22 October, 2015
18 October, 2015
06 October, 2015
जब प्रेम में जोगी बन गया एक राजा
राजुला-मालूशाही पहाड़ की सबसे प्रसिद्ध अमर प्रेम कहानी है। यह दो प्रेमियों के मिलन में आने वाले कष्टों, दो जातियों, दो देशों, दो अलग परिवेश में रहने वाले प्रेमियों का कथानक है। तब सामाजिक बंधनों में जकड़े समाज के सामने यह चुनौती भी थी। यहां एक तरफ बैराठ का संपन्न राजघराना रहा, वहीं दूसरी ओर एक साधारण व्यापारी परिवार। तब इन दो संस्कृतियों का मिलन आसान नहीं था। लेकिन एक प्रेमिका की चाह और प्रेमी के समर्पण ने प्रेम की ऐसी इबारत लिखी, जो तत्कालीन सामाजिक ढांचे को तोड़ते हुए नया इतिहास रच गई।
राजुला मालूशाही की प्रचलित लोकगाथा
कुमांऊं के पहले राजवंश कत्यूर के किसी वंशज को लेकर यह कहानी है। उस समय कत्यूरों की राजधानी बैराठ वर्तमान चौखुटिया थी। जनश्रुतियों के अनुसार बैराठ में तब राजा दोलूशाह शासन करते थे। उनकी कोई संतान नहीं थी। इसके लिए उन्होंने कई मनौतियां मनाई। अन्त में उन्हें किसी ने बताया कि वह बागनाथ (बागेश्वर) में शिव की अराधना करें, तो उन्हें संतान की प्राप्ति हो सकती है। वह बागनाथ के मंदिर गये। वहां उनकी मुलाकात भोट के व्यापारी सुनपत शौका और उसकी पत्नी गांगुली से हुई। वह भी संतान की चाह में वहां आये थे। तब दोनों ने आपस में समझौता किया, कि यदि संतानें लड़का और लड़की हुई तो वह उनकी आपस में शादी कर देंगें।
ऐसा ही हुआ, भगवान बागनाथ की कृपा से बैराठ के राजा के घर पुत्र हुआ। उसका नाम मालूशाही रखा गया। जबकि सुनपत शौका के घर में लडकी हुई। उसका नाम राजुला रखा गया। समय बीता, जहां बैराठ में मालू बचपन से जवानी में कदम रखने लगा। वहीं भोट में राजुला का सौन्दर्य लोगों में चर्चा का विषय बन गया। वह जिधर भी निकलती उसका लावण्य सबको अपनी ओर खींचता था।
पुत्र जन्म के बाद राजा दोलूशाह ने ज्योतिषी को बुलाया और बच्चे के भाग्य पर विचार करने को कहा। ज्योतिषी ने बताया कि “हे राजा! तेरा पुत्र बहुरंगी है। लेकिन इसकी अल्प मृत्यु का योग है। इसका निवारण करने के लिये जन्म के पांचवे दिन इसका ब्याह किसी नौरंगी कन्या से करना होगा।”। राजा ने अपने पुरोहित को शौका देश भेजा और सुनपत की कन्या राजुला से ब्याह करने की बात की। सुनपति तैयार हो गये और खुशी-खुशी अपनी नवजात पुत्री राजुला का प्रतीकात्मक विवाह मालूशाही के साथ कर दिया।
लेकिन विधि ने कुछ और ही विधान रचा था। इसी बीच राजा दोलूशाही की मृत्यु हो गई। इस अवसर का फायदा दरबारियों ने उठाया और यह प्रचार कर दिया, कि जो बालिका मंगनी के बाद अपने ससुर को खा गई। अगर वह इस राज्य में आयेगी, तो अनर्थ हो जायेगा। इसलिये मालूशाही से यह बात गुप्त रखी जाये।
धीरे-धीरे दोनों जवान होने लगे....। राजुला जब युवा हो गई तो सुनपति शौका को लगा, कि मैंने इस लड़की को रंगीली वैराट में ब्याहने का वचन राजा दोलूशाही को दिया था। लेकिन वहां से कोई खबर नहीं है। यही सोचकर वह चिंतित रहने लगा। एक दिन राजुला ने अपनी मां से पूछा कि - ”मां दिशाओं में कौन दिशा प्यारी? पेड़ों में कौन पेड़ बड़ा, गंगाओं में कौन गंगा? देवों में कौन देव? राजाओं में कौन राजा और देशों में कौन देश?”
मां ने उत्तर दिया ”दिशाओं में प्यारी पूर्व दिशा, जो नवखंडी पृथ्वी को प्रकाशित करती है। पेड़ों में पीपल सबसे बड़ा, क्योंकि उसमें देवता वास करते हैं। गंगाओं में सबसे बड़ी भागीरथी, जो सबके पाप धोती है। देवताओं में सबसे बड़े महादेव, जो आशुतोष हैं। राजाओं में राजा हैं, राजा रंगीला मालूशाही और देशों में देश है रंगीली वैराट”।
तब राजुला धीमे से मुस्कुराई और उसने अपनी मां से कहा कि ”हे मां! मेरा ब्याह रंगीले वैराट में ही करना।
इसी बीच हूण देश का राजा विक्खीपाल सुनपति शौक के यहां आया और उसने अपने लिये राजुला का हाथ मांगा। साथ में सुनपति को धमकाया कि अगर तुमने अपनी कन्या का विवाह मुझसे नहीं किया, तो हम तुम्हारे देश को उजाड़ देंगे। इस बीच में मालूशाही ने सपने में राजुला को देखा और उसके रुप पर मोहित हो गया। उसने सपने में ही राजुला को वचन दिया कि मैं एक दिन तुम्हें ब्याह कर ले जाऊंगा। यही सपना राजुला को भी हुआ।
एक ओर मालूशाही का वचन और दूसरी ओर हूण राजा विक्खीपाल की धमकी। इस सब से व्यथित होकर राजुला ने निश्चय किया, कि वह स्वयं वैराट देश जायेगी और मालूशाही से मिलेगी। उसने अपनी मां से वैराट का रास्ता पूछा। लेकिन उसकी मां ने कहा कि बेटी तुझे तो हूण देश जाना है। वैराट के रास्ते से तुझे क्या मतलब। तो राजुला रात में चुपचाप एक हीरे की अंगूठी लेकर रंगीली वैराट की ओर चल पड़ी।
वह पहाड़ों को पारकर मुनस्यारी और फिर बागेश्वर पहुंची। वहां से उसे कफू पक्षी ने वैराट का रास्ता दिखाया। लेकिन इस बीच जब मालूशाही ने शौका देश जाकर राजुला को ब्याह कर लाने की बात की, तो उसकी मां ने पहले बहुत समझाया। उसने खाना-पीना और अपनी रानियों से बात करना भी बंद कर दिया। लेकिन जब वह नहीं माना तो उसे बारह वर्षी निद्रा जड़ी सुंघा दी गई। जिससे वह गहरी निद्रा में सो गया। इसी दौरान राजुला मालूशाही के पास पहुंची और उसने मालूशाही को उठाने की काफी कोशिश की। लेकिन वह तो जड़ी के वश में था, सो नहीं उठ पाया। निराश होकर राजुला ने उसके हाथ में साथ लाई हीरे की अंगूठी पहना दी, और एक पत्र उसके सिरहाने में रखकर रोते-रोते अपने देश लौट गई।
सब सामान्य हो जाने पर मालूशाही की निद्रा खोल दी गई। जैसे ही मालू होश में आया उसने अपने हाथ में राजुला की पहनाई अंगूठी देखी, तो उसे सब याद आया और उसे वह पत्र भी दिखाई दिया जिसमें लिखा था कि ”हे मालू मैं तो तेरे पास आई थी, लेकिन तू तो निंद्रा के वश में था। अगर तूने अपनी मां का दूध पिया है तो मुझे लेने हूण देश आना। क्योंकि मेरे पिता अब मुझे वहीं ब्याह रहे हैं।” यह सब देखकर राजा मालू अपना सिर पीटने लगे। अचानक उन्हें ध्यान आया कि अब मुझे गुरु गोरखनाथ की शरण में जाना चाहिये, तो मालू गोरखनाथ जी के पास चला आया।
गुरु गोरखनाथ धूनी रमाये बैठे थे। राजा मालू ने उन्हें प्रणाम किया और कहा कि मुझे मेरी राजुला से मिला दो। मगर गुरु जी ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसके बाद मालू ने अपना मुकुट और राजसी कपड़े नदी में बहा दिये और धूनी की राख को शरीर में मलकर एक सफेद धोती पहन कर गुरु के सामने गया। कहा कि हे गुरु गोरखनाथ जी, मुझे राजुला चाहिये। आप यह बता दो कि मुझे वह कैसे मिलेगी। अगर आप नहीं बताओगे तो मैं यहीं पर विषपान करके अपनी जान दे दूंगा।
तब बाबा ने आंखें खोली और मालू को समझाया कि जाकर अपना राजपाट सम्भाल और रानियों के साथ रह। उन्होंने यह भी कहा कि देख मालूशाही हम तेरी डोली सजायेंगे और उसमें एक लडकी को बिठा देंगे और उसका नाम रखेंगे, राजुला। लेकिन मालू नहीं माना। उसने कहा कि गुरुजी यह तो आप कर दोगे लेकिन मेरी राजुला के जैसे नख-शिख कहां से लायेंगे? तो गुरुजी ने उसे दीक्षा दी, और बोक्साड़ी विद्या सिखाई। साथ ही तंत्र-मंत्र भी दिये। ताकि हूण और शौका देश का विष उसे न लग सके।
तब मालू के कान छेदे गये और सिर मूंडा गया। गुरु ने कहा जा मालू पहले अपनी मां से भिक्षा लेकर आ और महल में भिक्षा में खाना खाकर आ। तब मालू सीधे अपने महल पहुंचा और भिक्षा और खाना मांगा। रानी ने उसे देखकर कहा कि हे जोगी तू तो मेरा मालू जैसा दिखता है। मालू ने उत्तर दिया कि मैं तेरा मालू नहीं एक जोगी हूं। मुझे खाना दे। रानी ने उसे खाना दिया तो मालू ने पांच ग्रास बनाये, पहला ग्रास गाय के नाम रखा, दूसरा बिल्ली को दिया, तीसरा अग्नि के नाम छोड़ा, चौथा ग्रास कुत्ते को दिया और पांचवा ग्रास खुद खाया। तो रानी धर्मा समझ गई कि ये मेरा पुत्र मालू ही है। क्योंकि वह भी पंचग्रासी था। इस पर रानी ने मालू से कहा कि बेटा तू क्यों जोगी बन गया, राजपाट छोड़कर? तो मालू ने कहा-मां तू इतनी आतुर क्यों हो रही है, मैं जल्दी ही राजुला को लेकर आ जाऊंगा, मुझे हूणियों के देश जाना है, अपनी राजुला को लाने। रानी धर्मा ने उसे बहुत समझाया, लेकिन मालू फिर भी नहीं माना, तो रानी ने उसके साथ अपने कुछ सैनिक भी भेज दिये।
मालूशाही जोगी के वेश में घूमता हुआ हूण देश पहुंचा। उस देश में विष की बावडियां थी। उनका पानी पीकर सभी अचेत हो गये। तभी विष की अधिष्ठात्री विषला ने मालू को अचेत देखा, तो उसे उस पर दया आ गई और उसका विष निकाल दिया। मालू घूमते-घूमते राजुला के महल पहुंचा। वहां बड़ी चहल-पहल थी। क्योंकि विक्खीपाल राजुला को ब्याह कर लाया था।
मालू ने अलख लगाई ’दे माई भिक्षा !’ तो इठलाती और गहनों से लदी राजुला सोने के थाल में भिक्षा लेकर आई और बोली ’ले जोगी भिक्षा’। पर जोगी उसे देखता रह गया। उसे अपने सपनों में आई राजुला को साक्षात देखा तो सुध-बुध ही भूल गया। जोगी ने कहा- अरे रानी तू तो बड़ी भाग्यवती है, यहां कहां से आ गई? राजुला ने कहा कि जोगी बता मेरी हाथ की रेखायें क्या कहती हैं, तो जोगी ने कहा कि ’मैं बिना नाम-ग्राम के हाथ नहीं देखता’ तो राजुला ने कहा कि ’मैं सुनपति शौका की लड़की राजुला हूं। अब बता जोगी, मेरा भाग क्या है’ तो जोगी ने प्यार से उसका हाथ अपने हाथ में लिया और कहा ’चेली तेरा भाग कैसा फूटा, तेरे भाग में तो रंगीली वैराट का मालूशाही था’। तो राजुला ने रोते हुये कहा कि ’हे जोगी, मेरे मां-बाप ने तो मुझे विक्खीपाल से ब्याह दिया, गोठ की बकरी की तरह हूण देश भेज दिया’। तो मालूशाही अपना जोगी वेश उतार कर कहता है कि ’मैंने तेरे लिये ही जोगी वेश लिया है, मैं तुझे यहां से छुड़ाकर ले जाऊंगा’।
तब राजुला ने विक्खीपाल को बुलाया और कहा कि ये जोगी बड़ा काम का है और बहुत विद्यायें जानता है, यह हमारे काम आयेगा। तो विक्खीपाल मान जाता है, लेकिन जोगी के मुख पर राजा सा प्रताप देखकर उसे शक तो हो ही जाता है। उसने मालू को अपने महल में तो रख लिया। लेकिन उसकी टोह वह लेता रहा। राजुला मालु से छुप-छुप कर मिलती रही तो विक्खीपाल को पता चल गया, कि यह तो वैराट का राजा मालूशाही है।
उसने उसे मारने क षडयंत्र किया और खीर बनवाई। जिसमें उसने जहर डाल दिया और मालू को खाने पर आमंत्रित कर उसे खीर खाने को कहा। खीर खाते ही मालू मर गया। उसकी यह हालत देखकर राजुला भी अचेत हो गई। उसी रात मालू की मां को सपना हुआ जिसमें मालू ने बताया कि मैं हूण देश में मर गया हूं। तो उसकी माता ने उसे लिवाने के लिये मालू के मामा मृत्यु सिंह (जो कि गढ़वाल की किसी गढ़ी के राजा थे) को सिदुवा-विदुवा रमौल और बाबा गोरखनाथ के साथ हूण देश भेजा।
सिदुवा-विदुवा रमोल के साथ मालू के मामा मृत्यु सिंह हूण देश पहुंचे। बोक्साड़ी विद्या का प्रयोग कर उन्होंने मालू को जीवित कर दिया और मालू ने महल में जाकर राजुला को भी जगाया। फिर इसके सैनिको ने हूणियों को काट डाला और राजा विक्खी पाल भी मारा गया। तब मालू ने वैराट संदेशा भिजवाया कि नगर को सजाओ मैं राजुला को रानी बनाकर ला रहा हूं।
मालूशाही बारात लेकर वैराट पहुंचा जहां पर उसने धूमधाम से शादी की। तब राजुला ने कहा कि ’मैंने पहले ही कहा था कि मैं नौरंगी राजुला हूं और जो दस रंग का होगा मैं उसी से शादी करुंगी। आज मालू तुमने मेरी लाज रखी, तुम मेरे जन्म-जन्म के साथी हो। अब दोनों साथ-साथ, खुशी-खुशी रहने लगे और प्रजा की सेवा करने लगे।
साभार
05 October, 2015
वुं मा बोली दे
गणेश खुगसाल 'गणी' गढ़वाली भाषा के लोकप्रिय और सशक्त कवि हैं। 'वुं मा बोली दे' उनकी प्रकाशित पहली काव्यकृति है। शीर्षक का अर्थ है उनसे कह देना। किस से कहना है और क्या कहना है, ये पाठक स्वयं तय करें। संग्रह की कविताएँ पहाड़ के गांव की माटी की सौंधी महक से लबरेज हैं। सांस्कृतिक क्षरण को प्रतिबिंबित करती ये कविताएँ, सोचने पर विवश करती हैं।
बकौल कवि वे वर्ष 1983-87 से कविता लिख रहे हैं, परन्तु उनका पहला काव्य संग्रह अब प्रकाशित हो रहा है।
कविताओं को पढ़कर कहा जा सकता है कि देर आए दुरस्त आए। हालाँकि इस देरी के लिए उन्होंने अपने अंदर के डर को कारण बताया है, न हो क्वी कुछ बोलु। लेकिन पुस्तक छपने के बाद का बड़ा डर कि न हो क्वी कुछ बि नि बोलू। जो कि गढ़वाली रचनाकारों के साथ प्रायः होता रहा है। बाद का डर इसलिए क्योंकि गढ़वाली भासा साहित्य में समीक्षा का प्रायः अभाव सा है।
गणी संवेदनाओं की अभिब्यक्ति का कवि है। गणी की काव्य वस्तु में सांस्कृतिक पृष्ठभूमि प्रमुख आधार रही है। लोक परम्पराओं की गहरी समझ रखने वाले इस कवि का भासा पर अधिकार उसकी पहचान का परिचायक भी है। ठेठ पारम्परिक शब्दों से सुसज्जित और सांस्कृतिक सोपानों की अभिव्यक्ति उनकी काव्य भासा का प्रमुख गुण है। उनकी रचना के केंद्र में गाँव और गावं की पहचान है। गावों का जीवन है, लोक परम्पराएँ हैं।
गणी उन चुनिंदा रचनाकारों में शामिल हैं, जिन्होंने गढ़वाली कविता को नए आयाम दिए। रोजगार की तलाश में गावों से पलायन के कारण पहाड़ का लोकजीवन प्रायः नारी के इर्द गिर्द केंद्रित रहा है। इसलिए गढ़वाली साहित्य में नारी का नायकीय स्वरुप में अच्छा खासा प्रतिनिधित्व दिखाई देता है। पहाड़ में उम्रदराज होने पर भी माँ का खेत खलिहान में काम करते हुए खपना उसकी जीवटता है या मजबूरी, अक्सर यह तय कर पाना आसान नहीं होता। पहाड़ में माँ से ही जीवन और जीवन संघर्ष शुरू होते हैं, और शुरू होती है गणी की कविता भी।
माँ को नमन करते हुए वह कहते हैं कि-
त्यारा खुंटों कि बिवायुं बटी छड़कदु ल्वे,
पर तु न छोड़दी ढुंगा माटा को काम,
आखिर कै माटे बणी छै तू ब्वे।
और एक बेटी, जो संघर्षों से लड़ते हुए अपनी अलग पहचान बना रही है –
खुला आसमान मा साफ़ चमकणी छन,
यी ब्यटुली जो खैरी बिपदा बिटि ऐंच उठणी छन।
घटनाओं को देखने समझने का उनका अपना एक कोण है, एक भिन्न दृष्टि है। कूड़ी अर्थात घर मकान जैसी निर्जीव चीज में वे प्राण डालते हैं, तो कूड़ी के मालिकों के पांव उखड़ते दिखाई देते हैं। वे इस दर्द को महसूसते हैं।
जब बोल्ण पर आन्दन कूड़ी
त अद्-मयूं से ज्यादा बोल्दिन।
यूँ कुड्युं की जन्दरी बोनी कि
सर्य कूड़ी पोडिगे हम उन्द,
पर हम अज्युं बी अप्डी जगा मा छौं।
कूड़ी तो अपनी जगह पर है पर कहाँ है आदमी। केदारनाथ त्रासदी को आस्था से जोड़ते हुए वे भगवान को भी नहीं बक्शते। वे प्रायः उन परिस्थितियों से भी कविता निकाल लाते हैं, जहाँ से लगता है कि शब्दों का प्रवाह थम सा गया है। एक छोटी कविता में बेटी की बिदाई के सूनेपन को वे शब्दों से भर देते हैं।
व त चलिगे पर यख छन वींका गीत
अर वींकै गीतुल गूंज्युं छ सर्य गौं।
कवि की नजर सांस्कृतिक स्वरुप में आते बदलाव को शिद्दत्त से महसूस करती है।
ब्योला ब्योलि की जूठा बिठी देखिकी
ऐगे अपणा ब्यो की याद।
उनकी कविताएँ आस भी जगाती हैं, जब वे माँ के लिए कहते हैं 'मिन तेरी आँख्यूं मा देखि लकदक बसंत'। माँ की आँखों की यही चमक पहाड़ की सकारात्मकता को बनाये रखती है। यही चमक इंसान के अंदर कुछ कर गुजरने का जज्बा पैदा करती है। कवि गांव को पहले की तरह स्वावलम्बी और जीवंत देखना चाहता है, जिस रूप में गावं रहा है। यही उम्मीद कहती है कि 'अप्डी चून्दी कूड़ी छाणौ मि जरूर औंलू'।
औरों से अलग गणी की खासियत यह रही है कि उनकी कविताओं में पलायन का दर्द मौजूद होने के बावजूद उसमे प्रलाप नहीं है। पलायन किस तरह से चीजों को प्रभावित कर रहा है, ब्यंग करती हुयी कविताएँ उसके असर टीस और चीस को बड़ी शालीनता से अभिब्यक्त करती हैं।
भूमिका में सुप्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी लिखते हैं, कि वेकि कविता भौत संवेदनशील छन, भावुक छन, इल्लै रुल्लै दिंदीन, त दगड़ै छोटी छोटी कविता बड़ा-बड़ा सवाल खड़ा कै दीन्दन।
पहाड़ आज उस दोराहे पर खड़ा है जहाँ से पीछे देखते हैं तो लगता है कि कुछ भी बचा नहीं है और आगे बढ़ते हैं तो लगता है की पीछे बहुत कुछ छूट रहा है। एक तरह से ये कविताएँ बीतते समय और रीतते मनुष्य की पीड़ा के शब्द हैं। भितर कविता में कवि सचाई स्वीकार करता दीखता है कि गांव से पलायन कर चुके लोगों के लिए गांव के सरोकार बस इसी पीढ़ी तक सीमित हैं। नई पीढ़ी के लिए गांव सिर्फ एक कूड़ी भर है। ऐसे में अपनी ब्यथा भी किस से कही जाय।
लेकिन इतनी प्रतिकूलताओं के बावजूद भी कवि आश्वस्त है, कि कुछ न कुछ जरूर होगा। इसीलिए प्रतीकात्मक रूप से वह कहता है, कि गांव में आ रहे परिवर्तनों के बारे में उनसे कह देना। ये 'उनसे कौन' है प्रश्न ये है। कवि का इशारा पहाड़ के नीति निर्धारकों की ओर हो सकता है।
कवि की नजर सांस्कृतिक सोपानों पर तो है ही, कवि ने कहावतों के जरिये ब्यवस्था पर तीखे ब्यंग भी किये हैं। नि बिकौ बल्द, जुत्ता, पोस्टर, जब बिटी, सिलिंडर गढ़वाली में नई दृस्टि की कविताएँ हैं। जुत्ता कविता मंच पर काफी लोकप्रिय है। जब बिटि मेरा गौं को एक आदिम मंत्री बण जैसी रचना दर्शाती है कि गावों में राजनीति के प्रवेश ने गांव के मूल ढांचे की चूलें किस कदर हिला कर रख दी हैं।
कविताओं से गुजरतें हुए मुझे लगता है कि इस पुस्तक के प्रारम्भ से लेकर थौळ शीर्षक तक की कविताओं के तेवर कमोबेश एक समान हैं। यहाँ से आगे की कविताओं के तेवर और तल्ख़ हुए हैं, और बुनावट प्रभावशाली भी। प्रेम की संवेदनाओं से भरी छोटी रचनाएँ गुदगुदाती हैं। इन कविताओं के जरिये गणी कवियों की भीड़ से अलग दिखने की कोशिश करते दिखाई देते हैं और उसमे कामयाब भी हुए हैं। कविता के सरोकार कैसे हों, यह जानने के लिए नए कवियों के लिए यह एक मानक संकलन है, और समकालीन के लिए एक मिसाल। क्योंकि ये कविताएँ पहाड़ के गांव की माटी की सोंधी महक से लबरेज हैं।
संग्रह के बारे में ये अंतिम उदघोष नहीं हैं, कविता इनसे भी आगे जा सकती है। परन्तु इतना तो कहा ही जा सकता है कि जो आनंद और छपछपि कविताएँ पढ़ने से मिलती है, मन खुस होकर ये तो कहता ही है कि वूं मा बोली दे।
ग्लेज़्ड कागज पर विनसर प्रकाशन की साफ़ सुथरी छपाई में पुस्तक की कीमत 195 रुपये है।
समीक्षक- वीरेन्द्र पंवार