‘इमोशन’ की डोर से बंधी ‘खैरी का दिन’ (Garhwali Film Review) ~ BOL PAHADI

06 August, 2022

‘इमोशन’ की डोर से बंधी ‘खैरी का दिन’ (Garhwali Film Review)

 - धनेश कोठारी

भारतीय सिनेमा के हर दौर में सौतेले भाई के बलिदान की कहानियां रुपहले पर्दे पर अवतरित होती रही हैं। हालिया रिलीज गढ़वाली फीचर (Garhwali Feature Film) फिल्म खैरी का दिन’ (Khairi Ka Din) का कथानक भी ऐसे ही एक तानेबाने पर बुनी गई है। जिसमें नायक से लेकर खलनायक तक हर कोई अपने हिस्से की खैरि’ (दर्द) को पर्दे पर निभाता है, और क्लाईमेक्स में यही खैरिदर्शकों को उनकी आंखें भिगोकर थियेटर से लौटाती है।

माहेश्वरी फिल्मस (Maheshwari Films) के बैनर पर डीएस पंवार कृत और अशोक चौहान आशुद्वारा निर्देशित फिल्म खैरी का दिनएक देवस्थल पर नायक कुलदीप (राजेश मालगुड़ी) के सवालों से शुरू होकर फ्लैश बैक में चली जाती है। जहां सौतेली मां की मौत के बाद तीन भाई-बहनों की जिम्मेदारी कुलदीप पहले खुद और फिर संयोगवश उसकी पत्नी बनी दीपा (गीता उनियाल) मिलकर निभाते है। उनके त्याग की बुनियाद पर सौतेले भाई-बहन बड़े और कामयाब होते हैं।

वहीं, विलेन किरतु प्रधान (रमेश रावत) के कारनामों से तंग गांववासी चुनाव में कुलदीप को प्रधान चुनते हैं। जिसके बाद कुलदीप के खिलाफ शुरू होते हैं किरतु के षडयंत्र। मंझले भाई प्रद्युम्न (पुरूषोत्तम जेठुड़ी) की नई नवेली दुल्हन (पूजा काला) परिवार में फूट डालने के लिए उसका हथियार बनती है। रही सही कसर सबसे छोटा भाई अरुण (रणवीर चौहान) मंदिर में शादी के बाद दुल्हन (शिवांगी देवली) को घर लाकर पूरी कर देता है। बहस के दौरान अरुण बंटवारा मांगता है, तो कुलदीप बीमार पत्नी दीपा को लेकर घर छोड़ देता है। बहन अरुणा (निशा भंडारी) भी अरुण को गरियाते हुए बड़े भाई के साथ चल देती है।

अस्पताल में भर्ती दीपा के इलाज के लिए कुलदीप जब भाईयों से मदद मांगता है, तो बदले में उसे सिर्फ बहाने मिलते हैं। दीपा की मौत कुलदीप को तोड़ देती है। यहीं पर फिल्म फ्लैश बैक से वापस लौट आती है। यहां कुलदीप को देवता से जवाब तो नहीं मिलते, मगर पश्चाताप से भरा परिवार वहां जरूर साथ दिखता है। हालांकि तब देर हो चुकी होती है और एक हादसा कुलदीप को उनसे जुदा कर देता है।

फिल्म की स्टोरी, स्क्रिप्ट, डायलॉग सब निर्देशक अशोक चौहान ने रचे हैं। फिल्म का सबसे स्ट्रॉन्ग प्वाइंट है इमोशन। जो कि दर्शकों को अपील भी करता है। बाकी स्क्रीनप्लेअधिकांश जगह कट टू कट सिर्फ स्विचहोता दिखता है। दृश्य कई बार अधूरे में ही कहानी के नए सिरे को पकड़ लेते हैं। फिल्म जहां-जहां स्विच करती है, दर्शक वहां स्टोरी को खुद अंडरस्टूडकर आगे बढ़ा देते हैं। जैसे कि नायिका के विवाह के यकायक बदलते सीन, कुलदीप की बिना परंपराओं की शादी, एक फाइट सीन में प्रद्युम्न का घायल होना और अगले ही दृश्य में ठीक दिखना, अरुण का शादी कर घर पहुंचना और आंगन में ही सारे फैसले हो जाना... आदि।

फिल्म का सामयिक गीत किरतु परधान अब खुलली तेरि पोल..दर्शकों को याद रह सकता है। बाकी जुबां पर शायद ही चढ़ें। होली के गीत रंगूं कि मचि छरोळ...फिल्मांकन के लिहाज से कुछ अच्छा लगता है। डायलॉग और डिलीवरी में शिद्दत की कमी महसूस होती है। कलाकारों द्वारा अपने ही डायलेक्ट्समें डायलॉग डिलीवरी भाषायी विविधता के लिहाज से काबिले तारीफ है।

फिल्म के किरदारों में निशा भंडारी, रवि ममगाईं, गोकुल पंवार खासा प्रभावित करते हैं। राजेश मालगुड़ी, गीता उनियाल, पुरूषोत्तम जेठुड़ी की अदाकारी औसत रही है। रणवीर चौहान के हिस्से ज्यादा मौका नहीं आया। विलेन रमेश रावत इस फिल्म में अपनी पहली फिल्म भूली ऐ भूलीजैसा असर नहीं छोड़ सके।

फिल्म की शुरूआती रील का धुंधलापन पेशेवर नजरिए से अच्छा नहीं माना जा सकता। टिहरी झील और उसके आसपास के अलावा सितोनस्यूं कोट ब्लॉक के गांव धनकुर में फिल्माकन बेहतर दिखा। फिल्म में महंगी बाइक, रेस्टोरेंट, कुछ शहरी कल्चर आदि का तड़का बुरा नहीं लगता। मगर, विवाहित महिला किरदारों का हर सीन में गुलाबंद (गले का गहना) पहने रहना स्क्रीनप्ले और निर्देशन के सेंस को सवालों में ला देता है।

सो, ‘इमोशनकी डोर पर बंधी खैरी का दिनको तकनीकी खामियों के लिहाज से इतर देखें तो पारिवारिक पृष्ठभूमि की ये फिल्म दर्शकों को थियेटर तक जरूर खींच रही है। इसकी कामयाबी भविष्य में निश्चित ही निर्माताओं को पारिवारिक कहानियों पर फिल्म बनाने के लिए उत्साहित करेगी। जो कि आंचलिक सिनेमा के लिए अच्छी बात कही जा सकती है।

0 comments:

Post a Comment

Popular Posts

Blog Archive

Our YouTube Channel

Subscribe Our YouTube Channel BOL PAHADi For Songs, Poem & Local issues

Subscribe