November 2015 ~ BOL PAHADI

28 November, 2015

लोक स्‍वीकृत रचना बनती है लोकगीत

            लोकगीतों के संदर्भ में कहा जाता है, कि लोक जीवन से जुड़ीलोक स्वीकृत गीतकृतिरचना ही एक अवधि के बाद स्‍वयंमेव लोकगीत बन जाती है। जैसा कि बेडो पाको बारामासा’ ‘तू होली बीरा ऊंची डांड्यों मा क्योंकि वह लोक स्वीकार्य रहे हैं। इसी तरह पहाड़ में भी लिखित इतिहास से पूर्व और लगभग बीते तीन दशक पहले तक बादी-बादिण’ सामाजिक उतार-चढ़ावोंबदलावोंपरम्पराओं इत्यादि पर पैनी नजर रखते थेऔर इन्हीं को अपने अंदाज में सार्वजनिक तौर पर प्रस्तुत भी करते थे। इन्हें आशु कवि’ भी माना जा सकता है। 

मजेदार बात, कि बादी-बादिणों द्वारा रचित गीत लिपिबद्ध होने की बजाय मौखिक ही पीढी दर पीढ़ी हस्तांतरित हुए। ऐसे ही जागरबारतापंवड़ाचैती आदि भी लिपिबद्ध होने से पूर्व मौखिक ही नये समाजों को हस्तांतरित होते रहे। कई गीतों को लगभग ढ़ाई-तीन दशक पहले बादियों से और ग्रामोफोन पर सुना था। तब ये गीत कभी आकाशवाणी से भी सुनने को मिल जाते थे।

            जहां तक शोध की विषय हैतो स्वश्री गोविन्द चातक जी द्वारा लोकगीतों व उनके इतिहास पर काफी काम किया गया। हालांकि आज उनकी किताबें भी मिलनी मुश्किल हैं। पूर्व में श्री मोहनलाल बाबुलकर जी ने भी गढ़वाळी साहित्य व लोक संस्कृति के इतिहास पर प्रकाश डाला है। बीते कुछ समय से डाडीआर पुरोहितनन्दकिशोर हटवाल आदि भी इस दिशा में कार्यरत हैं। वहीं गढ़वाल विश्‍व विद्यालय में भी लोकभाषासाहित्य अध्ययन व शोध में शामिल है। हालांकि उनके अब तक के निष्कर्षों की मुझे फिलहाल जानकारी नहीं है।

            स्वश्री गोविन्द चातक जी के नाम से सर्च करने पर कुछ साहित्य व शोध नेट’ पर भी मिलता है। सर्च कर देखा जा सकता है। बीते दो दशक से धाद’ भी लोकभाषा की दिशा में लगातार कार्यरत है।
आलेखधनेश कोठारी

19 November, 2015

..और उम्‍मीद की रोशनी से भर गई जिंदगियां

तू जिन्दा है तो जिंदगी की जीत पर यकीन कर, अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर... दीपोत्सव दीवाली की शाम जब केदारघाटी के आकाश में वो आतिश पहुंची, तो साहित्‍यकार लोकेश नवानी सहसा ही माइक पर ये गीत गाने लगे। उनके भाव ने हमें जाने अनजाने में हमें यह यकीन दे दिया, कि 2 जुलाई 2013 को केदारनाथ आपदा के बाद प्रारंभ हुई हमारी (धाद की) आपदा प्रभावित छात्रों के पुनुरुत्थान के निमित्‍त यह यात्रा अपने संकल्प को पूरा कर पाने की राह में है। राहत कार्यों में जुटे हम लोगों को आपदा प्रभावित छात्रों की शिक्षा में सहयोग करने का ये विचार जिस बातचीत के दौरान आया, उसमें भी हम ये नहीं जानते थे कि ये यात्रा कितनी दूर तलक जा पायेगी, और ये परिस्थितिजन्य सम्बन्ध एक दिन हम सभी को एक गहरे दायित्वबोध से भर देगा।
काशीनाथ वाजपेयी, गजेन्द्र रौतेला और अजय जुगरान जैसे स्थानीय मित्रों के सहारे हमने उन चेहरों को तलाशने की कोशिश की, जिन तक पहुंचा जाना जरूरी था। फिर जब भारत नौटियाल के नेतृत्व मैं और हमारे अध्यक्ष हर्षमणि व्यास के प्रयासों के कारण विभिन्न संस्थाओं और आम समाज का सहयोग मिला, तो ये प्रयास 100 बच्चों तक पहुंचा। उन मासूम चेहरे में वो उल्लास लौटा लाने की जिद जिन्होंने वो भीषण अँधेरा देखा था, हमें बारम्बार केदारघाटी के उन गाँवों तक ले जाती रही। इस बीच कई आयोजन हुए लेकिन वो सभी लोग हमें मिलने आते और एक सकुचाहट और उदासीनता का भाव लिए लौट जाते।
फिर हमारी शोभा दीदी, किरण खंडूरी और विजय जुयाल जी ने उन सभी बच्चों और परिवारों से संवाद बनाने का जिम्मा लिया, तो धीरे-धीरे ये सम्बन्ध मात्र शैक्षणिक सहयोग का न होकर एक रिश्ते में तब्दील होते चले गए। जून 2015 में प्रेम बहुखंडी के विचार से उपजी और लखपत सिंह राणा के सहयोग से आयोजित तीन दिवसीय कार्यशाला निर्णायक साबित हुई। वहां से लौटते वक़्त हमने उन बच्चों और उनकी माताओं के चेहरे में जो उम्मीद और भरोसा देखा वो हमारे जेहन में कहीं गहरे पैबस्त हो गया।
मुंबई कौथिग के दौरान उन बच्चों के सहयोग की सार्वजनिक अपील करते हुए जिन लोगों ने हाथ बढाया, उनमें मोहन काला जी प्रमुख थे। उन्होंने कहा कि वे भी पिछले दो वर्षों से ऐसे 39 बच्चों की शिक्षा को जारी रखने में सहयोग कर रहे हैं और वह इस अभियान में सहयोगी बनना चाहेंगे। उन्होने 11 बच्चों की अतिरिक्‍त जिम्मेदारी लेते हुए कुल 50 बच्चों को सहयोग देना तय किया। तभी यह तय हुआ कि हम कोई सामूहिक कार्यक्रम आयोजित करें। केदारघाटी के अंधेरे को उजाले से भर देने का दीपावली से बेहतर अवसर क्या हो सकता था। हमने सभी 150 बच्चों के साथ सामूहिक दीपोत्सव का प्रस्ताव दिया और काला जी ने सहमति दी।  नवम्बर को लखपत भाई के सहयोग से डा. जैकस्वीन नेशनल स्कूलगुप्तकाशी का आयोजन तय हो गया।
देहरादून से लोकेश नवानी, हर्षमणि व्यास, तन्मय ममगाईं, भारत नौटियाल, तोताराम ढौंडियाल, डीसी नौटियाल, विजय जुयाल, नवीन नौटियाल, हर्षवर्धन नौटियाल, विकास बहुगुणा, शोभा रतूड़ी, किरण खंडूरी, विमल रतूड़ी, अर्चना ग्‍वाड़ी, कोटद्वार से माधुरी रावत, उषा शर्मा, जगमोहन रावत, सम्पूर्णा बिंजोला, बीना सजवान केदारघाटी के निमित्‍त एक उजियाले का संकल्प लिए निकल पड़े।
कार्यक्रम को औपचारिक रूप से प्रारंभ करते समय लगभग सभी बच्चे उपस्थित हो चुके थे। हम सभी ने अपना परिचय दिया और अपना निश्चय दोहराया कि हम इस उजियाले के संकल्प में हिस्सेदार होने आये हैं। कि हम उस अँधेरे को मिटाने के लिए आपके साथ खडे हैं, जो प्रकृति ने इस क्षेत्र को दे दिया था। आयोजन के प्रमुख सहयोगी मोहन काला जी ने कहा कि उन्होंने भी ऐसी ही विषम परिस्थिति में अपने जीवन के प्रारंभिक वर्ष व्यतीत किये हैं और वे उन सभी लोगों के दुःख के साथ खुद को साझीदार पाते हैं। इसलिए इस दीपावली का दीया लेकर सबके बीच आये हैं। उन्होंने कहा कि उम्मीद की लौ भले ही मद्धम हो, लेकिन उसे छोड़ना नहीं चाहिए। एक दिन ये लौ ही वो उजाला लाएगी जिसका हमें इन्तजार है।
धाद महिला सभा कोटद्वार ने आगे कदम बढाते हुए तीन छात्राओं के शैक्षणिक सहयोग का जिम्मा लिया और यूको बैंक एसोसिएशन की तरफ से वीके बहुगुणा ने भी तीन छात्राओं के लिए संकल्प लिया। साथ ही विजय जुयाल जी की पहल पर दस परिवारों को गाय के लिए भी सहयोग दिया गया। 
                 विद्यालय के बच्चों ने दीपोत्सव पर केन्द्रित मनमोहक सांस्कृतिक प्रस्तुतियां दी और फिर सब हाथों में दिए- मोमबत्तियां लिए मैदान की और चल पड़े। आयोजन में विशेष रूप से आमंत्रित 18 ताल नौबत बजाने वाले लोक कलाकार स्व. मोलुदास के पुत्र अखिलेश ने जब ढोल पर पारंपरिक धुन छेड़ी, तो मानो मुनादी हो गयी कि उस अंधेरे के खिलाफ रोशनी की कतारें चल पड़ी हैं। स्कूल का खेल का मैदान रोशनी से भर गया और फिर एक आतिशबाजी छोड़ी गई। दूर आकाश में जाकर जब उसने रोशनी बिखेरी तो मानो घोषणा हो गयी कि अंधेरे की विदाई का वक्‍त आ गया। अब ये घाटी खुशहाली की नई इबारत लिखने को तैयार है। फिर तो फुलझड़ियों और आतिशों का सिलसिला चल पड़ा। छोटे बच्चेमहिलाएं सब रोशनी अपने हाथों में भर लेने को बेताब थे।
अखिलेश का ढोल अपना जाल बुन रहा था। सब घेरा बना कर मंडाण के रूबरू हो गए। उम्र की दहलीज को भूल सब उस माहौल में सराबोर हो चले। सारी से आई महिलाएं झुमेलो गाने लगीलखपत राणा ने अपना सांस्कृतिक परिचय अपने सधे हुए क़दमों से दिया और माधुरी रावत और सम्पूर्णा बिंजोला के कदम लय में थिरकने लगे। सभी उल्लसित थेफिर लोकेश नवानी जी ने माइक हाथों में ले लिया और तू जिन्दा है तो जिंदगी की जीत में यकीन कर... गाने लगे। वो क्षणिक आवेग था, या कि आयोजन का निर्णायक संबोधन, पर उस गीत का जो भाव उस दिन समझ में आया वो अद्भुत था। इसके साथ ही केदारनाथ आपदा के बाद यहाँ के स्थानीय निवासियों की जिंदगी का संघर्ष आँखों में तैर गया। हमें महसूस हुआ की संभवतः रोशनी से भरा हुआ आकाश... सच में नवानी जी के मुख से अपनी बात कह गया था।
 हमारा अभियान अभी तलक जाने कितने हाथों के सहयोग से यहाँ तक पहुंचा था। हम उन सभी को इन क्षणों में विशेष रूप से आभार प्रकट करना चाहेंगे। ओएनजीसी हिमालयन एसोसिएशनफ्रैंडस आफ हिमालय दिल्ली, हिमगिरी सोसाइटीबुंरास यूथ यूनार्इटेड मुंबर्इ, गढ़वाली कल्‍चरल सोसार्इटी गोवाअनूप नेगी मेमोरियल ट्रस्‍ट देहरादून, देहरादून डिवीज़न इंश्योरेंस एम्प्लाइज एसोसिएशनमुंबर्इ एजूकेशनल ट्रस्ट मुंबई, डा. विमल नौटियालजयदीप सकलानीशोभा रतूडीविकास बहुगुणाडा. स्वदेश बंसल एवं डा. सुशील बंसलसूमित पूरधानीशिवाली सेठी, समदर्शी बड़थ्वालरेखा डंगवालमालादासबिमल रतूड़ीअंकिता मैंन्दोलिया और भारतीय जीवन बीमा निगम के साथी सब इस उजाले के भागीदार हैं। हम सब इस उजाले के उत्तरोत्तर फैलते चले जाने की आशा करते हैं, और कामना करते हैं कि कभी कोई अँधेरा फिर इसे न घेर पाए।
रिपोर्ट - तन्‍मय ममगाईं, धाद, उत्‍तराखंड  

15 November, 2015

नई लोकभाषा का 'करतब' क्‍यों ?

उत्तराखण्ड को एक नई भाषा की जरुरत की बात कई बार उठी। यह विचार कुछ वैसा ही है जैसे राज्य निर्माण के वक्त प्रदेश के पौराणिक व ऐतिहासिक नाम को ठेंगा दिखा,उत्तरांचल कर दिया गया था। देश में हर प्रांत की अपनी-अपनी भाषा है। इन्हीं भाषाओं की कई उपबोलियां भी हैं। तब भी गुजराती, मराठी, बांग्ला,  डोगरी, तमिल, तेलगू, कन्नड, उड़िया, पंजाबी या अन्य ने खुद को समझाने के लिए या दुनिया के सामने खुद को परिभाषित करने के लिए किसी तीसरी भाषा अथवा बोली को ईजाद नहीं किया।

माना जा सकता है, कि हर भाषा के शब्दकोश में निश्चित ही नये शब्दों को आत्मसात किया जाता रहा है। यह भाषा के परिमार्जन व विकास से भी जुड़ा है, और देशकाल में यह भाषा का व्यवहारिक पक्ष भी है।

मजेदार बात, कि हम अभी गढ़वाली व कुमांऊनी को ही एक रूप में व्यवहार में नहीं ला पायें हैं। यहां आज भी भाषा नदियों, गाड की सीमा रेखाओं में विभाजित है। यद्यपि यह कुछ गलत भी नहीं। क्योंकि किसी भी भूगोल में व्याप्त भाषा को संख्या बल के आधार पर अनदेखा नहीं किया जा सकता है। ऐसा करना उसे मौत का फरमान सुनाने जैसा होगा। उसकी पहचान को खत्म करने की साजिश होगी। ठीक इसी तरह नई भाषा की कथित जरूरत भी, संक्रमण के दौर से गुजर रही गढ़वाली और कुमांऊनी भाषा को मृत्युदंड देने जैसा ही है।

हमारी मातृभाषा के सामान्य वार्तालाप में जब कभी 'ठैरा' या 'बल' जैसा प्रयोग मिलता है, तो स्पष्ट हो जाता है कि अमुख व्यक्ति कुमांऊ या गढ़वाल का रहने वाला है, और यही हमारी सामाजिक, सांस्कृतिक, भौगौलिक भिन्न्ताओं की पहचान है। अब यदि समानार्थक शब्दों के द्वारा एक कृत्रिम उत्तराखंडी भाषा ईजाद भी हो गई, तो क्या गढ़वाली गढ़वाली और कुमांऊनी कुमांऊनी के रूप में चिह्निात हो पाएंगी, नहीं।

शायद यहां राज्य  की 'एक भाषा' के पीछे ऐसे विचारकों में एक उत्तराखण्ड की परिकल्पना हो। किंतु, इस परिकल्पित एक उत्तराखण्ड के परिप्रेक्ष्य में यह भी समझना होगा, कि यहां गढ़वाली या कुमांऊनी भाषी ही नहीं रहते हैं। बल्कि हिन्दी भाषी तराई का हिस्सा और जौनसार व रोंग्पा (भोटिया) का भूभाग भी है। जिनकी संख्या भी नकारे जाने लायक नहीं।

बीते कई दशकों से गढ़वाली व कुमाऊंनी को सरकारी नहीं, अपितु निजी संस्थाोओं के बल पर संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किये जाने की कवायदें जारी हैं। ऐसे में क्या एक नई भाषा का 'विलाप' इस पक्ष को कमजोर करने की साजिश नहीं कही जायेगी? सवाल यह भी कि जब यहां की नई पीढ़ी गढ़वाली, कुमांऊनी को अपनाने में ही गुरेज करती हो, तब क्या वह किसी कृत्रिम भाषा से अपना सरोकार जोड़ पायेगी?

सदियों से अपने अस्तित्व के लिए जुझ रही दोनों भाषाओं को अब भी अपनी पहचान मिलनी बाकी है। तब इस नई भाषा के जन्म लेने और जिन्दा रहने के मतबल को भी स्वतः समझा जा सकता है, और समझना भी होगा। मेरा मानना है, कि मातृभाषा (गढ़वाली व कुमाउनी) भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन में जुटे मौजूदा साहित्यी शिल्पियों को ऐसे 'करतबों' से शायद ही कोई सहमति होगी।

धनेश कोठारी

06 November, 2015

गैरसैंण राजधानी : जैंता इक दिन त आलु..


अगर ये सोच जा रहा हैं कि गैरसैंण में कुछ सरकारी कार्यालयों को खोल देने से. कुछ नई सड़कें बना दिये जाने से, कुछ क्लास टू अधिकारियों को मार जबरदस्ती गैरसैंण भेज देने से राजधानी के पक्षधर लोग चुप्पी साध लेंगे। शायद नहीं....। आज भावातिरेक में यह भी मान लेना कि उत्तराखण्ड में जनमत गैरसैंण के पक्ष में है। तो शायद यह भी अतिश्‍योक्ति से ज्यादा कुछ नहीं है। भाजपा ने जब राज्य की सीमायें हरिद्वार-उधमसिंहनगर तक बढ़ाई थीं तो तब ही अलग पहाड़ी राज्य का सपना बिखर गया था, और फिर परिसीमन ने तो मानो खूंन ही निचोड़ दिया। इसके बाद भी गैरसैंण की मांग जारी है। क्यों है न आश्‍चर्य....
सच यह भी है कि राज्य का एक बड़ा वर्ग जो शिक्षित है और, बेहद चालाक भी...। मगर वह समझ-बुझकर भी अनजान है कि अलग राज्य क्यों मांगा गया? वह अनजान ही बने रहना भी चाहता है। क्योंकि यदि वह नौकरीपेशा है तो उसे आरामदायी नौकरी के आसान तरीके मालूम हैं। व्यवसायी है तो, वह सत्ता-पार्टियों को चंदेका लॉलीपाप दिखाने का हुनर रखता है। राजनीतिज्ञ है तो, जानता है कि- कितनी बोतलों में उसकी जीत सुनिश्चित होगी।
          दूसरी ओर कांग्रेस-भाजपा के लिए गैरसैंण में रेल, हवाई जहाज नहीं जाते। उन्हें वहां भूकम्प के कारण अमररहने का वरदान निश्फल हो जाने का डर है। राज्य निर्माण के बाद यहां की मलाईकी पहली स्वघोषित हकदार यूकेडी आज खुरचन को भी नहीं छोड़ना चाहती है। ऐसे में सवाल लाजिमी है कि, गैरसैंण राजधानी फिर किसको चाहिए?
          आज मुझे याद आ रहा है आन्दोलन का वह दिन जब मैं और मेरे साथी ५ दिसम्बर १९९४ को जेल भरो के तहत मुनि की रेती से नरेन्द्रनगर के लिए रवाना हुए थे। सड़क के दोनों छोर से महिला-पुरूष हम पर फूलों की वर्षा करते हुए हमारे साथ जेल की रोटी खायेंगे, उत्तराखण्ड बनायेंगेका नारा  बुलन्द कर रहे थे। जेलभरो के लिए गये कई लोगों में से अधिकांश नरेन्द्रनगर में रस्म अदायगी के बाद वापस लौटना चाहते थे, सिवाय हम ११ लोगों के। इस दौरान नरेन्द्रनगर में कई आम व दिग्गजों ने हमें जेल न जाने देने का खासा प्रयास किया। यहां तक कि, कुछ ने तो शासन-प्रशासन के उत्पीड़न का खौफ दिखाकर भी रोकना चाहा। सब नाकाम रहे।
          यह मैं इसलिए याद कर रहा हूं, क्योंकि आज भी बहुत से लोग हमें राज्य की आर्थिक स्थिति का डर दिखा रहे हैं। अब भी गुमराह कर रहे हैं कि, विकास की बात कीजिए। राजधानी से क्या हासिल होगा? यह कोई नहीं बता रहा कि वे किसके विकास का दम भर रहे हैं। क्या उसमें घेस-बधाण, नीती-मलारी, त्यूनी-चकरौता, धारचुला, अल्मोड़ा, बागेश्वर, रवाईं- जौनपुर, गंगी-गुंजी आदि का आखिरी आदमी शामिल है? बिलकुल भी नहीं। लेकिन उत्तराखण्ड तो इन्होंने और हमने मांगा था। उत्तराखण्ड की मांग हरिद्वार, उधमसिंहनगर, रुड़की, मंगलौर या अब शामिल होने की चाहत रखने वाले बिजनौर, सहारनपुर ने तो नहीं की थी। तमाम बहस-मुबाहिसों को दरकिनार कर एक लाइन में समझा जा सकता कि, उत्तराखण्ड को पहाड़ोंने मांगा था। पहाड़ ने खूंन बहाकर मांगा था। अपने युवाओं का बलिदान कर मांगा था। इसलिए गैरसैंण भी उन्हें ही चाहिए।
आखिर टालोगे कब तक...?
धनेश कोठारी

04 November, 2015

झड़ने लगे हैं गांव

चारू चन्द्र  चंदोला//
सूखे पत्तों की तरह झड़ने लगे हैं यहाँ के गाँव
उजड़ने लगी है मनुष्यों की एक अच्छी स्थापना
महामारी और बमबारी के बिना
मनुष्यों से रिक्‍त हो जाने के बाद
बचे रह जाएँगे यहाँ केवल
पेड़, पत्थर, पहाड़, नदियां
बदरी-केदार के वीरान रास्ते
अतीत की स्मृतियाँ
पूर्वजों की आत्माओं को भटकाने के लिए
भग्नावशेषों के थुपड़े
चलो ऐसा करें
पहाड़ के गाँवों को पूरी तरह
खाली करें और मैदानों में ले आएँ
देवभूमि को बेऔलाद करने के लिए
वहाँ के कीड़े-मकोड़े भी नहीं चाहते
कि वे वहाँ के क्वूड़ों, पूड़ों और पुँगड़ों में रहें
उन्हें भी चाहिए
देहरादुनी-सुविधाएँ, मायायें और कायाएँ
इसलिए-
महानाद के साथ
मारते हुए एक ऐतिहासिक धाद
कह दो अपने मानवीय चालकों, परिचालकों और
तथाकथित उद्धारकों से-
"जिसके लिए हम लड़े-भिड़े, नपे-खपे
वह राज्य तुम्हारे लिए ही हो गया
तुम्हारा ही हो गया
इसलिए-
तुम्हारी ही तरह सेठ बनने के लिए
अपने गाँवों को मैदानों में
ले जाने के लिए ठनगए हैं हम
रास्ता छोड़ो.....वास्ता तोड़ो!
आने ही वाला है देवभूमि में
विदाई का एक अभिनव मौसम
बजने वाले हैं ढोल-दमौ
सिसकने वाली है पहाड़ की सगोड़ी-पुगंड़ी,
घुघुती, सेंटुली और घेंडुड़ी भी।

कविता- श्री चारू चन्द्र  चंदोला

(रुद्रप्रयाग जिले के ग्राम बर्सू, का यह घर उन १२० परिवारों में से किसी का है, जो कुछ समय पूर्व तक यहां रहते थे। अब यह गांव पूरी तरह खाली (जनशून्य) हो चुका है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार राज्य स्थापना से पूर्व जहां १९९१ से २००१ तक पूरे उत्तराखण्ड परिक्षेत्र में ५९ गाँव पूरी तरह खाली हुए वहीं स्थापना के बाद २००१ से २००९ के केवल अकेले रुद्रप्रयाग जिले में ही २६ गाँव पूरी तरह खाली हो गए)
साभार- धाद से प्रकाशित कैलेण्डर २०१०.photo- sabhar

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