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‘इमोशन’ की डोर से बंधी ‘खैरी का दिन’ (Garhwali Film Review)

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  - धनेश कोठारी भारतीय सिनेमा के हर दौर में सौतेले भाई के बलिदान की कहानियां रुपहले पर्दे पर अवतरित होती रही हैं। हालिया रिलीज गढ़वाली फीचर (Garhwali Feature Film) फिल्म ‘ खैरी का दिन ’ (Khairi Ka Din) का कथानक भी ऐसे ही एक तानेबाने पर बुनी गई है। जिसमें नायक से लेकर खलनायक तक हर कोई अपने हिस्से की ‘ खैरि ’ ( दर्द) को पर्दे पर निभाता है , और क्लाईमेक्स में यही ‘ खैरि ’ दर्शकों को उनकी आंखें भिगोकर थियेटर से लौटाती है। माहेश्वरी फिल्मस (Maheshwari Films) के बैनर पर डीएस पंवार कृत और अशोक चौहान ‘ आशु ’ द्वारा निर्देशित फिल्म ‘ खैरी का दिन ’ एक देवस्थल पर नायक कुलदीप (राजेश मालगुड़ी) के सवालों से शुरू होकर फ्लैश बैक में चली जाती है। जहां सौतेली मां की मौत के बाद तीन भाई-बहनों की जिम्मेदारी कुलदीप पहले खुद और फिर संयोगवश उसकी पत्नी बनी दीपा (गीता उनियाल) मिलकर निभाते है। उनके त्याग की बुनियाद पर सौतेले भाई-बहन बड़े और कामयाब होते हैं। वहीं , विलेन किरतु प्रधान (रमेश रावत) के कारनामों से तंग गांववासी चुनाव में कुलदीप को प्रधान चुनते हैं। जिसके बाद कुलदीप के खिलाफ शुरू होते हैं किरतु के ष