December 2011 ~ BOL PAHADI

28 December, 2011

लोकसभा मा क्य काम-काज हूंद भै ?


(Garhwali Satire, Garhwal Humorous essays, Satire in Uttarakahndi Languages, Himalayan Languages Satire and Humour )
अच्काल पार्लियामेंट मा रोज इथगा हंगामा/घ्याळ होंद बल लोकसभा या राज्यसभा खुल्दा नीन अर दुसर दिनों बान मुल्तबी/ 'ऐडजौर्नड फॉर द डे' करे जान्दन. बस याँ से पारिलियामेंट सदस्य बिसरी गेन, भूलिगेन की लोकसभा या राज्यसभा मा काम काज क्य हूंद ? एम् पीयूँ तैं अब पता इ नी च बल लोक सभा या राज्य सभा सदस्यों मा क्वी कम बि होंद.
अब सी पर्स्या की त बात च. परसी मि अपुण एम्.पी (राज्य सभा सदस्य) दगड्या कु इख ग्यों बल मि बि ज़रा पार्लियामेंट देखूं अर उख क्य क्य होणु च वांको जायजा बि ल्हीयूँ. अब जन कि मेरो दगड्या बिना बातौ अहिंसक मनिख च वै तैं कमांडो की सेक्युरिटी त छ्वाड़ो एमपी हाउस कुणि एक चौकीदार बि नि मील. म्यार दगडया एमपी न बीस पचीस माख मारिन, दस पन्दरा मूस पकड़ीन अर पिंजरा मा बन्द कौरिन अर औथेरिटयूँ तैं बि दिखाई तबी बि मेरो दगडया तैं जेड त छ्वाड़ो ए सेक्युरिटी बि नि मील उलटां एक चौकीदार छौ वै तैं बि के हैंक नगर पालिका सेवक को इख भेजी दे. त मै तैं दगड्या एमपी क इख जाण मा क्वी अट्टवांस/दिक्कत/ बेरियर नि होंदी, जब जाओ ज़ब आओ. उन अच्काल इन मुस्किल ही होंद पण गांधी जी क सचा च्याला हों त ह्व़े बि जांद.
म्यार दगड्या अहिंसक एमपी ईं बगत बि जंग्या अर बन्याण मा पुराणो मर्फी कलर टेलीविजन (यू मीन भेंट मा दे छौ)
मा हिस्टरी चैन्नेल मा क्वी इतिहासौ सीरियल देखणु छौ. विचारू अहिसक गाँधी बादी एम् पी अबि बि माणदो बल 'हिस्टरी रीपीट्स इटसेल्फ़ बेकौज नो बडी लर्न्स फ्रॉम हिस्ट्री.'
मीन ब्वाल,"हे! भै एमपी! काम पर नि जाण?"
अहिंसक गांधी बादी एम् पी न पूछ, "यू काम क्य हूंद?"
"हैं ! पार्लियामेंट मा कथगा इ काम होंदन. जन कि जु तुम सरकारी पार्टी मा छवां त मंत्री जी क बोल्यां पर ताळी बजाण अर मेज थपथप्याण ही काम होंद" मीन ब्वाल.
अहिंसक गांधी बादी एम् पी न पूछ, : अछा! अर हौर काम?"
मीन अहिंसक गांधीबादी एमपी तैं याद दिलाई, "अर जु तुम विरोधी पार्टी क एमपी छवां त बस जब बि सरकारी एमपी या मंत्री अपण बयान दीण बिस्याई कि घ्याळ करण बिसे जाण. कुछ नी त शेम शेम बुलण बिसे जाण"
"बस य़ी काम च? "अहिंसक गांधीबादी एमपी न फिर पूछ " नही हौर काम बि छन जं कि कबि कबि टी वी कैमरा उना नि हो त जरा सी ऊँगी बि ल्याओ." मीन खुलासा कार अहिंसक गांधी बादी एमपी न ब्वाल, "ए मेरी ब्व़े! और अच्छा उख उंगण बि पड़दो? हौर..?"
मीन फिर से याद दिलाणे पुट्ठ्या जोर लगाणे/ कोशिश करी, "नै जु पार्लियामेंट मा हो हल्ला, घ्याळ, घपरोळ नि होणु राउ त एमपी सरकारी मंत्री से सवाल बि पूछी लीन्दन अर मन मारिक मंत्री जीयूं तैं सवालू जबाब बि दीणी पड़दन."
" हे नागराजा! हे ग्विल्ल! बस/य़ी काम! पण क्य क्वी बि एमपी कुछ बि सवाल पूछी सकद?" अहिंसक गांधीबादी एमपी न पूछ
"ना क्वी बि एमपी अफिक सवाल नि पूछी सकद. एमपी तैं वैकी पार्टी टैम दींद अर तबी एमपी सवाल कौरी सकद. "मीन खुलासा कार अहिंसक गांधीबादी एमपी न अगनै पूछ, "त अच्काल क्य हो णु च उख..?"
मीन बथाइ,' अच्काल त द्वीइ याने राज्यसभा अर लोकसभा मा कुछ नि होणु च बस सभा अध्यक्ष खुर्सी मा जनी बैठदन तन्नी पार्लियामेंट मा घ्याळ/घपरोळ होण बिसे जांद. स्पीकर सब्युं तैं शांत हूणे सल्ला दीन्दन पण ना त हल्ला ना ही घ्याळ अर ना ही घपरोळ बन्द होंद अर स्पीकर पार्लियामेंट तैं दुसर दिनु खुणि अडजोर्न करी दीन्दन. अच्काल बस ई होंद.."
"य़ी स्पीकर क्य होंद? क्या यूंक काम बुलणों क काम हूंद."अहिंसक गांधीबादी एमपी न टक्क लगैक पूछ
मीन बिंगाणों कोशिश कार, "ना! ना! स्पीकर का मतबल स्पीक करण नी च मतबल स्पीकर इख सुणदो च, बुळणों काम त एमपी या मंत्र्युं क होंद.
पारिल्यामेंट मा स्पीकर स्कूल कु क्लास मोनिटर जन होंद "अहिंसक गांधीबादी एमपी न इन पूछ जन बुल्यां कै हैंको प्लैनेट बिटेन अयूँ ह्वाऊ , "एक बात त बतादी कि य़ी राज्यसभा, लोकसभा या पार्लियामेंट क्य होंदन भै?"
अब मि क्य बथों बल लोक सभा, राज्यसभा या पार्लियामेंट क्य होंद. जै देस कु पार्लियामेंट मा रोज/हर घड़ी अडजोर्न पर अडजोर्न ही होणा राल त उखाक
एमपी एक दिन बिसरी ही जाल बल पार्लियामेंट क्य होंद! अर पार्लियामेंट मा क्य कामकाज होंदन.
@ Bhishm Kukreti

27 December, 2011

क्य मि बुढे गयों ?

फिर बि मै इन लगद मि बुढे गयों!
ना ना मि अबि बि दु दु सीढ़ी फळआंग लगैक चढदु. कुद्दी मारण मा अबि बि मिंडक में से जळदा छन.
फाळ मारण मा मि बांदरूं से कम नि छौं. काची मुंगरी मि अबि बि बुकै जान्दो अर रिक अपण नै साखी/न्यू जनिरेशन तैं बथान्दन बल काची मुंगरी कन बुकाण सिखणाइ त भीसम मांगन सीखो. कुखड़, मुर्गा हर समय खाण मा म्यार दगड क्या सकासौरी कारल धौं! बल्द जन बुसुड़ बिटेन भैर नि आण चांदो मि रुस्वड़ मा इ सेंदु जां से टैम कुटैम खाणो इ रौं. दंत ! बाघ का या कुत्ता का इन पैना दांत नि ह्वाल जन म्यार छन. इना गिच मा रान म्यार दान्तुं बीच मा आई ना कि रान को बुगचा बौणि जांद. अचकालौ जवान लौड़ उसयाँ खण/खाजा बि बुकावन त ऊँ तैं कचै, डीसेंटरी ह्व़े जांद. अर मि अबि बि अध्भड़यीं लुतकी, अध्काचू अंदड़-पिंदड़ पचै जांदू. म्यार अंदड़ अर जंदरौ पाट भै भुला लगदन. पण फिर बि मै इन लगद मि बुढे गयों!
अब द्याखो ना जख पैलि लोग मै से मिल्दा था त हाई! हेल्लो! हाउ डू यू डू? कैरिक सिवा बर्जद छया अच्काल जब बिटेन मि रिटायर होंऊ त लोग बाग़ हाथ मिलाणो जगा पर म्यार खुटुन्द सिवा लगौन्दन. ज्वान, अध् बुधेड़ जनानी खुटुन्द सिवा लगावन त बुरु नि मन्यान्द पण जब बौ की उमरवाळी कज्याण तुम तैं खुटुन्द सिवा लगाण बिसे जाव त कखी ना कखी मगज मा बात बैठी जांद , मन मा आई जांद बल मि कखी बुड्या त नि ह्व़े ग्येऊँ. पैल जब क्वी अपण छ्व्ट या बड़ा ज्वान नौंन -नौन्याळी क परिचय करांद छया त बुल्दा छया, "बेटा अंकल को हाई करो! हल्लो! करो!" अर अब !!! य़ी लोक बुल्दन,  "बेटा! दादा जी तैं सिवा लगाओ, प्रणाम करो जैसे तुम अपने ग्रैंड मदर याने नाना नानी को प्रणाम करते हो. अर मै कुण हुकुम बि दीन्दन बल," कुकरेती जी! आप अब बुजुर्ग ह्व़े गेवां त ज़रा बच्चों तैं आशीर्वाद दे दवाओं !'. बस एकी साल मा मि अंकल से ददा ह्व़े गयों ?. रिटायर हूण से पैल अंकल अर रिटायर हूणो परांत ददा, ग्रेण्ड पा?
इथगा फरक ?
जब तलक मि रिटायर नि ह्व़े छौ त मि कखी बि भैर देस घुमणो जान्दो छौ त क्या जवान क्या बुड्या मै से टूरीस्ट प्लेस की पूरी जानकारी लीन्दा छया अर अब ! ये मेरी ब्व़े ! अब त लोक बाग़ मी तैं कख घुमणो जाणो अर कख नि जाणो बारा मा मै अड़ान्दा छन, सिखांदा छन. अब द्याखो ना रिटायर हूण से पैल मीमा सात आठ इयर लाइन्स की फ्री फ़्लाइंग स्कीम का टिकेट छया अर मि वांको फैदा अब ल़ीणो इ रौंद. परसि पुण मि फ्री स्कीम मा बैन्कौग अर पटाया ग्यौं. बस जनि कत्ति पछ्याण वालूं तैं पता चौल बल मि बैन्कौग अर पटाया टूर पर ग्यौं त हरेक मै तैं ना म्यार नौनु अर मेरी नौनू ब्वारी तैं समझाणा बल भीष्म की या उमर च बैन्कौग अर पटाया जाणे की. अरे भीष्म तैं त बदरीनाथ, साईं बाबा, वैष्णो देवी क जात्रा पर जाण चएंद. अर छै मैना पैलि जब मि नौकरी मा छौ अर मि मकाओ गे छयो त य़ी लोक मकाओ मा छोरी कन होंदन, मकाओ की वैश्या अर भारत की वेश्याओं मा क्या फरक होंद अर मी जब मकाओ की वैश्याऊँ क नख सिख वर्णन करदो छौ त बड़ा रौंस/मजा से सुणदा छया अर ज़रा कम वर्णन करदो छौ त कत्ति नराज बि होंदा छया की मि ठीक से वैश्याऊँ वर्णन नि करणों छौं अर अब य़ी लोक मै त ना म्यार नौनु-ब्वारी तैं सलाह दीणा छन बल भीषम की उमर बद्रीनाथ-केदारनाथ जात्रा की च.छै इ मैना मा इथगा फरक!
अब द्याखो ना! सी पर्सी मि उद्योगपति काल़ा जी क कौकटेल पार्टी मा गयों. बड़ो लौन मा पार्टी छे. भौत ही बढ़िया इंतजाम छौ. पण यीं दें म्यार दगड कुछ अजीब हे ह्व़े . जु बैरा शराब लेकी पौणु/मैमानू खुणि ट्रे मा शराबौ गिलास
ल्हेकी घुमणा छया वो मै देखीक ही हौर बैरौं तैं भट्यान्दा छया बल, "अरे जौनी! या अरे पोनी! अंकल के लिए कोल्ड ड्रिंक लाओ".
मतलब बैरा बि ...
पार्टी मा निखालिस कौकटेल को ख़ास इंतजाम छौ. मेरी इच्छा ह्व़े की मि उख कौकटेल 'ऑन द रौक' (रल़ो मिसौ वळी शराब अर सिरफ़ बर्फ) पीउं. पण जनी मि कौकटेल कौंटर मा ग्यों क़ि पछ्याणक वल़ा बुलण बिसे गेन बल, कुकरेती जी! आपक वास्ता कोल्डड्रिंक को कौंटर सी प्वार तरफ च ."अर पैलि य़ी लोक मी मांगन कौक्स रिवाइवल, मोड़ी मिस्ता, कैफ ज्यूरिक, हैंकि पिंकी, बे ब्रीज, ब्लू हवाई जन कौकटेल क़ि पूरी जानकारी लीन्दा छया. अर अब यि लोक बुलणा छन बल "कुकरेती जी ! आपक वास्ता कोल्ड ड्रिंक को कौंटर सी प्वार तरफ च."
इथगा फ़रक !
ड़्यारम बि कुछ इनी हिसाब च. मि बीसेक दिनु बान देहरादून जाणो छौ त मि बाजार बिटेन पछ्याणक दूकान बिटेन नीलो, पिंगल़ो, हूरो, लाल रंग की चार टी शर्ट लायुं. श्याम तलक मेरी घरवाळी अर ब्वारी दूकान मा गेन अर मटमैल्या, कनफणि सी रंग की टी शर्ट बदली कौरिक ल़े आइन. जब मि नाराज होऊं त कज्याणिन ब्वारी अगनै करी दे अर नौने ब्वारी बुन बिस्याई, "पापा! अब इस उमर में आप पर फास्ट कलर की टी शर्टें सूट नहीं करतीं हैं अब तो आपकी उमर सोबर कलर कपड़ों की है. फास्ट कलर विल नॉट सूट यू ."मतबल छै सात इ मैना मा मेरी उमर फास्ट कलर (भड़काऊ) की नी रै गे!.
मेरी समज मा नी आणू बल अबि त मि सरैल से तंदुरस्त छौं फिर यि लोक रिटायर हूण तैं बुड्या होणे निसाणी किलै समजणा छन? ज़रा तुम इ बथावदि बल क्य मि क्य मि बुढे गयों?
@ Bhishm Kukreti

14 December, 2011

गढवाली में गढवाली भाषा सम्बन्धी साहित्य

गढवाली में गढ़वाली भाषा, साहित्य सम्बन्धी लेख भी प्रचुर मात्र में मिलते हैं. इस विषय में कुछ मुख्य लेख इस प्रकार हैं-
गढवाली साहित्य की भूमिका पुस्तक : आचार्य गोपेश्वर कोठियाल के सम्पादकत्व में गढवाली साहित्य की भूमिका पुस्तक १९५४ में प्रकाशित हुई जो गढवाली भाषा साहित्य की जाँच पड़ताल की प्रथम पुस्तक है. इस पुस्तक में भगवती प्रसाद पांथरी, भगवती प्रसाद चंदोला, हरिदत्त भट्ट शैलेश, आचार्य गोपेश्वर कोठियाल, राधाकृष्ण शाश्त्री, श्यामचंद लाल नेगी, दामोदर थपलियाल के निबंध प्रकाशित हुए.
डा विनय डबराल के गढ़वाली साहित्यकार पुस्तक में रमाप्रसाद घिल्डियाल, श्यामचंद नेगी, चक्रधर बहुगुणा के भाषा सम्बन्धी लेखों का भी उल्लेख है.

अबोधबंधु बहुगुणा, डा नन्द किशोर ढौंडियाल व भीष्म कुकरेती ने कई लेख भाषा साहित्य पर प्रकाशित किये हैं जो समालोचनात्मक लेख हैं (देखें भीष्म कुकरेती व अबोधबन्धु बहुगुणा का साक्षात्कार, चिट्ठी पतरी २००५, इसके अतिरिक्त भीष्म कुकरेती, नन्दकिशोर ढौंडियाल व वीरेंद्र पंवार के रंत रैबार, खबरसार आदि में लेख).
दस सालै खबरसार (२००९) पुस्तक में भजनसिंह सिंह, शिवराज सिंह निसंग, सत्यप्रसाद रतूड़ी, भ.प्र. नौटियाल, वीरेंद्र पंवार, भीष्म कुकरेती, डा नन्दकिशोर ढौंडियाल, विमल नेगी के लेख गढवाली भाषा साहित्य विषयक हैं.
डा अचलानंद जखमोला के भी गढवाली भाषा वैज्ञानिक दृष्टि वाले कुछ लेख चिट्ठी पतरी मे प्रकाशित हुए हैं.

पत्र -पत्रिकाओं में स्तम्भ
खबरसार में नरेंद्र सिंह नेगी के साहित्य व डा शिवप्रसाद द्वारा संकलित लोकगाथा 'सुर्जी नाग' पर लगातार स्तम्भ रूप में समीक्षा छपी हैं.
रंत रैबार (नवम्बर-दिस २०११) में नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों की क्रमिक समीक्षा इश्वरी प्रसाद उनियाल कर रहे हैं. यह क्रम अभी तक जारी है

चिट्ठी पतरी के विशेषांकों में समीक्षा
गढवाली साहित्य विकास में चिट्ठी पतरी 'पत्रिका का अपना विशेष स्थान है. चिट्ठी पतरी के कई विशेषांकों में समालोचनात्मक/समीक्षात्मक/ भाषासाहित्य इतिहास/संस्मरणात्मक लेख/आलेख प्रकाशित हुए हैं.
लोकगीत विशेषांक (२००३) में डा गोविन्द चातक, डा हरिदत्त भट्ट, चन्द्रसिंह राही, नरेंद्र सिंह नेगी, आशीष सुंदरियाल, प्रीतम अप्छ्याँण व सुरेन्द्र पुंडीर के लेख छपे.
कन्हैयालाल डंडरियाल स्मृति विशेषांक (२००४) में प्रेमलाल भट्ट, गोविन्द चातक, भ. नौटियाल, ज.प्र चतुर्वेदी, ललित केशवान, भीष्म कुकरेती, हिमांशु शर्मा, नथी प्रसाद सुयाल के लेख प्रकाशित हुए.
लोककथा विशेषांक (२००७) में भ.प्र नौटियाल, डा नन्द किशोर ढौंडिया, ह्मंशु शर्मा, अबोधबंधु बहुगुणा, रोहित गंगा सलाणी, उमा शर्मा, भीष्म कुकरेती, डा राकेश गैरोला, सुरेन्द्र पुंडीर के सारगर्भित लेक छपे.
रंगमंच विशेषांक (२००९) में भीष्म कुकरेती, उर्मिल कुमार थपलियाल, डा नन्दकिशोर ढौंडियाल, कुलानन्द घनसाला, डा राजेश्वर उनियाल के लेख प्रकाशित हुए.
अबोधबंधु स्मृति विशेषांक (२००५) में भीष्म कुकरेती, जैपाल सिंह रावत, वीणापाणी जोशी, बुधिबल्लभ थपलियाल के लेख प्रकाशित हुए.
भजन सिंह स्मृति अंक (२००५) में डा गिरीबाला जुयाल, उमाशंकर थपलियाल, वीणापाणी जोशी के लेख छपे. आलोचनात्मक साहित्य के निरीक्षण से जाना जा सकता है कि 'गढवाली आलोचना के पुनरोथान युग की शुरुवात में अबोधबंधु बहुगुणा, भीष्म कुकरेती, निरंजन सुयाल ने जो बीज बोये थे उनको सही विकास मिला और आज कहा जा सकता है कि गढवाली आलोचना अन्य भाषाओँ की आलोचना साहित्य के साथ टक्कर ल़े सकने में समर्थ है.
पुस्तक भूमिका हो या पत्रिकाओं में पुस्तक समीक्षा हो गढवाली भाषा के आलोचकों ने भरसक प्रयत्न किया कि समीक्षा को गम्भीर विधा माना जाय और केवल रचनाकार को प्रसन्न करने व पाठकों को पुस्तक खरीदने के लिए ही उत्साहित ना किया जाय अपितु गढवाली भाषा समालोचना को सजाया जाय व संवारा जाय.
गढवाली समालोचकों द्वारा काव्य समीक्षा में काव्य संरचना, व्याकरणीय सरंचना में वाक्य, संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, कारक, विश्शेष्ण, काल, समस आदि; शैल्पिक संरचना में अलंकारों, प्रतीकों, बिम्बों, मिथ, फैन्तासी आदि; व आतंरिक संरचना में लय, विरोधाभास, व्यंजना, विडम्बना आदि सभी काव्यात्मक लक्षणों की जाँच पड़ताल की गयी है. जंहाँ-जंहाँ आवश्यकता हुई वहांए-वहां समालोचकों ने अनुकरण सिद्धांत, काव्य सत्य, त्रासदी विवरण, उद्दात सिद्धांत, सत्कव्य, काव्य प्रयोजन, कल्पना की आवश्यकता, कला हेतु, छंद, काव्य प्रयोजन, समाज को पर्याप्त स्थान, क्लासिक्वाद, असलियतवाद, समाजवाद या साम्यवाद, काव्य में प्रेरणा स्रोत्र, अभिजात्यवाद, प्रकृति वाद, रूपक/अलंकार संयोजन, अभिव्यंजनावाद, प्रतीकवाद, काव्यानुभूति, कवि के वातावरण का कविताओं पर प्रभाव आदि गम्भीर विषयों पर भी बहस व निरीक्षण की प्रक्रिया भी निभाई. कई समालोचकों ने कविताओं की तुलना अन्य भाषाई कविताओं व कवियों से भी की जो दर्शाता है कि समालोचक अध्ययन को प्राथमिकता देते हैं. गद्य में कथानक, कथ्य, संवाद, रंगमंच प्र घं विचार समीक्षाओं में हुआ है. इसी तरह कथाओं, उपन्यासों व गद्य की अन्य विस्धों में विधान सम्मत समीक्षाए कीं गईं.
संख्या की दृष्टि से देखें या गुणात्मक दृष्टि से देखें तो गढवाली समालोचना का भविष्य उज्जवल है.
क्रमश:--
द्वारा- भीष्म कुकरेती

13 December, 2011

भाषा संबंधी ऐतिहासिक वाद-विवाद के सार्थक सम्वाद


गढवाली भाषा में भाषा सम्बन्धी वाद-विवाद गढवाली भाषा हेतु विटामिन का काम करने वाले हैं.
जब भीष्म कुकरेती के 'गढ़ ऐना (मार्च १९९०), में 'गढवाली साहित्यकारुं तैं फ्यूचरेस्टिक साहित्य' लिखण चएंद' जैसे लेख प्रकाशित हुए तो अबोधबंधु बहुगुणा का प्रतिक्रिया सहित मौलिक लिखाण सम्बन्धी कतोळ-पतोळ' लेख गढ़ ऐना (अप्रैल १९९०) में प्रकाशित हुआ व यह सिलसिला लम्बा चला. भाषा सम्बन्धी कई सवाल भीष्म कुकरेती के लेख 'बौगुणा सवाल त उख्मी च' गढ़ ऐना मई १९९०), बहुगुणा के लेख 'खुत अर खपत' (गढ़ऐना, जूंन १९९० ), भीष्म कुकरेती का लेख 'बहुगुणाश्री ई त सियाँ छन' (गढ़ ऐना, १९९०) व 'बहुगुणाश्री बात या बि त च' व बहुगुणा का लेख 'गाड का हाल' (सभी गढ़ ऐना १९९०) गढवाली समालोचना इतिहास के मोती हैं. इस लेखों में गढवाली साहित्य के वर्तमान व भविष्य, गढवाली साहित्य में पाठकों के प्रति साहित्यकारों की जुमेवारियां, साहित्य में साहित्य वितरण की अहमियत, साहित्य कैसा हो जैसे ज्वलंत विषयों पर गहन विचार हुए.

कवि व समालोचक वीरेन्द्र पंवार के एक वाक्य 'गढवाली न मै क्या दे' पर सुदामा प्रसाद 'प्रेमी' जब आलोचना की तो खबरसार में प्रतिक्रियास्वरूप में कई लेख प्रकाशित हुए.
२००८ में जब भीष्म कुकरेती का लम्बा लेख (२२ अध्याय) 'आवा गढ़वाळी तैं मोरण से बचावा' एवं 'हिंदी साहित्य का उपनिवेशवाद को वायसराय' (जिसमे भाषा क्यों मरती है, भाषा को कैसे बचाया जा सकता है, व पलायन, पर्यटन का भाषा संस्कृति पर असर, प्रवास का भाषा साहित्य पर प्रभाव, जैसे विषय उठाये गये हैं) खबरसार में प्रकाशित हुआ तो इस लेखमाला की प्रतिक्रियास्वरूप एक सार्थक बहस खबरसार में शुरू हुयी और इस बहस में डा नन्दकिशोर नौटियाल, बालेन्दु बडोला, प्रीतम अपछ्याण, सुशील पोखरियाल सरीखे साहित्यकारों ने भाग लिया. भीष्म कुकरेती का यह लंबा लेख रंत रैबार व शैलवाणी में भी प्रकाशित हुआ.
इसी तरह जब भीष्म कुकरेती ने व्यंग्यकार नरेंद्र कठैत के एक वाक्य पर इन्टरनेट माध्यम में टिपण्णी के तो भीष्म कुकरेती की टिप्पणी के विरुद्ध नरेंद्र कठैत व विमल नेगी की प्रतिक्रियां खबरसार में प्रकाशित हुईं (२००९) और भीष्म की टिप्पणी व प्रतिक्रिया आलोचनात्मक साहित्य की धरोहर बन गईं.
मोबाइल माध्यम में भी गढवाली भाषा साहित्य पर एक बाद अच्छी खासी बहस चली थी जिसका वर्णन वीरेन्द्र पंवार ने खबरसार में प्रकाशित की.
पाणी के व्यंग्य लेखों को लेखक नरेंद्र कठैत व भूमिका लेखक 'निसंग' द्वारा निबंध साबित करने पर डा नन्दकिशोर ढौंडियाल ने खबरसार (२०११) में लिखा कि यह व्यंग्य संग्रह लेख संग्रह है ना कि निबंध संग्रह तो भ.प्र. नौटियाल ने प्रतिक्रिया दी (खबरसार, २०११).
सुदामा प्रसाद प्रेमी व डा महावीर प्रसाद गैरोला के मध्य भी साहित्यिक वाद हुआ जो खबरसार ( २००८ ) में चार अंकों तक छाया रहा.
इसी तरह कवि जैपाल सिंह रावत 'छिपडू दादा' के एक आलेख पर सुदामा प्रसाद प्रेमी ने खबरसार (२०११) में तर्कसंगत प्रतिक्रया दी.
क्रमश:--
द्वारा- भीष्म कुकरेती

12 December, 2011

मानकीकरण पर आलोचनात्मक लेख


मानकीकरण गढवाली भाषा हेतु एक चुनौतीपूर्ण कार्य है और मानकीकरण पर बहस होना लाजमी है. मानकीकरण के अतिरिक्त गढवाली में हिंदी का अन्वश्य्क प्रयोग भी अति चिंता का विषय रहा है जिस पर आज भी सार्थक बहस हो रहीं हैं.
रिकोर्ड या भीष्म कुकरेती की जानकारी अनुसार, गढवाली में मानकीकरण पर लेख भीष्म कुकरेती ने 'बीं बरोबर गढवाली' धाद १९८८, अबोधबंधु बहुगुणा का लेख 'भाषा मानकीकरण कि भूमिका' (धाद, जनवरी , १९८९ ) में छापे थे. जहां भीष्म कुकरेती ने लेखकों का ध्यान इस ओर खींचा कि गढवाली साहित्य गद्य में लेखक अनावश्यक रूप से हिंदी का प्रयोग कर रहे हैं. वहीं अबोधबंधु बहुगुणा ने भाषा मानकीकरण के भूमिका (धाद, १९८९) गढवाली म लेखकों द्वारा स्वमेव मानकीकरण पर जोर देने सम्बन्धित लेख है. तभी भीष्म कुकरेती के सम्वाद शैली में प्रयोगात्त्मक व्यंगात्मक लेख 'च छ थौ' (धाद, जलाई, १९९९, जो मानकीकरण पर चोट करता है)
इस लेख के बारे में डा अनिल डबराल लिखता है सामयिक दृष्टि से इस लेख ने भाषा के सम्बन्ध में विवाद को तीव्र कर दिया था. "इसी तरह भीष्म कुकरेती का एक तीखा लेख 'असली नकली गढ़वाळी' (धाद जून १९९०) प्रकाशित हुआ जिसने गढवाली साहित्य में और भी हलचल मचा दी थी. मुख्य कारण था कि इस तरह की तीखी व आलोचनात्मक भाषा गढवाली साहित्य में अमान्य ही थी. 'असली नकली गढ़वाळी' के विरुद्ध में मोहनलाल बाबुलकर व अबोधबंधु बहुगुणा भीष्म कुकरेती के सामने सीधे खड़े मिलते है. मोहनलाल बाबुलकर ने धाद के सम्पादक को पत्र लिखा कि ऐसे लेख धाद में नही छपने चाहिए. वहीं अबोधबंधु बहुगुणा ने 'मानकीकरण पर हमला (सितम्बर १९९०)' लेख में भीष्म कुकरेती की भर्त्सना की. बहुगुणा ने भी तीखे शब्दों का प्रयोग किया. अबोधबंधु के लेख पर भी प्रतिक्रया आई. देवेन्द्र जोशी ने धाद (दिसम्बर १९९०) में 'माणा पाथिकरण' बखेड़ा पर बखेड़ा' लेख/पत्र लिखा कि बहुगुणा को ऐसे तीखे शब्द इस्तेमाल नही करने चाहिए थे व इसी अंक में लोकेश नवानी ने मानकीकरण की बहस बंद करने की प्रार्थना की. रमाप्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी' एक लम्बा पत्र भीष्म कुकरेती को भेजा, पत्र भीष्म कुकरेती के पक्ष में था.
इस ऐतिहासिक बहस ने गढवाली साहित्य में आलोचनात्मक साहित्य को साहित्यकारों के मध्य खुलेपन से विचार विमर्श का मार्ग प्रशस्त किया व आलोचनात्मक साहित्य को विकसित किया.
क्रमश:--
द्वारा- भीष्म कुकरेती

वीरेन्द्र पंवार की गढवाली भाषा में समीक्षाएं


वीरेन्द्र पंवार गढवाली समालोचना का महान स्तम्भ है. पंवार के बिना गढवाली समालोचना के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता है. पंवार ने अपनी एक शैली परिमार्जित की है जो गढवाली आलोचना को भाती भी है क्योंकि आम समालोचनात्मक मुहावरों के अतिरिक्त पंवार गढ़वाली मुहावरों को आलोचना में भी प्रयोग करने में दीक्षित हैं. वीरेंद्र पंवार की पुस्तक समीक्षा का संक्षिप्त ब्यौरा इस प्रकार है
आवाज- खबरसार (२००२)
लग्याँ छंवां - खबरसार (२००४)
दुन्‍या तरफ पीठ - खबरसार (२००५)
केर- खबसार (२००५)
घंगतोळ - खबरसार (२००८)
टुप-टप - खबरसार (२००८)
कुल़ा पिचकारी - खबरसार (२००८)
कुल़ा पिचकारी - खबरसार (२००८)
डा. आशाराम - खबरसार (२००८)
अडोस पड़ोस - खबरसार (२००९)
मेरी पूफू - खबरसार (२००९)
दीवा दैणि ह्वेन - खबरसार (२०१०)
खबर सार दस साल की - खबरसार (२०१०)
ज्यूँदाळ - खबरसार (२०११)
पाणी' - खबरसार (२०११)
गढवाली भाषा के शब्द संपदा - खबरसार (२०११)
सब्बी मिलिक रौंला हम - खबरसार (२०११)
आस - रंत रैबार (२०११)
फूल संगरांद - खबरसार (२०११)
चिट्ठी पतरी विशेषांक - खबरसार (२०११)
द्वी आखर - खबरसार (२०११)
ललित मोहन कोठियाल की भी दो पुस्तकों की समीक्षा खबरसार में प्रकाशित हुईं हैं.
संदीप रावत द्वारा उमेश चमोला कि पुस्तक की समालोचना खबरसार (२०११) में प्रकाशित हुई.
क्रमश:--
द्वारा- भीष्म कुकरेती

11 December, 2011

गढवाली भाषा में पुस्तक समीक्षायें

ऐसा लगता है कि गढवाली भाषा की पुस्तकों की समीक्षा/समालोचना सं. १९८५ तक बिलकुल ही नही था, कारण गढवाली भाषा में पत्र-पत्रिकाओं का ना होना. यही कारण है कि अबोधबंधु बहुगुणा ने 'गाड म्यटेकि गंगा (१९७५) व डा अनिल डबराल ने 'गढवाली गद्य की परम्परा : इतिहास से आज तक' (२००७) में १९९० तक के गद्य इतिहास में दोनों विद्वानों ने समालोचना को कहीं भी स्थान नहीं दिया. इस लेख के लेखक ने धाद के सर्वेसर्वा लोकेश नवानी को भी सम्पर्क किया तो लोकेश ने कहा कि धाद प्रकाशन समय (१९९० तक) में भी गढवाली भाषा में पुस्तक समीक्षा का जन्म नहीं हुआ था. (सम्पर्क ४ दिसम्बर २०११, साँय १८.४२)

भीष्म कुकरेती की 'बाजूबंद काव्य (मालचंद रमोला) पर समीक्षा गढ़ऐना (फरवरी १९९०) में प्रकाशित हुयी तो भीष्म कुकरेती द्वारा पुस्तक में कीमत न होने पर समीक्षा में/व्यंग्य चित्र में फोकटिया गढवाली पाठकों की मजाक उड़ाने पर अबोधबंधु बहुगुणा ने सख्त शब्दों में ऐतराज जताया (देखे गढ़ ऐना २७ अप्रि, १९९०, २२ मई १९९० अथवा एक कौंळी किरण, २०००). जब की मालचन्द्र रमोला ने लिखा की भीष्म की यह टिपणी सरासर सच्च है.
भीष्म कुकरेती ने गढ़ ऐना (१९९०) में ही जग्गू नौडियाल की 'समळौण' काव्य संग्रह व प्रताप शिखर के कथा संग्रह 'कुरेडी फटगे' की भी समीक्षा की गयी.
भीष्म कुकरेती ने 'इनमा कनक्वै आण वसंत' की समीक्षा (खबरसार २००६) के अंक में की. जिसमे भीष्म ने डा. वीरेन्द्र पंवार के कविताओं को होते परिवर्तनों की दृष्टि से टटोला.
भीष्म कुकरेती की 'पूरण पंत के काव्य संग्रह 'अपणयास का जलड़ा' की समालोचना; गढवाली धाई (२००५) में प्रकाशित हुयी.
दस सालै खबरसार (२००९) की भीष्म कुकरेती द्वारा अंग्रेजी में समीक्षा का गढवाली अनुबाद खबरसार (२००९) में मुखपृष्ठ पर प्रकाशित हुआ.

गढवाली पत्रिका चिट्ठी पतरी में प्रकाशित समीक्षाएं
चिट्ठी पतरी के पुराने रूप 'चिट्ठी' (१९८९) में कन्हैयालाल ढौंडियाल के काव्य संग्रह 'कुएड़ी' की समीक्षा निरंजन सुयाल ने की.
बेदी मा का बचन (क.सं. महेश तिवाड़ी) की समीक्षा देवेन्द्र जोशी ने कई कोणों से की (चिट्ठी पतरी १९९८).
प्रीतम अपच्छ्याण की 'शैलोदय' की समीक्षा चिट्ठी पतरी (१९९९) में प्रकशित हुयी और समीक्षा साक्ष्य है कि प्रीतम में प्रभावी समीक्षक के सभी गुण है.
देवेन्द्र जोशी की 'मेरी अग्याळ' कविता संग्रह (चट्ठी पतरी २००१ ) समालोचना एक प्रमाण है कि क्यों देवेन्द्र जोशी को गढवाली समालोचनाकारों की अग्रिम श्रेणी में रखा जाता है.
अरुण खुगसाल ने नाटक "आस औला" की समालोचना बड़े ही विवेक से चिट्ठी पतरी (२००१) में की व नाटक के कई पक्षों की पड़ताल की.
आवाज (हिंदी-गढवाली कविताएँ स. धनेश कोठारी) की समीक्षा संजय सुंदरियाल ने चिट्ठी पतरी (२००२) में निष्पक्ष ढंग से की.
हिंदी पुस्तक 'बीसवीं शती का रिखणीखाळ' के समालोचना डा यशवंत कटोच ने बड़े मनोयोग से चिट्ठी पतरी (२००२) में की और पुस्तक की उपादेयता को सामने लाने में समालोचक कामयाब हुआ.
आँदी साँस जांदी साँस (क.स मदन डुकल़ाण ) की चिट्ठी पतरी (२००२ ) में समीक्षा भ.प्र. नौटियाल ने की.
उकताट (काव्य, हरेश जुयाल) की विचारोत्तेजक समीक्षा देवेन्द्र पसाद जोशी ने चिट्ठी पतरी (२००३) में प्रकाशित की.
हर्बि हर्बि (काव्य स. मधुसुदन थपलियाल) की भ. प्र. नौटियाल द्वारा चिट्ठी पतरी (२००३) में प्रकाशित हुयी.
गैणि का नौ पर (उप. हर्ष पर्वतीय) की समीक्षा चिठ्ठी पतरी (२००४) में छपी. समीक्षा में देवेन्द्र जोशी ने उपन्यास के लक्षणों के सिद्धान्तों के तहत समीक्षा के
अन्ज्वाळ (कन्हैया लाल डंडरियाल) की भ.प्र. नौटियाल ने द्वारा समीक्षा 'चिट्ठी पतरी (२००४ ) में प्रकाशित हुई.

डा. नन्द किशोर ढौंडियाल द्वारा की गयी पुस्तक समीक्षाएं
डा नन्द किशोर का गढवाली, हिंदी पुस्तकों के समीक्षा में महान योगदान है. डा ढौंडियाल की परख शाश्त्रीय सिद्धांतों पर आधारित, न्यायोचित व तर्क संगत होती है. डा ढौंडियाल की समीक्षाओं का ब्योरा इस प्रकार है
'कांति' - खबरसार (२००१)
'समर्पित दुर्गा' - खबरसार (२००१ )
'कामनिधी' खबरसार (2001)
रंग दो - खबरसार (२००२ )
'उकताट'- खबरसार (२००२)
'हर्बि-हर्बि' खबरसार (२००२)
'तर्पण' खबरसार (२००३)
पहाड़ बदल रयो - खबरसार (२००३)
'धीत' - खबरसार (२००३)
'बिज़ी ग्याई कविता' - खबरसार (२००४)
गढवाली कविता' - खबरसार (२००५)
'शैल सागर' - खबरसार (२००६)
'टळक मथि ढळक'- खबरसार (२००६)
'संकवाळ ' की समीक्षा - खबरसार (२०१०)
'दीवा दैण ह्वेन' - खबरसार (२०१०)
'आस' - खबरसार (२०१०)
ग्वे - खबरसार (२०१०)
उमाळ - खबरसार (२०१०)
'प्रधान ज्योर' - खबरसार (२०१०)
पाणी - खबरसार (२०११)
क्रमश:--
द्वारा- भीष्म कुकरेती

10 December, 2011

पहाड़ के उजड़ते गाँव का सवाल विकास की चुनौतियाँ और संभावनाएं



उत्तराखंड की लगभग 70 प्रतिशत आबादी गाँव मैं निवास करती है 2011 की जनगणना के अनुसार हमारे देश मैं लगभग 6 लाख 41 हजार गाँव हैं उत्तराखंड मैं भी लगभग 16826 गाँव हैं लेकिन पहाड़ो का शायद ही कोई ऐसा गाँव होगा जिसमे 40 प्रतिशत से कम पलायन हुआ होगा पहाड़ के खासकर उत्तराखंड हिमालय मैं औपनिवेशिक काल से ही पलायन झेल रहे हैं इसलिए गाँव का कम से कम इतना उत्पादक होना जरुरी हैं की वहां के निवासी वहां रहकर अपना भरण पोषण करने के अलावा अपनी जरूरतें आराम से पूरी कर सकें लेकिन ज्यादातर पहाड़ अनुत्पादकता के संकट से जूझ रहे हैं जबकि कहा जाता है की पहाड़ (विशेषतः हिमालयी )संसाधनिक दृष्टि से अत्यंत समृद्ध हैं परन्तु विरोधाभास ये है की राज्य बनने के इतनी वर्षों बाद भी गाँव से पलायन नहीं रुका और यहाँ के गाँव की लगभग आधी आबादी रोजी-रोटी की तलाश मैं प्रवास कर रही है स्पष्ट है की गाँव का उत्पादन तंत्र कमजोर है अर्थशास्त्र की किताब मैं पहाड़ के गाँव का अर्थशास्त्र सदियों से एक जटिल चुनौती भरा और अनुत्तरित प्रश्न रहा है हम उसके बारे मैं सोच पाना तो दूर उसे लेकर घबराते रहे हैं और आज भी कमोबेश हमारी अर्थव्यवस्था लगभग सरकार आश्रित है.

आखिर पहाड़ के गाँव अनुत्पादक क्यूँ हैं दरअसल अभी तलक शासन के स्तर पर पहाड़ की संसधानिक संरचना तथा उत्पादन प्रवृति और बाजार की समझ एवं पहचान नहीं दिखाई पड़ती है जबकि पहाड़ों में आर्थिक संरचना के आधार की प्रवृति और क्षमता भिन्न है जिसे कभी पहाडो की दृष्टि से नहीं समझा गया. इसलिए पहाड़ों के विकास के उत्तर को खोजने के लिए पहाड़ों के आर्थिक /उत्पादन सिद्धांत को समझना होगा. दूसरी और यह विकास की नयी समझ और नए प्रयोगों का युग है, लेकिन पहाड़ो के विकास को लेकर नयी समझ का आभाव दिखता है इसलिए विकास की दृष्टि से आज भी गाँव हाशिये पर है पहाड़ के गाँव की उत्पादकता रोजगार सृजन और समृधि के सवाल आम आदमी से गहरे जुड़े हैं लेकिन ये आम आदमी के स्तर पर हल नहीं हो सकते क्यूंकि ये कहीं न कहीं राजनैतिक सवाल हैं और इसका जवाब भी राजनैतिक स्तर पर ही निहित है अतः हमने इस बार राज्य के प्रमुख राजनैतिक दलों के प्रतिनिधियों को इस सवाल पर अपना दृष्टिकोण रखने हेतु आमंत्रित किया है ताकि हम जान सकें की इस सवाल पर उनका विजन क्या है और उनके मेनिफेस्टो और अजेंडे मैं गाँव कहाँ पर है या वे गाँव के विकास को लेकर क्या सोचते है या गाँव के सवाल पर उनका उत्तर क्या है.

धरती का लगभग २७ प्रतिशत भाग पहाड़ों का है पहाड़ो के पास प्रकृति की संरचना के रूप में जहाँ एक और पारिस्थितिकी तंत्र,पर्यावरण संरचना, नदीतंत्र और ताजा पानी के स्रोत हैं तो दूसरी और मानव जीवन के रूप में उन पर बसे हुए अनेक समाज उनकी संस्कृतियाँ, परम्पराएं तथा भाषाओँ का धरातल है. दुनिया की लगभग 12 प्रतिशत आबादी पहाड़ों में निवास करती है और 22 प्रतिशत जनता पहाड़ों पर आश्रित है अधिकांश पहाड़ सदियों से गरीब लोगों के आवास रहे हैं आज दुनिया भर के पहाड़ों के सामने पर्यावरण पारिस्थितिकी के अलावा उत्पादक होने का संकट भी है इसलिए पहाड़ के लोगों के मन में अपने आर्थिक सवालों को लेकर हमेशा एक तड़प रही है ऐसे ही कुछ पहाड़ों की चिंताओं को लेकर विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन ने 11 दिसम्बर 2002 को न्यूयोर्क में एक सम्मलेन आयोजित किया बाद में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने प्रस्ताव संख्या 57/245 के द्वारा 2003 से इस दिन को विश्व पहाड़ दिवस मनाने की घोषणा की. इसका उद्देश्य दुनिया में पहाड़ों के स्थायी विकास तथा विश्व में पहाड़ों की भूमिका के प्रति जागरूकता के लिए कार्य करना है यूँ तो इस वर्ष पहाड़ दिवस की थीम भिन्न है लेकिन हमने अपनी मुख्य चिंता "पहाड़ के उजड़ते हुए गांवों का सवाल: विकास की चुनौतियाँ और उसकी संभावनाएं" विषय पर बहस आयोजित की है जिसमे निम्न वक्ताओं ने अपने विचार रखने हेतु सहमति दी है

द्वारा- धाद

रचना संग्रहों में भूमिका लेखन


पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित समीक्षा का जीवनकाल बहुत कम रहता है और फिर पत्र पत्रिकाओं के वितरण समस्या व रख रखाव के समस्या के कारण पत्र-पत्रिकाओं में छपी समीक्षाएं साहित्य इतिहासकारों के पास उपलब्ध नही होती हैं. अत: समीक्षा के इतिहास हेतु साहित्यिक इतिहासकारों को रचनाओं की भूमिका पर अधिक निर्भर करना होता है.
नागराजा महाकाव्य (कन्हैयालाल डंडरियाल, १९७७ व २००४ पाँच खंड) की भूमिका १९७७ में डा गोविन्द चातक ने कवि के भावपक्ष, विषयपक्ष व शैलीपक्षों का विश्लेष्ण विद्वतापूर्ण किया, तो २००४ में नत्थीलाल सुयाल ने डंडरियाल के असलियतवादी पक्ष की जांच पड़ताल की.

पार्वती उपन्यास (ल़े.डा महावीर प्रसाद गैरोला, १९८०) गढवाली के प्रथम उपन्यास की भूमिका कैप्टेन शूरवीर सिंह पंवार ने लिखी जिसमे पंवार ने गढवाली शब्द भण्डार व गढवाली साहित्य विकाश के कई पक्षों की विवेचना की है.
कपाळी की छ्मोट (कवि: महावीर गैरोला १९८०) कविता संग्रह की भूमिका में मनोहरलाल उनियाल ने गैरोला की दार्शनिकता, कवि के सकारात्मक पक्ष उदाहरणों सहित पाठकों के सामने रखा.
शैलवाणी (सम्पादक अबोधबंधु बहुगुणा १९८१): 'शैलवाणी' विभिन्न गढवाली कवियों का वृहद कविता संग्रह है और 'गाड म्यटेकि गंगा' की तरह अबोधबन्धु बहुगुणा  गढवाली कविता का संक्षिप्त समालोचनात्मक इतिहास लिखा व प्रत्येक कवि कि संक्षिप्त काव्य सम्बंधित जीवनी भी प्रकाशित की. शैलवाणी गढवाली कविता व आलोचना साहित्य का एक जगमगाता सितारा है.
खिल्दा फूल हंसदा पात (ललित केशवान, १९८२) प्रेमलाल भट्ट ने ललित केशवान के कविता संग्रह के विद्वतापूर्ण भूमिका लिखी जो गढवाली आलोचना को सम्बल देने में समर्थ है.
गढवाली रामायण लीला (कवि :गुणानन्द पथिक, १९८३ ) की भूमिका डा पुरुषोत्तम डोभाल ने लिखी जिसमे डोभाल ने मानो विज्ञान भाषा विकास, दर्शन, वास्तविकता की महत्ता, रीति रिवाजों व कविता के अन्य पक्षों की विवेचना की.
इलमतु दादा (क. जयानंद खुगसाल बौळया, १९८८ ) की भूमिका कन्हैयालाल डंडरियाल, सुदामा प्रसाद प्रेमी व भ.प्र. नौटियाल ने लिखीं व कवि की कविताओं के कई पक्षों पर अपने विचार दिए.
ढांगा से साक्षात्कार (क.नेत्र सिंह असवाल, १९८८) की भूमिका राजेन्द्र धस्माना ने लिखी और गढवाली आलोचना को रास्ता दिया. यह भूमिका गढवाली आलोचना के लिए एक ऐतिहासिक मील का पत्थर है जिसमे धस्माना ने गज़ल का गढवाली नाम 'गंजेळी कविता' दिया.
चूंगटि (क.सुरेन्द्र पाल,२०००) की भूमिका में मधुसुदन थपलियाल ने आलोचना के सभी पक्षों को ध्यान रखकर भूमिका लिखी और जता दिया के मधुसुदन थपलियाल गढवाली आलोचना का चमकता सितारा है.
उकताट (क. हरीश जुयाळ, २००१) की भूमिका में मधुसुदन थपलियाल ने आज के सन्दर्भ में साहित्य की भूमिका, अनुभवगत साहित्य की महत्ता, भविष्य की ओर झांकना , रचनाधर्मिता, सन्दर्भ अन्वेषण आदि विषय उठाकर प्रमाण दे दिया कि थपलियाल गढवाली समालोचना का एक स्मरणीय स्तम्भ है.
आस औलाद नाटक (कुलानंद घनसाला, २००१) की भूमिका में प्रसिद्ध रंग शिल्पी राजेन्द्र धस्माना ने रंगमंच, रंगकर्म, संचार विधा के गूढ़ तत्व, मंचन, कथासूत्र, सम्वाद, मंचन प्रबंधन, निर्देशक की भूमिका जैसे आदि ज्वलंत प्रश्नों पर कलम चलाई है.
आँदी साँस जांदी साँस (क. मदन डुकलाण २००१) की भूमिका अबोध बंधु बहुगुणा ने लिखी और कविता में स्वर व गहराई, शब्द सामर्थ्य-अर्थ अन्वेषण, कविताओं में सन्दर्भों व प्रसंगों का औचित्य जैसे अहम् सवालों की जाँच पड़ताल की.
ग्वथनी गौं बटे (स. मदन डुकलाण 2002) विविध कवियों के काव्य संग्रह में सम्पादक मदन डुकलाण ने गढवाली कविता विकास के कुछ महत्वपूर्ण दिशाओं का बोध कराया व कवियों द्वारा कविताओं में समयगत परिवर्तन विषय को उठाया
ललित केशवान ने 'गंगा जी का जौ', 'गुठ्यार', 'गाजी डोट कौम', काव्य संग्रहों की भूमिका लिखी.
हर्वी-हर्वी (मधुसुदन थपलियाल (२००२) गढवाली भाषा का प्रथम गज़ल संग्रह है, और इस ऐतिहासिक संग्रह की भूमिका लोकेश नवानी ने लिखी जिसमे भाषा में प्रयोगवाद की महत्ता, श्रृंगार रस में जिन्दगी के सभी क्षण, साहित्य में असलियत व रहस्यवाद का औचित्य जैसे विषयों का निरीक्षण किया है.
डा आशाराम नाटक (ल़े.नरेंद्र कठैत २००३) के भूमिका पौड़ी के सफल रंगकर्मी त्रिभुवन उनियाल, बृजेंद्र रावत व प्रदीप भट्ट लिखी जिसमे नाटक के सफल मंचन में आवश्यक तत्वों की विवेचना की गयी है.
धीत (क.डा नरेंद्र गौनियाल २००३) की भूमिका में कवि व कवित्व की आवश्यकता आदि प्रश्नों की भूमिका.
इनमा कनक्वै आण वसंत (क.वीरेन्द्र पंवार, २००४) कविता संग्रह की भूमिका में मधुसुदन थपलियाल ने कविता क्या है, कविता का औचित्य, किसके लिए कविता, कविता में कवि का पक्ष आदि विषयों की जाँच पड़ताल बड़े अच्छे ढंग से की है.
अन्ज्वाळ (क.कन्हयालाल डंडरियाल, २००४) की भूमिका में गोविंद चातक ने कवि के कवित्व के सभी पक्षों को पाठकों के सामने रखा.
खिगताट (क. हरीश जुयाल, २००४) के भूमिका में भूमिकाकार गिरीश सुंदरियाल ने 'हास्य का हौन्सिया खुणे जुहारा : व्यंग्य का बादशाह खुणे सलाम' नाम से भूमिका लिखी व हरीश की कविताओं के आद्योपांत सार्थक विश्लेष्ण किया.
बिज़ीग्याई कविता (अट्ठारह कवियों का कविता संग्रह, स. मधुसुदन थपलियाल, २००४) के सम्पादकीय में कविता विकास व सभी कवियों की अति संक्षिप्त जीवनी भी है.
उड़ घुघती उड़ (गढवाली कुमाउनी कवियों का कविता संग्रह, २००५) में गढवाली भाषा हेतु डा नन्दकिशोर ढौंडियाल ने भूमिका लिखी जिसमे ढौंडियाल ने कविता में कवि मस्तिस्क व ह्रदय की महत्ता का विवेचन सरलता से किया.
टुप-टप (क. नरेंद्र कठैत २००६) के भूमिका में वीरेन्द्र पंवार ने कवि के कविताओं की जांच पड़ताल की.
अन्वार (गीतकार : गिरीश सुंदरियाल, २००६) के भूमिका में मदन डुकलाण ने कवि के भाव-विचार, अनुभूति-अभिव्यक्ति का पठनीयता व कविता के प्रभावशीलन पर प्रभाव की आवश्यकता, कवि का समाज व स्वयं के प्रति उत्तरदायित्व, जैसे विषयों की छानबीन की.
बसुमती कथा संग्रह (क. डा उमेश नैथाणी २००६) के भूमिका में वीरेन्द्र पंवार ने कथा साहित्य के मर्म का निरीक्षण किया
ग्वे (स.तोताराम ढौंडियाल, २००७) स्युसी बैजरों के स्थानीय कवियों के काव्य संग्रह के भूमिका में तोताराम ढौंडियाल ने कवि धर्म व कविताओं का वास्तविक उद्देश्य जैसे प्रश्नों पर अपनी दार्शनिक राय रखी.
मौळयार (क.गिरीश सुंदरियाल, २००) के भूमिका में गणेश खुकसाल गणी ने कविता को दुःख मुक्ति का साधन बताया व कविता में आख्यान, भौगोलिक पहचान, बदलाव, व शैली की विवेचना की.
कुल़ा पिचकारी (व्यंगकार : नरेंद्र कठैत ) व्यंग्य संग्रह के भूमिका में भीष्म कुकरेती ने कठैत के प्रत्येक व्यंग्य की जग प्रसिद्ध व्यंग्यकारों के व्यंग्य संबंधी कथनों के सापेक्ष तौला व व्यंग्य विधा की परभाषा भी दी.
दीवा ह्व़े जा दैणी (क.ललित केशवान २००९) की भूमिका प्रेमलाल भट्ट ने लिखी.
आस (क. शांति प्रकाश जिज्ञासु, २००९) की भूमिका में लोकेश नवानी ने गढवाली कविता विकास व गढवाली मानस में भौतिक-मानसिक परिवर्तन की बात उठाई
गीत गंगा (गी. चन्द्रसिंह राही, २०१०) की भूमिका में सुदामा प्रसाद प्रेमी ने राही के कुछ गीतों का विश्लेष्ण काव्य शास्त्र के आधार पर किया.
नरेंद्र कठैत के व्यंग्य संग्रह (२००९) के भूमिका शिवराज सिंह रावत 'निसंग ' ने लिखी.
डा. नंदकिशोर ढौंडियाल ने आशा रावत के नाटक हाँ होसियारपुर (२००७), राजेन्द्र बलोदी के कविता संग्रह 'टुळक' की भूमिका लिखी.
मनिख बाघ (नाटक, कुलानन्द घनसाला, २०१०) की भूमिका में भीष्म कुकरेती ने गढवाली नाटकों का ऐतिहासिक अध्ययन व संसार के अन्य प्रसिद्ध नाटकों के परिपेक्ष में मनिख बाघ की समीक्षा की.
कोठी देहरादून बणोला (कवि हेमू भट्ट, २०११) की भूमिका में भीष्म कुकरेती ने सातवीं सदी से लेकर आज तक के कई भाषाओं के जग प्रसिद्ध कवियों की कविताओं के साथ भट्ट की कविताओं का तुलनात्मक अध्ययन किया.
कबलाट (भीष्म कुकरेती का व्यंग्य संग्रह, २०११) के भूमिका पूरण पंत 'पथिक' ने लिखी व भीष्म कुकरेती के विविध साहित्यिक कार्यकलापों के बारे में पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया.
अंग्वाळ (250 से अधिक कविओं का काव्य संग्रह, स. मदन डुकलाण, २०११) की भूमिका में भीष्म कुकरेती ने १९०० ई से लेकर प्रत्येक युग में परिवर्तन के दौर के आयने से गढवाली कविता को आँका व अब तक सभी कवियों की जीवन परिचय भी दिया.
क्रमश:--
द्वारा- भीष्म कुकरेती

गढवाली भाषा में समालोचना/आलोचना/समीक्षा साहित्य


(गढवाली अकथात्मक गद्य-३)
(Criticism in Garhwali Literature)

यद्यपि आधिनिक गढवाली साहित्य उन्नीसवीं सदी के अंत व बीसवीं सदी के प्रथम वर्षों में प्रारम्भ हो चूका था और आलोचना भी शुरू हो गयी थी. किन्तु आलोचना का माध्यम कई दशाब्दी तक हिंदी ही रहा.
यही कारण है कि गढवाली कवितावली सरीखे कवि संग्रह (१९३२) में कविता पक्ष, कविओं की जीवनी व साहित्यकला पक्ष पर टिप्पणी हिंदी में ही थी. गढवाली सम्बन्धित भाषा विज्ञानं व अन्य भाषाई अन्वेषणात्मक, गवेषणात्मक साहित्य भी हिंदी में ही लिखा गया. वास्तव में गढवाली भाषा में समालोचना साहित्य की शुरुवात 'गढवाली साहित्य की भूमिका (१९५४) पुस्तक से हुयी.

फिर बहुत अंतराल के पश्चात १९७५ से गाड म्यटेकि गंगा के प्रकाशन से ही गढवाली में गढवाली साहित्य हेतु लिखने का प्रचलन अधिक बढ़ा. यहाँ तक कि १९७५ से पहले प्रकाशित साहित्य पुस्तकों की भूमिका भी हिंदी में ही लिखीं गईं हैं.
देर से ही सही गढवाली आलोचना का प्रसार बढ़ा और यह कह सकते हैं कि १९७५ ई. से गढवाली साहित्य में आलोचना विधा का विकास मार्ग प्रशंसनीय है.
भीष्म कुकरेती के शैलवाणी वार्षिक ग्रन्थ (२०११-२०१२) का आलेख 'गढवाली भाषा में आलोचना व भाषा के आलोचक' के अनुसार गढवाली आलोचना में आलोचना के पांच प्रकार पाए गए हैं
१- रचना संग्रहों में भूमिका लेखन
२- रचनाओं की पत्र पत्रिकाओं में समीक्षा
३- निखालिस आलोचनात्मक लेख.निबंध
४- भाषा वैज्ञानिक लेख
५- अन्य प्रकार

रचना संग्रन्हों व अन्य माध्यमों में गढवाली साहित्य इतिहास व समालोचना /समीक्षा
रचना संग्रहों में गढवाली साहित्य इतिहास मिलता है जिसका लेखा जोखा इस प्रकार है
गाड म्यटेकि गंगा (सम्पादक अबोधबंधु बहुगुणा, १९७५) : गाड म्यटेकि गंगा की भूमिका लेखक अबोधबंधु बहुगुणा व उपसंपादक दुर्गाप्रसाद घिल्डियाल हैं. भूमिका में गढवाली गद्य का आद्योपांत इतिहास व गढवाली गद्य के सभी पक्षों व प्रकारों पर साहित्यिक ढंग से समालोचना हुयी है. गाड म्यटेकि गंगा गढवाली समालोचना साहित्य में ऐतिहासिक घटना है
शैलवाणी (सम्पादक, अबोधबंधु बहुगुणा १९८१) : 'शैलवाणी' विभिन्न गढवाली कवियों का वृहद कविता संग्रह है और 'गाड म्यटेकि गंगा' की तरह अबोधबन्धु बह्गुणा ने गढवाली कविता का संक्षिप्त समालोचनात्मक इतिहास लिखा व प्रत्येक कवि कि संक्षिप्त काव्य सम्बंधित जीवनी भी प्रकाशित की. शैलवाणी गढवाली कविता व आलोचना साहित्य का एक जगमगाता सितारा है.
गढवाली स्वांग को इतिहास (लेख) : मूल रूप से डा सुधा रानी द्वारा लिखित 'गढवाली नाटक' (अधुनिक गढवाली नाटकों का इतिहास) का अनुवाद भीष्म कुकरेती ने गढवाली में कर उसमें आज तक के नाटकों को जोड़कर 'चिट्ठी पतरी' के नाट्य विशेषांक व गढवाल सभा, देहरादून के लोक नाट्य सोविनेअर (२००६) में भी प्रकाशित करवाया.
अंग्वाळ (250 से अधिक कविओं का काव्य संग्रह, स. मदन डुकलाण, २०११) की भूमिका में भीष्म कुकरेती ने १९०० ई. से लेकर प्रत्येक युग में परिवर्तन के दौर के आने से गढवाली कविता को आँका व अब तक सभी कवियों की जीवन परिचय व उनके साहित्य के समीक्षा भी की गयी. यह पुस्तक एवम भीष्म कुकरेती की गढवाली कविता पुराण (इतिहास) इस सदी की गढवाली साहित्य की महान घटनाओं में एक घटना है. गढवाली कविता पुराण 'मेरा पहाड़' (२०११) में भी छपा है.
आजौ गढवाली कथा पुराण (आधुनिक गढवाली कथा इतिहास) अर संसारौ हौरी भाषौं कथाकार : भीष्म कुकरेती द्वारा आधुनिक गढवाली कहानी का साहित्यिक इतिहास, आधुनिक गढवाली कथाओं की विशेषताओं व गुणों का विश्लेष्ण 'आजौ गढवाली कथा पुराण (आधुनिक गढवाली कथा इतिहास) अर हौरी भाषौं कथाकार' नाम से शैलवाणी साप्ताहिक में सितम्बर २०११ से क्रमिक रूप से प्रकाशित हो रहा है. इस लम्बे आलेख में भीष्म कुकरेती ने गढवाली कथाकारों द्वारा लिखित कहानियों के अतिरिक्त १९० देशों के २००० से अधिक कथाकारों की कथाओं पर भी प्रकाश डाला है.

क्रमश:--
द्वारा- भीष्म कुकरेती

09 December, 2011

पहाड़ के उजड़ते गाँव का सवाल विकास की चुनौतियाँ और संभावनाएं

उत्तराखंड की लगभग 70 प्रतिशत आबादी गाँव मैं निवास करती है 2011 की जनगणना के अनुसार हमारे देश मैं लगभग 6 लाख 41 हजार गाँव हैं उत्तराखंड मैं भी लगभग 16826 गाँव हैं लेकिन पहाड़ो का शायद ही कोई ऐसा गाँव होगा जिसमे 40 प्रतिशत से कम पलायन हुआ होगा पहाड़ के खासकर उत्तराखंड हिमालय मैं औपनिवेशिक काल से ही पलायन झेल रहे हैं इसलिए गाँव का कम से कम इतना उत्पादक होना जरुरी हैं की वहां के निवासी वहां रहकर अपना भरण पोषण करने के अलावा अपनी जरूरतें आराम से पूरी कर सकें लेकिन ज्यादातर पहाड़ अनुत्पादकता के संकट से जूझ रहे हैं जबकि कहा जाता है की पहाड़ (विशेषतः हिमालयी )संसाधनिक दृष्टि से अत्यंत समृद्ध हैं परन्तु विरोधाभास ये है की राज्य बनने के इतनी वर्षों बाद भी गाँव से पलायन नहीं रुका और यहाँ के गाँव की लगभग आधी आबादी रोजी-रोटी की तलाश मैं प्रवास कर रही है स्पष्ट है की गाँव का उत्पादन तंत्र कमजोर है
अर्थशास्त्र की किताब मैं पहाड़ के गाँव का अर्थशास्त्र सदियों से एक जटिल चुनौती भरा और अनुत्तरित प्रश्न रहा है हम उसके बारे मैं सोच पाना तो दूर उसे लेकर घबराते रहे हैं और आज भी कमोबेश हमारी अर्थव्यवस्था लगभग सरकार आश्रित है.
आखिर पहाड़ के गाँव अनुत्पादक क्यूँ हैं दरअसल अभी तलक शासन के स्तर पर पहाड़ की संसधानिक संरचना तथा उत्पादन प्रवृति और बाजार की समझ एवं पहचान नहीं दिखाई पड़ती है जबकि पहाड़ों में आर्थिक संरचना के आधार की प्रवृति और क्षमता भिन्न है जिसे कभी पहाडो की दृष्टि से नहीं समझा गया. इसलिए पहाड़ों के विकास के उत्तर को खोजने के लिए पहाड़ों के आर्थिक /उत्पादन सिद्धांत को समझना होगा. दूसरी और यह विकास की नयी समझ और नए प्रयोगों का युग है, लेकिन पहाड़ो के विकास को लेकर नयी समझ का आभाव दिखता है इसलिए विकास की दृष्टि से आज भी गाँव हाशिये पर है पहाड़ के गाँव की उत्पादकता रोजगार सृजन और समृधि के सवाल आम आदमी से गहरे जुड़े हैं लेकिन ये आम आदमी के स्तर पर हल नहीं हो सकते क्यूंकि ये कहीं न कहीं राजनैतिक सवाल हैं और इसका जवाब भी राजनैतिक स्तर पर ही निहित है अतः हमने इस बार राज्य के प्रमुख राजनैतिक दलों के प्रतिनिधियों को इस सवाल पर अपना दृष्टिकोण रखने हेतु आमंत्रित किया है ताकि हम जान सकें की इस सवाल पर उनका विजन क्या है और उनके मेनिफेस्टो और अजेंडे मैं गाँव कहाँ पर है या वे गाँव के विकास को लेकर क्या सोचते है या गाँव के सवाल पर उनका उत्तर क्या है.
धरती का लगभग २७ प्रतिशत भाग पहाड़ों का है पहाड़ो के पास प्रकृति की संरचना के रूप में जहाँ एक और पारिस्थितिकी तंत्र,पर्यावरण संरचना, नदीतंत्र और ताजा पानी के स्रोत हैं तो दूसरी और मानव जीवन के रूप में उन पर बसे हुए अनेक समाज उनकी संस्कृतियाँ, परम्पराएं तथा भाषाओँ का धरातल है. दुनिया की लगभग 12 प्रतिशत आबादी पहाड़ों में निवास करती है और 22 प्रतिशत जनता पहाड़ों पर आश्रित है अधिकांश पहाड़ सदियों से गरीब लोगों के आवास रहे हैं आज दुनिया भर के पहाड़ों के सामने पर्यावरण पारिस्थितिकी के अलावा उत्पादक होने का संकट भी है इसलिए पहाड़ के लोगों के मन में अपने आर्थिक सवालों को लेकर हमेशा एक तड़प रही है ऐसे ही कुछ पहाड़ों की चिंताओं को लेकर विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन ने 11 दिसम्बर 2002 को न्यूयोर्क में एक सम्मलेन आयोजित किया बाद में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने प्रस्ताव संख्या 57/245 के द्वारा 2003 से इस दिन को विश्व पहाड़ दिवस मनाने की घोषणा की. इसका उद्देश्य दुनिया में पहाड़ों के स्थायी विकास तथा विश्व में पहाड़ों की भूमिका के प्रति जागरूकता के लिए कार्य करना है यूँ तो इस वर्ष पहाड़ दिवस की थीम भिन्न है लेकिन हमने अपनी मुख्य चिंता "पहाड़ के उजड़ते हुए गांवों का सवाल: विकास की चुनौतियाँ और उसकी संभावनाएं" विषय पर बहस आयोजित की है जिसमे निम्न वक्ताओं ने अपने विचार रखने हेतु सहमति दी है
द्वारा- धाद

03 December, 2011

गढवाली भाषा साहित्य में साक्षात्कार की परम्परा

Intervies in garhwali Literature
(गढवाली गद्य -भाग ३)


साक्षात्कार किसी भी भाषा साहित्य में एक महत्वपूर्ण विधा और अभिवक्ति की एक विधा है. साक्षात्कार कर्ता या कर्त्री के प्रश्नों के अलावा साक्षात्कार देने वाले व्यक्ति के उत्तर भी साहित्य हेतु या विषय हेतु महत्वूर्ण होते है. अंत में साक्षात्कार का असली उद्देश्य पाठकों को साक्षात्कारदाता से तादात्म्य कराना ही है, प्रसिद्ध व्यक्ति विशेष की विशेष बात पाठकों तक पंहुचाना होता है. अत: साहित्यिक साक्षात्कार समीक्षा में यह देखा जाता है कि साक्षात्कार से उदेश्य प्राप्ति होती है कि नही.

गढवाली भाषा में पत्र पत्रिकाओं की कमी होने साक्षात्कार का प्रचलन वास्तव में बहुत देर से हुआ. यही कारण है कि गढवाली भाषा में प्रथम लेख 'गढवाली गद्य का क्रमिक विकास (गाड म्यटेकि गंगा - सम्पादक अबोधबंधु बहुगुणा, १९७५) में कोई साक्षात्कार नहीं मिलता और डा. अनिल डबराल ने अपनी अन्वेषणा गवेषणात्मक पुस्तक 'गढवाली गद्य की परम्परा : इतिहास से वर्तमान तक (२००७) में केवल चार भेंटवार्ताओं का जिक्र किया है.
गढ़वाली में साक्षात्कार दो प्रकार का है :
१- किसी विशेष विषय पर वार्ता केन्द्रित हो ; जैसे अर्जुन सिंह गुसाईं, भीष्म कुकरेती के बहुगुणा के साथ वार्ताएं, मदन डुकलाण का ललितमोहन थपलियाल के साथ भेंटवार्ता या वीरेन्द्र पंवार की स्टेफेनसन के साथ वार्ता.
२- जनरलाइज किस्‍म की वार्ताएं : जिसमे बातचीत बहुविषयक हुई हैं
साहित्यिक दृष्टि से भीष्म कुकरेती गढवाली भाषा में साक्षात्कार का सूत्रधार : वास्तव में भेंटवार्ता व साक्षात्कार प्रकाशन कि परम्परा लोकेश नवानी के प्रयत्न से ही सम्भव हुआ. लोकेश नवानी धाद मासिक का असली कर्ताधर्ता हैं किन्तु पार्श्व में ही रहता थे. सन् १९८७-८८ में जब मेरी लोकेश से बात हुई तब यह भी बात हुई कि गढवाली में भेंटवार्ताएं नही हैं. मैं भीष्म कुकरेती के नाम से व्यंग्य विधा में आ ही चुका था अत: मैंने साक्षात्कार हेतु 'गौंत्या' नाम चुना जिससे धाद में भीष्म कुकरेती के नाम से दो लेख न छपें. यही कारण है कि धाद (मार्च १९८७) में हिलांस के सम्पादक अर्जुन सिंह गुसाईं के साथ मेरा साक्षात्कार 'गौंत्या' नाम से से प्रकाशित हुआ. इस साक्षात्कार का जिक्र डा. अनिल डबराल ने अपनी उपरोक्त पुस्तक में किया व साक्षात्कार का विश्लेष्ण भी किया. यह साक्षात्कार गढवाली का मानकीकरण विषय की ओर ढल गया था. अत: इस साक्षात्कार ने गढवाली मानकीकरण बहस को आगे बढाया. डा. अनिल का मत इस साक्षात्कार पर इस प्रकार है "मानकीकरण के क्रम में यह साक्षात्कार मूल्यवान है. इसलिए कि इसमें मध्यमार्ग अपनाया हुआ है, और विवेचन बहुत नापा तुला है. अर्जुन सिंह गुसाईं का मत है कि मानकीकरण से पहले प्रत्येक क्षेत्र की शब्दावली साहित्य रूप में आ जानी चाहिए. यही बात डा. पार्थसारथि डबराल ने अंतर्ज्वाला में अपने साक्षात्कार में चुटकी लेते कहा "सासू क नौ च रुणक्या, ब्वारी क नौ च बिछना, सरा रात भड्डू बाजे, खाण पीण को कुछ्ना"
डा. डबराल आगे लिखता है, "प्रश्न छोटे हैं 'क्या', किलै', जन कि?. सम्पूर्ण वाक्य ना होने से साक्षात्कार का सौन्दर्य घटा है.
पराशर गौड़ : इसी समय पाराशर गौड़ की 'जीत सिंह नेगी दगड द्वी छ्वीं' भी प्रकाशित हुयी. इसमें जीत सिंह नेगी के कई चरित्र सामने आये जैसे जीत सिंह नेगी की संकोची प्रवृति. डा. अनिल ने इस भेंटवार्ता को सामान्य स्तर का साक्षात्कार बताया. भीष्म कुकरेती का मानना है कि गढवाली भाषा में साक्षात्कार जन्म ल़े ही रहा था तो इस गढवाली साक्षात्कार के उषा काल में कमजोरी होनी लाजमी थी.
भीष्म कुकरेती का दूसरा साक्षात्कार : 'गौन्त्या' के ही नाम से भीष्म कुकरेती का (धाद १९८८) दूसरा साक्षात्कार मुंबई के उद्योगपति गीताराम भट्ट से प्रकशित हुआ. इस साक्षात्कार में उद्योगपति बनने की यात्रा व गढवाली भाषा का प्रवासियों के मध्य बोलचाल के प्रश्न जैसे विषय है.
भीष्म कुकरेती का अबोधबंधु बहुगुणा से 'गढवाळी साहित्य मा हास्य' एक यादगार साक्षात्कार : गढ़ ऐना (१३-१६ फरवरी १९९१ व धाद मई १९९१) में वार्तालाप गढवाली साहित्य व समालोचना साहित्य हेतु एक कामयाब व लाभदायक साक्षात्कार है. इस साक्षात्कार में गढवाली साहित्य के दृष्टि से हास्य-व्यंग्य की परिभाषा; गढवाली लोकगीत एवम लोककथाओं में; गढवाली कविता (१७५०-१९९०, १९०१-१९५०, १९५१-१९८०, १९८०-१९९० तक) में युगक्रम से हास्य, हिंदी साहित्य का गढवाली हास्य पर प्रभाव; गढवाली गद्य में हास्य (१९९०-१९९०); गढवाली नाटकों में हास्य (१९००-१९९०); गढवाली कहानियों में हास्य (१९००-१९९०); गढ़वाली, गढ़वाली में लेखों में हास्य व्यंग्य; गढवाली कैसेटों में हास्य; गढवाली फिल्मों में हास्य व गढवाली साहित्य में भविष्य का हास्य जैसे विषयों पर लम्बी सार्थक, अवेषणात्मक बातचीत हुए. साक्षात्कारों में यह एक ऐतिहासिक साक्षात्कार माना जाता है.
भीष्म कुकरेती व अबोधबंधु बहुगुणा के साथ बातचीत ( २००५ में प्रकाशि): भीष्म कुकरेती द्वारा बहुगुणा के साथ बहुगुणा के कृत्तव पर आत्मीय बातचीत बहुगुणा अभिनन्दनम में प्रकाशित हुआ.
समालोचना पर भीष्म कुकरेती व अबोधबंधु बहुगुणा के मध्य 'मुखाभेंट' एक अन्य ऐतिहासिक साक्षात्कार: सं २००३ में भीष्म कुकरेती ने अबोध बहुगुणा से 'गढवाली समालोचना' पर एक साक्षात्कार किया था जो 'चिट्ठी पतरी' के अबोधबंधु बहुगुणा स्मृति विशेषांक (२००५) जाकर प्रकाशित हुआ. इस साक्षात्कार में गढवाली आलोचना व समालोचकों की स्तिथि व वीरान पर एक ऐतिहासिक बातचीत है. गढवाली साहित्य इतिहास हेतु यह मुखाभेंट अति महत्वपूर्ण साक्ष्य है. इस साक्षात्कार में भीष्म कुकरेती ने अबोध बहुगुणा को गढवाली का रामचन्द्र शुक्ल, व बहुगुणा ने गोविन्द चातक को भूमिका लिखन्देर, भीष्म कुकरेती को घपरोळया अर खरोळया, राजेन्द्र रावत को सक्षम आलोचक, महावीर प्रसाद व्यासुडी को विश्लेषक लिख्वार, डा. नन्दकिशोर ढौंडियाल को जणगरु अर साहित्य विश्लेषक, वीरेन्द्र पंवार को आलेख्कार व आलोचक, सुदामाप्रसाद प्रेमी को छंट्वा खुजनेर , डा. हरिदत्त भट्ट शैलेश को जन साहित्य का हिमैती, सतेश्वर आज़ाद को मंच सञ्चालन मा चकाचुर, उमाशंकर समदर्शी - किताबुं भूमिका का लेखक, डा. कुसुम नौटियाल को हिंदी में शोधकर्ता की उपाधि से नवाज़ा था.
स्व. अदित्यराम नवानी से जगदीश बडोला की बातचीत (चिट्ठी १९८५) : डा. अनिल के अनुसार यह वार्तालाप ऐतिहासिक है किन्तु इसमें कोई विशेष बात नही आ पायी है.
अनिल कोठियाल की साहित्यकार गुणानन्द 'पथिक' से बातचीत (चिट्ठी १९८९) : डा. अनिल का कथन कि यह वार्तालाप महत्वपूर्ण है एक सही विश्लेष्ण है क्योंकि इस वार्तालाप से गढवाली जन व उसके साहित्य के नये आयाम सामने आये हैं.
देवेन्द्र जोशी के बुद्धिबल्लभ थपलियाल से वार्ता (चिट्ठी पतरी १९९९) : इस वार्ता में देवेन्द्र जोशी की साक्षात्कार की कला तो झलकती है बुद्धिबल्लभ की गढ़वाली भाषा से प्यार भी झलकता है तभी तो बुद्धिबल्लभ थपलियाल ने लिखा "गढवाळी कविता, हिंदी कविता से जादा सरस, उक्तिपूर्ण अर आकर्षक लगदन".
डा. नन्दकिशोर ढौंडियाल का संसार प्रसिद्ध इतिहासकार डा. शिवप्रसाद डबराल के साथ साक्षात्कार (चिट्ठी पतरी, २०००) यह एक साक्षात्कार तो नहीं किन्तु डबराल के साथ लेखक का व्यतीत एक दिन का ब्योरा है.
वीणापाणी जोशी का अर्जुन सिंह गुसाईं से साक्षात्कार (चिट्ठी पतरी, २०००) जिस समय हिलांस सम्पादक अर्जुन सिंह गुसाईं कैंसर से लड़ रहा था उस समय वीणापाणी ने अर्जुन सिंह से साक्षात्कार 'मनोबल ऊँचो छ, लड़ाई जारी छ' नाम से लिया जिसमे गुसाईं द्वारा मुंबई में गढवाली भाषा, सांस्कृतिकता में गिरावट पर चिंता प्रकट की गयी थी. गुसाईं का यह कथन एक मार्मिक वाक्य, "यख (मुंबई) श्री नन्दकिशोर नौटियाल, डा. शशिशेखर नैथानी, डा. राधाबल्लभ डोभाल, श्री भीष्म कुकरेती बगैरह गढवाली सांस्कृतिक गतिविध्युं पर रूचि ल्हेंदा छाया पर अब त सब्बी चुप दिखेणा छन" मुंबई में भाषा, साहित्य व संस्कृति के प्रति चेतना में गिरावट को दर्शाता भी है व भविष्य पर प्रश्न चिन्ह भी खड़ा करता है.
मदन डुकलाण का जग प्रसिद्ध नाट्यकार ललितमोहन थपलियाल से साक्षात्कार (चिट्ठी-पतरी २००२): ललित मोहन थपलियाल इस सदी के १०० महान नाटककारों की श्रेणी में आता है. किन्तु खाडू लापता जैसे नाटकदाता थपलियाल का विदेश में रहने के कारण ललितमोहन के विचारों से कम ही लोग परिचित थे. मदन का ललित मोहन थपलियाल से वार्तालाप गढवाली साहित्य हेतु एक मील का पत्थर है जिसमे थपलियाल ने गढवाली नाटकों के लिए दर्शकों के जमघट हेतु 'एक मानक गढवाळी भाषा बणोउण की अर वां पर सहमत होणे पुठ्या जोर/कोशिश' की वकालत की. वार्तालाप गढवाली नाटकों के कई नए आयाम कि तलाश भी करता है. साधुवाद !
आशीष सुंदरियाल का स्वतंत्रता सेनानी व गढवाली के मान्य साहित्यकार सत्य प्रसाद रतूड़ी से वार्तालाप (चि.पतरी २००३) : इस वार्तालाप में रतूड़ी ने स्वतंत्रता आन्दोलन के समय साहित्य के प्रति चिंतन व आज के चिंतन, स्थानीय भाषाओं के महत्व आदि विषयों पर चर्चा की और कहा कि 'पौराणिक व पारंपरिक रीति रिवाज, तीज, त्यौहार आदि पर लिखे सक्यांद अर लिखे जाण चएंद'.
मदन डुकल़ाण की मैती आन्दोलन प्रणेता कल्याण सिंह से वार्ता (चिट्ठी पतरी, २००३) : यह वार्तालाप एक सार्थक वार्तालाप है जिसमे पर्यावरण के कई नये पक्ष सामने आये हैं.
मदन डुकल़ाण व गिरीश सुंदरियाल की महाकवि कन्हैयालाल डंडरियाल से भेंटवार्ता (चिट्ठी पतरी २००४): चिट्ठी पतरी के डंडरियाल स्मृति विशेषांक में यह वार्ता प्रकाशित हुई है. दिल्ली में गढवाली साहित्यिक जगत के कई रहस्य खोलता यह वार्तालाप एक स्मरणीय व साहित्यिक दृष्टि से प्रशंशनीय, वांछनीय वार्तालाप है.
आशीष सुंदरियाल का जग प्रसिद्ध गायक जीत सिंह नेगी से साक्षात्कार (चिट्ठी पतरी, २००६) आशीष ने जीत सिंह नेगी का विशिष्ठ गायक कलाकार बनने के कथा की प्रभावकारी ढंग से जाँच पड़ताल की है.
गढवाली का संवेदनशील वार्ताकार वीरेंद्र पंवार : गढवाली भाषा में सबसे अधिक साक्षात्कार गढवाली के प्रसिद्ध कवि, समालोचक वीरेंद्र पंवार ने सन २००० से निम्न साहित्यकारों के साक्षात्कार लिए है और प्रकाशित किये हैं :
जीवानन्द सुयाल (खबरसार, २०००): इस साक्षात्कार में जीवानंद सुयाल ने छंद कविता का सिद्धांत, उपयोगिता व पाठकों की छंद कविता में अरुचि की बात समझाई.
महेश तिवाड़ी (खबरसार) महेश तिवाड़ी के साथ संगीत व कविताओं पर वार्ता तर्कसंगत बन पायी है
रघुवीर सिंह 'अयाळ' : (खबर सार, २००१) आयल ने व्यंग्य विधा पर साहित्य में जोर देने की वकालत की
मधुसुदन थपलियाल (खबर सार, २००२) थपलियाल ने गढवाली भाषा विकास हेतु राजनैतिक लड़ाई की हिमायत की.
कुमाउनी साहित्यकार मथुराप्रसाद मठपाल (खबर सार, २००३) मठपाल ने कुमाउनी साहित्य में कमजोर गद्य के बारे में कारण व साधन बताए
अबोधबंधु बहुगुणा (खबर सार, २००४ ); गढ़वाली क्यों कर अभिवक्ति के मामले में हिंदी से बेहतर है पर जोरदार वार्ता है
लोकेश नवानी (खबर सार, २००५) भाषा विकाश में धाद सरीखे आन्दोलन की महत्ता पर बातचीत हुयी.
अमेरिकन लोक साहित्य विशेषग्य स्टीफेनसन सिओल (खबर सार, २००५) गढ़वाली लोक वाद्यों पर विशेष चर्चा हुयी एवम वार्ता में अल्लें विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ने कहा कि गढवाली लोक साहित्य अधिक भावना प्रधान है.
नरेंद्र सिंह नेगी (खबर सार २००६) नौछमी नारेण गीत के प्रसिद्ध होने पर अफवाह थी कि नेगी राजनीति में जा रहा है. उस समय नरेंद्र सिंह नेगी ने इस साक्षात्कार में स्पष्ट किया वह राजनीति में नहीं जायेगा व गीतों में ही रमा रहेगा.
राजेंद्र धष्माना (खबरसार, २०११) वार्तालाप में गढवाली को सम्पूर्ण भाषा सिद्ध करते हुए राजेंद्र धष्माना ने विश्वाश दिलाया कि भाषा विकाश या संरक्षण हेतु पाठ्यक्रम, भाषा पर शोध नहीं अपितु लोगों की मंशा जुमेवार है.
बी. मोहन नेगी (खबरसार, २०११ ) इस वार्ता में टेक्नोलोजी, कला व कलाकार के भावों के मध्य संबंधों की जाँच पड़ताल हुई.
भीष्म कुकरेती (खबरसार, २०११ए) वार्ता में भीष्म कुकरेती के साहित्य पर बेबाक, बिना हुज्जत की लम्बी बातचीत हुई
कुमाउनी साहित्यकार शेर सिंह बिष्ट ( (खबर सार २०११ ): शेर सिंह ने कुमाउनी साहित्य के कुछ पक्षों को पाठकों के समक्ष रखा
इस तरह हम पाते हैं कि १९८७ में भीष्म कुकरेती द्वारा पहल की गयी वार्तालाप/साक्षात्कार विधा गढवाली साहित्य में भली भांति फली व फूली है. वार्तालापों में क्रमगत विकास भी देखने को मिल रहा है. वर्तमान में संकेत हैं कि गढवाली में साक्षात्कार विधा का भविष्य उज्वल है.

Copyright@ Bhishm Kukreti

आधुनिक गढवाली भाषा कहानियों की विशेषतायें और कथाकार


(Characteristics of Modern Garhwali Fiction and its Story Tellers)

कथा कहना और कथा सुनना मनुष्य का एक अभिन्न मानवीय गुण है. कथा वर्णन करने का सरल व समझाने की सुन्दर कला है अथवा कथा प्रस्तुतीकरण का एक अबूझ नमूना है यही कारण है कि प्रत्येक बोली-भाषा में लोककथा एक आवश्यक विधा है. गढ़वाल में भी प्राचीन काल से ही लोक कथाओं का एक सशक्त भण्डार पाया जाता है. गढ़वाल में हर चूल्हे का, हर जात का, हर परिवार का, हर गाँव का, हर पट्टी का अपना विशिष्ठ लोक कथा भण्डार है. जहाँ तक लिखित आधुनिक गढ़वाली कथा साहित्य का प्रश्न है यह प्रिंटिंग व्यवस्था सुधरने व शिक्षा के साथ ही विकसित हुआ. संपादकाचार्य विश्वम्बर दत्त चंदोला के अनुसार गढ़वाली गद्य की शुरुवात बाइबल की कथाओं के अनुवाद (१८२० ई. के करीब) से हुयी (सन्दर्भ: गाड मटयेकि गंगा १९७५). गढ़वालियों में सर्वप्रथम डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर पद प्राप्तकर्ता गोविन्द प्रसाद घिल्डियाल ने (उन्नीसवीं सदी के अंत में) हितोपदेश कि कथाओं का अनुवाद पुस्तक छापी थी (सन्दर्भ :गाड म्यटेकि गंगा).

आधुनिक गढ़वाली कहानियों के सदानंद कुकरेती
आधुनिक गढ़वाली कथाओं के जन्म दाता विशाल कीर्ति के संपादक, राष्ट्रीय महा विद्यालय सिलोगी, मल्ला ढागु के संस्थापक सदा नन्द कुकरेती को जाता है. गढवाली ठाट के नाम से यह कहानी विशाल कीर्ति (१९१३) में प्रकाशित हुयी थी. इस कथा का आधा भाग प्रसिद्ध कलाविद बी. मोहन नेगी, पौड़ी के पास सुरक्षित है. कथा में चरित्र निर्माण व चरित्र निर्वाह बड़ी कुशलता पुर्वक हुआ है. गढवाळी विम्बों का प्रयोग अनोखा है, यथा :
"गुन्दरू की नाक बिटे सीम्प कि धार छोड़िक विलो मुख, वैकी झुगली इत्यादि सब मैला छन, गणेशु की सिरफ़ सीम्प की धारी छ पण सबि चीज सब साफ़ छन. यांको कारण, गुन्दरू की मां अळगसी' ख़ळचट अर लमडेर छ. भितर देखा धौं! बोलेंद यख बखरा रौंदा होला. मेंल़ो (म्याळउ) ख़णेक घुळपट होयुं च. भितर तकाकी क्वी चीज इनै क्वी चीज उनै. सरा भितर तब मार घिचर पिचर होई रये. अपणी अपणी जगा पर क्वी चीज नी. भांडा कूंडा ठोकरियों मा लमडणा रौंदन. पाणी का भांडों तलें द्याखो धौं. धूळ को क्या गद्दा जम्युं छ. युंका भितर पाणी पेण को भी ज्यू नि चांदो. नाज पाणी कि खाताफोळ, एक मणि पकौण कु निकाळण त द्वी माणी खते जान्दन, अर जु कै डूम डोकल़ा, डल्या, भिकलोई तैं देण कु बोला त हे राम! यांको नौं नी.
रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी' ने इस कथा को पुन: ’गुन्दरू कौंका घार स्वाळ पक्वड़' शीर्षक के नाम से 'हिलांस' में प्रकाशित किया था.
सदानंद कुकरेती ( १८८६-१९३८) का जन्म ग्वील-जसपुर, मल्ला ढागु, पौड़ी गढ़वाल में हुआ था. वे विशाल कीर्ति के सम्पादक भी थे.
गढवाली ठाट के बारे में रामप्रसाद पहाड़ी का कथन सही है कि यह कथा दुनिया की १०० सर्वश्रेष्ठ कथाओं में आती है. कथा व्यंगात्मक अवश्य है और कथा में सुघड़ व आलसी, लापरवाह स्त्रियों के चरित्र की तुलना हास्य, व्यंग्य शाली बहुत रोचक ढंग से हुआ है. कथा असलियत वादी तो है, वास्तविकता से भरपूर है, किन्तु पाठक को प्रगतिशीलता की ओर ल़े जाने में भी कामयाब है. कथा का प्रारभ व अंत बड़ी सुगमता व रोचकता से किया गया है भाषा सरल व गम्य है. भाषा के लिहाज से जहाँ ढागु के शब्द सम्पदा कथा में साफ़ दीखती है रमती है वहीं सदानंद कुकरेती ने पौड़ी व श्रीनगर कई शब्द व भौण भी कथा में समाहित किये हैं जो एक आश्चर्य है.
'गढवाली ठाट' के बारे में अबोधबंधु बहुगुणा (सं-२) लिखते हैं 'सचमुच में गद्य का ऐसा नमूना मिलना गढ़वाली का बढ़ा भाग्य है. बंगाली, मराठी आदि भाषाओं में भी साहित्यिक गद्य की अभिव्यक्ति उस समय नहीं पंहुची थी. यहाँ तक कि हिंदी में भी उस समय (सन १९१३ ई. में) गद्य अभिव्यक्ति इतनी रटगादार, रौंस (आनन्द, रोचक) भरी मार्मिक नहीं थी. इस तरह कि हू-ब-हू चित्रांकन शैली के लिए हिंदी भी तरसती थी.
गढवाल कि दिवंगत विभुतियाँ के सम्पादक भक्तदर्शन का कथन है "सदानंद कुकरेती चुटीली शैली में प्रहसनपूर्ण कथा आलोचना के लिए प्रसिद्ध हैं"
डा. अनिल डबराल का कहना है कि सदानंद कुकरेती कि अभिव्यक्ति की प्रासगिता आज भी बराबर बनी है.
भीष्म कुकरेती के अनुसार (सन्दर्भ-1) सदानंद कुकरेती का स्थान ब्लादिमीर नबोकोव, फ्लेंनरी ओ'कोंनर, कैथरीन मैन्सफील्ड, अर्न्स्ट हेमिंगवे, फ्रांज काफ्का, शिरले जैक्सन, विलियम कारोल विलियम्स, डीएच लौरेन्स, सीपी गिलमैन, लिओ टाल्स्टोय, प्रेमचंद, इडगर पो, ओस्कार वाइल्ड जैसे संसार के सर्वश्रेष्ठ कथाकारों की श्रेणी में आते हैं.
परुशराम नौटियाल : अबोध बंधु बहुगुणा ने गाड म्यटयेकि गंगा (पृ ४०) में लिखा है. श्री परुशराम कि 'गोपू' आदि दो कहानियाँ इस दौरान ( १९१३-१९३६) प्रकाशित हुईं थीं.
श्री देव सुमन : बहुगुणा के अनुसार श्रीदेव सुमन ने 'बाबा' नाम कि कथा जेल में लिखी थी.
आधुनिक गढ़वाली का प्रथम कहानी संग्रह 'पांच फूल'
भगवती प्रसाद पांथरी (टिहरी रियासत, १९१४- स्वर्गीय) ने '१९४७ में पाँच फूल' कथा संग्रह प्रकाशित किया जो कि गढवाली का प्रथम कहानी संग्रह है. 'पांच फूल' में 'गौं की ओर', 'ब्वारी', 'परिवर्तन', ’आशा', और न्याय पांच कहानियाँ है. पांथरी की कथाएं प्रेरणादायक व नाटकीयता लिए हैं. अबोध के अनुसार ब्वारी यथार्थवादी कहानी है और इसे बहुगुणा कथा साहित्य हेतु विशिष्ठ देन बताता है
रैबार कहानी विशेषांक (१९५६ ई.): सतेश्वर आज़ाद के सम्पादकत्व में डा. शिवानन्द नौटियाल, भगवतीचरण निर्मोही, कैलाश पांथरी, दयाधर बमराड़ा, कैलाश पांथरी, उर्बीदत्त उपाध्याय व मथुरादत्त नौटियाल की कहानियाँ प्रकाशित हुईं. गढवाली साहित्य इतिहास में 'रैबार' का यह प्रथम गढवाली कथा विशेषांक एक सुनहरा पन्ना है (सन्दर्भ -४)
दयाधर बमराड़ा(धारकोट, बगड़स्यूं १९४३-दिवंगत) दयाधर बमराड़ा अपने उपन्यास हेतु प्रसिद्ध है, इनकी कथा रैबार (१९५६) में छपी है
डा. शिवानन्द नौटियाल (कोठला, कण्डारस्यूं, पौड़ी गढ़वाल १९३६) चंद्रा देवी, पागल, हे जगदीश, चुप रा, दैणि ह्व़ेजा, सेळी या आग (१९५६), धार मांकी गैणि जैसी उत्कृष्ट कहानियां प्रकाश में आई हैं. सभी कहानियां १९६० से पहले की ही हैं. डा. अनिल के अनुसार डा. नौटियाल की अपणी विशिष्ठ क्षेत्रीय शैली कहानी में दिखती है.
भगवती चरण निर्मोही (देवप्रयाग, १९११-१९९०) भगवती प्रसाद निर्मोही की कहानियाँ रैबार व मैती (१९७७ का करीब) में प्रकाशित हुईं जिनकी प्रशंसा अबोधबंधु व डा. अनिल डबराल ने की.
काशीराम पथिक की कथा 'भुला भेजी देई' मैती (१९७७) में छपी और यह कहानी सवर्ण व शिल्पकारों के सांस्कृतिक संबंधों की खोजबीन करती है.
उर्बीदत्त उपाध्याय (नवन, सितौनस्युं १९१३ दिवंगत ) के दो कथाएँ 'रैबार' में प्रकाशित हुईं
भगवती प्रसाद जोशी 'हिमवंतवासी' (जोशियाणा, गंगा सलाण १९२०- दिवंगत ) डा. अनिल के अनुसार जोशी सामान्य प्रसंगों को मनोहारी बनाने में प्रवीन है. चरित्रों को व्यक्तित्व प्रदान करने के मामले में जोशी व रमाप्रसाद पहाड़ी में साम्यता है. शैली में नये मानदंड मिलते हैं. वातावरण बनाने हेतु हिमवंतवासी प्रतीकों से विम्बों को सरस बाना देते हैं. भाषा में सल़ाणी पन साफ़ झलकता है.
गढ़वाली कहानी का वेग-सारथी मोहनलाल नेगी (बेलग्राम, अठूर, टिहरी गढ़वाल १९३०- स्वर्गीय) प्रथम आधुनिक गढ़वाली कहानी प्रकाशित होने के ठीक ५५ साल उपरान्त मोहनलाल नेगी ने गढवाली कहानी को नव अवतार दिया जब नेगी ने १९६७ में 'जोनी पर छापु किलै?' नामक कथा संग्रह प्रकाशित किया. नेगी ने दूसरा कथा संग्रह 'बुरांस की पीड़' १९८७ में प्रकाशित हुआ. डा. अनिल डबराल व अबोधबन्धु बहुगुणा के अनुसार मोहनलाल नेगी के २१-२५ गढ़वाली में कहानियां प्रकाशित हुईं. नेगी के कहानियों में विषय विविधता है. मोहनलाल नेगी संवेदनाओं को विषय में मिलाने के विशेषज्ञ है. लोकोक्तियों का प्रयोग लेखक कि विशेष विशेषता बन गयी है. डा. अनिल अनुसार मोहनलाल नेगी भाषा क्रीडा में माहिर हैं. कहानियों में कथाक्रम व विषय अनुसार वातावरण तैयार करने में कथाकार सुयोग्य है. मोहनलाल के कथाओं में भाषा लक्ष्य पाने में समर्थ है. यह एक आश्चर्य ही है कि मोहनलाल नेगी के दोनों संग्रह २० साल के अंतराल में प्रकाशित हुए और दोनों संग्रहों में शैली व तकनीक में अधिक अंतर नहीं दिखता. डा. अनिल डबराल के अनुसार 'इन तकनीकों के अधिक विकास का अवकाश नेगी जी को नहीं मिला'.
आचार्य गोपेश्वर कोठियाल (उदखंडा, कुंजणि टि.ग. १९१०-२००२) आचार्य कोठियाल कि कुछ कथाएं १९७० से पहले युगवाणी आदि समाचार पत्रों में छपीं. कथाओं में टिहरी के विम्ब उभर कर आते हैं
शकुन्त जोशी (पौड़ी ग.) जोशी की कथाएँ मैती (१९७७) में छपीं हैं तो काशीराम पथिक की (मैती १९७८) की 'भुला भेजी देई' व चन्द्रमोहन चमोली की सच्चा बेटा (बडुली १९७९) कथाओं का सन्दर्भ भी मिलता है (सं. ४)
पुरूषोत्तम डोभाल (मुस्मोला, टि.ग. १९२० -दिवंगत) डोभाल की प्रथम कहानी 'बाडुळी (१९७९) में प्रकाशित हुयी और डोभाल ने चार पाँच कथाएँ छपीं हैं. कथाएं सौम्य व सामाजिक परिस्थितियों को बताने में समर्थ हैं.
गढ़वाली कथाओं को शिष्टता हेतु का कथाकार अबोधबंधु बहुगुणा (झाला,चलणस्यूं, पौ.ग १९२७-२००७): अबोधबंधु बहुगुणा ने गढ़वाली साहित्य के हर विधा में विद्वतापूर्ण 'मिळवाक'/भागीदारी ही नहीं दिया अपितु नेतृत्व भी प्रदान किया है. बहुगुणा ने गढवाली कथाओं को नया कलेवर दिया जिसे भीष्म कुकरेती अति शिष्टता की ओर ल़े जाने वाला मार्ग कहता है. बहुगुणा की कथाओं में वह सब कुछ है जो कथाओं में होना चाहिए. बहुगुणा ने भाषा में निपट/घोर ग्रामीण गढवालीपन को छोड़ संस्कृतनिष्ट भाषा को अपनाने की कोशिश भी की है. कथा कुमुद व रगड़वात दो कथा संग्रह गढवाली कथा साहित्य के नगीने हैं. अबोधबंधु की कथाएं बुद्धिजीवियों हेतु अधिक हैं.
डा अनिल का मानना है कि बहुगुणा की कई कथाओं में बहुगुणा मनोवैज्ञानिक शैली में लेखक किशी शब्द विशेष का प्रयोग कर पाठक को बोध या चिन्ताधारा की दिशा निर्धारित कर देता है. अनिल डबराल का मानना है बहुगुणा कि कथाओं में लोकजीवन के प्रति अनुसंधानात्मक प्रवृति भी पायी जाती है बहुगुणा शब्दों के खिलाड़ी भी है तथापि शब्द, मुहावरों में गरिमा भी है. बहुगुणा ने भुग्त्युं भविष्य उप्न्यास भी प्रकाशित किया है. भीष्म कुकरेती ने अबोध को गढवाली साहित्य का सूर्य की संज्ञा दी है.
गढ़वाली कहानियों का परिपुष्टकर्ता दुर्गाप्रसाद घिल्डियाल (पदाल्यूं, कुटूळस्यूं, पौड़ी ग., १९२३-२००२) भीष्म कुकरेती के अनुसार दुर्गाप्रसाद घिल्डियाल के बगैर गढवाली कथाओं के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता. घिल्डियाल के तीन गढवाली कथा संग्रह 'गारी' (१९८४), 'म्वारी' (१९९८६), और 'ब्वारी (१९८७ )' गढ़वाली साहित्य के धरोहर हैं. उच्याणा दुर्गाप्रसाद का उपन्यास भी गढवाली में छपा है. सभी ४० कहानियों की विषय वस्तु का केंद्र गढवाली जनमानस अथवा जीवन है. डा डबराल के अनुसार चरित्र चित्रण के मामले में दुर्गाप्रसाद घिल्डियाल सफल कथाकार है. घिल्डियाल का प्राकृत वातावरण से अधिक ध्यान देश-काल की ओर रहता है. डा अनिल के अनुसार घिल्डियाल को जितनी सफलता कथा वस्तु, विचार तत्व व पात्रों के निर्माण में मिली है उतनी सफलता भाषा सृजन में नहीं मिली है. यानी कि अलंकारिक नहीं अपितु सरल है.
प्रयोगधर्मी भीष्म कुकरेती (जसपुर , मल्ला ढान्गु पौ.ग. १९५२) भीष्म कुकरेती की पहली गढवाली कहानी 'कैरा कु कतल' (अलकनंदा १९८३) है जो की एक प्रकार से गढवाली में एक प्रायोगिक कहानी है. कथा में प्रत्येक वाक्य में 'क' अक्षर अवश्य है याने की अनुप्राश अलंकार का प्रयोग है. कुकरेती की अब तक पचीस से अधिक कहानियाँ गढवाली में अलकनंदा, बुरांश, हिलांस, घाटी के गरजते स्वर, गढ़ ऐना आदि में प्रकाशित हुए हैं. अबोधबन्धु के अनुसार भीष्म कुकरेती की मुख्यतया चार प्रकार की कहानियाँ हैं- स्त्री दुःख व सम्वेदनात्मक (जैसे 'दाता की ब्वारी कन दुखायारी' कीड़ी बौ' देखें सन्दर्भ -४ ), व्यंग्य व हास्य मिश्रित कथाएँ जैसे 'वी. सी. आर को आण ' बाघ, मेरी वा प्रेमिका' 'प्रेमिका की खोज' आदि (देखें कौन्ली किरण पृष्ठ १४७) या डा अनिल डबराल (पृष्ठ २४४) की समालोचना. तीसरा सामाजिक चेतना युक्त कहानियां जैसे 'बिट्ठ भिड्याणो सुख या सवर्ण स्पर्श सुख' व अन्य विवध कथाएँ जिनमे कई कथाएँ मनोविज्ञानिक (जैसे नारेण दा) कथाएँ हैं.
भीष्म कुकरेती विषयगत व शैलीगत प्रयोग से कतई नही घबराता व भीष्म की एक कथा' घुघोति बसोती' (घाटी के गरजते स्वर (१९८९) स्त्री समलैंगिक संबंधों पर आधारित कथा है जिस पर मुंबई की शैल सुमन संस्था की एक बैठक में बड़ी बहस भी हुयी थी कि गढवाली में ऐसी कहानी की आवश्यकता है कि नही?.
डा अनिल के अनुसार भीष्म की कहानियों में चुटीलापन होता है. व अपनी बात सटीक ढंग से कहता है. वहीं बहुगुणा ने भीष्म की कहानियों में गहरी सम्वेदना पायी है.
भीष्म कुकरेती ने विदेशी भाषाओं की कुछ कथाओं का गढवाली में अनुवाद भी प्रकाशित किया है (गढ़ ऐना १९८९-१९९०)
रमाप्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी ' (जन्म-बड़ेथ ढान्गु, पैत्रिक गाँव डांग, श्रीनगर पौड़ी ग. १९११-२००२) की 'मेरी मूंगा कख होली' (हिलांस १९८१) व ' घूंड्या द्यूर ' (हिलांस १९८०) नाम कि दो कहानियाँ प्रकाशित हुईं. जहां मेरी मूंगा संस्मंरणात्मक शैली में है जिसमे बड़ेथ से व्यासचट्टी बैसाखी मेले जाने का वृतांत दीखता है, वंही घूंड्या द्यूर एक सामाजिक संस्कार पर चोट करती हुयी चेतना सम्वाहक कहानी है. डा अनिल डबराल (३) के अनुसार इस कथा का विषय पुरुष विशेष और स्त्री विशेष के सौन्दर्यवोध पर आधारित है.
नित्यानंद मैठाणी (श्रीनगर, पौ.ग. १९३४) ने कुछेक मौलिक गढ़वाली कथाएँ दी हैं. किन्तु मैठाणी का योगदान आकाशवाणी में गढवाली कथाओं का बांचना, डोगरी, कश्मीरी कथाओं का अनुबाद आकाशवाणी से आदि में ही अधिक है. नित्यानंद की कथाओं में पैनापन, व नाटकीयता की विशषता है नित्यानंद का उपन्यास 'निमाणी' गढवाली कथा साहित्य का एक चमकता मणि है .
कुसुम नौटियाल : कुसुम नौटियाल के दो कथाएं हिलांस ( काफळ १९८१, नाच दो मैना , १९८२ ) मै प्रकाशित हुईं.
सम्वेदनाओं का चितेरा सुदामा प्रसाद डबराल प्रेमी (फल्दा, पटवालस्यूं, पौ.ग १९३१) सुदामा प्रसाद डबराल 'प्रेमी' का गढवाली कथा संसार को काफी बड़ा है, सुदामा प्रसाद 'प्रेमी' के तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं. गैत्री की ब्व़े (१९८५) संग्रह में छपी. कथाएँ सरल, व प्रेरणा सूत्र लिए होती हैं. कथाओं में सरल बहाव होता है. कई कथाएँ ऐसी लगती हैं जैसी कोई लोककथा हो. कथाकार सुदामा प्रसाद ने गढवाली कहावतों से कथाओं का अच्छा प्रयोग किया है. डा अनिल के अनुसार भाषा ढबाड़ी है (हिंदी-गढवाली मिश्रित)
सुधारवादी कथाकार डा. महावीर प्रसाद गैरोला ( दालढुंग, बडीयारगढ़, टि.ग १९२२-२००९) ने बीस से अधिक कथाएँ प्रकाशित की हैं वह उपन्यास गढवाली में प्रकाशित हैं. हिंदी के मूर्धन्य कथाकार और समालोचक डा. गंगा प्रसाद विमल, डा. महावीर गैरोला को सुधारवादी कथाकार मानते हैं किन्तु गैरोला की सुधारवादी कथाएं बोझिल नहीं रोचक हैं. डा. महावीर प्रसाद की कथाओं में टिहरी की बोलचाल की बोली, टिहरी की ठसक अवश्य मिलती है. कभी-कभी ऐसे शब्द भी मिलते हैं जो पौड़ी गढवाल से ब्रिटिश सत्ता व पढ़ाई लिखाई के कारण लुप्त हो गए हैं. संवाद, चरित्रों के चरित्र को उजागर करने में सक्षम हैं. कथा कहने का ढंग पारम्परिक है और अधिकतर कथाएं पीड़ा लिए अवश्य हैं किन्तु सुखांत में बदल जाती हैं.
बालेन्दु बडोला (मूल गाँव बडोली, चौन्दकोट, पौ.ग.). बालेन्दु बडोला ने चालीस से अधिक कथाएं हिलांस (१९८५ के बाद), चिट्ठी पतरी, युगवाणी जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित की हैं. बालेन्दु की कथाओं पर लोक कथाओं की शैल़ी का भी प्रभाव दीखता है. कथाएँ बहु विषयक हैं व कथा कहने का ढंग पारम्परिक है. चरित्र व विषयवस्तु आम गढवाली के व गढवाल सम्बन्धी हैं किन्तु कई कथाओं में चरित्र काल्पनिक भी लगते हैं. भाषा सरल व वहाव लिए होती है. ऐसा लगता है बालेन्दु परम्परा तोड़ने से बचता है. बालेन्दु की कहानियों में प्रेरणादायक पन अधिक है, किन्तु ऐसी कथाओं में रोचकता की कमी नहीं झलकती. गढवाली प्रतीकों के अतिरिक्त कई हिंदी कहावतों का गढवाली में अनुवाद भी मिलता है. वर्तमान में बालेन्दु की कथाएँ युगवाणी मासिक पत्रिका में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं. बालेन्दु बडोला ने बालकथाएँ भी प्रकाशित किये हैं (हिलांस, चिट्ठी पतरी, युगवाणी).
सदानंद जखमोला (चन्दा, शीला, पौ. ग. १९००-१९७७ ) के पाच कथाएँ प्रकाशित हूई जैसे- छौं को वैद (गढ़ गौरव १९८४)
लोक मानस का चितेरा कथाकार प्रताप शिखर (कोटि, कुणजी, टिहरी ग. १९५२) प्रताप शिखर का कथा संग्रह 'कुरेड़ी फटगे ' (१९८९) में नौ कथाएँ संग्रहीत हैं. कथाओं में समाज का असलियतवादी चित्रण है, कई कथाएँ रेखाचित्र भी बन जाती है, प्रताप शिखर टिहरी भाषा का प्रयोग करता है जो कि कथाओं को एक वैशिष्ठ्य प्रदान करने म सक्षम है.
कुसुम नौटियाल की दो ही कथाओं का जिक्र गढवाली साहित्यिक इतिहास में मिलता है (बहुगुणा १९९०) और दोनों कथाएं हिलांस (१९८१, १९८२) में प्रकाशित हुयी हैं. कथाएं सम्वेदनशील हैं व गढवाली कथाओं को एक नया दौर देने की पहल में शामिल होने के कोशिश भी.
पूरण पंत पथिक (अस्कोट, चौन्दकोट, पौ ग १९५१) पंत की दो कथाएं (हिलांस १९८३ व चिट्ठी २१ वां अंक) प्रकाशित हुए हैं. कथाओं में कथात्व कम है विचार उत्प्रेरणा अधिक है (डा अनिल). हाँ व्यंग्यात्मक पुट अवश्य मिलता है (बहुगुणा, सं. ४ व ६)
मनोविज्ञानी कथाकार कालीप्रसाद घिल्डियाल (पदाल्युं, कटळस्यूं ,१९३०) गढ़वाली नाटकवेत्ता कालीप्रसाद घिल्डियाल की केवल तीन कहानियां प्रकाश में आई हैं (हिलांस १९८४). कालीप्रसाद की कहानियों में जटिल मनोविज्ञान मिलता है, जो कि गढवाली कथाओं के लिए एक गतिशीलता का परिचायक भी बना. जटिल मनोविज्ञान को सरलता से कालीप्रसाद घिल्डियाल कथा धरातल पर लाने में सक्षम है.
जबर सिंह कैंतुरा (रिंगोली, लोत्सू, टि.ग. १९५६) : जबर सिंह कैंतुरा की कथाएं हिलांस (१९८६), धाद (१९८८) आदि पत्रिकाओं में दस-बारह कथाएं प्रकाशित हुयी हैं. कथाओं में मानवीय सम्वेदना, संघर्ष, शोषण की नीति, पारवारिक सम्बन्ध प्रचुर मात्र में मिलता है (कैंतुरा की भीष्म कुकरेती से बातचीत, ललित केशवान का पत्र व डा. अनिल डबराल). भाषा टिहरी की है व कई स्थानीय शब्द गढवाली शब्द भण्डार के लिए अमूल्य हैं. कैंतुरा का कथा संग्रह प्रकाशाधीन है
मोहनलाल ढौंडियाल (दहेली, गुराड़स्यूं, १९५६) कवि ढौंडियाल के दो कथाएं हिलांस व धाद (१९८५-८६) में छपी हैं. कथाएँ सीख व परंपरा संबंधी हैं (लेखक की भीष्म कुकरेती से बातचीत व केशवान)
विजय सिंह लिंगवाल : विजय सिंह लिंगवाल के एक कहानी (हिलांस १९९८८) में प्रकाशित हुयी जो डा अनिल अनुसार सरल, सहज व मुहावरेदार है
जगदीश जीवट: जीवट के एक कहानी 'दिन' धाद १९८८) प्रकाश में आई है जो सरस है.
विद्यावती डोभाल (सैंज, नियली, टि.ग. १९०२ -१९९३) कवित्री विद्यावती डोभाल की कहानी 'रुक्मी' (धाद १९८९) उनकी प्रसिद्ध कहानियों में एक है
खुशहाल सिंह 'चिन्मय सायर' (अन्दर्सौं, डाबरी, पौ ग. १९४८) कवि 'चिन्मय सायर' की एक लघुकथा 'धुवां' (चिट्ठी २१ वां अंक) में प्रकाशित हुयी.
विजय गौड़ : हिंदी के कवि विजय गौड़ की 'कथा 'भाप इंजिन' (चिट्ठी २१ वां अंक) गढवाली में अति आधुनिक कहानी मानी जाती है
विजय कुमार 'मधुर' (रडस्वा, रिन्ग्वाड़स्यूं १९६४ ) विजय कुमार 'मधुर' ने तीन कहानियाँ प्रकाशित हुयी हैं जैसे चिट्ठी-२१ वां अंक. एक बालकथा भी छपी है.
गिरधारीलाल थपलियाल 'कंकाल (श्रीकोट, पौ.ग. १९२९-१९८७) : नाटककार , कवि गिरधारीलाल थपलियाल 'कंकाल’ के एक ही कथा 'सुब्यदरी' (धाद १९८८) प्रकाशित हुयी दिखती है. कथ्य मुहावरदार और चपल किसम की शैली में है
जगदम्बा प्रसाद भारद्वाज : भारद्वाज की एक ही कहानी मिलती है - सच्चु सुख की कहानी, धाद १९८८. कहानी अभुवाक्ति कौशल का एक उम्दा नमूना है
सुरेन्द्र पाल : प्रसिद्ध गढवाली कवि की कथा 'दानौ बछरू' एवम 'नातो' (धाद १९८८) गढवाली कथा के मणि हैं
मोहन सैलानी : मोहन सैलानी के कथा 'घोल' (धाद १९९०) एक वेदनापूर्ण कहानी है.
महेंद्र सिंह रावत : रावत के एक ही कहानी गाणी (धाद १९९० ) प्रकाशित हुयी है.
सतेन्द्र सजवाण : सतेन्द्र सजवाण के एक कहानी 'मा कु त्याग' (बुग्याल १९९५) प्रकाश में आई है .
बृजेंद्र सिंह नेगी (तोळी, मल्ला बदलपुर, पौ. ग. १९५८ ) बृजेंद्र की अब तक पचीस से अधिक कथाएं प्रकाशित हो चुकी हैं व अधिकतर युगवाणी मासिक में प्रकाशित हुयी है. सं २००० के पश्चात् ही 'उमाळ' व ’छिट्गा' नाम से दो कथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. कथा विषय गाँव, मानवीय सम्बन्ध, अंधविश्वास, समस्या संघर्ष, आदि हैं जो आम आदमी की रोजमर्रा जिन्दगी से सम्बन्ध रखते हैं. भाषा में सल़ाणी भाषा की प्रचुरता है, स्थानीय मुहावरों से कथा में वहाव आ जाता है. पारंपरिक शेली में लिखी कथाएं आम आदमी को लुभाती भी हैं (ललित केशवान का पत्र व भीष्म कुकरेती की लेखक से बातचीत )
ललित केशवान (सिरोंठी, इड्वाळस्यूं, अपु.ग. १९४०) प्रसिद्ध गढवाली कवि केशवान की तीन कथाएं (हिलांस, १९८४, १९८५) व धाद में प्रकाश में आये हैं. कथाएं रोमांचित कर्ता अथवा सरल हैं.
ब्रह्मानन्द बिंजोला (खंदेड़ा, चौन्दकोट १९३८) कवि बिंजोला के आठ नौ कथाएं यत्र तत्र प्रकाशित हुईं व ललित केशवान के अनुसार 'फ़ौजी की ब्योली' कथा संग्रह प्रकाशाधीन है. ललित केशवान के अनुसार कथाएं मार्मिक व गढवाल के जनजीवन सम्बंधीं हैं. कथायों में कवित्व का प्रभाव भी है.
राजाराम कुकरेती (पुन्डारी, म्न्यार्स्युं १९२८) राजाराम के कुछ कथाएं यत्र तत्र पत्र पत्रिकाओं में १९९० के पश्चात प्रकाशित हुईं (ललित केशवान का लेखक को लम्बा पत्र, २०१०) व २० कथाओं का संग्रह प्रकाशाधीन है).
कन्हैयालाल डंडरियाल (नैली मवालस्युं, पौ.ग. १९३३-२००४) डंडरियाल ने दो तीन कथाये लिखी हैं (२)
लोकेश नवानी (गंवाड़ी, किनगोड़ खाल, १९५६) लोकेश नवानी के चारेक कथाएं धाद, चिट्ठी, दस सालैक खबरसार (२००२), मे प्रकाशित हुए हैं
गिरीश सुन्दरियाल (चूरेड़ गाँव, चौन्दकोट, १९६७) सुंदरियाल ने छ के करीब कहानियाँ लिखीं हैं जो 'चिट्ठी' के इकसवीं अंक मे छपी व कुछ कथाएं चिट्ठी पतरी (२००२) मे जैसे 'काची गाणि' आदि प्रकाशित हुईं. डा अनिल डबराल ने लिखा की ऐसी मादक, हृदयस्पर्शी, प्रगल्भ, कथा बिरली ही हैं.
डा कुटज भारती (भैड़ गाँव, बदलपुर १९६६) : डा कुटज भारती की 'जी ! भुकण्या तैं घुरण्या ल़ीगे' कहानी (खबरसार , १९९९ ) एक बहुत ही आनंददायक, प्रहसनयुक्त, लोक लकीर की कहानी है
वीणापाणी जोशी (देहरादून १९३७) नब्बे के दशक के बाद ही कवित्री की गढवाली कथा 'कठ बुबा' प्रकाश में आया.
डीएस रावत : डीएस रावत की एक कथा 'छावनी' चिट्ठी पतरी, १९९९) प्रकाश मे आई है, कथा एक बालक का सैनिक छावनी को अपने नजर से देखने का नजरिया है.
वीरेन्द्र पंवार (केंद्र इड्वाल स्यूं 1962) कवि, समीक्षक वीरेन्द्र पंवार की एक कथा ही प्रकाश में आई है
अनसुया प्रसाद डंगवाल (घीडी, बणेलस्यूं , पौ ग. १९४८) डंगवाल ने अब तक दस बारह कथाएं प्रकाशित की हैं और अधिकतर कथाएं शैलवाणी साप्ताहिक (२००० के पश्चात) में प्रकाशित हुयी हैं. कथाएं सामाजिक विषयक हैं. भाषा चरित्रों के अनुरूप है. कथों से पाठक को आनंद पारपत होता है. भीष्म कुकरेती का मानना है की कथाएं 'रौन्सदार' हैं. कई कहानियाँ पाठक को सोचने को मजबूर कर देती हैं
राम प्रसाद डोभाल : राम प्रसाद डोभाल की दो कथाएं 'चिट्ठी पतरी' (२०००) मे 'चैतु फेल बोडि पास' नाम से प्रकाशित हुईं. एक कथा 'उर्ख्याल़ा की दीदी' (चि.प. २००१) बालकथा है
सत्य आनंद बडोनी (टकोळी, ति.ग. १९६३ ) सत्य आनंद बडोनी की एक कथा मंगतू (चिट्ठी पतरी, २०००) प्रकाश मे आई है.
विमल थपलियाल 'रसाल' : विमल के एक कहानी 'खाडू -बोगठया' खबरसार (२०००) में प्रकाश में आई है, जो की दार्शनिक धरातल लिए हुई लोक कथा लीक पर चलती है. सम्वंदों में हिंदी का उपयोग वातावरण बनाने हेतु ही हुआ है.
चंद्रमणि उनियाल : चंद्रमणि उनियाल की एक कथा 'रुकमा ददि' चिट्ठी पतरी' ( २००१) मे प्रकाशित हुयी. कथा चिट्ठी रूप मे है.
प्रीतम अपछ्याण (गड़कोट, च.ग १९७४) की पांच एक कथाएं २००० के बाद चिट्ठी पतरी मे छपीं. कथाएं व्यंग से भी भरपूर हैं व सामयिक भी हैं.
सर्वेश्वर दत्त कांडपाल : सर्वेश्वर दत्त कांडपाल के एक खाणी 'दादी चाणी' (चिट्ठी पतरी २०००) प्रकाश मे आये जो की एक बुढ़िया का नए जमाने मे होते परिवर्तन की दशा बयान करती है.
संजय सुंदरियाल (चुरेड गाँव, चौन्दकोट, १९७९) संजय की दो कथाएं चिट्ठी पतरी (२००० के बाद) प्रकाशित हुईं.
सीताराम ममगाईं : सीताराम ममगाईं की लघु कथा 'अनुष्ठान' चिट्ठी पतरी (२००२) प्रकाश मे आई
पाराशर गौड़ (मिर्चौड़, अस्वाल्स्युं , पौ.ग., १९४७) 'जग्वाल' फिल्म के निर्माता पाराशर गौड़ की कथाएँ २००६ के बाद इन्टरनेट माध्यम पर प्रकाशित हुयी हैं. कथाएं व्यंग्य भाव लिए हैं और अधिकतर गढवाल में हुयी घटनाओं के समाचार बनने से सम्बन्धित हैं. भाषा सरल है, हाँ ट्विस्ट के मात्रा मे पाराशर कंजूसी करते दीखते नही हैं
गजेन्द्र नौटियाल : गजेन्द्र नौटियाल के एक कथा मान की टक्क 'चिट्ठी पतरी' (२००६) मे प्रकाशित हुयी. कथा मार्मिक है
नई वयार का प्रतिनधि ओमप्रकाश सेमवाल (दरम्वाड़ी, जख्धर, रुद्रप्रयाग, १९६५) यह एक उत्साहवर्धक घटना है क़ि गढवाली साहित्य में ओमप्रकाश सेमवाल सरीखे नव जवान साहित्यकार पदार्पण कर रहे हैं. ओमप्रकाश का आना गढवाली साहित्य हेतु एक प्रात:कालीन पवन झोंका है जो उनींदे गढ़वाली कथा संसार को जगाने में सक्षम भूमिका अदा करेगा. कवि ओम प्रकाश सेमवाल का गढवाली कथा संग्रह 'मेरी पुफु' (२००९), लोकेश नवानी के अनुसार इस सदी का उल्लेखनीय घटना भी है. कथा संग्रह में 'धर्मा', हरसू, फजितु, आस, ब्व़े, भात, ब्व़े, वबरी, नई कूड़ी , बेटी ब्वारी, बड़ा भैजी, मेरी पुफू, गुरु जी कथाएं समाहित हैं. कथाएँ मानवीव समीकरण व सम्बन्धों क़ि पड़ताल करते हैं.
गढवाली लोक नाट्य शाष्त्री डा दाताराम पुरोहित का कहना है क़ि कथाएँ डांडा-कांठाओं (पहाडी विन्यास) के आइना हैं व कथाओं में गढ़वाली मिटटी की 'कुमराण' (धुप से जले मिट्टी की आकर्षक सुगंध) है. वहीं लोकेश नवानी लिखते हैं की सेमवाल एक शशक्त कथाकार हैं.
नामी गिरामी, जग प्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंग नेगी का कहना है की जब गढवाली भाषाई कहानियों में एक रीतापन/खालीपन आ रहा था तब सेमवाल का कथा संग्रह इस खालीपन को दूर करने में समर्थ होगा. वहीं गजल सम्राट मधुसुदन थपलियाल ने भूमिका में लिखा कि 'मेरी पुफू' गढ़वाली साहित्य के लिए एक सकारात्मक सौगात है. थपलियाल का कहना इकदम सही है कि कथाओं में सम्वाद बड़े असरदार हैं और कथाएं परिपूर्ण दिखती हैं.
आशा रावत : (लखनऊ , १९५४) आशा रावत की पचीस से अधिक कहानियां शैलवाणी समाचार पत्र आदि मे प्रकाशित हुए हैं. एक कथासंग्रह 'शैल्वणी' प्रकाशन कोटद्वार मे प्रकाशाधीन है, कहानियां मार्मिक, समस्या मूलक, है. संवाद कथा में वहाव को गति प्रदान करने मे सक्षम हैं.
शेर सिंह गढ़देशी : शेर सिंह गढ़देशी की परम्परावादी कथा 'नशलै सुधार' एक सुधारवादी कथा है (खबर सार (२००९)
सुधारवादी कथाकार जगदीश देवरानी ( डुडयख़ , लंगूर, १९२५): जगदीश देवरानी की 'चोळी के मर्यादा', 'नैला पर दैला, 'गल्ती को सुधार' आदि पाँच कथाएं शैलवाणी साप्ताहिक कोट्द्वारा, में अक्टूबर व नवम्बर २०११ के अंक में क्रमगत में छपी हैं. शैलवाणी के सम्पादक व देवरानी से बातचीत पर ज्ञात हुआ कि आने वाले अंको में लगभग ३० अन्य गढवाली कहानियाँ प्रकाशाधीन है. कहानियां सुधारवादी हैं, परम्परागत हैं . भाषा संस्कार सल़ाणी है. भाषा सरल व संवाद चरित्र निर्माण व कथा के वेग में भागीदार हैं.
                                                                     गढवाली व्यंग्य चित्रों की कॉमिक कथाएं
गढवाली में व्यंग्य चित्रों के माध्यम से कोमिक कथाएं भी प्रकाशित हई हैं. व्यंग्य विधा के द्वारा कथा कहने का श्रेय भीष्म कुकरेती को जाता है. भीष्म कुकरेती ने दो व्यंग्य चित्र कॉमिक कथाये 'एक चोर की कळकळी कथा (जिस्मे एक चोर गढवाली साहित्यकारों के घर चोरी करने जाता है) व पर्वतीय मंत्रालय मा कम्पुटर आई' प्रकाशित की हैं. दोनों व्यंग चित्रीय कॉमिक कथाएँ गढ़ ऐना (१९९०) में प्रकाशित हुए हैं. अबोध बंधु बहुगुणा ने इन कॉमिक कथाओं की सराहना की (कौंळी किरण, पृष्ठ १४९)
अंत में कहा जा सकता है कि आधुनिक गढवाली कहानियाँ १९१३ से चलकर अब तक विकास मार्ग पर अग्रसर रही हैं. संख्या की दृष्टि से ना सही गुणात्मक दृष्टि से गढवाली भाषा की कहानियाँ विषय, कथ्य, कथानक, शैली , कथा वहाव, संवाद, जन चेतना, कथा मोड़, वार्ता, चरित्र चित्रण, पाठकों को कथा में उलझाए रखने की वृति व काला, पाठकों को सोचने को मजबूर करना, पाठकों को झटका देना, कथाकारों में प्रयोग करने की मस्सकत आदि के हिसाब से परिस्कृत हैं .
इसी तरह गढवाली कथा साहित्य में श्रृंगार, करूँ , वीर, बीभत्स, हास्य, अद्भुत रस व सभी ११० भावं से संपन रही हैं
नये कथाकारों के आने से भी प्रकट होता है कि गढवाली कथा साहित्य का भविष्य उज्ज्वल है.
सन्दर्भ :
१- भीष्म कुकरेती, २०११, गढवाळी कथाकार अर हौरी भाषाओं क कथाकार , शैलवाणी के (२०११-२०१२ ) पचास अंकों में क्रमगत लेख
२- अबोध बंधु बहुगुणा, १९७५ गाड म्यटयेकि गंगा, देहली (गढवाली गद्य साहित्य का क्रमिक विकास)
३- डा अनिल डबराल, २००७ गढ़वाली गद्य परम्परा,
४- अबोध बंधु बहुगुणा, १९९०, गढ़वाली कहानी, गढवाल की जीवित विभूतियाँ और गढवाल का वैशिष्ठ्य, पृष्ठ २८७-२९०
५- ललित केशवान (२०१०) का भीष्म कुकरेती को लिखा लम्बा पत्र जिसमे १०० से अधिक गढवाली भाषा के लेखक लेखिआकों के बारे में जानकारी दी गयी है.
६- अबोध बन्धु बहुगुणा, २००० कौन्ली किरण

Copyright @ Bhishm Kukreti, Mubai 2011

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