गढवाली में गढवाली भाषा सम्बन्धी साहित्य

गढवाली में गढ़वाली भाषा, साहित्य सम्बन्धी लेख भी प्रचुर मात्र में मिलते हैं. इस विषय में कुछ मुख्य लेख इस प्रकार हैं-
गढवाली साहित्य की भूमिका पुस्तक : आचार्य गोपेश्वर कोठियाल के सम्पादकत्व में गढवाली साहित्य की भूमिका पुस्तक १९५४ में प्रकाशित हुई जो गढवाली भाषा साहित्य की जाँच पड़ताल की प्रथम पुस्तक है. इस पुस्तक में भगवती प्रसाद पांथरी, भगवती प्रसाद चंदोला, हरिदत्त भट्ट शैलेश, आचार्य गोपेश्वर कोठियाल, राधाकृष्ण शाश्त्री, श्यामचंद लाल नेगी, दामोदर थपलियाल के निबंध प्रकाशित हुए.
डा विनय डबराल के गढ़वाली साहित्यकार पुस्तक में रमाप्रसाद घिल्डियाल, श्यामचंद नेगी, चक्रधर बहुगुणा के भाषा सम्बन्धी लेखों का भी उल्लेख है.

अबोधबंधु बहुगुणा, डा नन्द किशोर ढौंडियाल व भीष्म कुकरेती ने कई लेख भाषा साहित्य पर प्रकाशित किये हैं जो समालोचनात्मक लेख हैं (देखें भीष्म कुकरेती व अबोधबन्धु बहुगुणा का साक्षात्कार, चिट्ठी पतरी २००५, इसके अतिरिक्त भीष्म कुकरेती, नन्दकिशोर ढौंडियाल व वीरेंद्र पंवार के रंत रैबार, खबरसार आदि में लेख).
दस सालै खबरसार (२००९) पुस्तक में भजनसिंह सिंह, शिवराज सिंह निसंग, सत्यप्रसाद रतूड़ी, भ.प्र. नौटियाल, वीरेंद्र पंवार, भीष्म कुकरेती, डा नन्दकिशोर ढौंडियाल, विमल नेगी के लेख गढवाली भाषा साहित्य विषयक हैं.
डा अचलानंद जखमोला के भी गढवाली भाषा वैज्ञानिक दृष्टि वाले कुछ लेख चिट्ठी पतरी मे प्रकाशित हुए हैं.

पत्र -पत्रिकाओं में स्तम्भ
खबरसार में नरेंद्र सिंह नेगी के साहित्य व डा शिवप्रसाद द्वारा संकलित लोकगाथा 'सुर्जी नाग' पर लगातार स्तम्भ रूप में समीक्षा छपी हैं.
रंत रैबार (नवम्बर-दिस २०११) में नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों की क्रमिक समीक्षा इश्वरी प्रसाद उनियाल कर रहे हैं. यह क्रम अभी तक जारी है

चिट्ठी पतरी के विशेषांकों में समीक्षा
गढवाली साहित्य विकास में चिट्ठी पतरी 'पत्रिका का अपना विशेष स्थान है. चिट्ठी पतरी के कई विशेषांकों में समालोचनात्मक/समीक्षात्मक/ भाषासाहित्य इतिहास/संस्मरणात्मक लेख/आलेख प्रकाशित हुए हैं.
लोकगीत विशेषांक (२००३) में डा गोविन्द चातक, डा हरिदत्त भट्ट, चन्द्रसिंह राही, नरेंद्र सिंह नेगी, आशीष सुंदरियाल, प्रीतम अप्छ्याँण व सुरेन्द्र पुंडीर के लेख छपे.
कन्हैयालाल डंडरियाल स्मृति विशेषांक (२००४) में प्रेमलाल भट्ट, गोविन्द चातक, भ. नौटियाल, ज.प्र चतुर्वेदी, ललित केशवान, भीष्म कुकरेती, हिमांशु शर्मा, नथी प्रसाद सुयाल के लेख प्रकाशित हुए.
लोककथा विशेषांक (२००७) में भ.प्र नौटियाल, डा नन्द किशोर ढौंडिया, ह्मंशु शर्मा, अबोधबंधु बहुगुणा, रोहित गंगा सलाणी, उमा शर्मा, भीष्म कुकरेती, डा राकेश गैरोला, सुरेन्द्र पुंडीर के सारगर्भित लेक छपे.
रंगमंच विशेषांक (२००९) में भीष्म कुकरेती, उर्मिल कुमार थपलियाल, डा नन्दकिशोर ढौंडियाल, कुलानन्द घनसाला, डा राजेश्वर उनियाल के लेख प्रकाशित हुए.
अबोधबंधु स्मृति विशेषांक (२००५) में भीष्म कुकरेती, जैपाल सिंह रावत, वीणापाणी जोशी, बुधिबल्लभ थपलियाल के लेख प्रकाशित हुए.
भजन सिंह स्मृति अंक (२००५) में डा गिरीबाला जुयाल, उमाशंकर थपलियाल, वीणापाणी जोशी के लेख छपे. आलोचनात्मक साहित्य के निरीक्षण से जाना जा सकता है कि 'गढवाली आलोचना के पुनरोथान युग की शुरुवात में अबोधबंधु बहुगुणा, भीष्म कुकरेती, निरंजन सुयाल ने जो बीज बोये थे उनको सही विकास मिला और आज कहा जा सकता है कि गढवाली आलोचना अन्य भाषाओँ की आलोचना साहित्य के साथ टक्कर ल़े सकने में समर्थ है.
पुस्तक भूमिका हो या पत्रिकाओं में पुस्तक समीक्षा हो गढवाली भाषा के आलोचकों ने भरसक प्रयत्न किया कि समीक्षा को गम्भीर विधा माना जाय और केवल रचनाकार को प्रसन्न करने व पाठकों को पुस्तक खरीदने के लिए ही उत्साहित ना किया जाय अपितु गढवाली भाषा समालोचना को सजाया जाय व संवारा जाय.
गढवाली समालोचकों द्वारा काव्य समीक्षा में काव्य संरचना, व्याकरणीय सरंचना में वाक्य, संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, कारक, विश्शेष्ण, काल, समस आदि; शैल्पिक संरचना में अलंकारों, प्रतीकों, बिम्बों, मिथ, फैन्तासी आदि; व आतंरिक संरचना में लय, विरोधाभास, व्यंजना, विडम्बना आदि सभी काव्यात्मक लक्षणों की जाँच पड़ताल की गयी है. जंहाँ-जंहाँ आवश्यकता हुई वहांए-वहां समालोचकों ने अनुकरण सिद्धांत, काव्य सत्य, त्रासदी विवरण, उद्दात सिद्धांत, सत्कव्य, काव्य प्रयोजन, कल्पना की आवश्यकता, कला हेतु, छंद, काव्य प्रयोजन, समाज को पर्याप्त स्थान, क्लासिक्वाद, असलियतवाद, समाजवाद या साम्यवाद, काव्य में प्रेरणा स्रोत्र, अभिजात्यवाद, प्रकृति वाद, रूपक/अलंकार संयोजन, अभिव्यंजनावाद, प्रतीकवाद, काव्यानुभूति, कवि के वातावरण का कविताओं पर प्रभाव आदि गम्भीर विषयों पर भी बहस व निरीक्षण की प्रक्रिया भी निभाई. कई समालोचकों ने कविताओं की तुलना अन्य भाषाई कविताओं व कवियों से भी की जो दर्शाता है कि समालोचक अध्ययन को प्राथमिकता देते हैं. गद्य में कथानक, कथ्य, संवाद, रंगमंच प्र घं विचार समीक्षाओं में हुआ है. इसी तरह कथाओं, उपन्यासों व गद्य की अन्य विस्धों में विधान सम्मत समीक्षाए कीं गईं.
संख्या की दृष्टि से देखें या गुणात्मक दृष्टि से देखें तो गढवाली समालोचना का भविष्य उज्जवल है.
क्रमश:--
द्वारा- भीष्म कुकरेती

Popular posts from this blog

गढ़वाल में क्या है ब्राह्मण जातियों का इतिहास- (भाग 1)

गढ़वाल की राजपूत जातियों का इतिहास (भाग-1)

गढ़वाली भाषा की वृहद शब्द संपदा