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Showing posts from June, 2019

देवदार

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अनिल कार्की // मेरे पास अन्नत की यात्राएं नहीं न ही यात्राओं के दस्तावेज मैं देवदार हूँ मनिप्लाँट होना मेरे बस में नहीं इतिहास पर मेरा कोई दावा नहीं उन कुर्सीयों पर भी नहीं जिन्हें बनाते हुए मुझे बढ़ई ने बीस जगहों पर जोड़ा तोड़ा जोड़ तोड़ से मेरा वास्ता नहीं मैं अब भी पहाड़ की किसी धार पर तुम्हारे लिए चिर प्रतिक्षारत हूँ ओ प्रेमी युगलो ! तुम आना मेरे तने को खुरच के लिख जाना अपना नाम लेकर तने का सहारा चूम जाना एक दूसरे को सबसे तेज धूप सबसे तेज बारिस बर्फीली आंधियों में पहाड़ की पीठ पर मै तुम्हारे प्रेम को बचाये रखूँगा सम्भाले रखूँगा तुम्हारे चुम्भन तुम लौटना शताब्दियों बाद तमाम यात्राओं से ले जाना मुझसे वापस अपना यौवन मैं खड़ा रहूँगा तुम्हारी बाट जोहूँगा।

गढ़वाळि भाषा मानकीकरण पर तीन दिनै कार्यशाला

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रमाकान्त बेंजवाल // दून यूनिवर्सिटी, देहरादून मा तीन दिनै (20 जून बिटि 22 जून, 2019 तलक) गढ़वाळि भाषा औच्चारणिक फरक तैं एकसौंडाळ कन्ना वास्ता कार्यशाला ह्वे।  यीं कार्यशाला मा उत्तराखण्डा  35 लिख्वार, साहित्यकार अर भाषा जणगुरोंन भाग ल्हीनि। डॉ. जयंती प्रसाद नौटियाल जीन भाषौ मानक रूप तय कन्न से पैलि कुछ मार्गदर्शी सिद्वान्त निश्चय कन्नै बात करि अर वे हिसाब से वूंन बतायि कि- 1. जन हिंदी मा मेरठा आसपासै खड़ि बोलि तैं आधार बणाये गे वनि गढ़वाळि मा सिरनगर्या गढ़वाळि तैं आधार बणौला। गढ़वाळ्या सबि इलाक्वा शब्द पर्यायवाची बण्या रौला। गढ़वाळी मूल प्रकृति खुणि बचौणा वास्ता सांस्कृतिक शब्दावलि तैं बचै रखला। 2. शब्दांत मा स्वर-व्यंजन विवादै स्थिति पर स्वर तैं महत्व दिये जाव।  3. उच्चारणा बाबत ब्वाल कि कखि जरूरत छ तक नै चिन्ह अपणोण पड़ला, ध्वनि चिन्ह बणाण की जरूरत छ। 4. असौंगा से सौंगै तरपां बढ़ण पड़लो। कार्यशाला मा सर्वनाम, सबंध कारक प्रयोग, विशेषण, क्रिया विशेषण अर संज्ञा 400 व्यावहारिक शब्दों पर छाळछांट ह्वे अर उच्चारणो मानक निर्धारित करि गे। क्रियो मूल पद अकारान्त होण पर सह

गढ़वाळि भाषा और साहित्य की विकास यात्रा

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पुस्तक समीक्षा /  समीक्षक- डॉ. अचलानन्द जखमोला // अप्रितम अभिव्यंजना शक्ति, प्रभावोत्पादकता, संप्रेषणीयता, गूढ़ अर्थवता तथा अनेकार्थता को व्यक्त करने की अद्भुद क्षमता वाली गढ़वाली भाषा पुराकाल से ही अनेक विद्वतजनों के आकर्षण का केन्द्र बनी रही। सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘काव्य मीमांसा’ के रचयिता कश्मीर निवासी आचार्य राजशेखर ने गढ़वाल क्षेत्र के भ्रमण के दौरान यहां के निवासियों को ‘सानुनासिक भाषिणः’ तथा यहां की बोलियों में कृदन्तों का प्राधान्य देखते हुए इन्हें ‘कृतप्रिया उदीच्या’ घोषित किया था। इस भाषा की महत्ता को महापंडित राहुल सांकृत्यायन् तथा शीर्षस्थ भाषाविज्ञों यथा- डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, डॉ. उदय नारायण तिवारी, डॉ. हरदेव बाहरी, डॉ. भोलाशंकर व्यास, डॉ. टीएन दवे आदि ने स्वीकारते हुए अपनी मान्यताएं प्रस्तुत की। व्याकरणविद् पादरी एसएस केलॉग को गढ़वाली की रूपगत विशिष्टताओं ने मुख्यतः प्रभावित किया। ‘गढ़वाळि भाषा अर साहित्य कि विकास जात्रा ’के रचयिता श्री संदीप रावत मूलतः रसायन शास्त्र के अध्येयता और अध्यापक हैं। सौभाग्यवश उनका क्रिया क्षेत्र अधिकांशतः टिहरी, श्रीनगर और पौड़ी के समीपस्थ

शिकैत

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धनेश कोठारी// जिंदगी! तू हमेसा समझाणी रै मि बिंगणु बि रौं/ पर माणि कबि नि छौं जिंदगी! तिन सदानि दिखै उकाळ अर उन्दार/पर मि उकळि कबि नि छौं जिंदगी! तेरा डेरा ऐन उजाळु- अन्ध्यारु बि/ पर मैं किवाड़ नि खोलि सक्यों जिंदगी! बग्त, गर्म्ल हक्क ह्वे बर्खान् भीजि ह्युंदिन् अळे बि छ/ पर तीन्दू कबि सुखै नि सक्यों जिंदगी! तेरु घैणु दगड़ू आज बि दगड़ा छ/ पर मैं गौळा कबि भ्यंटे नि सक्यों जिंदगी! सैंदिष्ट छन तेरा बाटा घाटा तेरु बि क्य कसूर/ जब मैं ई कबि हिटी नि छौं ...। ©धनेश कोठारी 16 जुलाई 2019 ऋषिकेश, उत्तराखंड

दानै बाछरै कि दंतपाटी नि गणेंदन्

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  ललित मोहन रयाल //    ऊंकू बामण बिर्तिकु काम छाई। कौ-कारज, ब्यौ-बरात, तिरैं-सराद मा खूब दान मिल्दु छाई। बामण भारि लद्दु-गद्दु बोकिक घौर लौटद छा। खटुलि, धोती, आटू, चौंळ, छतुरू। पैंसा दीण म नन्नी मोर जांदि छै। बरतण्या सामान जादातर निकमु निकळ जांदू छाई। बणिया बि पाल्टी तै सिकौंदू-भकलौंदु रैंदु छाई- “दानौ त चयेंदु, ऊ ना, यु वाळु ल्हिजावा, सस्तु-मस्तु लगै द्योलु।“ त ऊंक घौर मु खटुलु-बिस्तर, भांडी-कूंड्यों कु ध्यौ लग्यूं रौंदु छाई। जादाई कट्ठि ह्वैजांदु छाई। पंच-भांडि, छतरु-जुत्तौंन त ट्रंक क ट्रंक भर्यां रौंदा छा। हां, नर्यूल़ जरूर ऑर्जिनल होंद छा। किलैकि ऊ फैकर्ट्यों मा नि बण सकदि छा। वैकु डुब्लिकेट कखन पैदा कर सकद छा मर्द का बच्चा। त यनु ह्वाई कि, बामण करौं तै एक यनु फोल्डिंग पलंग मिल्यूं राई कि वेफर मैन्युफैक्चरिंग डिफॉल्ट राई। कुछ दिन बर्तिक ऊंन या छ्वीं जाण साकि। डिफैक्ट इन छाई कि, वै खटुला तैं कैन जरासि बि टच क्या कार, त ऊ सटाक फोल्ड ह्वैजांदू छाई। स्यूं रजै-गद्दा। ऊंकि कुटुमदारि वै खटुलै कि सार जाणदि राई। ऊ वेफर सुरक् उठद-बैठद छा। वैथैं एक खास स्टैल मा बर्तद छाई। ज

धुंआ-धुंआ (गढ़वाली कविता)

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प्रदीप रावत ‘खुदेड़’// डांडी-कांठी, डाळी-बोटी धुंआ व्हेगेन पाड़ मा, मनखि, नेता, कवि, उड़ी तै रुवां व्हेगेन पाड़ मा। देहरादून बटि फुकेंदा बोणू कू हाल लिखेणू छ, अब त गौं का पत्रकार भी हवा व्हेगेन पाड़ मा। पहरेदार फसोरी सिया छन एसी हवा मा तख, हैरि चांठी जोळी इख उलटू तवा व्हेगेन पाड़ मा। कोयल बिचैरी देहरादून स्टूडियो मा गीत गाणी डांडयूं मा छक्वे बेसुरा कव्वा व्हेगेन पाड़ मा। कैते यूं फुकेंदी डांडयूं से कुछ बी मतलब नि, नेता अप्सर सब रुप्या खवा व्हेगेन पाड़ मा। पाणी बुसग्या, गंगा, नायर-गाड, सब बुसग्येन खाळ, पंदेरा, मगेरा, सुख्या कुवां व्हेगेन पाड़ मा। सब कुछ लुटणे, फोणे, होड़ लग्यीं छ इख भारि अब मनिख बि ल्वे चुसदा जुवां व्हेगेन पाड़ मा।। प्रदीप रावत ‘खुदेड़’//