24 June, 2019

देवदार

bol pahadi

अनिल कार्की //

मेरे पास
अन्नत की यात्राएं नहीं
न ही यात्राओं के
दस्तावेज

मैं देवदार हूँ
मनिप्लाँट होना
मेरे बस में नहीं

इतिहास पर
मेरा कोई दावा नहीं
उन कुर्सीयों पर भी नहीं
जिन्हें बनाते हुए
मुझे बढ़ई ने
बीस जगहों पर
जोड़ा तोड़ा

जोड़ तोड़ से
मेरा वास्ता नहीं

मैं अब भी
पहाड़ की किसी धार पर
तुम्हारे लिए

चिर प्रतिक्षारत हूँ
ओ प्रेमी युगलो !
तुम आना
मेरे तने को खुरच के
लिख जाना अपना नाम
लेकर तने का सहारा
चूम जाना एक दूसरे को

सबसे तेज धूप
सबसे तेज बारिस
बर्फीली आंधियों में
पहाड़ की पीठ पर
मै तुम्हारे प्रेम को बचाये रखूँगा
सम्भाले रखूँगा
तुम्हारे चुम्भन

तुम लौटना
शताब्दियों बाद
तमाम यात्राओं से
ले जाना मुझसे वापस
अपना यौवन
मैं खड़ा रहूँगा
तुम्हारी बाट जोहूँगा।

गढ़वाळि भाषा मानकीकरण पर तीन दिनै कार्यशाला

रमाकान्त बेंजवाल //

दून यूनिवर्सिटी, देहरादून मा तीन दिनै (20 जून बिटि 22 जून, 2019 तलक) गढ़वाळि भाषा औच्चारणिक फरक तैं एकसौंडाळ कन्ना वास्ता कार्यशाला ह्वे।  यीं कार्यशाला मा उत्तराखण्डा  35 लिख्वार, साहित्यकार अर भाषा जणगुरोंन भाग ल्हीनि।

डॉ. जयंती प्रसाद नौटियाल जीन भाषौ मानक रूप तय कन्न से पैलि कुछ मार्गदर्शी सिद्वान्त निश्चय कन्नै बात करि अर वे हिसाब से वूंन बतायि कि-
1. जन हिंदी मा मेरठा आसपासै खड़ि बोलि तैं आधार बणाये गे वनि गढ़वाळि मा सिरनगर्या गढ़वाळि तैं आधार बणौला। गढ़वाळ्या सबि इलाक्वा शब्द पर्यायवाची बण्या रौला। गढ़वाळी मूल प्रकृति खुणि बचौणा वास्ता सांस्कृतिक शब्दावलि तैं बचै रखला।
2. शब्दांत मा स्वर-व्यंजन विवादै स्थिति पर स्वर तैं महत्व दिये जाव। 
3. उच्चारणा बाबत ब्वाल कि कखि जरूरत छ तक नै चिन्ह अपणोण पड़ला, ध्वनि चिन्ह बणाण की जरूरत छ।
4. असौंगा से सौंगै तरपां बढ़ण पड़लो।

कार्यशाला मा सर्वनाम, सबंध कारक प्रयोग, विशेषण, क्रिया विशेषण अर संज्ञा 400 व्यावहारिक शब्दों पर छाळछांट ह्वे अर उच्चारणो मानक निर्धारित करि गे। क्रियो मूल पद अकारान्त होण पर सहमति ह्वे। क्रिया तिन्नि कालों- भूत,  वर्तमान अर भविष्यत् (लिखण- लिखि - लिखद- लिखणू छ - लिखलो)  रूप तय ह्वेन।
यु बि तय करै गै कि-
1.  संज्ञा अर क्रिया मूल पदों मा इकारान्तो प्रयोग होलो। जन-अपणि ( अपनी), अपणी (अपनी ही)।
2. उकारान्त अर ओकारान्त द्वी अपणा सजिला हिसाबन लिखि सकदा। (मेरु/मेरो)
3. सम्बन्ध कारक मा का, की, कु को प्रयोग जख जरुरि हो तबै करै जाव। (जन- बाबौ कोट, भैज्यो बट्वा, भाषै जाणकारि, भाषौ इत्यास।)
3. लिंग भेद पर पुल्लिंग अर स्त्री लिंग कख जाणू अर कख जाणी अलग-अलग होलो।
4. श,  स, ष तिन्यों को प्रयोग सुबिधानुसार करि सकदा।

डा. अचलानंद जखमोला जी कि अध्यक्षता, लोकेश नवानी जी अर डा. जयन्ती प्रसाद नौटियाल जी का निर्देशन मा डा. नंदकिशोर ढौंडियाल जी, डा. जगदम्बा कोटनाला जी, वीरेन्द्र डंगवाल 'पार्थ' जी, डा.  सुरेश ममगांई जी, डा. सत्यानंद बडोनी जी, मदन मोहन डुकलान जी, गिरीश सुन्दरियाल जी, दिनेश ध्यानी जी, ओम बधाणी जी, संदीप रावत जी, डा. प्रीतम अपछ्याण जी, नीता कुकरेती जी, बीना कण्डारी जी, सुमित्रा जुगलान जी, रमाकान्त बेंजवाल, अरविंद पुरोहित जी, देवेन्द्र जोशी जी, सुरेन्द भट्ट जी,  देवश आदमी जी,  ओम प्रकाश सेमवाल जी, शान्ति प्रकाश जिज्ञासु जी, धनेश कोठारी जी, अरविंद प्रकृति प्रेमी जी, धर्मेन्द्र नेगी जी, डा. वीरेन्द्र बर्त्वाल जी, हरीश कण्डवाल ’मनखी’ जी उपस्थित छा।

ये अवसर पर उत्तराखंड भाषा संस्थान का निदेशक बीआर टम्टा भी मौजूद रैन। कार्यशालौ संयोजन बीना बेंजवाल अर गणेश खुगशाल गणीन करि।

23 June, 2019

गढ़वाळि भाषा और साहित्य की विकास यात्रा

bol pahadi
पुस्तक समीक्षा /  समीक्षक- डॉ. अचलानन्द जखमोला //

अप्रितम अभिव्यंजना शक्ति, प्रभावोत्पादकता, संप्रेषणीयता, गूढ़ अर्थवता तथा अनेकार्थता को व्यक्त करने की अद्भुद क्षमता वाली गढ़वाली भाषा पुराकाल से ही अनेक विद्वतजनों के आकर्षण का केन्द्र बनी रही।
सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘काव्य मीमांसा’ के रचयिता कश्मीर निवासी आचार्य राजशेखर ने गढ़वाल क्षेत्र के भ्रमण के दौरान यहां के निवासियों को ‘सानुनासिक भाषिणः’ तथा यहां की बोलियों में कृदन्तों का प्राधान्य देखते हुए इन्हें ‘कृतप्रिया उदीच्या’ घोषित किया था। इस भाषा की महत्ता को महापंडित राहुल सांकृत्यायन् तथा शीर्षस्थ भाषाविज्ञों यथा- डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, डॉ. उदय नारायण तिवारी, डॉ. हरदेव बाहरी, डॉ. भोलाशंकर व्यास, डॉ. टीएन दवे आदि ने स्वीकारते हुए अपनी मान्यताएं प्रस्तुत की।

व्याकरणविद् पादरी एसएस केलॉग को गढ़वाली की रूपगत विशिष्टताओं ने मुख्यतः प्रभावित किया। ‘गढ़वाळि भाषा अर साहित्य कि विकास जात्रा ’के रचयिता श्री संदीप रावत मूलतः रसायन शास्त्र के अध्येयता और अध्यापक हैं। सौभाग्यवश उनका क्रिया क्षेत्र अधिकांशतः टिहरी, श्रीनगर और पौड़ी के समीपस्थ रहा है। स्मर्तव्य है कि श्रीनगर और टिहरी को दीर्घ अवधि तक गढ़वाल की राजधानी बनने का गौरव प्राप्त रहा। कालान्तर में यह श्रेय पौड़ी को भी मिला। बौद्धिक प्राचुर्य तथा सम्पर्क एंव साथ ही राजाश्रय की सुलभता से समस्त क्षेत्र की माटी साहित्यिक गतिविधियों के लिए उर्वरक सिद्ध हुई।

स्वाभाविक था कि गढ़वाली की उत्कृष्ट प्रारंभिक रचनाएं इसी भू-भाग में पल्लवित और पुष्पित हुईं। इस साहित्यिक बयार ने संदीप रावत के अन्तस में सुप्त रचनाकार को झंझावित किया। फलतः रसायन शास्त्री की लेखनी से उनका प्रथम काव्य संग्रह ‘एक लपाग’ उद्भूत हुआ, जिसका सर्वत्र स्वागत किया गया। ‘गढ़वाळि भाषा अर साहित्य कि विकास जात्रा’ उनकी द्वितीय गद्यमयी रचना है। क्योंकि पिछले दो-तीन दशकों से उत्तराखण्ड के साहित्य जगत में काव्य ग्रन्थों का सैलाब सा आ गया है। गद्य रचनाएं विरल ही मिलतीं हैं। गद्य ही भाषा का वास्तविक निकस याने कसौटी है-‘गद्य कवींना निकषं वदन्ति’ यह इस पुस्तक से सिद्ध हो जाता है।

आकर्षक साज-सज्जा में संवरी 192 पृष्ठों की इस लुभावनी कृति की प्रभावी सामग्री चार भागों में विभक्त है। प्रथम भाग गढ़वाली भाषा की विशिष्टताओं विषयक है। द्वितीय भाग में गढ़वाली भाषा के व्याकरण तथा भाषिक स्वरूप पर चर्चा है। पृष्ठ 69 से पृष्ठ 148 में समाहित तृतीय भाग ग्रंथ का महत्वपूर्ण अंश है जिसमें भाषा और साहित्य की विकास यात्रा सविस्तार एंव सोदाहरण वर्णित की गई है। अंतिम चतुर्थ अध्याय में गढ़वाली साहित्य की विधाओं एवं विशेषताओं का विवरण तथा मानकीकरण सम्बन्धी मान्यताओं का उल्लेख है।

संक्षिप्ततः श्रमशील लेखक ने गढ़वाळि भाषा तथा साहित्य के प्रायः सभी पक्षों पर पूर्व में किये गए अवदान का समाहार और एकीकरण प्रभावी शैली में करते हुए जिज्ञासु पाठकों के समक्ष एक उपादेय ग्रंथ प्रस्तुत किया है। पुस्तक का प्रमुख उद्देश्य गढ़वाळि भाषा के विकास और समग्र प्रकाशित साहित्य पर प्रकाश डालना है। इन पक्षों पर पूर्व में भी अनेक विद्वानों ने श्लाघनीय कार्य किया। गढ़वाली बोलियों के ऐतिहासिक, भाषिक, शास्त्रीय, तात्विक, वैज्ञानिक, व्याकरणिक तथा व्यावहारिक, पक्षों के प्रति स्वातंत्रत्योत्तर काल के उपरान्त ही कुछ अनुसंधित्सुओं का ध्यान आकर्षित हो गया था, जिनमें गोविन्द सिंह कण्डारी याने गोविन्द चातक - रवांल्टी बोली का लोक साहित्य, जनार्दन प्रसाद काला - गढ़वाली भाषा और उसका लोक साहित्य तथा गुणानन्द जुयाल - मध्य पहाड़ी गढ़वाली, कुमाउंनी का अनुशीलन शोध प्रबन्ध प्रमुखतः उल्लेख्य हैं जिनपर डॉक्टरेट की डिग्रियां प्रदान की गईं।

सत्तर के दशक में उत्तरप्रदेश शासन के प्रयास से डॉ. हरिदत्त भट्ट शैलेश द्वारा रचित ‘गढ़वाली भाषा और उसका साहित्य’ तथा स्वप्रेरणा से निर्मित अबोध बहुगुणा रचित ‘गाड म्यटेकि गंगा’ अपनी गुणवत्ता और परिपूर्णता के कारण स्वागत योग्य बने। गोविन्द चातक जी का गढ़वाली भाषा और साहित्य के प्रति समर्पण अनेक गवेषणात्मक आलेखों के अतिरिक्त उनकी प्रकाशित दो पुस्तकों - ‘मध्य पहाड़ी की भाषिक परम्परा और हिन्दी’ तथा ‘हिमालयी भाषाः सामर्थ्य और संवेदना’ से पता चलता है। शोधपरक ग्रन्थों में अनिल इबराल प्रणीत ‘गढ़वाली गद्य परम्परा’ तथा जगदम्बा प्रसाद कोटनाला कृत ‘गढ़वाली काव्य का उद्भव, विकास और वैशिष्ट्य’ क्रमशः 2007 व 2011 मे प्रकाशित विशेष उल्लेखनीय हैं। इनके अलावा अन्य विद्वानों द्वारा दिए गए अवदान का विवरण इस पुस्तक में मिल जाता है।

लेखक ने गढ़वाळि भाषा - साहित्य की विकास यात्रा को सात कालखण्डों मे वर्गीकृत किया है। ‘काल’ अथवा ‘युग’ मे वर्गीकरण सामान्यतः ‘आदि’ अथवा ‘आधुनिक’ को छोड़कर, अधिकांश लेखकों ने उस कालावधि में रचित साहित्य की विशिष्ट प्रवृति या प्रकृति अथवा उस पर प्रभाव डालने वाले महान साहित्य रचयिता के नाम पर आधारित किया है, यथा-वीरगाथाकाल, भक्तिकाल, श्रृंगारकाल, भारतेन्दु युग, क्लासिकल सज, रोमांटिक सज, पांथरी युग, सिंह युग आदि-आदि।

संदीप रावत द्वारा समस्त गढ़वाली साहित्य को 25-25 वर्षों के समूह में वर्गीकृत करने का सरल उपाय अपनाया है। समीक्षाधीन ग्रन्थ में भाषा के ऐतिहासिक विकास क्रम मे समाचार पत्र-पत्रिकाओं एवं ब्यंग्य चित्र, चिट्ठी पत्री, पर्चा पोस्टर, इलेक्ट्रानिक मीडिया, चलचित्र, पुरस्कार, सम्मान आदि के महत्व को उल्लिखित करना एक स्तुत्य प्रयास है। पुस्तक के अन्त में भाग चार के अन्तर्गत गढ़वाली भाषा के अति चर्चित, घपरोळी व चुनौतीपूर्ण विषय- मानकीकरण पर विवरण है। अन्य 17 मनीषियों के विचार उद्धृत करने के पश्चात लेखक स्वयं इस अन्तहीन विवाद में न फंसते हुए शान्ति सहित निकल गए कि ‘मानकीकरण कि बात त बादै बात छ।
’फलतः पुस्तक में वर्तनी और विन्यास सम्बन्धी व्यतिक्रम कुछ स्थलों पर दिखाई देता है। सम्बन्ध कारक निर्दिष्ट करने के लिए गढ़वाली भाषिक प्रवृति के अनुसार कहीं स्वर परिवर्तन का आश्रय लिया गया जैसे-साहित्यै, भाषै, भाषौ, तो अन्यत्र परसर्गों का जैसे-साहित्यक, साहित्य कि, भाषा कि। वैसे व्याकरणिक दृष्टि से दोनों सही हैं। लेखक ने पूर्ण प्रयास किया है कि समस्त पुस्तक में वर्तनी सम्बन्धी एकरूपता का परिपालन हो तथापि थोड़ी सी भ्रान्तियां रह गईं हैं। उच्चारण का अनुसरण करते हुए पुस्तक में भी कई स्थलों पर उदारता से हल् याने हलन्त का प्रयोग है, जैसे-शैलेश जीन्, पोथिक् समीक्षा कैरिक्, मणदन्, जणदन्, शब्दोंक्, नदियोंम्, भाषौन्, सकेंद् आदि आदि। मेरा विनम्र सुझाव है कि हल् चिह्न का प्रयोग संसुक्ताक्षर तथा केवल उन्हीं शब्दों तक सीमित रखा जाय जहां इसके बिना अर्थ में भ्रम उत्पन्न होने की सम्भावना हो।

समग्रतः संदीप रावत ने बड़े मनोयोग, निष्ठा और श्रमशीलता से पुस्तक की रचना की है। गढ़वाली भाषा, साहित्य तथा रचनाकारों सम्बन्धी विस्तीर्ण सागर को लेखक ने इस गागर में समाविष्ट कर दिया है। अत्यधिक प्रयास करने के उपरान्त भी सुधी पाठक को ऐसे न्यूनतम अंश मिलेंगे जिन्हें अनावश्यक समझ कर हटाया जा सके। महाभारत के सम्बन्ध में कहा गया है - ‘यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नैहास्ति न तत् क्वचित’ अर्थात जो इसमें उपलब्ध है वह अन्यत्र भी मिल सकता है परन्तु जो यहां नहीं है वह अन्य कहीं कदाचित ही मिलेगा।

प्रस्तुत पुस्तक में अब तक के सभी साहित्यकारों तथा कृतियों का विवरण प्रायः मिल जाता है, कोई विरला ही छूटा होगा। यह बात प्रशंसनीय प्रयास है। ऐसी संग्रहणीय एवं एवं उपादेय पुस्तक की रचना के लिए संदीप रावत को हार्दिक बधाई और शुभआकांक्षा। मैं उनके भावी साहित्यिक अवदान के लिए अभ्यर्थना करता हूँ ।

पुस्तक - गढ़वाळि भाषा अर साहित्य कि विकास जात्रा
लेखक- संदीप रावत
मूल्य -  रु. 275 मात्र
प्रकाशक -  विनसर पब्लिकेशन,देहरादून
समीक्षक - डॉ. अचलानन्द जखमोला

पुस्तक प्राप्ति के स्थान -
1- भट्ट ब्रदर्स देहरादून
2- समय साक्ष्य देहरादून
3- विन्सर पब्लिकेशन देहरादून
4- ट्रांसमीडिया,श्रीनगर गढ़वाल (रेनबो पब्लिक स्कूल के सामने )
5- जय अम्बे पुस्तक भण्डार ( अगस्त्यमुनि)

16 June, 2019

शिकैत


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धनेश कोठारी//

जिंदगी!
तू हमेसा समझाणी रै
मि बिंगणु बि रौं/ पर
माणि कबि नि छौं

जिंदगी!
तिन सदानि दिखै
उकाळ अर उन्दार/पर
मि उकळि कबि नि छौं

जिंदगी!
तेरा डेरा ऐन
उजाळु- अन्ध्यारु बि/ पर
मैं किवाड़ नि खोलि सक्यों

जिंदगी!
बग्त, गर्म्ल हक्क ह्वे
बर्खान् भीजि
ह्युंदिन् अळे बि छ/ पर
तीन्दू कबि सुखै नि सक्यों

जिंदगी!
तेरु घैणु दगड़ू
आज बि दगड़ा छ/ पर
मैं गौळा कबि भ्यंटे नि सक्यों

जिंदगी!
सैंदिष्ट छन
तेरा बाटा घाटा
तेरु बि क्य कसूर/ जब
मैं ई कबि हिटी नि छौं ...।

©धनेश कोठारी
16 जुलाई 2019
ऋषिकेश, उत्तराखंड

14 June, 2019

दानै बाछरै कि दंतपाटी नि गणेंदन्

https://www.bolpahadi.in/ 
ललित मोहन रयाल //  
ऊंकू बामण बिर्तिकु काम छाई। कौ-कारज, ब्यौ-बरात, तिरैं-सराद मा खूब दान मिल्दु छाई। बामण भारि लद्दु-गद्दु बोकिक घौर लौटद छा। खटुलि, धोती, आटू, चौंळ, छतुरू। पैंसा दीण म नन्नी मोर जांदि छै। बरतण्या सामान जादातर निकमु निकळ जांदू छाई। बणिया बि पाल्टी तै सिकौंदू-भकलौंदु रैंदु छाई- “दानौ त चयेंदु, ऊ ना, यु वाळु ल्हिजावा, सस्तु-मस्तु लगै द्योलु।“

त ऊंक घौर मु खटुलु-बिस्तर, भांडी-कूंड्यों कु ध्यौ लग्यूं रौंदु छाई। जादाई कट्ठि ह्वैजांदु छाई। पंच-भांडि, छतरु-जुत्तौंन त ट्रंक क ट्रंक भर्यां रौंदा छा। हां, नर्यूल़ जरूर ऑर्जिनल होंद छा। किलैकि ऊ फैकर्ट्यों मा नि बण सकदि छा। वैकु डुब्लिकेट कखन पैदा कर सकद छा मर्द का बच्चा।

त यनु ह्वाई कि, बामण करौं तै एक यनु फोल्डिंग पलंग मिल्यूं राई कि वेफर मैन्युफैक्चरिंग डिफॉल्ट राई। कुछ दिन बर्तिक ऊंन या छ्वीं जाण साकि। डिफैक्ट इन छाई कि, वै खटुला तैं कैन जरासि बि टच क्या कार, त ऊ सटाक फोल्ड ह्वैजांदू छाई। स्यूं रजै-गद्दा।

ऊंकि कुटुमदारि वै खटुलै कि सार जाणदि राई। ऊ वेफर सुरक् उठद-बैठद छा। वैथैं एक खास स्टैल मा बर्तद छाई। जु फोल्डिंग तैं पता ना चलु। वैथैं कान्नू-कान खबर ना ह्वाउ।

एकदिन क्या ह्वै कि, ऊंक घौर एक जजमान जि ऐग्येन। जजमान जि रुमकि दां पौंछिन। ऊंन सौ-सल्ला कैरि। छ्वीं-बत्त ह्वांद-ह्वांद रात पौड़ि ग्याई।

खलै-पिलैकि जजमान जि ढिस्वाळै कि क्वठड़ि मां सिवाळे ग्येनि। बाई चांस क्या ह्वै कि ऊ वीं फोल्डिंग मा सिवाल्ये ग्येन। ह्यूंदै कि रात। खुखटण्या जड्डू। ऊंन लम्फू (हरिकैन लैम्प) बुझाई अर झगुलि-ट्वपलि उतारिक सिर्वाणि पर धैरि सुनिंद पड़िग्येन।

एक निंद पूरी करिक ऊं थैं लघुशंका जाणै कि जरूरत महसूस ह्वाई। भैर जाणु पड़्याई। भैर जुन्याळ रात लगीं छै। ऊ छज्जा बटेकि आराम सि सीड़ि उतरिन अर फारिग ह्वेक वापिस ऐन।

क्वठड़ि मा पौंछिन त ऊंन स्वाच, हे ब्वै यू कन चंबु ह्वेग्याई। खल्ला कख च। सिर्वाणि-डिस्वाणि समेत गैब। ऊंन अंध्यारा मा जलक-डबक कैरिन। ऊंड-फुंड जबकाई। जजमान जि खौळ्येक रैग्येन। क्या ह्वे होलु। खटुलि कख ह्वाई होलि छां-नि-छां।

ऊ भैर ऐनि। ऊन स्वाच, ‘‘यन त नि ह्वाई हो, कि मि हैक्कि क्वठड़ि मा पौंछग्यों ह्वाऊ।’’ डिंडाळ मा ऐ त ग्येन, पर हौर क्वठड्यों मा जाणै कि हिकमत नि पड़ी। यन न ह्वाऊ कि हौर क्वठड्यों मा जैकि ज्वाड़-जुत्त खये जाऊन। ऊं पर चतरघंटि बीतग्याई। थ्वड़ा देर भितर-भैर कर्द रैन। विचार कर्द रैन, खटोलि स्यूं झगुलि-ट्वपलि कख हर्चि ह्वालि।

भौत देर तक जब ऊंक बिंगण मा कुछ नि आई, त ऊ भैर जैकि जांदरि मा बैठ ग्येन। घड़ेक वखिम रैन खुखटाणा।

ब्वारि-ब्यटल रतब्याणि मा उठ जांद छाई। पैलि काम- रैंदु छाई जांदरि मा नाज पिसणौ कु। जांदरु मु जैकि ऊंन देखि। ऊ हकबक रैगिन। वेफर त जजमान जि थरप्यां छा। वालु गाड़िक ब्वारिन् ब्वाल, ‘‘हे जि! तुम रतब्याणि मा उठि जांदैं मिजाण।’’

जजमानजिन स्वाच-तोलिक ब्वाल, ‘‘ना बाबा! ना, बात इन छाई कि हम त अधरात्ति मां बीज जांदौं।’’

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- रचनाकार ललित मोहन रयाल उत्तराखंड लोकसेवा में अपर सचिव पद पर कार्यरत हैं। अब तक उनके दो गद्य संग्रह ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ और हाल ही में ‘अथश्री प्रयाग कथा’ प्रकाशित हो चुकी हैं। साहित्य जगत में उनके लेखन को व्यंग्य की एक नई ही शैली के रुप में पहचान मिल रही है।

06 June, 2019

धुंआ-धुंआ (गढ़वाली कविता)


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प्रदीप रावत ‘खुदेड़’//

डांडी-कांठी, डाळी-बोटी धुंआ व्हेगेन पाड़ मा,
मनखि, नेता, कवि, उड़ी तै रुवां व्हेगेन पाड़ मा।

देहरादून बटि फुकेंदा बोणू कू हाल लिखेणू छ,
अब त गौं का पत्रकार भी हवा व्हेगेन पाड़ मा।

पहरेदार फसोरी सिया छन एसी हवा मा तख,
हैरि चांठी जोळी इख उलटू तवा व्हेगेन पाड़ मा।

कोयल बिचैरी देहरादून स्टूडियो मा गीत गाणी
डांडयूं मा छक्वे बेसुरा कव्वा व्हेगेन पाड़ मा।

कैते यूं फुकेंदी डांडयूं से कुछ बी मतलब नि,
नेता अप्सर सब रुप्या खवा व्हेगेन पाड़ मा।

पाणी बुसग्या, गंगा, नायर-गाड, सब बुसग्येन
खाळ, पंदेरा, मगेरा, सुख्या कुवां व्हेगेन पाड़ मा।

सब कुछ लुटणे, फोणे, होड़ लग्यीं छ इख भारि
अब मनिख बि ल्वे चुसदा जुवां व्हेगेन पाड़ मा।।

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प्रदीप रावत ‘खुदेड़’//

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