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Showing posts from August, 2019

महज 4 खेतों में उगा दी 27 तरह की फसलें

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महिपाल सिंह नेगी // हिमालयी राज्य उत्तराखंड में ‘‘चिपको’’ और ‘‘बीज बचाओ’’ आंदोलन की प्रयोग भूमि जनपद टिहरी की ‘‘हेंवल घाटी’’ का रामपुर गांव। यह गांव चिपको और बीज बचाओ आंदोलन की प्रमुख कार्यकर्ता सुदेशा बहन और प्रसिद्ध पत्रकार कुंवर प्रसून का गांव भी है। हाल में मैं भी इस गांव में पहुंचा।  यहां आकर मालूम पड़ा कि चिपको और बीज बचाओ आंदोलन से जुड़े हमारे साथी साहब सिंह सजवाण और उनकी सास सुदेशा बहन ने मिलकर बीज बचाओ के आंदोलन को सार्थकता और विस्तार देने के लिए सिर्फ चार खेतों में ही 27 तरह की फसलें उगा डाली हैं। वह भी बिना रासायनिक खाद और कीटनाशकों के इस्तेमाल के ही। उन्होंने पारंपरिक बीजों को सिंचित और असिंचित दोनों तरह के खेतों में उपयोग किया।  प्रेरणादायक बात यह कि यह कार्य उन्होंने आंदोलन से जुड़े रहे अपने साथी स्वर्गीय कुंवर प्रसून की स्मृति को जीवंत बनाए रखने के लिए भी किया है। स्वर्गीय प्रसून के परिवार ने भी अपने एक-दो खेत इस अभियान के लिए उन्हें सहर्ष सौंपे हैं। एक अन्य खेत गांव के ही किसी और परिवार ने दिया, जबकि एक खेत उनका पुश्तैनी है। उनके प्रेरक प्रयोग से य

अब त वा (गढ़वाली ग़ज़ल)

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प्रदीप सिंह रावत ‘खुदेड़’ // अब त वीं लोळी तै हमारि याद बि नि सतांदी, अब त वा लोळी हमते अपड़ू बि नि बतांदी। झणी किले रुसई गुसाई छ वा आजकल मैसे, अब त वा लोळी हमरा स्वीणो मा बि नि आंदि। हमतै विंकि आंख्यूंन घैल होणो ढब पोड़ग्ये छौ, पर अब वा लोळी आंख्यूं का तीर बि नि चलांदि। बाटा मा मिलि मै तै अचणचकि वा लोळी आज, मै देखि झणि किलै अब अपड़ि मुखड़ि लुकांदि। आंखि आंख्यूं मा छ्वीं लगांदि छै ज्वा कबि, अब वा मै तै आंख्यूं बटि खौड़ सि किलै बिरांदि। सज धजी फ्योंली सि बणि आंदि छै समणि, अब वा मुखड़ि मा किरीम पौडर बि नि लगांदि। सरम हया अर नौळी गात वींकि ज्वन्यू गैणू छौ, पर अब वा लोळी कै देखि बि नि सरमांदि। चिट्टी-पत्रि, रंत-रैबार खूब आंदा छा विंका पैलि, किलै अब खौळा मेळों मा दरसनू कू तरसांदि। म्येरा सब दगड़्यों दगड़ी छप रैंदी बणि वा, पर मैतै पैणै पकोड़ी सि नै नवाण कू तिरांदि। यू घसेर डांडी विंका गीतून गुंजणि रैंदि छै कबि, अब वा पौन पंछ्यूं तै रसीला गीत नि सुणान्दी। कवि - प्रदीप सिंह रावत ‘खुदेड़’ 

गढ़वाली भाषा की वृहद शब्द संपदा

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संकलन- नवीन नौटियाल //  उत्तराखंड राज्य के भूभाग गढ़वाल मंडल के प्रशासनिक भू-क्षेत्र की सीमाएं समय-समय पर बढ़ती-घटती रहीं हैं। गढ़वाल से तात्पर्य उस समस्त भू-भाग से है जहां आज गढ़वाली भाषा/ बोली प्रचलन में है अथवा इतिहास के कालखंड में प्रचलन में रही है। गढ़वाली भाषा/ बोली की शब्द- सम्पदा और समृद्धि को निम्नलिखित उदाहरणों के माध्यम से बेहतर समझा जा सकता हैं - 1. गढ़वाली भाषा में अनगिनत क्रियापद हैं।  जिनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं-  हरचण - खोना, गंवाना;  बुजण - बंद होना;  घटण - कम होना;  घैंटण - गाढ़ना;  बाण - हल लगाना;  बुतण - बीज बोना;  बोकण - बोझ उठाना;  जग्वालण - इंतज़ार करना;  ग्वड़ण - कमरे में बंद करना;  तचण - गर्म होना;  खैंडण - मिलाना, घोटना;  बिरौण - अलग करना;  मलासण - सहलाना;  सोरण - झाड़ू लगाना;  लोसण - घसीटते हुए ले जाना;  लुच्छण - जबरदस्ती छीन लेना;   लुकण - छिपना;  संटौंण - परस्पर विनिमय करना;  सनकौण - संकेत करना;  तड़कण - दरार पड़ना;  तड़कौण - किसी कीड़े द्वारा काटना;  बगण  - बहना;  खतण - गिराना;  मठाण - मांजना;  हि

आखिर यम हैं हम..!!! (हास्य-व्यंग्य)

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धनेश कोठारी // ************* ब्रह्मलोक में वापस लौटते ही यमराज अपना गदा एक तरफ, मुकुट दूसरी तरफ, भैंस तीसरी तरफ और बर्दी चौथी साइड फेंककर अमरीश पुरी के अंदाज में गरजे- आखिर यम हैं हम!! यमराज के इस अंदाज को देखकर पहले पहल चित्रगुप्त महाराज सन्न रह गए। उन्होंने यमराज का कभी ऐसा रूप नहीं देखा था और ना ही उनकी ऐसी डायलॉग डिलीवरी देखी थी!! एकबारगी वह यमराज का अनपेक्षित आक्रोश देखकर कांपे, मगर फिर चुपके से पूछा- मित्र यम! क्या बात है ?? आज अकारण रोष क्यों ?? पृथ्वीलोक में सब खैरियत तो है ?? यमराज- बस, पूछो मति ना महाराज... चित्रगुप्त- लेकिन बताओ तो सही, कहीं लेट आने के पनिशमेंट से बचने के लिए प्रोपगंडा की जमीन तैयार करने का इरादा तो नहीं ?? यमराज- महाराज!! भेजा बहुत पकेला है, प्रेशर की और सीटी मत बजाओ...! चित्रगुप्त भांप गए कि पृथ्वीलोक में कुछ ज्यादा ही ‘ऐड़ा-पेड़ा’ हो गया या फिर... यमराज शायद कहीं लिंचिंग के चक्रव्यूह में फंस गए..!! फिर सोचा कि जिस काम के लिए भेजा था, देर से ही सही वह तो हो गया...। खैर, माहौल चेंज करना था, तो बोले- अच्छा चलो बैठकर दार्जिलिंग

20 साल बाद लौटी वेदनी बुग्याल की रौनक

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- गुलाबी फूलों ने बिखेरी सुंदरता... - अनगिनत फूलों से बिखरी रंगत, पर्यटकों का इंतजार संजय चौहान //  मानूसन की बारिश से भले ही उत्तराखंड के पहाड़ी हलकों में बड़े पैमाने पर तबाही मचाई हो, लेकिन हिमालय में मौजूद वेदनी बुग्याल के लिए मानसून की झमाझम बारिश वरदान साबित हुई है। शीतकाल में भारी हिमपात से सूख चुके वेदनी बुग्याल के वेदनी कुंड को नवजीवन मिला। जिससे वेदनी कुंड पानी से लबालब भर गया। अब यहां खिले अनगिनत फूलों ने वेदनी बुग्याल की सुंदरता पर चार चांद लगा दिए हैं।  खासतौर पर इनदिनों गुलाबी फूल प्रचुर मात्रा में खिले हैं। वेदनी बुग्याल ही नहीं बल्कि आली बुग्याल में भी इस साल सैकड़ों प्रजाति के फूल खिले हैं। वेदनी और आली बुग्याल की बेपनाह सुंदरता के दीदार के लिए स्थानीय लोगों को अब सैलानियों का इंतजार है। उम्मीद है कि मानसून के बाद पर्यटकों की आमाद इन बुग्यालों में होगी और उनके रोजगार के अवसर भी खुलेंगे।  गुलाबी घाटी सी दिख रहा बुग्याल  चमोली जिले में श्री नंदा देवी राजजात के पथ पर वाण गांव से 13 किमी दूर पर स्थित वेदनी बुग्याल (मखमली घास का मैदान)। समुद्रतल से 13500

गढ़वाली भाषा के उपभेद

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संकलन- नवीन नौटियाल // **********           उत्तराखण्ड के गढ़वाल मण्डल में बोली जाने वाली भाषा को गढ़वाली कहा जाता है। गढ़वाली के अंतर्गत कई उपभाषाएँ और बोलियाँ शामिल हैं। समस्त गढ़वाल में गढ़वाली भाषा व्यवहारिक रूप में बोली जाती है जिसका सामान्य एवं मुख्य रूप श्रीनगर और उसके आसपास प्रयुक्त की जाने वाली बोली को माना जाता है। ग्रियर्सन ने गढ़वाली को आठ बोलियों ( श्रीनगरिया, बधाणी, दस्योली, मांझ-कुमय्या, नागपुरिया, सलाणी, राठी एवं टिरियाली ) में विभाजित किया था। जबकि तत्पश्चात किए गए अध्ययनों एवं शोध-कार्यों में गढ़वाली की 15-20 बोलियाँ प्रकाश में आयी हैं। गढ़वाली भाषा के मुख्य उपभेद निम्नलिखित हैं- 1. श्रीनगरिया बोली - इस बोली को गढ़वाली बोली का परिनिष्ठित रूप माना जाता है। इसका प्रयोग चांदपुर परगने के दक्षिणी भाग में, देवलगढ़ परगने में और आसपास के क्षेत्र में होता है। श्रीनगरिया बोली उच्चारण में आ-कार बहुला है। जैसे - जाणा, खाणा, छया, छवा आदि। क. राठाली/राठी - श्रीनगरिया बोली के अंतर्गत ही राठाली बोली भी आती है जो पौड़ी गढ़वाल के राठ क्षेत्र में बोली जाती है। इसमें भी आ-कार का प्

गढ़वाली भाषा का शब्द वैभव

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संकलन- नवीन नौटियाल // ******* गढ़वाल को 'मध्य हिमालय' के नाम से भी जाना जाता है। इतिहास में इस 'मध्य हिमालयी' क्षेत्र में कोल, भील, किरात, नाग, आर्य, द्रविड़ आदि अनेक जातियों का निवास रहा है। वर्तमान समय में प्रचलित गढ़वाली भाषा पर इन जातियों के शब्दों का प्रभाव आसानी से देखा जा सकता है। ● खस जाति से आए शब्द – नखरु, बेड़, बुजण, बूखु, बेथ, बैंदार, लैंदु आदि। ● तिब्बती-बर्मी समुदाय से आए शब्द – पंखी, फंचि/फंचु. अंगड़ि, गौथ, चराण, उस्ययूँ आदि। ● आस्त्रिक मूल के शब्द – कपाळ, बोई, दाड़िम, छेमी, टिमरु, बेडू, रिंगाळ आदि। ● मुंडा जाति  से आए शब्द – गाड/गाड़, दिदा, ढुंगु, थोरुडु, ढांग आदि। ● नाग जाति से आए शब्द – नागनाथ, नागणी, नागपुर आदि। ● किरात जाति से आए शब्द – सितोनस्यूँ, गगवाड़स्यूँ, खत्यूं, बिग्ड्यूं, महासू, धरासू, झंगोरा, काफळ आदि। ● संस्कृत भाषा से आए शब्द – दूण, माणु, पाथु, पोरु, परार, परसि, परस्यों, सट्टि, क्वादु/कोदु, आदु, दथुडु आदि। ● तद्भव शब्द – अखोड़, कंदूड़, औतु, उणदु, काख. घुंडु, घीण, तीस, नौण, संगुडु आदि। ● प्राकृत मूल के शब्द – लुकणु

निःसंग जी के बहाने वर्तमान संदर्भ पर दो शब्द

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नरेन्द्र कठैत // ************  श्री शिवराज सिंह रावत निःसंग जी पर अभिनन्दन ग्रंथ और वर्तमान सन्दर्भ में दो शब्द!           पाश्चात्य कलमकारों ने इस देवभूमि से जो कुछ समेटा उसका आंकलन करने के लिए किसी कलमकार की लिखी यह पंक्ति  ‘धनुष भी उनके, बाण भी उनके, अपनी केवल आंख’ ही पर्याप्त है। कौन नहीं जानता एटकिन्सन हो या ग्रियसन, दोनों ने वर्णित सामग्री अपनी तात्कालीन आंख अर्थात अपने मातहतों के माध्यम से ही जुटाई। किन्तु क्या कारण है कि आज भी हम भूत-पिचास-अयेड, बांज-बुरांस, घास-पात को पहचानने के लिए इ.टी. एटकिन्सन और अपनी भाषा की व्यवहारिकता जानने के लिए ग्रियसन का मुंह ताकते हैं। जबकि एटकिन्सन महोदय ने जो भौगोलिक, सांस्कृतिक जानकारी दी है उनसे ज्यादा प्रमाणिक विवेचन महीधर शर्मा बड़थ्वाल जी ने अपनी पुस्तक ‘गढ़वाल में कौन’ में किया है। महीधर शर्मा बड़थ्वाल, जिनके पास अपनी आंख के सिवाय दूसरी कोई आंख थी ही नहीं। एक स्थान पर महीधर शर्मा जी ने लिखा भी है कि ‘विभिन्न परिस्थितियों और कौटुम्बिक क्लेशों के कारण मेरे इस कार्य में बाधा होती रही; बल्कि मुद्रण के समय पुस्तक के पू्रफ भी मैंने अस्व

मैं लक्ष्मणझूला सेतु हूं...! (भाग - 2)

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दुर्गा नौटियाल // ************ हां, मैं लक्ष्मणझूला सेतु हूं! मैं अब बूढ़ा हो चला हूं। लेकिन मैं इतना कमजोर भी नहीं की मृत्यु के आगे नतमस्तक हो जाऊं...। मैं महाभारत के भीष्म की वह प्रतिज्ञा हूं, जो रणभूमि में बाणों की शैय्या पर लेटे हुए भी मृत्यु को अपने बस में कर सकता हूं। मैं महर्षि दधीचि हूं, जो अपनी प्राण शून्यता के बाद भी अपनी हड्डियों से बज्र का निर्माण कर सकता हूं। मैं हाड मांस का इंसान जैसा पुतला नहीं, जो छित, जल, पावक, गगन ओर समीर में विलय हो जाऊं। मैं फौलाद से गढ़ा गया हूं और कभी मिट भी गया तो फौलाद ही रहूंगा। भविष्य में मेरे कण-कण से भी फौलाद ही निर्मित होगा। मैं जड़ हूं लेकिन चेतनशून्य नहीं, मैं आदि भी हूं और अनंत भी। भौतिक रूप से मेरा ओर-छोर तुम भले ही देख पा रहे हों, लेकिन मेरी जड़ें भूतल में भी गहरी गढ़ी हैं, जो शायद किसी को नजर ना आए। मैं भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों हूं। मैंने इस देश, प्रदेश और शहर के कई कालखंड जिए हैं। मैं एक भरपूर सदी हूं, जो अपने आप में एक संपूर्ण इतिहास है। मैं लक्ष्मण झूला सेतु हूं, जो अब बूढा हो चला हूं...। एक बूढ़े और जर्जर हो चुके ल

यलगार चहेणी (गढ़वाली कविता)

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प्रदीप रावत "खुदेड़"// ********************* म्येरा पाड़ तै ज्वान नौनो कि दरकार चाहेणी च , दिल्ली देहरादून न गैरसैणे कि सरकार चहेणी च । जू रोजगार का बाद बी उंदा बस्ग्येन तौंते छोड़ा , जू सच्चा हिमपुत्र छन तौंकी ललकार चहेणी छ । मास्टर अपड़ा नौनो तै सरकरि इस्कूल मा पढ़ाण , पहाड़ मा इना मास्टरूं कि लंग्त्यार चहेणी छ । स्यू बी चुनौ जीती कि देहरादून जगता नि व्हान , इख समर्प्रित नेतों कि इख अगल्यार चहेणी छ । हर रोज हर हफ्ता हर मैना स्यूं पर घचाक मार , जनता बी पाड़े इख जागरूक दार चहेणी छ । अन्याय का दगड़ा खड़ी नि व्हा पुलिस चहेणी , नागरिक समाज का प्रति जिमेदार चाहेणी छ । केवल बिधायक नि कैर सकदू गौं कू विकास , प्रधान पंचू कि फ़ौज बी इख बफादार चहेणी छ । दारू भंगलू पे कि नि फूंका तुम यी ज्वनि तै , आपदा तोड्या पाड़ तै ज्वनि ताकतदार चहेणी छ । दल वल क्वी बी हो तुमारु ये पाड़ी मनख्यूं इख , पाड़ी हितों पर न इख क्वी तकरार चहेणी छ । एक दौं डंडा झंडा ले कि क्रांति का नारा लगजान , त्येरि कलमन खुदेड़ इनि एक यलगार चहेणी छ ।

मैं लक्ष्मणझूला सेतु हूं..!

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दुर्गा नौटियाल //  ********* मैं लक्ष्मणझूला सेतु हूं..! पहचाना मुझे... क्यों नहीं पहचानोगे... आखिर आपने और आपकी पीढ़ियों ने एक नहीं बल्कि कई बार मुझे जिया है। मेरी बलिष्ठ भुजाओं पर विश्वास करके न जाने कितनी बार तुमने मेरे सहारे गंगा के इस छोर से उस छोर का सफर तय किया। आज मैं आपको बता रहा हूं... कि मैं बूढ़ा हो चला हूं...। मेरी हड्डियां अब दर्द देने लगी हैं..., मेरी कमर झुक गई है..., मेरे बाल पक गए हैं..., मैं अब पहले से ज्यादा लड़खड़ाने लगा हूं..., मेरी भुजाओं में अब वह जोर नहीं कि मैं अपनी औलादों के भार को ज्यादा देर तक थाम सकूं...। शायद आपको किसी और ने भी यह खबर सुना दी होगी...। हां! यकीन मानो मैं अब बूढ़ा हो चला हूँ...। मैंने भी जब सुना तो एक पल के लिए मुझे भी यकीन नहीं हुआ। भला कौन अपने आप को बूढा और जर्जर कहलाना पसंद करेगा। लेकिन दोस्तों यह हकीकत है, की एक दिन सभी को इस अवस्था में आना पड़ता है। खैर अब मैं बूढ़ा हो चला हूं...। मुझे याद है जब अंग्रेजों के जमाने में सन 1927 से 29 के बीच मेरी शक्ल गढ़ी गई थी। उस जमाने की सरकार के लिए मुझे तैयार कर पाना बड़ी चुनौती थी। मगर,

सुदामा चरित नाटिका (गढवालि भाषा)

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नरोत्तम दास जी से प्रेरित स्टेज मा सुदामा अर वूं कि पत्नी सुशीला टूटीं फूटीं झोपड़ि का भितर बैठ्यां छन। सुशीला कु सुदामा से - (दोहा) हे स्वामी जी कृष्ण तुमारा, बचपन का छन मीत । दीनदयाल छन प्रभु, करिल्या वूं से प्रीत ।। गाना- लय - कैल बजै मुरूली दुःख होयुं च अति भारी, हो स्वामी हथ जोड़िक बिनती । द्वारिका का नाथ स्वामि, कृष्ण जि भगवान । दुःख दरिद्र हरि देंदा दिन दयाल नाम । जावा हो स्वामी जी तुम तख, हथ जोड़िक बिनती । सुदामा कु सुशीला से - गाना, लय - द्वि हजार आठ भादौं का मास । सुण मेरी बामणि प्राण पियारि । समझौंदु त्वेकु तैं मेरि बामणि ।। सुख अर दुःख होंदा जीवन का साथी । भगतौं का मुख से या बात नि स्वांदी । सुशीला कु गाना - सूणा बामण प्राण आधार मि लांदू बिनती , जावा जावा जावा दुं स्वामी कृष्ण जी का पास अन्न का कुठार द्यौला धन का भण्डार । सुदामा - जब तु लगिं च मेरा पैथर कि जा जा जा जाणक, त मि जौलु कृष्ण जी का पास पर ल्याण क्या च? यख त द्वि दाणि चौंळुं कि बि नि । सुशीला - तुम तैयार होवा अर मि पल्या खोळा कि दीदी मुंगे चौंल पैंछा गाड़ी ल्यौंदू । सुशीला स्टेज बटि भैर आ