एक विशेष तकनीक याद आती है, जिसमे करीब-करीब पक चुके पौधों के सीड्स को पक्षियों (जैसे मुख्य रूप से तोते और कौवे) व अन्य जानवरों जैसे बंदर आदि से सुरक्षित रखने के लिए एक “बर्ड स्केर” (जिसे गढ़वाल में अक्सर डरोंणयां कहा जाता है) खेत में स्थापित किया जाता है। बर्ड स्केर द्वारा जानवरों में कैमोफ्लेज प्रभाव विकसित कर उन्हें भ्रमित कर, फसल की सुरक्षा की जाती है। (बर्ड स्केर पुतलों का ज़िक्र कर, स्मृति पर बचपन के दिन स्वतः ही अंकित हो जाते हैं जब मक्के (मुंगरी) के खेतों में लगे इन बर्ड स्केर पुतलों को देखकर मैं और मेरे साथी रोमांच से भर उठते और उत्सुकतावश पत्थर फेंक कर ये कन्फर्म करने की कोशिश करते कि क्या वाकई ये कोई इंसान है या फिर पुतला?)

पोस्ट हार्वेस्ट प्रिजर्वेशन (कटाई के उपरांत संरक्षण):
कटाई के बाद अनाज के साथ मिश्रित प्लांट मटेरियल जैसे अवांछनीय बीज या कर्नेल, भूसा, डंठल, खाली अनाज (एम्प्टी सीड्स) और खनिज मटेरियल जैसे पृथ्वी, पत्थर, रेत, धातु कण, इत्यादि पाए जाते हैं, जो निश्चित रूप से बीजों के भंडारण और प्रसंस्करण स्थितियों पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं, को कई विधियों द्वारा पृथक किया जाता है। इस तकनीक में अनाज या बीजों को साफ़ करके (जिनमें विनोविंग (फटेला), सेपेरेटिंग (रूंगडना) आदि प्रमुख हैं), कम से कम 2 दिनों के लिए धूप में सुखाने के बाद पारंपरिक भंडारण उपकरणों में अलग से भंडारित किया जाता है, जिन्हें स्थानीय तौर पर भकार, डोक, बिसौण/बिसाऊ, मटुल/मौहट, तुमड़ी/तोमडी (खोखली व सूखी बॉटलनुमा लौंकी), ठेकी, और मेटल बिन्स (गागर, तौल, कंटर और कसरा) कहा जाता है। आइये कुछ ऐसे ही पारम्परिक भण्डारण उपकरणों पर एक नजर डालते हैं।

भकार (वुडन बॉक्स):
भकार, एक विशाल आयताकार लकड़ी का बॉक्स होता है जिसका इस्तेमाल गेहूं और धान के सीड्स को लंबे समय तक सुरक्षित रखने के लिए किया जाता है। यह आमतौर पर चीड़ (पाइनस रॉक्सबर्घी) या देवदार (सेड्रस देओदारा), कटौंज (केस्टोनोपस ट्राइबोलॉइड), बांस (डेंड्रोकेलेमस स्ट्रीकस), निंगल (थम्नोकालेमस स्पिथफ्लोरा), तून (सेड्रेला टोना) की लकड़ी से बना होता है।

डोकः
यह एक बेलनाकार या अंडाकार बांस या रिंगाल (थेमनोकेलामस स्पेथिफ्लोरा) का बना बॉक्स है। जिसे अंदर और बाहर से गाय के गोबर व मिटटी के पेस्ट से प्लास्टरिंग कर बनाया जाता है (मिट्टी अनावश्यक नमी को अवशोषित कर बीज को सड़ने से बचती है। जबकि गाय का गोबर भंडारण कीटों के लिए एक विकर्षक (रेपलेंट) के रूप में कार्य करता है)। डोक में 50 से 100 किलो तक अनाज संगृहीत करने की कैपेसिटी होती है।

बिसौण/बिसाऊः
बिसौण/बिसाऊ का इस्तेमाल मुख्य रूप से दाल और बाजरा को सुखाने के लिए किया जाता रहा है। यह एक फ्लैट और अंडाकार आकार की संरचना बांस की पट्टियों से बनायीं जाती है। जिसे बाद में गाय के गोबर व गोमूत्र पेस्ट से प्लास्टरिंग कर खूब अच्छी तरह से सूखा कर प्रयोग में लाया जाता है।

मटुल/मौहटः
2015 में प्रकाशित एक शोध में किये गए सर्वे के अनुसार आज भी कुमाऊं में रह रहे 95 प्रतिशत रेस्पोंडेंट कृषक परिवारों द्वारा गेहूं और धान जैसे अनाज को सुखाने के लिए मटुल/मौहट (बांस की पट्टियों से बने चटाई) का प्रयोग किया जाता है।

तुमड़ी/तोमड़ीः
एक गोल या अंडाकार आकार वाली लौंकी (बोटल गार्ड) को 3-4 माह तक सूख जाने के बाद इसके बीज व पल्प निकल दिया जाता है। इसमें ढक्कन आम तौर पर लकड़ी या सूखे घास से बनायीं जाती है। मूलरूप से इसका उपयोग अगले सीजन के लिए बीज संग्रहित करने के लिए किया जाता है। कभी-कभी तुमड़ी का आकार बड़ा होने पर इसमें 10-15 किलो अनाज (एक मानक आकार में) संग्रहीत किया जा सकता है।

मेटल बिन्सः
धातुओं में तांबे, टिन व स्टील के बने डिब्बों का इस्तेमाल विशेष रूप से दाल और बाजरा को स्टोर करने के लिए किया जाता है। गढ़वाल में इन्हें गागर, तौल, कंटर और कसरा कहा जाता है।

ठेकीः
बाजरा और दालों के भंडारण के लिए पारंपरिक रूप से इस्तेमाल किए जाने वाला एक लकड़ी का कंटेनर है।

दूसरे चरण में, बीज सामग्री और अनाज की रक्षा के लिए एक उपाय के रूप में, किसान विभिन्न औषधीय पौधे, राख, तेल, नमक आदि का उपयोग करते हैं, जिन्हें उन्होंने अपने बड़े-बजुर्गों से सीखा। उत्तराखंड में, किसानों के लिए बीज केवल भविष्य के पौधों और भोजन का स्रोत नहीं है। बल्कि कई वर्षों के अथक प्रयासों व संघर्षों के फलस्वरूप प्राप्त वैज्ञानिक, व्यावहारिक व पारंपरिक सहज ज्ञान का प्रतीक है।

उत्तराखंड में वर्षों से चली आ रही पुराने परंपरागत भंडारण विधियों को प्रोत्साहित करने, एक वैज्ञानिक दस्तावेज बनाने और पुनर्जीवित करने की दिशा में मेरे द्वारा किया गया एक छोटा सा प्रयास, उत्तराखंड के स्थानीय लोगों (कृषि समुदाय) द्वारा विकसित ईको-फ्रेंडली व आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण, कृषि शैलियों के संरक्षण में अवश्य सहायक होगा।

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(लेखक महानिदेशक, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद्, उत्तराखंड हैं)

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