30 September, 2010

सांत्वना

https://bolpahadi.blogspot.in/
दो पीढ़ियों का इन्तजार
आयेगा कोई
समझायेगा कि
उनके आ जाने तक भी
नहीं आया था विकास
गांव वाले रास्ते के मुहाने पर

तुम्हारी आस
टुटी नहीं है
इस बुढ़ापे में भी

और तुम
क्यों आस में हो
तुम्हारे लिए तो मैं
खिलौने लाया हूं

सर्वाधिकार- धनेश कोठारी

29 September, 2010

22 September, 2010

पहाड़

https://bolpahadi.blogspot.in/
मेरे दरकने पर
तुम्हारा चिन्तित होना वाजिब है
अब तुम्हें नजर आ रहा है
मेरे साथ अपना दरकता भविष्य
लेकिन मेरे दोस्त! देर हो चुकी है
अतीत से भविष्य तक पहुंचने में
भविष्य पर हक दोनों का था
आने वाले कल तक हमें
कल जैसे ही जुड़े रहना था
लाभ का विनिमय करने में चुक गये तुम,
दोस्त!
तुम्हारा व्यवहार उस दबंग जैसा हो गया
जो सिर्फ लुटने में विश्वास रखता है
जिसके कोश में ’अपराध’ जैसा कोई शब्द नहीं
बल्कि अपराध उसकी नीति में शामिल है
लिहाजा अपने दरकते वजूद के साथ-
तुम्हारे घावों का हल मेरे पास नहीं
यह भी तुम्हें ही तलाशना होगा
मैं अब भी
तुम्हारे अगले कदम की इन्तजार में हूं।

सर्वाधिकार- धनेश कोठारी

18 September, 2010

विकास का सफर

        विकास का सफर ढ़ोल ताशों की कर्णभेदी से शुरू होकर शहनाई की विरहजनित धुन के साथ कार्यस्थल पर पहुंचता है। बाइदवे यदि यात्रा के दौरान निर्धारित समय व्यतीत हो गया तो वह अवमुक्ति के बगैर ही उलटे बांस बरेली की बतर्ज लौट पड़ता है। यों दूर के ढोल की मादक थाप पर मंजिल पर बैठा इन्तजार करता आदमी उसके आने की उम्मीद में अभिनंदन की मुद्रा में तरतीब हो जाता है। मगर रूदन भरी दशा से मुखातिब होते ही उसे शोकसभा आहूतकर बिस्मिल्लाह कहना पड़ता है।

वह जब सत्ता की देहरी से विदा होता है तो पतंगे शिद्दत से इतराते हैं। मर्मज्ञ कथावाचक उसकी देहयष्टि का रेखांकन इस मादकता से करते हैं कि भक्तगण बरबस इठलाये बिना नहीं रह पाते। विकास मार्निंग वाक पर निकल टहलते-टहलते प्रियजनों से भरत मिलाप करते हुए, खुचकण्डि का कलेवा बांटते हुए लक्ष्यभूमि में उसकी हकीकत नुमाया हो जाती है। जैसे ‘को नहीं जानत है जग......’की भांति कि, वह किस प्रयोजन से और किसके लिए उद्घाटित होता है। भूखा-प्यासा थका-मांदा मांगता है। किंतु-परंतु में नियति देखिए कि वहां राजा हरिश्चंद्र की भूमिका में संभावना टटोली जाती हैं। कभी-कभी उसे गुंजाइश के बिना भी झपट लिया जाता है।

आधा खपा-आधा बचा की भाव भंगिमा में कहीं स्वर्णमयी आभा के तो कहीं कृष्णमुखी छटा के दर्शन होते हां, किंतु उसकी त्रिशंकु मुद्रा से भी आशायें मरती नहीं और वह भी सहजता से अपने दया भाव को भी नहीं खोता है। अमूर्त अवस्था के बावजूद सपनों का यह सौदागर मांग आधारित अवयव है। गैर आमंत्रण की पनाह में जाना उसका मजहब नहीं। इसलिए स्वस्थ सहारे पर उसी का होना उसकी काबलियत मा नमूना है। इस बात से भी ऐतराज नहीं कि वह अक्सर मंजिल से पूर्ववर्ती तिराहों-चौराहों पर ‘भटक भैरु’ बन जाता है। सौभाग्यशाली विकास का गौरव हालांकि अवमुक्ति में ही निहित है। लेकिन कदाचित परिस्थितियों से भी उसे परहेज नहीं रहता है।

उसे कभी भी डोमोसाइल या लालकार्ड की जरूरत नहीं पड़ी। गरीबी रेखा पर पहुंचने के बाद भी रचने-बसने में उसे दिक्कत नहीं आती। विकास हुआ तो वाहवाही और न हुआ तो लांछन का हकदार भी नहीं। परजीवी अवश्य उसके नियंता बना बैठते हैं। जहां वह आश्वासन की भूमिका में मंचासीन कर दिया जाता है। तेज फ्लड लाइटों में रैप म्यूजिक के साथ रैंप पर कैटवाक करता खुलेपन की हवा में उसकी चाल चहक उठती है। और कहानी की डिमांड पर तनबदन नमूदार होता है। वह डग उसी स्टाइल में भरता है जिस शैली को अंगूठा छाप तय करता है।

काबलियत के तो क्या कहने चुनावों में वह प्रत्याशी तो नहीं होता, मगर प्रत्याशी के प्रति प्रत्याशा का संचार अवश्य करता है। जाति, धर्म, क्षेत्र व दल निरपेक्षता का धुर समर्थक विकास यदि खुद कैंडीडेट बन जाये तो कौन माई का लाल है जो जीत का जामा स्वयं पहन ले। बस उसकी असहायता ही कहूंगा कि कंधे पर बंदूक रखने वाले उसे कभी प्रत्याशी के किरदार में नहीं आने देते। नतीजा, मांग आधारित होने के कारण सदैव निराशा की कारा में कैद रहा। फिलहाल मैं निराश नहीं, क्योंकि सरकारी तख्त की आशाओं को बांधने की अपेक्षा मैं बौद्धिक विकास की जुगाली में व्यस्त हूं।
@Dhanesh Kothari

16 September, 2010

काश लालबत्तियां भगवा होती


बसंत के मौल्यार से पहले जब मैं ‘दायित्वधारी‘ जी से मिला था तो बेहद आशान्वित से दमक रहे थे। भरी दोपहरी में चाय की चुस्कियों के साथ डेलीवार्ता की शुरुआत में ही उस दिन ‘श्रीमन् जी‘ ने अपने भविष्य को इमेजिन करना शुरु किया। ‘नास्त्रेदमस‘ के अंदाज में कहने लगे। जब नये साल में धरती पर बसंत दस्तक दे रहा होगा, ठिठुरते दिन गुनगुनी धूप को ताक रहे होंगे तो दलगत नीति के तहत दिशाहीनता के बोध के साथ पसरेगा अंधेरा........ और कारों के क्राउन एरिया में ‘लालबत्तियां’ उदीप्त हो सायरन की हूटिंग के साथ सड़कों पर दौड़ने लगेंगी। वे इस सेल्फमेड डार्कनेस में हमारे भीतर के अंधकार को प्रकाशित करेंगी। नेकर की जगह शेरवानी पहने का मौका आयेगा और ज्योतिर्मय होगा, बंद गिरेबां। तमसो मा...... की भांति। लालबत्तियां मात्र प्रकाश स्तम्भ नहीं बल्कि भविष्य हैं। इसी के संदीपन में प्रगति का ककहरा पढ़ा व गढ़ा जा सकता है।

निश्चित ही उनकी इस ‘लालबत्ती‘ रूपी आशा के कई कारण थे। कि, अब तक छप्पन बसंत उन्होंने नेकर की पनाह में रहते हुए निष्ठा के साथ गुजारे। वह सब अंजाम दिया जो चातुर नेता होने के लिए जरुरी थे। उन्हें मालूम था कहां, कब, क्यों, कैसे गुलाटी मारी जाती है। जब जरूरत हुई तो लंगोट, कट्टा या फिर इमोशन, सभी कुछ यूज किया। यह भी कि कब कहां दंगे की जरूरत है और कहां मुर्तियों को दुध पिलाने की। यानि सभी दायित्वों को ‘श्रीमन्‘ ने बखूबी निभाया। सो इस चातुर नेता का लालबत्ती के लिए आतुर होना स्वाभाविक था। अगर उनके गुणों के फ्लैशबैक में देखें तो दरी उठाने से झण्डे लगाने का स्वर्णिम अतीत (जो अब वक्त के दरियाफ्त दरी खींचने से लेकर झण्डे गाड़ने तक में माहिर हो चुका) रहा है।

खैर, मैंने डेलीवार्ता की इस उदित दोपहरी में चुटकी ली। क्या आपको नहीं लगता कि इन स्वप्निल बत्तियों का रंग लाल की जगह कुछ और होता तो......। यू मीन.......भगवा। ‘भगवा‘ का उच्चारण मुझसे पहले ही उन्होंने कर डाला। मैंने कहा, क्योंकि लाल तो आपका अपोजिट कलर है और जमाना मैचिंग का है। मैंने जैसे ‘म्वारों‘ के छत्तो में पत्थर मार दिया था। श्रीमन् के नथुने फूल लगे, एकदम रोष में आ गये। ये सब ‘लेफ्ट‘ सोच का किया धरा है। इन्होंने कभी नहीं चाहा कि दुनिया ‘राइट‘ चले। फिर थोड़ा संयत हो बोले, अब लोगों के दिलों में इसी की धौंस है तो समझौता करना ही पड़ेगा। सोचो, दिल का रंग भी लाल है तो क्या निकाल फेंका ‘मुंछवालों‘ ने। लेकिन मेरा दावा है कि ‘इन फ्यूचर‘ बत्तियों का रंग ‘भगवा‘ होगा। आप भी दुआ कीजिए।

आज जब मैं अधिसंख्य लोगों के साथ उनके पैतृक पट्ठाल वाले घर की बजाय आलीशान काटेज में बुकेनुमा बधाई देने के लिए पहुंचा तो, मैं भी उनके अतीत से निकलकर वर्तमान से बेहद आशान्वित था। लेकिन ये क्या वे तो चेहरे पर ‘बेबत्ती दायित्व‘ की उदासी में बार-बार मुस्कराहट लाने की कोशिश कर रहे थे और साफ लग रहा था कि वे ‘ओवर रिएक्ट‘ कर रहे हैं। क्योंकि उन्होंने ह्यूंद के दिनों में ‘बाबत्ती दायित्व‘ को इमेजिन जो किया था। ‘दायित्वधारी‘ हो चुकने के और तप के प्रतिफल की प्राप्ति के बाद भी उनके चेहरे पर यह ए.के.हंगल जैसे भाव क्यों हैं। मैं समझ नहीं पाया।

इसी खिन्नता के साथ बधाईयों के परकोटे से निकल दायित्वधारी जी एकान्तिक वातावरण की तरफ कैकयी स्टाईल में प्रविष्ट हुए तो, मैं भी दशरथी भाव ओढ़कर उनके ‘कोपभवन‘ में पहुंचा। मैंने कहा, ‘प्रिये‘ आज उल्लास और उमंग का अवसर आया है (प्रिये के संबोधन को अन्यथा न लें। क्योंकि वे अब तक पुरुष ही हैं) और तुम्हारा ‘इमेजिनेशन‘ हकीकत बन चुका है। फिर......। मेरे वाक्य से पूर्व ही बिफर पड़े बोले, जानते हो दायित्व का अर्थ ? कितना भारी है यह एक शब्द। गधे से ‘वजन‘ पुछोगे तो क्या बता पायेगा। बस लाद दिया। आखिर ढोना तो हमें ही है। मैं जानता हूं वजन.........। दरियां उठाई हैं मैंने। ऊपर से ‘सायरन‘ भी नहीं। तुम्हें मालूम है न मेरा ख्वाब। मुझे लगा कि वे ‘तारे जमीं पर‘ के स्टाईल में दोहरा रहे हैं। तुझको पता है न...........। लालबत्तियों में उदीप्त, सायरन बजाता, सड़कों पर दौड़ता रौब गालिब करता भविष्य। और अब देख रहे हो लालकालीन तो दूर दफ्तर में कोई कुर्सी नहीं छोड़ता। प्रमाणपत्र चाहिए कि मैं दायित्वधारी हूं। जबकि पहले सायरन की आवाज से ही उनके नितम्ब कांपने लगते थे। फिर, ये दायित्व किस काम का।

माना कि लाल से परहेज था। माना कि हम इसी मुद्दे पर यहां तक पहुंचे। माना कि लालबत्तियां बदनाम बहुत हैं। तो क्या बत्ती बुझाने के बजाय बत्ती का रंग बदल ‘भगवा‘ नहीं किया जा सकता था। मैं ‘दायित्वधारी जी‘ की उदासी को समझ रहा था। कहने लगे, दायित्व जैसे भारी भरकम शब्द को गड़ने पहले सोचना था कि हमारे कंधे कितने बोझ उठा सकते हैं। हम कौन से रिटायर हैं कि दायित्व का पीट्ठू लगाया और लगा डाले चार चक्कर लेफ्ट राइट।

उनके अंदर के गहराते इस दुःख से मैं भी संवेदना के स्तर पर गंभीर हो गया। हालांकि भाषण उन्हीं का जारी था। भई! जो अतीत में ढोया अगर वही वर्तमान में भी ढोया जाय तो क्या मानें प्रगति हुई या पैंडुलम की तरह एक ही धुर्रे पर लेफ्ट-राइट करते रहे। ‘प्राण जाय पर बचन न जाय‘ की इस परिणति पर फफक पड़े वे। जब दिल ही टुट गया हम जी के......। सही वक्त भांपकर मैंने उनके अंदर के हवन कुंड में घी की एक और आहूति दे डाली कि, यह तो सम्मान को .......।

बात उन्होंने ही आगे बढ़ायी। निश्चित ही जिस भविष्य की कल्पना हमने की थी। उस जैसा स्टेटस् दायित्वबोधता में नहीं है। लेकिन यह खुदा न सही खुदा से कम भी नहीं है। उर्वरकता और संभावनायें ‘दायित्व‘ की ओट में भी कम नहीं हैं। परसन्टेज यहां से भी अच्छा निकल सकता है। लेकिन ‘बेबत्ती‘ होकर ‘संभावनाओं‘ को दुहना सम्मानजनक कार्यप्रणाली तो नहीं मानी जा सकती। दायित्वधारी जी की स्थिति देख मैं विलाप के इन क्षणों में उस ‘मंथरा‘ को कोस रहा था जिसने लालबत्तियों के वरदान को पलटकर रख दिया और दायित्वधारी जी की आशाओं के प्रकाशित होने के साथ ही मेरी तमन्नाओं को भी उजाले के लिए तरसा दिया है।

@Dhanesh Kothari

15 September, 2010

कुत्ता ही हूं, मगर.....

       कल तक मेरे नुक्कड़ पर पहुंचते ही भौंकने लगता था वह। जाने कौन जनम का बैर था उसका मुझसे। मुझे नहीं मालूम कि मेरी शक्ल से नफरत थी उसे, या मेरे शरीर से कोई गंध महकती थी जो उसे नापसंद हो। इसलिए अक्सर मुझे अपने लिए अलग रास्ता तलाशना पड़ता था। राजग या संप्रग से भी अलग। लेकिन आज दृश्य बदला नजर आया। मुझे लगा कि शायद किडनी कांड की दहशत उसमें भी घर कर गई है। शायद डर रहा था कि कहीं उसका नाम न उछल जाये, या फिर कुछ और कारण भी.........
खैर, आज माहौल में राक्षसी गुर्राहट की जगह पश्चाताप की सी मासूमियत उसकी गूं-गूं में सुनाई दे रही थी। मानो कि वह अब तक की भूलों के लिए शर्मिन्दा हो। अब गिरोह बंदी से जैसे तौबा। गठबंधन की सभी संभावनाओं के लिए उसके दरवाजे खुले हुए। बिलकुल आयातित अर्थ व्यवस्था की तरह। बिरादर और गैर बिरादर से भी परहेज नक्को। तब उसकी दुलारती पूंछ और एड़ियों के बल उचकने की हरकत ने मुझे आश्चर्यचकित कर दिया था। किसी सपने के भ्रम में मैंने स्वयं को चिकोटी काटी तो, मेरी आउच! के साथ ही वह तपाक से बोल पड़ा।,
कुत्ता ही हूं

सौ फीसदी वही कुत्ता।
जो नापसंदों की बखिया उधेड़कर रखता था। जो अपने हक के लिए हरदम झपटता था जुठी पतलों पर।

मुझे लगा कि मैं गलती से रामसे की हारर फिल्मों से राजश्री की किसी घरेलू मूवी में इंट्री कर गया। या कि मैं फिर किसी अनाम प्रोडक्शन का हिस्सा बन गया हूं। जहां रेस्त्रां में अनलिमिटेड होने के बाद भी वहअजीब शालीनता के साथ वैष्णवी अंदाज में टेबल पर एडजस्ट होकर छुर्री, कांटों से पीस-पीस लोथड़ा गटक रहा था। उसके ड्रिंक में स्काच की चुस्कियां शामिल थीं। अब न आपस में पत्तलों पर झपटने की हड़बड़ाहट और न कहीं लूटपाट की चंगेजी प्रवृति।
इधर मेरी जिज्ञासा की लार टपकी ही थी कि, वह बोल पड़ा। कुत्तों की समझ में अब इजाफा हो चुका है। खुले और वैश्वीकृत बाजार की धारणा को समझने लगे हैं वे। दिमाग की तंग खिड़कियां खुलने लगी हैं। ताजी हवा आने लगी है। मूड फ्रेश है। अब किसी गेट या रास्ते पर चौकसी खत्म। बहुत भौंक लिए दूसरों के लिए। बहुत दुम हिलाई दुसरों के सामने। इस दूसरासे तौबा।


अब तक की उसकी इस बेबाकी का मैं आकलन नहीं कर पा रहा था। झन्नाहट में था कि मैं इंटरव्यू कर रहा हूं या वह जबरन दे रहा है। क्योंकि, अब छुट्टा मैदान में वह। गले में सांकल या पट्टे की जगह कलफ वाला श्वेत धवल कालर। ऐसा कि मानों शांति और संधि का दोहरा न्यौता मिल रहा हो।
अचानक मेरी तंद्रा भंग करते हुए बोला साहेब! टांग उठाने की प्रवृति से नसीहत ले ली है हमने। दुम का दुलार भी खास मौकों के लिए आरक्षित हो चुका है। बे-मौका रौब गालिब......। इंतिहा हो गई.......। एक खास किस्म की अंडरस्टेडिंग विकसित हो चुकी है हममें। डू यू अंडरस्टेंड। उसके इस हममेंके अंदाज पर मैंने उसे अचरज भरी नजरों से देखा तो कहने लगा, मतलब निकाल लीजिए। किसी अंतर्ज्ञानी की तरह मेरे सवाल से पहले ही जवाब ठोक बैठता।


मैंने सवाल दागा तो क्या......? फिर सवाल काटते हुए, अब दिन बीते रे भैय्या.........। जब रात को भुखे पेट रिरियाया करते थे। उसका मुझे भैय्या पुकारना अखरा। कदाचित यदि वह एसीमें घुमंतू प्राणी होता तो शायद मुझे उसका यह संबोधन गैर सा नहीं लगता। मगर वह था तो उस गली का आवारा..........। हालांकि यह भाव मैंने अपने चेहरे पर नहीं आने दिये। संबोधन कबूल किया इसलिए भी कि उसकी भूतकालीन छवि को यादकर सिंहर उठा। फोबिया ग्रस्त हो उठा और चुप रहना ही मुनासिब समझा। वह लाख साबित करने की कोशिश में था कि गुर्राना अब बस्स। लेकिन ताजा दृश्य कुछ कम भी नहीं था। खैर उसकी मानें तो यह मात्र रस्म अदायगी की आखिरी नौबतही थी।


मैं अब तक उसकी इस नवाढ़य आभा में घिर चुका था। उसने मुझे झिंझोड़ा और पूंछ दिखाते हुए बोला भविष्य के गर्त में क्या है, मुझे नहीं मालूम। मुझे कुछ नहीं मालूम.....। किंतु फिलहाल बारहसाला मुहावरा भी खत्म। लो देखो पुंछ के बलभी निकल चुके हैं। एकदम सीधी है। समयभी यही मांगता है। जैसे मुझे दिलासा दे रहा हो कि मैं हूं ना


यकायक वह इंकलाबी अंदाज में दहाड़ा। बदल डालिए हमारे प्रति अपनी घिसी-पिटी इबारत व कमज़रफ़ सोच को और ‘.......से सावधान‘ के स्थान पर लिखिए ‘......से डरना मना है‘। हमने न तो कभी गिरगिट की तरह रंग बदला है, न नस्ल बदली है और न ही चेहरा। बस, अपने में क्रांति जैसा आभास पैदा करना था। सो तुम देख ही रहे हो।

अचानक ही, जैसे वह भीड़ में मंच से दहाड़ रहा हो और मैं इस भीड़ में अकेला जड़ होकर समर्थनमें तालियां पीटता जा रहा हूं। अकेला।

@Dhanesh Kothari

अब तुम


अब तुम सिंग ह्वेग्यां
रंग्युं स्याळ् न बण्यांन्
सौं घैंटणौं सच छवां
कखि ख्याल न बण्यांन्

उचाणा का अग्याळ् छवां
ताड़ा का ज्युंदाळ् न बण्यांन्
थर्प्यां द्यब्ता छां हमखुणि
अयाळ् - बयाळ् न बण्यांन्

निसक्का कि ताणि छवां
तड़तड़ी उकाळ् न बण्यांन्
सैंन्वार जाणि हिटणान् सब्बि
च्वीलांण भ्याळ् न बण्यांन्

सना-सना बिंगौंणन् छ्विं
बन्दर फाळ् न मार्यान्
सांका परै कि खुद छवां
कुरघसिं काल न बण्यांन्

ज्युंदौं कि आस छवां
ज्युंरा कु ढाळ् न बण्यांन्
माथमि आशीष छवां
कखि गाळ् न बण्यान्

Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari

14 September, 2010

गुरूवर! विपक्ष क्या है

          आधुनिक शिष्य किताबी सूत्रों से आगे का सवाल दागता है। गुरूजी! विपक्ष क्या होता है? प्रश्न तार्किक था, और शिष्य की जिज्ञासा से सहमति भी थी। किंतु, इस तारांकित प्रष्न के भाव को परिप्रेक्ष्य से जोड़कर परिभाषित करना कृष्ण-अर्जुन के संवाद जैसा था। जहां से गीता का अवतरण हुआ। विवेक की खिड़कियां खोलते हुए मैंने सवाल पर लक्ष्य साधा। विपक्ष अर्थात पुष्टि और संतुष्टि के बाद भी भूख के स्थायी भाव में प्रविष्ट होना या कि डनलप पर सोने के आभास के चलते पत्थरों पर सलवटें डालने जैसा। मैंने बताया। लेकिन शिष्य की भूख अब भी शांत नहीं थी। मानो कि विपक्ष उसमें अवतरित होने लगा हो और शायद उसकी संदर्भ में शामिल होने की अकुलाहट बढ़ने लगी थी। गुरूजी पहेलियों को बुझने का समय नहीं है। चुनाव सामने हैं और चेहरों पर अभी भी धुंध जमी हुई है। शिष्य की आतुरता कुछ अधिक बढ़ती प्रतीत दी। मुझे लगा कि चेला गुरू की मुद्रा में बेंत लेकर सामने खड़ा है और मैं उसके सामने निरीह प्राणी सा मिमिया रहा हूं।

साफ था कि, वह मेरे उत्तरों से तृप्त नहीं था। हे पार्थ! विपक्ष हमेशा अपने अग्रज पक्ष को प्रताड़ित कर हतोत्साहित करने को उतावला रहता है। वह किसी तीसरे या चौथे की भूमिका को भी मंजूर नहीं करता। हां चाहता है कि, सुर मिलाने के लिए वे भी उसके पाले में ही खड़े हों। जबकि यह कभी - कभी ही मुमकिन होता है। यहां उसकी क्रियाशीलता मुख्य विपक्षी के रूप में बलवती रहती है। उसका बड़ा गुण यह है कि वह पक्ष से सदा असहमत रहते हुए उसकी समतल विकसित सड़क पर भी आड़ा टेड़ा नाचता है। वह ‘नाच न जाने......‘की ढपोरशंखी को नकारते हुए इस विकास को ही ऊबड़-खाबड़ सिद्ध करता है। विकसित मार्ग को प्रगति में बाधक ठहराने में उसे कभी कोई हिचक नहीं होती है। क्योंकि, निर्माण की आधुनिक व बुनियादी तकनीकी मात्र को वह अपने झोले में रखता है। यही आत्ममुग्धता उसकी पूंजी भी होती है। यही विपक्ष रहस्य के परदे की डोर खिंचकर बताता है कि, गांडीव और भीष्म शैय्या के तीर उसके पास ही हैं। किसी कथित तीसरे और चौथे के पास नहीं।

       शिष्य ‘गीता ज्ञान‘ का सहारा लेकर कहता है कि, गुरूवर क्या विपक्ष को कर्मण्येवादिका रस्ते.......... का सूक्त भी याद नहीं रहता है? क्या उनका आचरण तदानुरूप नहीं हो सकता। अवाक होने कि स्थिति से बचते हुए मैंने कहा, वत्स! निश्चत ही यह सूक्त उनके संज्ञान में है। किंतु, जैसे कि अक्सर अधिकारी पल्लू झाड़ने के निमित्त अज्ञानता का आवरण ओढ़ लेते हैं। ऐसी ही समभाव स्थिति विपक्ष की होती है। लेकिन तब भी वे अपने सकर्मों या दुष्कर्मां को फलित के गांडीव पर साध ही लेते हैं। उनमें मछली की आंख को भेद लेने की निश्चिन्ता रहती है। क्योंकि इस विराट भू - बैराट में स्वयंभू ही समृद्ध और सुरक्षित है।
गुरूवर आशय का रेखाचित्र यों तो अब मेरे मानस में आकृत होने लगा है, तब भी क्या आप जीवंत उदाहरण प्रसंग में शामिल करेंगे। वत्स! जब निकटस्थ चुनाव का सूर्योदय समीप है तो अभी से कौरव सेना के कई धुंधवीर अन्धेरों में ही अभ्यासरत हो चुके हैं। यहां तक कि एकलव्य भी द्रोणाचार्यों की प्रदक्षिणा कर अपनी भूमिका को तय कर लेना चाहते हैं। तो दूसरी तरफ द्रोण अपने अर्जुनों का पथ निष्कंटक करने की नियत से एकलव्यों का अंगुठा खरीद लेना ही श्रेयकर समझते हैं। वहीं इस महासंग्राम के सजीव प्रसारक ’संजय’ भविष्य के गर्भ में से तमाम गुलमफेंट कर मनमाफिक रणवीरों को पांत दर पांत सेटल करने को व्यग्र दिखते हैं। ताकि एक तरफ एक्सक्लूसिव का बोर्ड लटकाकर अपने आकाओं को तुष्ट कर सकें और दुसरी ओर वे पक्ष या विपक्ष का हितैषी होने के भाव को भी भांज सकें।

     हे सारथी! आप विषयान्तर में प्रविष्ट हो चुके हैं। ऐसा न हो कि चक्रव्यूह के सातवें द्वार पर आप निरूत्तर हो जायें। शिष्य ने जैसे मेरे तांगे के मनमाफिक पथचालन का परिसीमन कर दिया था। यानि हद से हद ’रामगढ़’  तक। मैंने भी सॉरी फील किया। दरअसल वत्स एक ओर विपक्ष मूर्त दिखता है तो दूसरी तरफ सत्ता के भीतर का अमूर्त संभावनाओं पर टिका पक्ष भी कई मायने में विपक्ष होता है। शायद यह मान लेना अतिरेक जैसा है कि, सत्ता से पृथक ही विपक्ष होता है। सत्ता केंद्रित विपक्ष कई बार भीष्म के समक्ष शिखंण्डियों को लाकर खड़ा कर देता है। इसलिए विपक्ष अर्थार्थ वह सीमांकन भी है, जिसमें बिल्लियां झगड़े के कारण ’सुख’ से वंचित रह जाती हैं। इसलिए विपक्ष तमाम प्रोपगण्डों के जरिये गण्डे ताबिज बांधने की तजबीज करता है। ताकि हर सुबह की पहली किरण उन्हें भरपूर गरमाहट दे सके।

अब तक चेला लॉजिक के दायरे में प्रवेश कर चुका था। मैंने कहा, वत्स! पार्टी पालिटिक्स पर विश्वास करें तो सूत्र, सूक्त या सिद्धान्त इस ‘भू‘ पर निर्दिष्ट नहीं होते हैं, बल्कि यहां पार्टी का अलिखित संविधान ही अक्सर मूर्त माना जाता है। जोकि लचीला, डिसपोजेबल और एवरयूज भी होता है। ताकि आख्याओं को माफिक तौर पर भूना और चबाया भी जा सके। अतएव वत्स! रैंप से इतर जब पैरों पर वाक की जाती है तो उस कला को फूहड़ और भौंडा माना जाता है, और हमेशा ऐसे रास्तों से कालीन खींच लिए जाते हैं। मैंने कंटीन्यू रहते हुए शिष्य को मौका ही नहीं दिया.......विपक्ष तीसरे या चौथे का हिमायती नहीं होता है। वह केवल पहले का विपक्ष होता है।

गुरूजी! क्या मानना चाहिए कि वह जिनसे अपेक्षा रखता है क्या उनकी रवायतों का भी पक्षकार होता है ? हे प्रिय! संवाद का यही तर्क उन्हें असहनीय लगता है। क्योंकि सत्ता का जनपथ यहां से होकर नहीं गुजरता है। वे हमेशा अपने पीछे पांवों का निशान छोड़ने के बजाय राह में दरारें पैदा करते चलते हैं। ताकि अन्य कोई भी दनदनाता हुआ जनपथ तक न पहुंच सके। आखिर इन्हीं दरारों के बीच से ही तो फिक्स बजट का सोरबा निकलता है। अक्सर यही दरारें ’क्राइराग’ में उसकी सहायक भी सिद्ध होतीं हैं। लिहाजा यह मानना कि विपक्ष, पक्ष का विपक्ष होते हुए ’जन’ का पक्षधर होता है, बेहद मुश्किल है।

सिद्धू स्टाइल में शिष्य ने सवाल दागा, गुरू! यदि एक वाक्य में कहें ........? और अधूरे प्रश्न के साथ सामने आ डटा। मैंने कहा, बेटा इसे कुछ ऐसा समझ लो कि विपक्ष पक्ष के विरूद्ध और सम्मति के अवरोधक के समानार्थक भाव जैसा हैं। अब भी मुझे लगा कि शिष्य तृप्ति अधुरी थी। किंतु मेरी भी तो सीमायें थीं।

@Dhanesh Kothari

13 September, 2010

घंगतोळ्

तू हैंसदी छैं/त
बैम नि होंद
तू बच्योंदी छैं/त
आखर नि लुकदा
तू हिटदी छैं/त
बाटा नि रुकदा
तू मलक्दी छैं/त
द्योर नि गगड़ान्द
तू थौ बिसौंदी/त
ज्यू नि थकदु
तु चखन्यों कर्दी/त
गाळ् नि होंदी
तू ह्यर्दी छैं/त
हाळ् नि होंदी
तू बर्खदी बि/त
खाळ् नि होंदी
तू चुलख्यों चड़दी/त
उकाळ् नि होंदी
पण....
भैर ह्यर्दी/त
भितर नि रौंदी
भितर बैठदी/त
घंगतोळ् होंद

Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)

Copyright@ Dhanesh Kothari

11 September, 2010

’श्रीहरि’ का ध्यान नहीं लग रहा

मैं जब १९९५ में सीमान्त क्षेत्र बदरीनाथ पहुंचा था। तो यहां के बर्फीले माहौल में पहाड़ लकदक दिखाई देते थे। तब तक यहां न ही बादलों में बिजली की कौंध दिखाई देती थी न उनकी गड़गड़ाहट ही सुनाए पड़ती थी। यहां के लोगों से सुना था कि बदरीनाथ में भगवान श्रीहरि विष्णु जन कल्याण के लिए ध्यानस्थ हैं। इसी लिए प्रकृति भी उनके ध्यान को भंग करने की गुस्ताखी नहीं करती है। आस्था के बीच यह सब सच भी जान पड़ता था। किन्तु आज के सन्दर्भों में देखें तो हमारी आस्था पर ही प्रश्नचिन्ह साफ नजर आते हैं। क्योंकि अब यहां बिजली सिर्फ कौंधती ही नहीं बल्कि कड़कती भी है। बादल गर्जना के साथ डराते भी हैं।

इन दिनों पहाड़ों में प्रकृति के तांडव को देखकर यहां भी हर लम्हा खौफजदा कर देता है। ऐसे में जब पुरानी किंवंदन्तियों की बात छिड़ती है तो उन्हें कलिकाल का प्रभाव कहकर नेपथ्य में धकेल दिया जाता है।
क्या कहें! क्या वास्तव में यह कलिकाल का असर है। या इस हिमालयी क्षेत्र में अनियोजित निर्माण के जरिये हमारी चौधराहट का नतीजा है। जहां पेड़ों, फुलवारियों की जगह पर इमारतें बना दी गई हैं। हालत यहां तक जा चुके कि धार्मिक उपक्रमों की मानवीय व्यवहारिकता को "उत्पादक" के खोल में लपेट लिया गया है। जोकि लाभ हानि की गणित को तो समझता है। लेकिन सामाजिक कर्तव्यों को समझने को दुम दबा बैठता है। समूचे यात्राकाल में "धंधे" के आरोह-अवरोह पर तो टिप्पणियां होती हैं। किन्तु हिमालय की तंदुरस्ती पर सोचने को पल दो पल देने की फुर्सत नहीं मिलती है। सो क्या माने कि यह भी कलिकाल का ही प्रभाव है? या फिर विश्व कल्याण के लिए तपस्थित ’श्रीहरि’ का ध्यान नहीं लग पा रहा है।

चुनावी मेले में परिवर्तन के स्वर

          अब अपनी दुखियारी की रोज की भांज हुई कि वह अबके परिवर्तन को कांज के रहेगी। फरानी बुनावट में कुछ गेटअप जो नहीं। सो, वह तो उधड़नी ही होगी। कई चिंतामग्न भी दुखियारी की तरह इन सर्दियों में चिंता का अखाड़ा जलाकर बैठे होंगे और उनकी अंगेठी पर ‘परिवर्तन’ पक रहा होगा तन्दूरी मुर्गे की तरह। लेकिन, तासीर है कि बर्फ की तरह जम रही है।
खशबू सूंघते हुए जब मैंने भी तांकझांक कर संदर्भ को ‘टारगेट’ किया तो ‘परिवर्तन‘ के भांडे से कई तरह की ध्वनियां निकल रही थी। जैसे कि, परि- बर्तन, परि- बरतना व परि- वर्तनी आदि। ईलिंग-फलिंग, सभी तरह से कान बज रहे थे। संभव है कि, यह उच्चारण का दोष हो या फिर कह लो कि, मेरी गंवार भाषा का प्रभाव इन ध्वनियों से भ्रमित कर रहा हो। यह कानों का भ्रम या बुद्धि का फर्क भी हो सकता है।
मजेदार कि, जिन्हें उकसाया जा रहा है, वे पहाड़ों पर गुनगुनी धूप का आनन्द लेने में मशगूल हैं। वे किसी भी कबड्डी में सूरमा नहीं होना चाहते हैं। जबकि परिवर्तन के ‘ठाकुर‘ सतत् गर्माहट बरकरार रखने का घूंसा बड़े-बड़े होर्डिंग्स लगाकर ठोक रहे हैं।
खैर, जब बात पहले के मुकाबिल किसी बेजोड़, उन्नत और चमकदार बर्तन की होगी तो कोई खांटी लोहार ही जानता होगा कि, उसमें प्रयुक्त रांगा, नौसादर व धातु की कितनी मात्र टिकाऊ टांके का जोड़ रख सकती है, या फिर उसका हथौड़ा परिचित होगा कि कितनी दाब-ठोक थिचके-पिचके बर्तनों की डेण्ट-वेंट निकाल पायेगी। सो माजरा जब लोहार का है तो, फिलहाल ‘टेक्निकली‘ जमात भीतर बाहर सूरमा बन हथौड़ा लेकर परशुराम की शैली में हुंकार रही है। जनक कहौ.....। अपन तो ठेठ होकर ‘आंख‘ को ही खांचे में देख रहा हूं। फिलहाल गुमड़े तो अतिरेक में ओझल हैं।

अब यदि कृत्रिम प्रेक्षकों व विशेषज्ञों की मानें तो फराने, नये और संभावित ‘नयों’ की टंकार में कोई फर्क नहीं लगता। वे भरे हों या खाली तब भी एक सी आवाज आती है। हां, यदि शक फिर भी हो, तो किसी जलतरंग वादक की सेवा लेकर उनका परीक्षण किया जा सकता है।

कमाल की यह सारी कवायद उनके लिए हो रही है जिन्हें ये ही कल तक दूजे दर्जे का समझते थे। अतीत के ये ‘दूजे‘ किसी ‘तीसरे’ खोल़ा (मौहल्ले) में ‘घुंड्या रांसा’ लगाकर अवतरने की कोशिश में लगे हैं। उनका पश्वा भी आदेश की टेक के साथ नाच रहा है। मालूम नहीं कि, जब धारे का पानी झरेगा तब क्या ये अपनी गागर, कंटर, डब्बा भरने में ‘अगल्यार’ मार पाते हैं या फिर लाइन तोड़ शार्गिदों का शिकार होते रहेंगे।

जिनके द्वारा यह परिवर्तन बरता परखा जायेगा या जिनके समक्ष रैंप पर कैटवाक करने की कोशिश होगी। उन्हें ही मालूम है कि अब तक की पूजा पाठ और चार के आठ का क्या नतीजा रहा है। अगर परिवर्तन पर इन ‘सह-सवारों’ को देखा जाय तो इनकी सलवटें गवाह हैं कि अब तक ये निश्चिन्त होकर सोये हुए हैं।

फिर भी सवाल जस का तस कि बरतें किसे? यदि ‘वर्तनी’ की निगहबानी भी करें तो मतलब कितना निकलेगा। कांग्रेस भागा भाजपा बराबर भाजपा या भाजपा भागा कांग्रेस बराबर कांग्रेस अथवा कोई साम, दाम, बाम या दण्ड। या कि, इन्हीं में से कोई एक पेंदाहीन उदण्ड, जो परिवर्तन की वर्तनी को त्रिशंकु की मुद्रा में ले जायेगा और, परि-वर्तन का आशय फिर थिचक-पिचक कर अधमरा होकर रह जायेगा। या फिर हुं-हां की ‘सियार डुकर‘ की बदौलत प्रताड़ित होकर एक और संगमरमरी की दरकार तलाशेगा। ले- देकर तब तक गंगा जमुना के मुहानों से ग्लेशियर बहुत पीछे हट चुका होगा। तब ’डाम’ जैसी अवस्थापना के बाद सुखी गंगा में तड़पती मछली की तरह पुकारना होगा कि, मैं त यक्कि चुम्खि चैंद.....।

सो हे परिवर्तनकामी आत्माओं! आशय को साफ-साफ छापो ताकि यह ‘निरर्थक जन‘ वोट छपाई (चुनाव) के बड़े ‘कौथिग’ में निर्द्वन्द के रण-बण का जुद्ध जोड़ सके। और स्वयं के ‘जनार्दन‘ होने का भ्रम भी जीवित रख सके।

@Dhanesh Kothari

09 September, 2010

घुम्मत फिरत

थौळ् देखि जिंदगी कू
घुमि घामि चलिग्यंऊं
खै क्य पै, क्य सैंति सोरि
बुति उकरि चलिग्यऊं

लाट धैरि कांद मा
बळ्दुं कु पुछड़ु उळै
बीज्वाड़ चै पैलि मि
मोळ् सि पसरिग्यऊं

उकळ्यों मि फलांग मैल
सै च कांडों कु क्वीणाट
फांग्यों मा कि बंदरफाळ्
तब्बि दिख्यो त अळ्सिग्यऊं

फंच्चि बांधि गाण्यों कि
खाजा - बुखणा फोळी - फाळी
स्याण्यों का सांगा हिटण चै पैलि
थौ बिछै पट्ट स्यैग्यऊं

थौला पर बंध्यां छा सांप
मंत्रुं का कर्यां छा जाप
दांत निखोळी बिष बुझैई
फुंक्कार मारि डसिग्यऊं

गिद्ध गणना का सच


अर्ली मॉर्निंग, मानों सूरज के साथ घोड़ों पर सवार खबरी मेरे द्वार पहुंचा। उसके चेहरे पर किरणों की तेजिस्वता की बजाय सांझ ढलने सी खिन्नता मिश्रित उदासी पसरी थी। उसकी मलिन आभा पर मैं कयास के गुब्बारे फुलाता कि, वह ‘फिदाइन’ सा फट पड़ा..... यहां चहुंदिशी गिद्ध ‘नवजात’ के गात (शरीर) पर डेरा जमाये हुए हैं। कई तो नोचने को उद्विग्न भी लगते हैं। किंतु फन्ने खां सर्वेयर गिद्ध गणना के जिन आंकड़ों को सार्वजनिक कर रहे हैं। उनमें नवजात पर झपटे गिद्धों की गणना कहीं शामिल ही नहीं है।

मैं कुछ समझता अथवा कुछ प्रतिक्रिया दे पाता कि, खबरी ने मुंह उघाड़ने से पहले ही जैसे मुझे पूर्णविराम का इशारा कर डाला। उसके अनुसार, यूके में गिद्धों की संख्या में उम्मीद से अधिक इजाफा हुआ है, सही भी है। यहां आंकड़ों में सामान्य प्रजाति के साढ़े तीन हजार, साढ़े सात सौ के करीब हिमालयी व मात्र अब तक छप्पन ही अनाम प्रजातिय गिद्ध हैं। क्या आंकड़े सरासर मैनेज किये हुए नहीं लगते? अब बताओ कि, नवजात के गात पर झपटे गिद्धों की संख्या इनमें शामिल है? नहीं न........।

यहां पर मैंने खबरी को रोका, भई इसमें निराश और खिन्न होने जैसी क्या बात है। माना कि गिद्ध गणना के आंकड़े मैनेज लग रहे हों, तब भी यह परिस्थितिकीय दृष्टि से शुभ ही हैं। शुक्र करो कि, ग्लोबल वार्मिंग के इस युग में इनकी महत्ता को समझा जा रहा है। वरना ये प्रकृति रक्षक तो अब तक अपने होने का अर्थ ही भूल चुके थे। क्या तुम नहीं चाहोगे, स्वच्छ पर्यावरण में स्वस्थ जीवन के चार दिन.......।
किसी सिंगल स्टार दारोगा कि भांति खबरी ने मुझे डपटा और मैं मनमोहन शैली में सहमकर चुप हो गया। उफनते गुस्से में उसने कहा, मैं बात कर रहा हूं आगरे की और तुम सुना रहे हो घाघरे की। अरे! मामूल सिर्फ ग्लोबल वार्मिंग या फिर ग्लोबल भी होता तो मेरी जगह फट्टे में टांग देने के लिए अमेरिका पहले से ही खम्म ठोके हुए है, और अब ओबामा किल्ला उखाड़ने से रहा। उनसे ‘करार’ के चक्कर में हम आन्तिरिक ‘रार’ तक ठान बैठे हैं। मगर ग्लोबलिकरण से डिफरंट है यहां का सवाल। यों तो गिद्ध दुनिया भर में कई प्रजातिय हैं। लेकिन फिलहाल यह गणना यूके के गिद्धों की हुई है। जिन्हे सार्वजनिक भी किया गया है। जरा ठहरो! कहीं तुम इसे अंग्रेजों का यूके तो नहीं समझ रहे न। भई यह अपना यूके है।

आफ्रटर द ब्रेक के अंदाज में मैं खबरी को रोकता कि, वह लालू एक्सप्रेस की तरह धड़धड़ाते हुए निकला चला गया। बोला, जिन गिद्धों की गणना न होने का मैं जिक्र कर रहा हूं। वे ‘यूके’ के जल, जंगल, जमीन और जनमन पर ढुके हुए गिद्ध हैं। इनमें क, ख, ग, घ, से लेकर चिड़या बिठाऊ, फाइल दबाऊ, फाइल सरकाऊ, खादी प्रजातिय, नेकर प्रजातिय, टाई प्रजातिय, नॉलेज हबीय, वाइन ठेकीय, आयोगीय, आरोगिय, दारोगिय इत्यादिय कई श्रेणियां मौजुद हैं। हालांकि यह मेरी ‘एक्सकलूसिव’ मुल्कि खोज है, सडनली! एक्सेट्रा खोज के लिए तो फिर ‘वास्कोडिगामा’ जैसा कोई चाहिए। या इस दिशा में सांइसदानों को प्रेरित किया जा सकता है। सर्वेयरों के भरोसे तो आजादी से पहले से अब तक ‘कर्णप्रयाग’ रेल नहीं पहुंची।

तब दे दनादन छक्कों की बरसात करते इस यूवी को मैंने थर्ड अंपायर की तरफ इशारा कर रोका, और उसे यूके के संसाधनों, संभावनाओं का रिकार्ड दिखाते हुए कहा, यहां की ‘उर्वरा’ में पोषण के सर्वाधिक मिनरल्स और जिंक मौजुद हैं। दोहन के लिए अनुदानिय एक्सेट्रा बजट है। अवस्थापनाओं की मजबूर जरूरत है, पर्याप्त स्पेस है। विदेश दौरों से प्राप्त ज्ञान है। जल है, जंगल है, जमीन है, जन है। यहां तक कि नई पीढ़ी का भविष्यगत विचार भी है।
खबरी ने कुछ मुंह खोलना ही चाहा कि, मैंने लेफ्ट राइट थम्म जैसा उद्घोष कर खबरी को फिर रोका। यदि यहां गिद्धों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि दृष्टिगत है तो ‘शुभस्य शीघ्रम’। अब खबरी का आपा ज्वार भाटा सा हिलोर मार गया। बाबू मोशाय! आकाश में मंडराते गिद्धों की गिनती से ‘पहाड़ा’ नहीं सीखा जाता है! सही फिगर तो धरती पर एक-एक गिद्ध को ‘टैग’ कर ही आयेगी। प्राकृतिक गिद्ध तो अब विलुप्त प्रजातिय हो चुके हैं। मगर कृत्रिम गिद्धों की पीढ़ी से तो काली का खप्पर भी मिनट से पहले भर जायेगा। खबरी के ह्यूमर पर मैं अव्यक्त रूप से ही सही, किंतु गदगद था। सो, उसकी खिन्नता भी लाजमी है।

@Dhanesh Kothari

07 September, 2010

तेरि सक्या त...

ब्वकदी रौ
मिन हल्ळु नि होण
तेरि सक्या त गर्रू ब्वकणै च

दाना हाथुन् भारु नि सकेंदु
अबैं दां तू कांद अळ्गौ
तेरि घ्यू बत्तयोंन् गणेश ह्वेग्यों
चौदा भुवनूं मा रांसा लगौ
ब्वकदी रौ मिन हल्ळु नि होण
तेरि सक्या त गर्रू ब्वकणै च

सदानि सिच्युं तेरु बरगद ह्वेग्यों
अपणा दुखूं मेरा छैल मा उबौ
ब्वकदी रौ मिन हल्ळु नि होण
तेरि सक्या त गर्रू ब्वकणै च

श्हैद मा शोध्यूं नीम नितर्वाणी
दिमाग बुजि सांका थैं ठगौ
ब्वकदी रौ मिन हल्ळु नि होण
तेरि सक्या त गर्रू ब्वकणै च

खाणै थकुलि तेर्यि सौंरिं
बारा पक्वान बावन व्यंजन बणौ
ब्वकदी रौ मिन हल्ळु नि होण
तेरि सक्या त गर्रू ब्वकणै च

सीएम वंश की असंतुष्टि

लोक के तंत्र में ‘सीएम’ वंशीय प्राणियों की असंतुष्टि का असर क्लासरूम तक में पहुंच चुका था। मास्टर जी बेंत थामे थे। मगर, बेंत का मनचाहा इस्तेमाल न कर पाने से वे बेहद असंतुष्ट भी थे। विधायिका और कार्यपालिका नामना कक्षा के छात्र मास्साब की बेंत से बेखौफ उनके हर आदेश का ‘अमल’ निकालकर प्रयोग कर रहे थे। सो मुछों पर ताव देकर मास्साब ने छात्रों से ‘सीएम’ वंश की असंतुष्टि पर निबन्ध तैयार करने को कहा। फरमान जारी होते ही कक्षा में सन्नाटा सा पसर गया। क्योंकि वे छात्र भी एक सीएम (कामनमैन) वर्ग से जो जुड़े थे। सभी छात्र निबन्ध पत्र की कापी तैयार करने के लिए मुंडों को जोड़कर बौद्धिक चिंतन में मशरूफ हो गये। निश्चित ही छात्रों ने भी अपनी ज्ञान ग्रन्थियों को खोलकर काफी कुछ लिखा। इस काफी कुछ से सार-सार के संपादित अंश सैंदिष्ट हैं।
‘सीएम’ वंश की धराओं का भूगोल समाज सापेक्ष संस्कृति में दो पंथों में विभक्त है। एक निगुण धारा। जोकि ‘कामनमैन’ के रूप में यथास्थिति वाद पर किंकर्तव्यविमूढ़ है। निगुण इसलिए, क्योंकि ‘सीएम’ इनके लिए कुछ भी अच्छा कर दे ये उसका गुण नहीं मानते हैं। तो दूसरा सगुण मार्गीय ‘चीफ मिनिस्टर’ पंथ। जोकि हाईकमान की नित्य पाद् पूजा के निहितार्थ को जानता है। वह अपनी मूल बिरादर वंश की अपेक्षा हाईकमान को ही तरजीह देता है। आखिर कुर्सी के नीचे पद का गलीचा हाईकमान का ही है।
भेद-विभेद के बावजूद दोनों पंथ एक दूसरे के पूरक भी हैं और यदाकदा विरोधी भी। एक वोट देता है, दूसरा वोट मांगने के साथ ही छीनता भी है। एक उत्तरोत्तर विकास की अभिलाषा में बार-बार ठगा जाता है। दूसरा ‘ठग’ कला में उत्तरोत्तर पारंगतता हासिल करता है। नतीजा कि ‘माया महा ठगनी....’ की अर्थवत्ता के बाद भी एक महीन रेखा में दोनों आपस में बंधे रहते हैं। इस रेखा का प्रतिकाकार कभी गाढ़ा हो उठता है और कभी फासलों में अनपेक्षित दूरी भी बना डालता है। निगुण पंथी जहां सतत् विकास के दावों की हकीकत जानने के बाद भी दलीय निष्ठाओं के चलते संतुष्ट होने का प्रयास करता है। तो सगुण मार्गी विकास के लिए ‘बांक’ भर देने से संतुष्ट नहीं होता। बल्कि बांक देने की परंपरा पर अविश्वास भी जाहिर करता है। यही वक्त होता है। जब सगुण ‘सीएम’ निज तुष्टि का राजफाश करने की बजाय ‘असंतुष्टि राग’ को ‘तोड़ा’ बनाकर यथासमय ‘बिलम्बित’ ताल की संगत में गाता चला जाता है। और दूसरा सीएम महज इसलिए तुष्ट कि पहला ‘सीएम’ असंतुष्ट तो है। हालांकि आमतौर पर यह रणनीतिकारों की मत सम्मति का भाव नहीं है।
असंतुष्टि को प्रायः गति व प्रगति का कर्ता माना जाता है। जब कुर्सी वाला सीएम राग असंतुष्ट की प्रस्तुति से विभोर हो तो, जन्मना ‘असंतुष्ट’ सीएम (कामनमैन) निश्चित ही अपने असंतुष्टि के शेयरों को ‘दलाल पथ’ में भुनाने की कोशिश करता है। हालांकि वहां भी उनके धड़ाम होने में देर नहीं लगती। सो आखिर में उसे वोटों की बिकवाली का सहारा लेकर अपना अस्तित्व गांठने का इंतजाम हर हाल में करना होता है। लिहाजा दूसर ‘सीएम’ की अपेक्षा कामनमैन के मौजूं असंतोष में विस्मय जैसा कुछ भी उभरकर नहीं आता।

क्लासरूम में जहां सभी छात्र निबन्ध के बंधैं को निपुण जुलाहे की भांति तांत-तांत बुन रहे थे। तो वहीं मास्साब रूटीन चैकिंग में सभी कापियों से सार-सार गह रहे थे। कि, कामन सीएम की संगत के चिरंतन ठौर चाय-काफी हाऊस हुआ करते हैं। जहां वे अपनी दलीय निष्ठाओं के साथ तुर्की बा तुर्की धोबी पछाड़ का दांव आपस में हमेशा खेलते हैं। इस दौरान यदि तर्क-वितर्क की गेंद हाफबॉली हुई तो समझो लगा छक्का और ‘सुदामा’ की गेंद हुई तो गई जमुना में। हालांकि तब भी सचिव ब्रांड रेफरी उनका रन काउंट नहीं करता है। वहीं गेंद यदि बाऊंस हुई तो दूसरा सीएम अक्सर बल्ले के साथ खुद को भी लाइन से हटा लेता है।

ऐसे में इन अड्डों पर बौद्धिक जुगाली का माहौल तापमान के सेल्सियस बढ़ा देता है। निष्कर्षतः तेल कितना पिरोया गया, इसमें कामनमैन के सरोकार भले ही झाग बनाने तक ही सीमित रहते हों। मगर ‘संजयों’ को मालूम है कि, कई बार इस तेल का असर ‘वियाग्रा’ से भी मारक होता है। उधर ‘सीएम’ जानते हैं कि, उनका ‘राग असंतुष्ट’ बंदरों को बंटवारे के बाद भी उन्हें संतुष्ट रखेगा। क्योंकि उनका काम भी सिर्फ तुष्ट रखना है। पुष्ट रखना कदापि नहीं। असंतुष्ट रथ के सारथी ‘सीएम’ की दिशा दशा का वर्णन करते हुए छात्रों ने लिखा कि, इस वर्ग का प्राणी राजभोग की विलासिता में तो संतुष्ट रहता है। किंतु, वैभव की कुर्सी के पायों की स्तंभन शक्ति के लिए ‘वियोगी होगा.....’ की शैली में हमेशा असंतुष्टि के विराट दर्शन देता है। ताकि निगुण सीएम अपनी तुष्टि के सपनों को उनकी तुष्टि से ‘मैच’ न कर सके।

निबन्धीकरण के दौरान छात्रों की कापियों से मास्टर जी का टेपीकरण अभियान जारी था। वे छात्रों के ‘सीएम’ ज्ञान से अविभूत भी नजर आ रहे थे। लेकिन वे भी संतुष्टि के अपने भावों को सगुण ‘सीएम’ की तरह चेहरे पर आने से रोके हुए थे। मास्साब निबन्ध का निष्कर्ष जानना चाहते थे। परन्तु, छात्रों ने भी उतावलेपन की बजाय ‘वेट एण्ड वाच’ के लक्षणों को ही अपनी आखिरी पंक्तियों में उद्धृत किया।

@Dhanesh Kothari

06 September, 2010

उल्लू मुंडेर पर

     
http://bolpahadi.blogspot.in
उल्लू के मुंडेर पर बैठते ही मैं आशान्वित हो चुका था। अपनी चौहदी में लक्ष्मी की पर्दार्पण की दंतकथाओं पर विश्वास भी करने लगा। शायद ‘दरबारी आरक्षी‘ की तरह उल्लू मुझे खबरदार करने को मेरी मुंडेर पर टिका था। खबरदार! होशियार!! प्रजापालक श्रीहरि विष्णु की अर्धांगनी ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी जी पधार रही हैं! मेरी आकाक्षायें खुशी से झूमने लगी।

अब तक पत्थरों को बेरहमी से पीटते अपने हथौड़े को मैंने तब एक कोने में पटका। जहां वक्त ने मेरे बुरे दिनों के जाले बुने थे। यही जाले मेरी दरिद्रता के प्रमाण थे। तंगहाली के कोने में सरकाये हथौड़े की विस्मित दृष्टि से बेखबर, बेफिक्र था मैं। मैं तो लक्ष्मी की दस्तक का इंतजार कर रहा था। ‘लक्ष्मी‘ की अनुभूति में मेरी उत्तेजना बढ़ गई थी। भूल चुका था कि मैं नास्तिक हूं। उल्लुक आगमन शायद मेरे लिए आस्तिकता को लौटाकर लाया था। उसे शुभ मान बैठा था मैं।

उस दिन श्रीयुक्त लक्ष्मी निश्चित ही मेरे घर तक आयी। किंतु मेरे दरवाजे पर दस्तक देने नहीं। बल्कि उल्लू को डपटने के लिए......। उस वक्त वैभवशाली सौंदर्य के बजाय रौद्र काली रूप धारण किया था लक्ष्मी ने। उल्लू को डांटते हुए बोली,जब देखो अपने जैसे लोगों के यहां जा बैठता है। देखी है, उसकी मैली कुचैली धोती, पहनावा। बेहद गुस्से में थीं वह। देखी है, उसकी बदबूदार झोपड़ी...... मिट्टी का बिछौना,फूस का ओढ़ना। मुझे तो क्या,तुझे भी क्या रख पायेगा यह दरिद्र। पड़ोसी ‘धनपत‘ का घर नहीं दिखता तुझे। जहां छप्पन भोग महक रहे हैं। सोने, जवाहरात से सजे आसन लगे हैं। ‘सुरक्षा‘ के लिए मजबूत तिजौरियां हैं।

उल्लू ‘लक्ष्मी‘ के इस रौद्र रूप से सहम गया था। कहने लगा, हे ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री देवी! अमीर धनपत का घर मुझे रात में ही दिखता है। तब उसका घर रोशनी में अलग ही चमकता है। इस दोपहरी में तो मैं अंधा होता हूं। सो जहां-तहां बैठ जाना भी स्वाभाविक ही है। उल्लू के इस बहाने को भी लक्ष्मी समझ रही थी। तो, मैं भी लगभग झूठ ही मान रहा था। क्योंकि उजाला तो उसका बैरी है। फिर भला वह धनपत के उजाले से जगमगाते घर को कैसे देख पाता होगा। मुझसे उसकी मित्रता न सही, कभी करीबी न रही हो। तब भी शायद, कुछ अपनापा जरूर था। जो मेरी मुंडेर पर आ बैठा। कहने लगा, हे देवी! हां, यदि आप मिथक को तोड़ना चाहें तो.....। देवी लक्ष्मी ने उसे बड़ी जोर से डपटा, मूर्ख!!!

अब तक लक्ष्मी के प्रचलित रूप से अलग इस रौद्र अवतरण को देख मैं भी अन्दर तक दहल उठा। वाकई मेरी झोपड़ी में बरसों से चौका बुहारा तक न हुआ था। कल ही बनिये की ‘आखरी ताकीद‘ के साथ मैं अपने दुधमुंहे के लिए अन्नप्रासन का उधार लाया था। मन ही मन मैंने अस्थाओं के दीप जलाये थे। उजाला महसूस करने लगा था मैं अपने अन्दर। जबकि अपने ‘स्टेटस‘के एकदम विपरीत मेरी झोपड़ी में दीवाली को नकार चुकी थी लक्ष्मी। उसे खुली आजादी से ज्यादा तिजोरियों की परतंत्रता में रहना कबूल था। शायद इसलिए भी कि समाज का नैतिक चरित्र अब आतंकित करने वाला हो चुका है, और ‘लक्ष्मी‘ कतई ‘रिस्क‘ नहीं लेना चाहती है।

इस बीच जहां धनपत का अमीर अमरत्व मुझे चिढ़ा रहा था। वहीं कोने में सरका दुबका बेरहम हथफड़ा हंस रहा था। बाहर पत्थर अपने दरकने की पीड़ा के अहसास के बाद भी मेरी रोटी के लिए हथौड़े को फिर-फिर आमंत्रित कर रहे थे। उस दिन उल्लू की ओट में लक्ष्मी की दुत्कार सुन मैं आत्मग्लानि में शायद बिखर ही जाता। लेकिन हर बार पत्थरों के टुटने की संभावनाओं ने मुझे ‘उल्लुक वृति‘ का हिस्सा बनने से रोक लिया।

@Dhanesh Kothari

बे - ताल चिंतन

         काल परिवर्तन ने अब बेताल के चिंतन और वाहक दोनों को बदल दिया। आज वह बिक्रम की पीठ पर सवार होकर प्रश्नों के जरिये राजा की योग्यता का आंकलन नहीं करना चाहता। बनिस्पत इसके बेताल अब ‘हरिया‘ के प्रति अधिक ‘साफ्रट‘ है। हरिया जो ‘लोकतंत्र’ में भी राजा की प्रजा है।

हरिया से बेताल की निकटता आश्चर्य भी नहीं। क्योंकि, राजा अब कभी अकेला नहीं होता। न ही वह कभी एकान्त निर्जन में भ्रमण पर निकलने का शौक रखता है। दोनों के बीच सुरक्षा का एक बड़ा लश्कर तैनात है। जो बगैर इजाजत धुप को भी राजा के करीब नहीं फटकने देता। ताकि साया भी पीछा न कर सके। राजा अपनी मर्जी के रास्तों पर चलने की बजाय सचिवों के बताये अफर तय किये रास्तों पर ही सफर करता है। इसीलिए सचिवों ने आतंकवाद खतरा खड़ा कर फलीट के रास्ते में आने वाले सारे ‘बरगद‘ के पेड़ों को कटवा दिया है। ऐसे में यदि कभी राजा के अनुत्तरित हुआ तो भी बीच रास्ते से बेताल फुर्र भी नहीं हो सकता। यही नहीं आज राजा से संवाद का रिश्ता भी खत्म हो चुका है। क्योंकि राजा की भाषा और जुबां को भी सचिव ही तय करते हैं। सो बेताल को बार-बार राजा के करीबी होने का सबूत देना और मिलने की स्वीकृति लेना भी अच्छा नहीं लगता।

..........और, बेताल अपनी आजादी के इस हक को महज इसलिए हलाक नहीं होने देना चाहता कि राजा को प्रजा से ही खतरा है। जैसा कि मान लिया गया है। लिहाजा अब राजा से बेताल की अपेक्षायें भी खत्म हुई। सो राजा की पीठ का मोह छोड़ना बेताल के लिए लाजमी था। किंतु सवार होने की आदत से कैसे छुटकारा पाये। तो बेताल ने अपने चिंतन और वाहक दोनों को ही बदलने में भलाई समझी। रास्ते अलग-अलग मंजिलें जुदा-जुदा।

इस लिहाज से देखें तो आज भी दबी जुबां में ही सही हरिया मुंह फट्ट है। हरिया की साफगोई बेताल को भाने लगी है। नतीजतन इन दिनों हरिया के ‘दो जून के जंगल‘ में विस्थापित बेताल अक्सर हरिया की पीठ पर जंगल से उसके गांव, उसके घर और शहर तक बनिये की दुकान का दौरा कर आता है। जहां से हरिया हमेशा लाला की चिरौरी कर उधार राशन गांठ ही लाता है।

राजा से विरक्त बेताल हरिया की हाजिर जवाबी का कायल होकर इस भ्रमण में आधुनिक सदियों के परिवर्तन की तमाम जानकारियां उससे संवाद स्थापित कर जुटा लेता है। संवाद के इस दौर में हरिया बेताल के बोझ को तो महसूस करता है। परन्तु उसका चेहरा, कद, काठी नहीं जानता। बस्स! ढोने की आदत के चलते बेताल को भी लादे हुए है। हां, बचपन में मुंहजोरी कर दादा से बेताल की कुछ कहानियां जरूर सुनी थी उसने। इसलिए बेताल भी उसके सामने अपने दौर की कथाओं को नहीं दोहराता है। बल्कि वर्तमान से ही तारतम्य जोड़कर कहानी बुनता है, और हरिया के सामने कई ‘ऑबजेक्टिव‘ प्रश्न खड़े कर देता है। हां निश्चित ही यह भी कि, वह हरिया से उसे ‘एक दिन का राजा‘ बना देने जैसा हाइकू सवाल कभी नहीं पूछता। न ही यह कि, उसकी दो जून की ‘रोटी‘ के प्रति राजा का नजरिया क्या है।

यहां बेताल किसी बौद्धिक समाज का प्रतिनिधित्व भी नहीं करता। जिनके के मूक आखरों में कभी क्रांति की संभावनाओं को तलाशा जाता था। क्योंकि वह जान चुका है कि, यह वर्ग भी राजा के अनुदानों पर जीने का आदी होकर जंक खा चुका है। राजा के सवालों का जायज उत्तर देने के बजाय वे कुटनीतिक तर्कों में उलझकर रह गये हैं।

आज हरिया की पीठ का आसरा मिलने के बाद राजा से अपने पूर्ववर्ती रिश्तों के प्रति बेताल की भी कोई आसक्ति नहीं। हां अब हरिया को उलझाये रखने पर वह अवश्य ही कई बार अपनी पीठ ठोकता है। जबकि इधर राजा और बेताल में साम्य समझकर हरिया दोनों को ढोने की नियति से आज भी उबा नहीं है।

सर्वाधिकार- धनेश कोठारी

02 September, 2010

डाळी जग्वाळी

हे भैजी यूं डाळ्‌यों
अंगुक्वैकि समाळी
बुसेण कटेण न दे
राखि जग्वाली

आस अर पराण छन
हरेक च प्यारी
अन्न पाणि भूक-तीस मा
देंदिन्‌ बिचारी
जड़ कटेलि यूं कि
त दुन्या क्य खाली...........,

कन भलि लगली धर्ति
सोच जरा सजैकि
डांडी कांठी डोखरी पुंगड़्यों
मा हर्याळी छैकि
बड़ी भग्यान भागवान
बाळी छन लठयाळी..........,

बाटौं घाटौं रोप
कखि अरोंगु नि राखि
ठंगर्यावू न तेरि पंवाण
जुगत कै राखि
भोळ्‌ का इतिहास मा
तेरा गीत ई सुणाली.........॥

Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari

हिसाब द्‍या

हम रखणा छां
जग्वाळी तैं हर्याळी थैं
हिसाब द्‍या, हिसाब द्‍या
हे दुन्यादार लोखूं तुम
निसाब द्‍या.......

तुमरा गंदळा आसमान
हमरु हर्याळी कू ढ़क्याण
तुम, बम बणांदी रावा
हम त रोपदी जौंला डाळा

तुमारु धुळ माटु कचरा
हम बुकाणा छां दिन द्वफरा
तुमन्‌ ओजोन भेद्‍याली
हम, पुणदा लगैकि डाळी

तुमरि गाड़ीं च विपदा
हमरि सैंति च संपदा
तुमरु अटलांटिक छिजदा
हमरु हिमाला जुगराज

तुमरि ल्वैछड़्या कुलाड़ी
हमरि चिपकदी अंग्वाळी
तुमुन्‌ मनख्यात उजाड़ी
हमुन्‌ पुन्यात जग्वाळी
हिसाब द्‍या...................॥

Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari

01 September, 2010

पण.......

ग्वथनी का गौं मा बल
सुबेर त होंदी च/ पण
पाळु नि उबौन्दु

ग्वथनी का गौं मा बल
घाम त औंद च/ पण
ठिंणी नि जांदी

ग्वथनी का गौं मा बल
मंगारु त पगळ्यूं च/ पण
तीस नि हबरान्दी

ग्वथनी का गौं मा बल
उंदार त सौंगि च/ पण
स्या उकाळ नि चड़्येन्दी

ग्वथनी का गौं मा बल
ब्याळी बसायत च/ पण
आज-भोळ नि रैंद

ग्वथनी का गौं मा बल
सतीर काळी ह्‍वईं छन/ पण
चुलखान्दौं आग नि होंद

ग्वथनी का गौं मा बल
दौ-मौ नि बिसर्दू बाद्‍दी/ पण
बादिण हुंगरा नि लांदी

ग्वथनी का गौं मा बल
इस्कुलै चिणैं त ह्‍वईं च/ पण
बाराखड़ी लुकि जांदी


ग्वथनी का गौं मा बल
स्याळ त गुणि माथमि दिखेंदा/ पण
रज्जा जोगी जोगड़ा ह्‍वेजांदा

ग्वथनी का गौं मा बल
सौब धाणि त च/ पण
कुछ कत्त नि चितेंद।

Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari

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