31 August, 2010
30 August, 2010
भरोसा कू अकाळ
वी पाणि अब कौज्याळ ह्वेगे
जौं जंगळूं कब्बि गर्जदा छा शेर
ऊंकू रज्जा अब स्याळ ह्वेगे
घड़ि पल भर नि बिसरै सकदा छा जौं हम
ऊं याद अयां कत्ति साल ह्वेगे
सैन्वार माणिं जु डांडी-कांठी लांघि छै हमुन्
वी अब आंख्यों कू उकाळ ह्वेगे
ढोल का तणकुला पकड़ी
नचदा छा जख द्यो-द्यब्ता मण्ड्याण मा
वख अब बयाळ ह्वेगे
जौं तैं मणदु छौ अपणुं, घैंटदु छौ जौं कि कसम
वी अब ब्योंत बिचार मा दलाल ह्वेगे
त अफ्वी सोचा समझा
जतगा सकदां
किलै कि
अब,
दुसरा का भरोसा कू त
अकाळ ह्वेगे
Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari
27 August, 2010
सामाजिक हलचलों की 'आस'
बिसराये जाने के दौर में भी गढ़वाली साहित्य के ढंगारों में लगातार पौध रोपी ही नहीं जा रही, बल्कि अंकुरित भी हो रही है। वरिष्ठ साहित्यकार लोकेश नवानी के शब्दों में कहें तो "गढ़वाली कविता कुतगणी च"(कुलांचे भर रही है)। देखे-चरे की खाद-पानी से समय पोथियों में दस्तावेज बनकर दर्ज हो रहे हैं। विचार कविता बन रहे हैं या कहें कविता विचारों में प्रक्षेपित हो रही है। गढ़वाली कविता की नई पौध (किताब) आस से कुछ ऐसी ही अनुभूतियों की आस जगती है। आस कल-आज की सामाजिक हलचलों को जुबां देती है। आस का काव्य शिल्प मुक्तछंदों के साथ ही गुनगुनाकर भी शब्दों को बांचता है। पहले ही पन्ने पर नव हस्ताक्षर शांतिप्रकाश ‘जिज्ञासु’ ने पहाड़ के पीढ़ियों के दर्द पलायन को लक्ष्य कर विकास के बैलून पर हकीकत को ‘स्यूं-सख्त’चुबोया है- पंछ्यूंन ऊं घरूं ऐकी क्या कन्न/ जौं घरूं बैठणू थै चौक नि छन। अपनी बात में भी जिज्ञासु पलायन से उपजी स्थितियों के रेखांकन में ‘टकटकी बांधे’नजरों का जिक्र भर नहीं करते,नाखूनों से शताब्दियों को खोदकर पहाड़ में बगैर औजारों के ही जीवन के लिए ‘समतल’ पैदा करने और वीरानों में जिन्दा रहने के जतन जुगाड़ने वाली पीढ़ियों की आस के रूप में अपनी किताब को देखते हैं। एक डाळ बरखा की ऐगी कविता से अपने साहित्यिक सफर की शुरूआत करने वाले जिज्ञासु की आस में सर्वाधिक प्रखर और व्यंजनापूर्ण मुक्तछंद कविताएं ‘छिटगा’ (क्षणिका) के रूप में दर्ज हुए हैं।
कवि निहितार्थों को नेपथ्य में धकेलकर उम्मीद करता है-लोगुन् बाठा इलै छोड़नी/सड़क बण जाली अब सही/ मिन् बाठा इलै बटैनी/ बिरड़ नि जाऊ क्वी बटोई। यह मानवीय पहलुओं को भी स्पष्ट करता है। पहाड़ के गांवों में थौड़ू (पंचायती आंगन) के ईर्दगिर्द सामाजिक जीवन की हलचल कल तक तो जिंदा थी। लेकिन संवेदना के इस स्पंदन को कवि ने तब तक ही महसूस किया जब तक कि विकास के डोजरों ने वहां पहुंचकर उसे नष्ट नहीं कर दिया था। .....विकास का खातिर गौं मा/ अचणचक बुलडोजर ऐगी/ सड़क त बणगी/ पर वीं सड़क तौळ/ मेरा गौं कु थौड़ू/ कुजणी कख हरचगी।
घास क्षणिका भूगोल के दो हिस्सों की स्थितियों का आंकलन करती है। अक्सर समतल सुविधाओं के लिए जाने जाते हैं। तब भी, घास कु फंचू मुंडमा देखी/ मैं थै पहाड़ै याद ऐगी/ इख भी घास मुंडमा ल्यांण छौ/त मेरा पहाड़म क्या कमी रैगी। वहीं बौळ्या कविता में मां से भावात्मक संबन्धों की प्रगाढ़ता में अहसासों को रूपायित करते हुए कल में झांका .......लोगुन पूछी क्या ह्वै/ तिन आंसू फूंजी बोली/ मेरू नौनु लम्ड गी/ जबकि मि मुल-मुल हैंसणु छौ/ तेरा पल्ला पैथर लुकी तैं/ लोग जाण बैठ-गे छा/ त्वैकु बौळ्या बोली। जब कभी अंधविश्वास रिश्तों की महीन रेखा को चटखाने में कामयाब हो जाते हैं। ऐसे में-बक्या बोन्नू नरसिंग ढुक्यूं गुस्सा हूणै बात नी/ एक दिन भयूं थै भी पूछ ल्या क्वी बात नी च।
पहाड़ बोझ हैं या नियति ने बोझ को ही पहाड़ बना दिया है। यह समझना जरूरी होगा-दनकणां छन जु उन्दरि उन्द/ ऊंका कथगै सारा छन/ जु लग्यां छन उकळी उब्ब/ ऊंकी पीठ्यूं भारा छन। क्योंकि ‘सर्मथ’ने उसे हमेशा विवश किया है। अलग राज्य निर्माण के दिन लगा था कि उत्तराखण्ड के लिए नई सुबह हुई है। आस भी बंधी थी बेतहाशा....। खुशी में माना भी गया- सुर सुर सुसराट हूंण बैठिगे/ चुलंख्यूं मा उदंकार फैलगे/ पंछ्यूं कु चुंच्याट सुणेगी भैर/ हे दीदी ह्वैगी सुबेर। परन्तु अप्रत्याशित आकांक्षाओं ने इतनी तेजी से जन्म लिया कि चकड़ैतों के अलावा हर कोई पूरे आंदोलन को कोश रहा है। तब भी कवि की अपेक्षायें कि-रोट्टी दगड़ी घ्यू न सही लूण हून्दू/ रात दिना रगर्याट मा जरा सकून हून्दू। फलित पर अंग्वाळ मारने वालों के आगे भले ही- बीज मिन भी बूति छा बिजुण्डका/ पर मेरी दां बरखा नि ह्वै/ गिल्ली ह्वैली त् हो कैकी/ मेरी त् सुखीं रै जिन्दगी। हालांकि पहाड़ एक दशक पहले भले ही ‘चन्ट’न रहा हो। लेकिन अबके परिदृश्य में वह प्रधानी से लोकसभा तक होशियार हो चुका है। कब तक बच्यूं रैली कैकी दया सारा/ चन्ट कब हूंण तिन हे निर्बगी छ्वारा।
जिज्ञासु का दर्शन ‘हवस’ को आइना देखाते कहता है - कुछ छुटणै डौर मनमा सुद्दी लगीं रांद/ लिजाण क्या च कफन पर कीसू नि हूंदू। और जैन कै कभी/ पिलै नि पांणी/ किलै छैं वै थैं/ तीस बिंगाणी। से वह समझाना चाहता है कि, धाद लगायी जाय तभी जब धाद सुनी जाय। अन्यथा हासिल से निराश भी होना पड़ सकता है।
लिहाजा शांतिप्रकाश ‘जिज्ञासु’की आस सिर्फ मनोवृत्तियों का ही स्कैच नहीं बनाती। वरन् बदलते जीवनस्तर, रिवाजों, पर्यावरण, प्रेम, लोक और बसन्त के निराश एवं विश्वास के रंगों को भी कविता में शामिल करती है। आस में ग़ज़ल के अंदाज में जोड़ी गई कृतियां जिज्ञासु की बहुविध छवि को प्रकाशित करती है। प्रुफ की काफी त्रुटियों के बावजूद श्रीनगरी बोली के आसपास गढ़ी गई आस के कथानक का शिल्प कहानियां बुनते हुए संवेदनाओं को स्पंदित करता है। वहीं संभावनाओं को भी निराश नहीं छोड़ता।
आस (गढ़वाली काव्य संकलन)
कवि- शांतिप्रकाश ‘जिज्ञासु’
प्रकाशक- धाद प्रकाशन, देहरादून।
मूल्य- 50.00 रू.
समीक्षक- धनेश कोठारी
24 August, 2010
हम त गढ़वळी......
हम त गढ़वळी छां भैजी
दूर परदेस कखि बि
हम तैं क्यांकि शरम
अब त अलग च राज
हमरु अलग च रिवाज
हमरु हिमाला च ताज
देखा ढोल दमौ च बाज
बोली भासा कि पछाण
न्यूत ब्यूंत मा रस्याण
बोला क्यांकि शरम
हम त नै जमान कि ढौळ
पर पछाण त वी च
छाळा गंगा पाणि जन
माना पवित्र बि वी च
दुन्या मा च हमरु मान
हम छां अपड़ा मुल्कै शान
न जी क्यांकू भरम
हम त नाचदा मण्डेण
रंन्चि झमकदा झूमैलो
बीर पंवाड़ा हम गांदा
ख्यलदा बग्वाळ मा भैलो
द्यब्ता हमरि धर्ति मा
हम त धर्ति का द्यब्तौ कि
हां कत्तै नि भरम
ज्यूंद राखला मुल्कै रीत
दूर परदेस कखि बि
नाक नथ बिसार गड़्वा
पौंछी पैजी सजलि तक बि
चदरि सदरि कु लाणु
कोदू झंगोरा कु खाणु
अब कत्तै नि शरम
कै से हम यदि पिछनैं छां
क्वी त हम चै बि पिछनै च
धन रे माटी का सपूत
तिन बि बीरता दिखलै च
हम चा दूर कखि बि रौंला
धर्ति अपड़ी नि बिसरौला
सच्चि हम खांदा कसम
Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari
दूर परदेस कखि बि
हम तैं क्यांकि शरम
अब त अलग च राज
हमरु अलग च रिवाज
हमरु हिमाला च ताज
देखा ढोल दमौ च बाज
बोली भासा कि पछाण
न्यूत ब्यूंत मा रस्याण
बोला क्यांकि शरम
हम त नै जमान कि ढौळ
पर पछाण त वी च
छाळा गंगा पाणि जन
माना पवित्र बि वी च
दुन्या मा च हमरु मान
हम छां अपड़ा मुल्कै शान
न जी क्यांकू भरम
हम त नाचदा मण्डेण
रंन्चि झमकदा झूमैलो
बीर पंवाड़ा हम गांदा
ख्यलदा बग्वाळ मा भैलो
द्यब्ता हमरि धर्ति मा
हम त धर्ति का द्यब्तौ कि
हां कत्तै नि भरम
ज्यूंद राखला मुल्कै रीत
दूर परदेस कखि बि
नाक नथ बिसार गड़्वा
पौंछी पैजी सजलि तक बि
चदरि सदरि कु लाणु
कोदू झंगोरा कु खाणु
अब कत्तै नि शरम
कै से हम यदि पिछनैं छां
क्वी त हम चै बि पिछनै च
धन रे माटी का सपूत
तिन बि बीरता दिखलै च
हम चा दूर कखि बि रौंला
धर्ति अपड़ी नि बिसरौला
सच्चि हम खांदा कसम
Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari
22 August, 2010
21 August, 2010
जलम्यां कु गर्व
गर्व च हम
यिं धरती मा जल्म्यां
उत्तराखण्डी बच्योंण कु
देवभूमि अर वीर भूमि मा
सच्च का दगड़ा होण कु
आज नयि नि बात पुराणी
संघर्षै कि हमरि कहानी
चौंरा मुंडूं का चिंणी भंडारिन्
ल्वै कि गदन्योन् घट्ट रिगैनी
लोधी रिखोला जीतू पुरिया
कतगि ह्वेन पूत-सपूत
ज्यू जानै कि बाजि लगौण कु
गंगा जमुना का मैती छां हम
बदरी-केदार यख हेमकुण्ड धाम
चंद्र सुर कुंजा धारी माता
नन्दा कैलाश लग्यूं च घाम
भैरों नरसिंग अर नागरजा
निरंकार कि संगति च हाम
पांच परयाग हरि हरिद्वार
अपणा पाप बगौण कु
मान सम्मान सेवा सौंळी
प्यार उलार रीत हमरि
धरम ईमान कि स्वाणि सभ्यता
सब्यों रिझौंदी संस्कृति न्यारी
धीर गंभीर अटक-भटक नि
डांडी कांठी शांत च प्यारी
कतगि छविं छन शब्द नि मिलदा
पंवड़ा गीत सुणौण कु
मेलुड़ि गांदि बासदी हिलांस
परदेस्यों तैं लगदी पराज
फूलुं कि घाटी पंवाळी बुग्याळ
ऊंचा हिमाला चमकुद ताज
फ्योंली बुरांस खिलखिल हैंसदा
संगति बस्यूं च मौल्यारी राज
आज अयूं छौं यखमु मि त
पाड़ी मान बिंगौंण कु
Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari
यिं धरती मा जल्म्यां
उत्तराखण्डी बच्योंण कु
देवभूमि अर वीर भूमि मा
सच्च का दगड़ा होण कु
आज नयि नि बात पुराणी
संघर्षै कि हमरि कहानी
चौंरा मुंडूं का चिंणी भंडारिन्
ल्वै कि गदन्योन् घट्ट रिगैनी
लोधी रिखोला जीतू पुरिया
कतगि ह्वेन पूत-सपूत
ज्यू जानै कि बाजि लगौण कु
गंगा जमुना का मैती छां हम
बदरी-केदार यख हेमकुण्ड धाम
चंद्र सुर कुंजा धारी माता
नन्दा कैलाश लग्यूं च घाम
भैरों नरसिंग अर नागरजा
निरंकार कि संगति च हाम
पांच परयाग हरि हरिद्वार
अपणा पाप बगौण कु
मान सम्मान सेवा सौंळी
प्यार उलार रीत हमरि
धरम ईमान कि स्वाणि सभ्यता
सब्यों रिझौंदी संस्कृति न्यारी
धीर गंभीर अटक-भटक नि
डांडी कांठी शांत च प्यारी
कतगि छविं छन शब्द नि मिलदा
पंवड़ा गीत सुणौण कु
मेलुड़ि गांदि बासदी हिलांस
परदेस्यों तैं लगदी पराज
फूलुं कि घाटी पंवाळी बुग्याळ
ऊंचा हिमाला चमकुद ताज
फ्योंली बुरांस खिलखिल हैंसदा
संगति बस्यूं च मौल्यारी राज
आज अयूं छौं यखमु मि त
पाड़ी मान बिंगौंण कु
Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari
प्रीत खुजैई
रीतु न जै रे
प्रीत खुजैई
मेरा मुलकै कि
समोण लिजैई
रीतु न जै रे
फुलूं कि गल्वड़्यों मा
भौंरौं कु प्यार
हर्याळीन् लकदक
डांड्यों कि अन्वार
छोयों छळ्कदु उलार
छमोटु लगैई
ढोल दमो मा
द्यब्तौं थैं न्युति
जसीला पंवाड़ा गैक
मन मयाळु जीति
मंडुल्यों मा नाचि खेलि
आशीष उठैई
बैशाख मैना बौडिन्
तीज त्योहार
घर-घर होलु बंटेणुं
आदर सत्कार
छंद-मंद देखि सर्र
पर्वाण ह्वे जैई
Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari
शैद
उजाड़ी द्या युंका चुलड़ौं
शैद, मौन टुटी जावू
खैंणद्या मरच्वाड़ा युंका
शैद, आंखा खुलि जौंन
रात बासा रौंण न द्या
शैद, सुपन्या टुटी जौंन
बांधि द्या गौळा घंडुळी
शैद, मुसा घौ मौळौंन
थान मा बोगठ्या सिरैद्या
शैद, द्यब्ता तुसि जौंन
कांडु माछा कु गाड़ धौळा
शैद, गंगा का जौ हात औंन
उच्च कंदुड़्यों सुणै छ्विं त लगा
शैद, सच्च-सच्च बाकि जौंन
Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari
शैद, मौन टुटी जावू
खैंणद्या मरच्वाड़ा युंका
शैद, आंखा खुलि जौंन
रात बासा रौंण न द्या
शैद, सुपन्या टुटी जौंन
बांधि द्या गौळा घंडुळी
शैद, मुसा घौ मौळौंन
थान मा बोगठ्या सिरैद्या
शैद, द्यब्ता तुसि जौंन
कांडु माछा कु गाड़ धौळा
शैद, गंगा का जौ हात औंन
उच्च कंदुड़्यों सुणै छ्विं त लगा
शैद, सच्च-सच्च बाकि जौंन
Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari
19 August, 2010
पारंपरिक मिजाज को जिंदा रखे हुए एक गांव..
हेरिटेज विलेज माणा
हिमालयी दुरूहताओं के बीच भी अपने सांस्कृतिक व पारंपरिक मिजाज को जिंदा रखे हुए एक गांव...
हिमालय लकदक बर्फ़ीले पहाड़ों, साहसिक पर्यटक स्थलों व धार्मिक तीर्थाटन केन्द्र के रूप में ही नहीं जाना जाता। अपितु, यहां सदियों से जीवंत मानव सभ्यता अपनी सांस्कृतिक जड़ों को गहरे तक सहेजे हुए हैं। चकाचौंध भरी दुनिया में छीजते पारम्परिक मिजाज के बावजूद आज भी यहां पृथक जीवनशैली, रीति-रिवाज, परंपरायें, बोली-भाषा और संस्कृति का तानाबाना अपने सांस्कृतिक दंभ को आज भी जिंदा रखे हुए है। कुछ ऐसा ही अहसास मिलता है, जब हम भारत के उत्तरी सीमान्त गांव ‘माणा’ में पहुंचते हैं। जोकि आज वैश्विक मानचित्र पर ‘हेरिटेज विलेज’ के रूप में खुद को दर्ज करा चुका है।विश्व विख्यात आध्यात्मिक चेतना के केन्द्र श्री बदरीनाथ धाम से महज तीन किमी. आगे है सीमांत गांव माणा। माणा अर्थात मणिभद्र्पुरम। पौराणिक संदर्भों में इस गांव को इसी नाम से जाना जाता है। धार्मिक इतिहास में मणिभद्रपुरम को गंधर्वों का निवास माना जाता था। आज के संदर्भों में देखे तो माणा गांव सीमांत क्षेत्र होने के साथ ही विषम भौगौलिक परिस्थितियों में जीवटता की पहचान अपने में सहेजे हुए है। भारत-चीन आक्रमण के दौर में इस गांव के लोगों ने भारतीय सैनिकों के साथ भरपूर साहस का परिचय दिया था। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने अपने तत्कालीन कार्यकाल में बदरीनाथ यात्रा के दौरान माणा गांव पहुंचकर उनकी जीवटता की सराहना की थी।
चीनी आक्रमण से पूर्व तक माणा व तिब्बत के बीच व्यापारिक व सांस्कृतिक संबन्ध गहरे थे। आज भी माणा के कुछ घरों में बुजुर्गों के द्वारा भारत-तिब्बत व्यापार से जुड़ी वस्तुएं सहेजी हुई हैं। जिन्हें देखकर भारत व तिब्बत के मध्य के सांस्कृतिक संबन्धों की पुष्टि हो जाती है। यह भी माना जाता है कि, माणा के वाशिंदों के सामाजिक तानेबाने, वेशभूषा व बोली-भाषा पर तिब्बत का काफ़ी प्रभाव रहा है। यहां ‘रंङपा’ जनजातिय लोगों की वसायत मौजुद है। शाब्दिक अर्थों में रंङपा यानि कि ‘घाटी में रहने वाले लोग’। वर्तमान में रंङपा को रोंग्पा भी उच्चारित किया जाता है।
लगभग तीन हजार की आबादी वाले इस गांव में जिन्दगी हर साल ग्रीष्मकाल में ही आबाद होती है। वर्ष के शेष छह माह ये लोग गोपेश्वर, घिंघराण, सिरोखुमा, सैटुणा आदि इलाकों में अपना ठौर जमाते हैं, या कहें कि, ऋतुओं के परिवर्तन के साथ ही इनके घर भी बदलते रहते हैं, और खानाबदोशी जैसा यह सिलसिला आज भी अनवरत जारी है।
यहां के पितृ सत्तात्मक समाज में भी महिलायें जितनी कुशलता के साथ अपने घर-परिवारों की जिम्मेदारियों के अहम किरदारों में जुटी रहती हैं। उतनी ही शिद्दत से वे अपने पारंपरिक उद्यमों को भी कारगर रखे हुए हैं। यहां तक कि पंचायत राज प्रणाली के चलते अब उनकी भूमिका नेतृत्वकारी भी हो चुकी है। आज श्रीमती गायत्री मोल्फा माणा की पहली प्रधान निर्वाचित होकर गांव की बागडोर संभाले हुए है।
इनके उद्यमों में हस्तशिल्प प्रमुख है। जिसमें प्राकृतिक रंगों, दृश्यों व भूगोल का समावेश बरबस ही जीवंत हो उठता है। बात ऊनी कपड़ों, शाल, दरियों, पंखी, दन, कालीन, कंबल, स्वेटर व पूजा आसन आदि के निर्माण की हो या खेती से जुड़ी कास्तकारी की, सभी में उच्च व मध्य हिमालय की दुरूहताओं के बीच मेहनत- मशक्कत की गाढ़ी खुबसुरती भी साफ़ झलकती है। इसी की बदौलत अब माणा घाटी में नकदी फसलों का उत्पादन भी जोरों पर होता है। जिनमें हरी सब्जियां, गोभी, मटर, मूली, धनिया और फाफर की ताजी फसल रोज ही बदरीनाथ व जोशीमठ के बाजारों में पहुंचती है। आने वाले वक्त में यही फसलें बाजार की मांग के अनुरूप आपूरित होकर गांव की आर्थिकी की संभावनाओं पर खरी साबित हो सकती हैं।
सीमांत गांव होने के बावजूद यह मान लेना कि यह हिमालयी समाज अपने पारंपरिक उद्यमों के बूते ही जिंदा है, ऐसा भी नहीं। जब ग्लोबल हो जाने की चाह हर तरफ़ ठाठें मार रही हो तो भला यह समाज भी क्यों नहीं अपने को आधुनिकता में समाविष्ट करेगा। निश्चित ही अपने सांस्कृतिक वेश को सहेजकर ‘रोंग्पा’ आधुनिक समाज का हमकदम होने का मादा खुद में बटोर चुके हैं। उत्तराखण्ड में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में इनका उल्लेखनीय मुकाम इस बात को साबित भी करता है। आज शिक्षा के दृष्टिगत माणा के वाशिन्दे ७४ प्रतिशत से ज्यादा साक्षर हैं। यही वजह है कि यहां के युवा पारंपरिक मिजाज से इतर आधुनिकता की तरफ भी सहज ही बढ़े हैं। उनमें स्टाइलिश लिबासों का क्रेज भी कमतर नहीं। हालांकि बुजुर्ग अब भी ऊनी कोट, लावा, पायजामा, टोपी व कमरबंध के साथ अपने समाज की पृथक पहचान को कायम रखे हुए हैं। तो दूसरी तरफ घरों की छतों पर टिके डिश एन्टीना बताते हैं कि, वे देश-दुनिया की रफ़्तार में जुड़ने में भी पीछे नहीं।
उच्च-मध्य हिमालय में दस हजार पांच सौ फीट पर जिन्दगी का सफ़र आसान नहीं होता है। लेकिन रंङपा मूल के लोगों की मौजुदगी उनके साहस की गवाह है। शायद उनकी हिम्मत की एक वजह यह भी है कि, हिमालय के कई रोमांचकारी शिखरों का रास्ता माणा से होकर ही जाता है। यहां से भारत-तिब्बत सीमा का आखिरी छोर मानापीक, चौखंबा, कामेट, नीलकंठ पर्वत, देवताल, राक्षसताल, मुच्कुन्द गुफा, वासुदेव गुफा के साथ ही पांडवों के अंतिम प्रयाण का मार्ग सतोपंथ, स्वर्गारोहणी, लक्ष्मी वन, सूर्यकुण्ड, चंद्रकुण्ड, आनन्द वन व पंचनाग मंदिर का रास्ता आरंभ होता है, तो पौराणिक नदी सरस्वती यहां साक्षात अविरल बहकर विष्णुपदी अलकनन्दा से केशवप्रयाग में एकाकार हो जाती है। यहीं से पांच किमी. आगे उत्तर की ओर है वसुधारा जलप्रपात। जोकि लगभग दो सौ मीटर की ऊंचाई से गिरते हुए चटख धूप खिलने पर सतरंगी छटा बिखेरता है।
माणा का अपना धार्मिक मिजाज भी समृद्ध है। धर्म के प्रति निष्ठा का ही उदाहरण है कि, बदरीनाथ भगवान के क्षेत्रपाल (भू-रक्षक) घंटाकर्ण देव भोटिया जनजाति के आराध्य हैं। जिनके प्रति असीम आस्था के वशीभूत हर वर्ष यहां लोकोत्सव का आयोजन किया जाता है। बदरी धाम की परंपराओं के तह्त इसी जाति की कन्याओं के द्वारा भगवान के लिए गर्म ऊनी चादर को बुना जाता है, जिसे शीतकाल के लिए भगवान की मूर्ति पर घृत लेपन कर ओढ़ा जाता है। मंदिर के कपाटोद्घाट्न के अवसर पर इसी चादर के टुकड़ों को श्रद्धालुओं में प्रसाद के रूप में बांटा जाता है।
आज दुनिया के नक्शे पर ‘हेरिटेज विलेज’ के रूप में शिरकत कर चुके माणा गांव की जमीं पर यदि पर्यटन विकास के लिए प्रस्तावित योजनायें साकार हुई तो बदरीनाथ के साथ ही माणा देश-दुनिया के पर्यटकों को आकर्षित करने में और इस सीमांत हिस्से की आर्थिकी के लिए भी काफ़ी अहम साबित होगा।
Copyright - धनेश कोठारी
Copyright - धनेश कोठारी
इस दौर की ‘फूहड़ता’ में साफ सुथरी ऑडियो एलबम है ‘रवांई की राजुला’
नवोदित भागीरथी फिल्मस ने ऑडियो एलबम ‘रवांई की राजुला’ की प्रस्तुति के जरिये पहाड़ी गीत-संगीत की दुनिया में अपना पहला कदम रखा। विनोद बिजल्वाण व मीना राणा की आवाज में लोकार्पित इस एलबम से विनोद ‘लोकगायक’ होने की काबिलियत साबित करते हैं। कैसेट में संगीत वीरेन्द्र नेगी है, जबकि गीत स्वयं विनोद ने ही रचे हैं।
विनोद अपने पहले ही गीत ‘बाड़ाहाट मेळा’ में ‘लोक’ के करीब होकर रवांई के सांस्कृतिक जीवन पर माघ महिने के असर को शब्दाकिंत करते हैं। जब ‘ह्यूंद’ के बाद ऋतु परिवर्तन के साथ ही रवांई का ग्राम्य परिवेश उल्लसित हो उठता है। बाड़ाहाट (उत्तरकाशी) का मेला इस उल्लास का जीवंत साक्ष्य है। जहां लोग ‘खिचड़ी संगरांद’ के जरिये न सिर्फ नवऋतु का स्वागत करते हैं,
बल्कि उनके लिए यह मौका अपने इष्टदेवों के प्रति आस्थाओं के अर्पण का भी होता है। रांसो व तांदी की शैली में कैसेट का पहला गीत सुन्दर लगता है। यों ‘ढफ’ पहाड़ी वाद्य नहीं, फिर भी इस गीत में ढफ का प्रयोग खुबसुरत लगता है।
बल्कि उनके लिए यह मौका अपने इष्टदेवों के प्रति आस्थाओं के अर्पण का भी होता है। रांसो व तांदी की शैली में कैसेट का पहला गीत सुन्दर लगता है। यों ‘ढफ’ पहाड़ी वाद्य नहीं, फिर भी इस गीत में ढफ का प्रयोग खुबसुरत लगता है।
ढोल-दमौऊं की बीट पर रचा एलबम का दूसरा गीत ‘ऋतु बसन्त’ पहाड़ों पर बासन्तिय मौल्यार के बाद की अन्वार का चित्रण है। ऐसे में पहाड़ों की नैसर्गिक सौंदर्य के प्रति ‘उलार’ उमड़ना स्वाभाविक ही है। ‘स्वर’ के निर्धारण में बढ़े हुए स्केल का चयन अखरता है। हां यह गीत रचना के लिहाज से निश्चित ही उमदा है। कई बार खुद को प्रस्तुत करने की ‘रौंस’ में कलाकार लय की बंदिशों को भी अनदेखा कर डालता है। ‘सुरमा लग्यूं छ’ में विनोद ने भी यही भूल की है। क्योंकि नई पीढ़ी के माफिक इस गीत में गुंजाइशें काफी थी। चौथा गीत ‘मेरा गौं का मेळा’ सुनकर अनिल बिष्ट के गाये गीत ‘ओ नीलिमा नीलिमा’ याद हो उठता है। कुछ-कुछ धुन, शब्दों व शैली का रिपीटेशन इस गीत में भी हुआ है। शीर्षक गीत होने पर भी इसमें रवांई की छवि गायब है। कैसेट का पांचवां गीत ‘माता चन्द्रबदनी’ की वन्दना के रूप में भगवती के पौराणिक आख्यानों को प्रकाशित कर देवयात्रा का आह्वान करता है। यह रचना उत्तराखण्ड प्रदेश में धार्मिक पर्यटन की संभावनाओं को भी सामने रखती है।
अतिरेक हमेशा प्रेम पर हावी होता है। ‘तेरी सुरम्याळी आंखी’ में भी प्रेम की जिद और उस पर न्यौछावर होने की चाहत गीत का भाव है। जहां बांका मोहन से मन की प्यारी राधा का नेह मोहक है। अधिकांश साफ-सुथरा होने बावजूद गीत के बीच में एक जगह ‘हाय नशीली ज्वानि’ का शब्दांकन इसके सौंदर्य पर दाग लगाता है। गीतकार को इससे बचने की कोशिश करनी चाहिए।
सुरूर पर यदि साकी का नशा तारी हो जाये तो उकताट, उतलाट बुरा भी नहीं। कुछ इसी अंदाज को बयां करता ‘फूली जाला आरू’ गीत रांसो ताल मे सुन्दर बना है। हालांकि यहां हुड़का अपने पारम्परिक कलेवर से जुदा है। नेपाली शैली में गिटार के बेहतर स्ट्रोक और धुन के लिहाज से विनोद के मिजाज से बिलकुल जुदा, कैसेट के आखिरी में शामिल ‘कै गौं की छैं तु छोरी’ गीत एलबम के शुरूआती दो गीतों के साथ तीसरी अच्छी प्रस्तुति है। कोरस के स्वरों में ‘हो दाज्यू’ का उद्घोष कर्णप्रिय है। इस गीत में विनोद ने अपने वास्तविक ‘स्वर’ का प्रयोग किया है।
पूरे गीत संकलन के निष्कर्ष में यही निकलता है कि ‘रवांई की राजुला’ में विनोद जहां तुकबन्दी के लिए नये छंदों को तलाशने में कमजोर दिखे हैं तो, अधिकांश गीतों में ‘आटो टोन’ का प्रयोग गीत और श्रोता के बीच के प्रवाह को भी नीरस बनाता है। हालांकि इस दौर की ‘फूहड़ता’ में ‘रवांई की राजुला’ साफ सुथरी एलबम है। जिसका श्रेय विनोद के साथ ही नवोदित भागीरथी फिल्मस् को भी दिया जाना चाहिए।
Review By - Dhanesh Kothari
15 August, 2010
युद्ध में पहाड़
मेरे देश का सैनिक
पहाड़ था पहाड़ है
टूट सकता है
झुक नहीं सकता
उसकी अभिव्यक्ति/ उसकी भक्ति
उसका साहस/ उसकी शक्ति
उसकी वीरता/ उसका शौर्य
उसका कौशल/ उसका धैर्य
और प्ररेणा भी पहाड़ है
बैरी के समक्ष
एक और समान्तर पहाड़
रंचने को तत्पर वह
उसको आत्म बलिदान का सबक
पूर्वजों ने घुट्टी में ही दिया था
राष्ट्र के लिए
मर मिटने का अर्न्तभाव
रक्त कणिकाओं में अकुलाहट
युद्ध के समय
मनस्वाग बना डालती हैं उसे
फिर कैसे
झुटला सकते हो
विरासत की अन्त: प्रेरणा को
आज वह पहाड़ बना है
तो, राष्ट्रीय धमनियों का
कतरा-कतरा भी
पहाड़ बनने का आह्वान करता है
Copyright@ Dhanesh Kothari
14 August, 2010
मुट्ठियों को तान दो
मुट्ठियां भींचो मगर
मुट्ठियों में लावा भरकर
मुट्ठियों को तान दो
दुर व्यवस्था के खिलाफ़
इस हवा को रूद्ध कर दो
मुट्ठियां विरूद्ध कर दो
अराजक वितान में. तुम
मुट्ठियों को तान दो
वाद वादी की खिलाफ़त
छद्धम युद्धों से बगावत
मुट्ठियों की है जुर्रत
मुट्ठियों को तान दो
सवाल दर सवालों के
जवाब होंगी मुट्ठियां
हाथ फ़ैला मिले न हक
मुट्ठियां लहरा के खुद
उसके हलक से खींच लो
मुट्ठियों को तान दो
बात मानें शब्दों की तो
शब्द भर दो मुट्ठियों में
हर शाख उल्लू बैठा हो जब
हथियार थामों मुट्ठियों में
जिंदादिल हैं मुट्ठियां
मुट्ठियों को तान दो
आवाज दो आवाज दो
मुट्ठियों को तान दो
Copyright@ Dhanesh Kothari
आवाज
तुम्हारे शब्द
मेरे शब्दों से मिलते हैं
हमारा मौन टुटता
नजर भी आता है
वो तानाशाह है
हमारी देहरी पर
हम अपनी मांद से निकलें
तो बात बन जाये
वो देखो आ रही हैं
बुटों बटों की आवाजें
म्यान सहमी है
सान चढ़ती तलवारें
मुट्ठियां भींच कर लहरायें
तो देखो
कारवां बन जाये
चंद मोहरों की चाल टेढ़ी है
प्यादे गुमराह कत्ल होते हैं
शह की हर चाल
रख के देखो तो
मात निश्चित
उन्हीं की हो जाये
तुम्हारे शब्द...........।
Copyright@ Dhanesh Kothari
13 August, 2010
गैरसैंण राजधानी ???
उत्तराखण्ड की जनसंख्या के अनुपात में गैरसैंण राजधानी के पक्षधरों की तादाद को वोट के नजरिये से देखें तो संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता है। क्योंकि दो चुनावों में नतीजे पक्ष में नहीं गये हैं। सत्तासीनों के लिए यह अभी तक ’हॉट सबजेक्ट’ नहीं बन पाया है। आखिर क्यों? लोकतंत्र के वर्तमान परिदृश्य में ’मनमानी’ के लिए डण्डा अपने हाथ में होना चाहिए। यानि राजनितिक ताकत जरूरी है। राज्य निर्माण के दस साला अन्तराल में देखें तो गैरसैण के हितैषियों की राजनितिक ताकत नकारखाने में दुबकती आवाज से ज्यादा नहीं। कारणों को समझने के लिए राज्य निर्माण के दौर में लौटना होगा।
शर्मनाक मुजफ़्फ़रनगर कांड के बाद ही यहां मौजुदा राजनितिक दलों में वर्चस्व की जंग छिड़ चुकी थी। एक ओर उत्तराखण्ड संयुक्त संघर्ष समिति में यूकेडी और वामपंथी तबकों के साथ कांग्रेसी बिना झण्डों के सड़कों पर थे, तो दूसरी तरफ भाजपा ने ’सैलाब’ को अपने कमण्डल भरने के लिए समान्तर तम्बू गाड़ लिये थे। जिसका फलित राज्यान्दोलन के शेष समयान्तराल में उत्तराखण्ड की अवाम खेमों में ही नहीं बंटी बल्कि चुप भी होने लगी थी। उम्मीदें हांफने लगी थी, भविष्य का सूरज दलों की गिरफ्त में कैद हो चुका था। ठीक ऐसे वक्त में केन्द्रासीन भाजपा ने राज्य बनाने की ताकीद की, तो विश्वास बढ़ा अपने पुराने ’खिलकों’ पर ’चलकैस’ आने का। किन्तु भ्रम ज्यादा दिन नहीं टिका। सियासी हलकों में ’आम’ की बजाय ’खास’ की जमात ने ’सौदौं की व्यवहारिकता’ को ज्यादा तरजीह दी। नतीजा आम लो़गों की जुबान में कहें तो "उत्तराखण्ड से उप्र ही ठीक था"।
इतने में भी तसल्ली होती उन्हें तो कोई बात नहीं राज्य निर्माण की तारीख तक आते-आते भाजपा ने राज्य की सीमाओं को च्वींगम बना डाला। अलग पहाड़ी राज्य के सपने को बिखरने की यह पहली साजिश मानी जाती है। आधे-अधूरे मन से ’प्रश्नचिह्नों’ पर लटकाकर थमा दिया हमें ’उत्तरांचल’। यों भी भाजपा पहले भी पृथक राज्य की पक्षधर नहीं थी। नब्बे दशक तक इस मांग को देशद्रोही मांग के रूप में भी प्रचारित किया गया। दुसरा, तब उसे उत्तराखण्ड को पूर्ण पहाड़ी राज्य बनाना राजनितिक तौर पर फायदेमन्द नहीं दिखा। शायद इसलिए कि पहाड़ की मात्र चार संसदीय सीटें केन्द्र के लिहाज से अहमियत नहीं रखती थी। आज के हालातों के लिए सिर्फ़ भाजपा ही जिम्मेदार है यह कहना कांग्रेस और यूकेडी का बचाव करना होगा। आखिर उसके पहले मुख्यमंत्री ने भी तो ’लाश पर’ राज्य बनाने की धमकी दी थी। उसने भी तो अपने पूरे कार्यकाल में ’सौदागरों’ की एक नई जमात तैयार की। जिसे गैरसैण से ज्यादा मुनाफ़े से मतलब है।
इन दिनों गढ़वाल सांसद सतपाल महाराज ने गैरसैण में बिधानसभा बनाने की मांग कर और इसके लिए क्षेत्र में सभायें जुटाकर भाजपा और यूकेडी में हलचल पैदा कर दी है। नतीजा की राजधानी आयोग की रिपोर्ट दबाकर बैठी निशंक सरकार ने इस मसले पर सर्वदलीय पंचायत बुलाने का शिगूफ़ा छोड़ दिया है। इन हलचलों को ईमानदार पहल मान लेना शायद जल्दबाजी के साथ भूल भी होगी। क्योंकि यह कवायद मिशन २०१२ तक पहाड़ को गुमराह करने तक ही सीमित लगती है। महाराज गैरसैण में राजधानी निर्माण करने की बजाय सिर्फ़ बिधानसभा की ही बात कर रहे हैं। तो उधर उनके राज्याध्यक्ष व प्रतिपक्ष गैरसैण में बिधानसभा पर भी मुंह नहीं खोल रहे हैं। ऐसे में क्या माना जाय? यूकेडी ने नये अध्यक्ष को कमान सौंपी है। वे गैरसैण राजधानी के पक्षधर भी माने जाते है। लेकिन क्या वे सत्ता के साझीदार होकर राजधानी निर्माण के प्रति ईमानदार हो पायेंगे?
गैरसैण के बहाने उत्तराखण्ड की एक और तस्वीर को भी देखें। जहां सत्ता ने सौदागरों की फौज खड़ी कर दी है। वहीं गांवों से वार्डों तक नेताओं की जबरदस्त भर्ती हुई है। जो अपने खर्चे पर विदेशों तक से वोट बुलाकर घोषित ’नेता’ बन जाना चाहते हैं। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि बीते पंचायत चुनाव में ५५००० से ज्यादा लोग ’नेता’ बनना चाहते थे। अब यदि इस राज्य में ५५००० लोग जनसेवा के लिए आगे आये तो गैरसैण जैसे मसले पर हमारी चिन्तायें फिजुल हैं। लेकिन ये फौज वाकई जनसेवा के लिए अवतरित हुई है यह हालातों को देखकर समझा जा सकता है।
सर्वाधिकार - धनेश कोठारी
12 August, 2010
बसन्त
बसन्त
हर बार चले आते हो
ह्यूंद की ठिणी से निकल
गुनगुने माघ में
बुराँस सा सुर्ख होकर
बसन्त
दूर डांड्यों में
खिलखिलाती है फ्योंली
हल्की पौन के साथ इठलाते हुए
नई दुल्हन की तरह
बसन्त
तुम्हारे साथ
खेली जाती है होली
नये साल के पहले दिन
पूजी जाती है देहरी फूलों से
और/ हर बार शुरू होता है
एक नया सफर जिन्दगी का
बसन्त
तुम आना हर बार
अच्छा लगता है हम सभी को
तुम आना मौल्यार लेकर
ताकि
सर्द रातों की यादों को बिसरा सकूं
बसन्त तुम आना हर बार॥
सर्वाधिकार- धनेश कोठारी
नन्हें पौधे
प्लास्टिक की थैलियों में उगे
नन्हें पौधे
आपकी तरह ही
युवा होना चाहते हैं
दशकों के बाद
बुढ़ा जाने की नहीं चिन्ता उन्हें
चुंकि, तब तक कई मासूमों को
जन्म दे चुके होंगे वे
दे चुके होंगे
हवा, पानी, लकड़ी, जीवन
और दुसरों के लिए
जीने की सोच.....
तनों को मजबूत करने को
जड़ों को गहरे जमाने की सीख.....
अवसाद को सोखने का जज्बा
क्या इतना काफ़ी नहीं है
एक पेड़ लगाने की वजह
सर्वाधिकार - धनेश कोठारी
पहाड़ आवा
हमरि पर्यटन कि
दुकानि खुलिगेन
पहाड़ आवा
हमरि चा कि दुकान्यों मा
‘तू कप- टी’ बोली जावा
पहाड़ आवा
हमरा गुमान सिंग रौतेल्लौं
डालर. ध्यल्ला, पैसा दे जावा
पहाड़ आवा
पहाड़ पर घास लौंदी
मनख्यणि कु फ़ोटो खैंचि जावा
पहाड़ आवा
देव धामूं मा द्यब्ता हर्चिगेन
पांच सितारा जिमी जावा
पहाड़ आवा
परर्कीति पर बगच्छट्ट ह्वेकि
कचरा गंदगी फ़ोळी जावा
पहाड़ आवा
हम लमडि छां
बौगि छां
रौड़ि छां/ तुम
कविलासुं मा घिस्सा- रैड़ि
रंगमतु खेलि जावा
पहाड़ आवा
Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari
दुकानि खुलिगेन
पहाड़ आवा
हमरि चा कि दुकान्यों मा
‘तू कप- टी’ बोली जावा
पहाड़ आवा
हमरा गुमान सिंग रौतेल्लौं
डालर. ध्यल्ला, पैसा दे जावा
पहाड़ आवा
पहाड़ पर घास लौंदी
मनख्यणि कु फ़ोटो खैंचि जावा
पहाड़ आवा
देव धामूं मा द्यब्ता हर्चिगेन
पांच सितारा जिमी जावा
पहाड़ आवा
परर्कीति पर बगच्छट्ट ह्वेकि
कचरा गंदगी फ़ोळी जावा
पहाड़ आवा
हम लमडि छां
बौगि छां
रौड़ि छां/ तुम
कविलासुं मा घिस्सा- रैड़ि
रंगमतु खेलि जावा
पहाड़ आवा
Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari
चुसणा मा.......
बस्स
बोट येक दे ही द्या
हात ज्वड़्यां खुट्टम् प्वड़दां
बक्कै बात हमुन जाणि
किलै कि/ भोळ् त
चुसणा मा
अबि तलक पैटै अथा च
हौर बोला हांगु भोरा
बांटी चुंटी खै, क्य बुरू
तुम जनै नि पौंछी
हमरि भौं
चुसणा मा
रंग्यु स्याळ् आज रज्जा
रंगदारा बि त तुम छां
चित्तबुझौ ह्वां-ह्वां त कर्दा
तब्बि तुम अधीता/ त
चुसणा मा
जरनलुं का जुंगा ताड़ा
भरोसु इथगा कम त नि च
लेप्प रैट आज हमरि
भोळ् तुमरि/ गै
चुसणा मा
पांच सालौ चा त ‘गैर’
हम्मुं पुछा, सैंणा मा हम
भाग जोग सबुं अपड़ु
उकाळ् चड़दा तुम/ त
चुसणा मा
‘बत्ती’ बतुला हमरा ट्वपला
लाठी लठैत हमरा झगुला
अब चुप!!!
अर
भौं-भौं बि करिल्या/ त
चुसणा मा
चीर हात द्रोपदा कु
खैंचा ताणि हमुन् जाणिं
ग्वालों का छां, ग्वोलौं का छां, हम
कृष्ण तुम/ त
चुसणा मा
Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari
बोट येक दे ही द्या
हात ज्वड़्यां खुट्टम् प्वड़दां
बक्कै बात हमुन जाणि
किलै कि/ भोळ् त
चुसणा मा
अबि तलक पैटै अथा च
हौर बोला हांगु भोरा
बांटी चुंटी खै, क्य बुरू
तुम जनै नि पौंछी
हमरि भौं
चुसणा मा
रंग्यु स्याळ् आज रज्जा
रंगदारा बि त तुम छां
चित्तबुझौ ह्वां-ह्वां त कर्दा
तब्बि तुम अधीता/ त
चुसणा मा
जरनलुं का जुंगा ताड़ा
भरोसु इथगा कम त नि च
लेप्प रैट आज हमरि
भोळ् तुमरि/ गै
चुसणा मा
पांच सालौ चा त ‘गैर’
हम्मुं पुछा, सैंणा मा हम
भाग जोग सबुं अपड़ु
उकाळ् चड़दा तुम/ त
चुसणा मा
‘बत्ती’ बतुला हमरा ट्वपला
लाठी लठैत हमरा झगुला
अब चुप!!!
अर
भौं-भौं बि करिल्या/ त
चुसणा मा
चीर हात द्रोपदा कु
खैंचा ताणि हमुन् जाणिं
ग्वालों का छां, ग्वोलौं का छां, हम
कृष्ण तुम/ त
चुसणा मा
Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari
11 August, 2010
10 August, 2010
सोरा
सोरा भारा कैका ह्वेन
जैंन माणिं सि बुसेन
कांद लगै उकाळ् चढै़
तब्बि छाळों पर घौ लगैन
दिन तौंकु रात अफ्वु कु
इतगि मा बि मनस्वाग ह्वेन
अपड़ा डामि सी मलास्या
अधिता मन तब्बि नि भरेन
स्याणि मारिन भारा सारिन
निसकौं कु तब्बि भारी ह्वेन
सम्मु हिटिन बालिस्त नापिक
अजाड़ बल नाचि नि जाणि
स्याणि टर्कि रस्याण सौंरि
बाजिदौं उपरि गणेन
Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari
जैंन माणिं सि बुसेन
कांद लगै उकाळ् चढै़
तब्बि छाळों पर घौ लगैन
दिन तौंकु रात अफ्वु कु
इतगि मा बि मनस्वाग ह्वेन
अपड़ा डामि सी मलास्या
अधिता मन तब्बि नि भरेन
स्याणि मारिन भारा सारिन
निसकौं कु तब्बि भारी ह्वेन
सम्मु हिटिन बालिस्त नापिक
अजाड़ बल नाचि नि जाणि
स्याणि टर्कि रस्याण सौंरि
बाजिदौं उपरि गणेन
Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari
09 August, 2010
बणिगे डाम
१
बणिगे डाम
लगिगे घाम
प्वड़िगे डाम
मिलिगेन दाम
२
सिद्ध विद़द
खिद्वा गिद्ध
उतरिगेन लांकि मान
३
सैंन्वार खत्म
सीढ़ी शुरू
उकाळ उंदार
घुम कटै
४
जुल्म संघर्ष
हर्ष विमर्श
समैगे अब समौ
५
स्वाद स्याणि
तिलक छींटू
पाणि पाणि
हे राम
६
ब्याळी आज
आज भोळ
डुब डुब
मिलिगे दाम
Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari
बणिगे डाम
लगिगे घाम
प्वड़िगे डाम
मिलिगेन दाम
२
सिद्ध विद़द
खिद्वा गिद्ध
उतरिगेन लांकि मान
३
सैंन्वार खत्म
सीढ़ी शुरू
उकाळ उंदार
घुम कटै
४
जुल्म संघर्ष
हर्ष विमर्श
समैगे अब समौ
५
स्वाद स्याणि
तिलक छींटू
पाणि पाणि
हे राम
६
ब्याळी आज
आज भोळ
डुब डुब
मिलिगे दाम
Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari
याद आली टिहरी
याद आली टिहरी
हिमालयन फिल्मस् की गढ़वाली फिल्म ‘याद आली टिहरी’ ऐतिहासिक टिहरी बांध की पृष्ठभूमि में विस्थापित ‘लोकजीवन’ के अनसुलझे सवालों की पड़ताल के साथ - साथ बांधों से जुड़े जोखिमों, जरूरतों और औचित्य पर बहस जुटाने की कोशिश निश्चित करती है।
फिल्म की कहानी दिल्ली में नवम्बर 2005को अखबारों के पहले पन्ने पर टिहरी डुबने की बैनर न्यूज से शुरू होती है। जहां से प्रवासी उद्योगपति राकेश सकलानी डुबते टिहरी की ‘मुखजातरा’ को लौटता है। अट्ठारह वर्ष पहले वह अपनी मां की मौत और प्रेमिका से बिछुड़ने के बाद टिहरी से दिल्ली चला गया था। लौटने पर उसे ‘चौं-छ्वड़ी’ भरती झील में अपने हिस्से (लोक) का इतिहास, भूगोल, संस्कृति, जन-आस्था, विश्वास और जैव संपदा डुबती नजर आती है। इसी के बीच खुलती है उसकी यादों की गठरी, झील में तैरते दिखते हैं उसे कई अनुत्तरित प्रश्न, छितरे हुए अपने ‘लोक’ के रिश्ते। मौन स्वरों में सुनाई देते हैं उसे माँ के जरिये विस्थापन से उपजने वाली पीड़ा के कराहते शब्द, प्रेमिका सरिता के साथ बिताये खुशी के पल और बिछड़ने की वजहें।
डुबती टिहरी भले ही दुनियावी तमाशबीनों के लिए रोमांचक घटना रही हो। लेकिन राकेश के चश्में के दोनों लैंसों से अलग-अलग देखें तो बढ़ती आबादी की विद्युतीय आवश्यकताओं के लिए बांध विकल्प के तौर पर उभरता है, तो दूसरा- बस्तियों के उजड़ने की त्रासद घटनाओं का साक्षी भी बनता है बांध। जिसमें सिर्फ जमीन ही जल समाधि नहीं लेती; बल्कि मानवीय रिश्ते भी ‘पहाड़’ से ‘मैदान’ होकर रह जाते हैं। इन मैदानों में न पिपली के ओजलदास का ढोल सुनाई देता है, न मैधर की बनायी ‘सिंगोरी’, न रैठू की पकोड़ी का स्वाद, न अमरशाह की नथ की खूबसूरत गढ़थ, न हफीजन फूफू की कलाईयां सजाती चुड़ियां और न सरैं के रामू का घोड़ा मिलता है। जो दुनिया के लिए एंटिक न भी रहे हों। लेकिन टिहरी डुबने तक इस ‘लोक’ की पहचान अवश्य रहे हैं।
डुबती टिहरी भले ही दुनियावी तमाशबीनों के लिए रोमांचक घटना रही हो। लेकिन राकेश के चश्में के दोनों लैंसों से अलग-अलग देखें तो बढ़ती आबादी की विद्युतीय आवश्यकताओं के लिए बांध विकल्प के तौर पर उभरता है, तो दूसरा- बस्तियों के उजड़ने की त्रासद घटनाओं का साक्षी भी बनता है बांध। जिसमें सिर्फ जमीन ही जल समाधि नहीं लेती; बल्कि मानवीय रिश्ते भी ‘पहाड़’ से ‘मैदान’ होकर रह जाते हैं। इन मैदानों में न पिपली के ओजलदास का ढोल सुनाई देता है, न मैधर की बनायी ‘सिंगोरी’, न रैठू की पकोड़ी का स्वाद, न अमरशाह की नथ की खूबसूरत गढ़थ, न हफीजन फूफू की कलाईयां सजाती चुड़ियां और न सरैं के रामू का घोड़ा मिलता है। जो दुनिया के लिए एंटिक न भी रहे हों। लेकिन टिहरी डुबने तक इस ‘लोक’ की पहचान अवश्य रहे हैं।
यादों में अपने पैतृक जमीन से गुजरते हुए राकेश को माँ के साथ अपना खेल्वार (खेलता हुआ) बचपन, सरिता के साथ पहली मुलाकात, ब्योला (दुल्हा) बनके आने का वादा, मुआवजा हड़पने के लिए चैतू-बैसाखू की ‘तीन-पत्ती’ जैसी कोशिशें झील के हरे पानी में तैरती हुई लगती हैं। वहीं विस्थापितों के साथ ही पर्यावरणविदों की बहसों से होते हुए राकेश टिहरी के उजड़ने-बसने के बीच सरकारी कारिन्दों के असल चेहरों को देखने का प्रयास भी करता है। बांध को लेकर सवाल-जवाब की इस गहमागहमी में बहसें जुटती हैं और अनुत्तरित होकर इसी पानी में मोटर बोट से उठती लहरों की तरह फिर शांत हो जाती हैं। समय के लम्बे सफर में यादों को तलाशते हुए उसे सरिता मिल जाती है। वहीं, तब तक दिल्ली को अपना मान बैठे राकेश को सरिता द्वारा माटी न छोड़ने की जिद्द पर ‘टिहरी से दिल्ली’ की दूरी का अहसास होता है।
अनुज जोशी ने उत्तराखण्ड आन्दोलन पर बनी फिल्म ‘तेरी सौं’ के बाद एक बार फिर संवेदनशील मुद्दे को अपनी फिल्म का विषय बनाया। याद आली टिहरी की कथा-पटकथा के साथ ही निर्देशन के फ्रंट पर अनुज ने कहानी को बांधे रखने में खासी समझदारी दिखाई है। आखिरी तक बांधे हुए आगे बढ़ती फिल्म में हालांकि कुछ सवाल उठते हैं और अनुत्तरित रहकर ही टिहरी की तरह झील में समा जाते हैं। ऐसे में संवेदनशील विषयों पर एक साथ सब कुछ परोसने के लोभ के चलते अधूरी छुटती बहसों को भी समझा जा सकता है। उधर, गढ़वाली फिल्म निर्माताओं के बीच यह कथित भ्रम गहरा है कि, पौड़ी, टिहरी, चमोली, उत्तरकाशी, देहरादून के लोग एक दूसरे की भाषा को बिलकुल नहीं समझते हैं। ऐसे में उपजती है एक नई भाषा। जिसमें जुड़ते हैं ‘आण्यां-जाण्यां, पता नि कू नौना थौ और था को थै जैसे कई अपभ्रंशित शब्द। फिल्म में दोनों प्रेमियों के बीच आखिरी तक मौजुद ‘आप’ भी खासा अखरता है, या कहें कि इन किरदारों में दोनों ‘मदन डुकलान जी’ व ‘उमा राणा जी’ ही बने रहते हैं।
प्रेमकथा के इर्दगिर्द बुनी फिल्म में नायक मदन डुकलान, रोशन धस्माना, मंजू बहुगुणा, कुलानन्द घनसाला व सोबन पुण्डीर ने अपने किरदारों को बखूबी निभाया है। जबकि उमा के अभिनय में अभी गुंजाईश बाकी लगती है। यद्यपि युवा चरित्र में कई जगह डुकलान भी असहज हुए है। फिल्म के गीत नरेन्द्र सिंह नेगी, मदन डुकलान, जितेन्द्र पंवार और जसपाल राणा ने लिखे हैं। आलोक मलासी के संगीत में नेगी, जितेन्द्र, आलोक, जसपाल के साथ किशन महिपाल व मीना राणा ने इन्हें गाया है। फिल्म के संवाद कुलानन्द घनसाला ने लिखे और कैमरा जयदेव भट्टाचार्य ने संभाला है।
निष्कर्षत: कहें कि ‘याद आली टिहरी’ जहां विस्थापितों की आंखों को नम करेगी तो बांध वाले भी समझेंगे कि विकास की कीमत चुकाते ऐसे बांध मानवीय हितों के कितने करीब हैं।
Review By - Dhanesh Kothari
गैरसैंण की अपील 'सलाण्या स्यळी'
अप्रतिम लोककवि, गीतकार अर गायक नरेन्द्र सिंह नेगी कु लेटेस्ट म्यूजिक एलबम ‘सलाण्या स्यळी’ मंनोरंजन का दगड़ ही उत्तराखण्ड राज्य का अनुत्तरित सवालूं अर सांस्कृतिक चिंता थैं सामणि रखदु अर एक संस्कृतिकर्मी का उद्देश्यों, जिम्मेदारियों थैं तय कर्न मा अपणि भूमिका निभौण मा कामयाब दिखेंदु। सलाण्या स्यळी मा ईंदां नेगी न जख गीतिका असवाल अर मंजु सुन्दरियाल जन नयि गायिकौं थैं मौका दे, वखि कुछ नया प्रयोग भी बखुबी आजमायां छन। पमपम सोनी कु संगीत संयोजन अब जरुर बोर कर्दु।
पहाड़ का सांस्कृतिक धरातल पर गीत-संगीत का कई ‘ठेकेदारुन्’ अब तक खुबसूरत पहाड़ी ‘बाँद’ थैं ऑडियो-विजुअल माध्यमूं मा बदशक्ल सि कर्याली। पण, नरेन्द्र सिंह नेगीन् ‘सलाण्या स्यळी’ का अपणा पैला ही गीत ‘तैं ज्वनि को राजपाट’ मा चुनौती का दगड़ यना करतबूं थैं न सिर्फ हतोत्साहित कर्यूं च, बल्कि प्रतिद्वन्दियों थैं भरपूर मात भी देयिं च।
पहाड़ मा जीजा-साली का बीच सदानी ही आत्मीय रिश्ता रैन, त सलाण अर गंगाड़ का बीच का पारस्परिक संबन्धूं मा स्यळी-भिना का रिश्ता स्वस्थ प्रगाढ़ता अर हाजिर जवाबी कु उन्मुक्त छन। एलबम कु शीर्षक गीत ‘सलाण्या स्यळी’ पुराणा विषय थैं पारम्परिकता का दगड़ सौंर्दू। सलाण-गंगाड़ का परिप्रेक्ष्य मा रच्यूं यू गीत वन्न त औसत लगदु। तब बि अंतरौं मा कोरस कु शुरूवाती उठान अच्छु प्रयोग च। गीत मा नई गायिका कि आवाज से ‘स्यळी कि कच्ची उम्र जन स्वाद’ मिल्दु।
हास्य-व्यंग्य का पैनापन का दगड़ रच्यूं तीसरु गीत ‘चल मेरा थौला’ मनोरंजक च। सूत्रधार थैला का जरिया कखि अति महत्वाकांक्षी वर्ग चरित्र त कखि सौंगा बाटौं पर ‘लक्क’ आजमाणै कि चाना, तीसरी तर्फ अकर्म का बाद बि मौज कि उम्मीद जना भाव से गीत कई आयाम बणौंद। सुण्ण वाळों कि जमात मा यू गीत कै ‘आम’ कि अपेक्षा कुछ ‘खास’ थैं ही तजुर्बा देलु। बाक्कि भोरेण कि उम्मीद मा जख-तख जांद ‘थौला’ कतना भोरेलु, कतना खाली रौलु यू बग्त बेहतर बतै सक्द।
‘स्य कनि ड्यूटी तुमारी’ गीत विषय, शैली, भाषा अर धुन हर दृष्टि से एलबम कि मार्मिक अर सबसे उल्लेखनीय रचना च। नरेन्द्र सिंह नेगी कु नैसर्गिक मिजाज बि ई च। यां खुणि नेगी अपणा सुणदारौं का बीच ख्यात बि छन। पहाड़ अर फौजी द्वी स्वयं मा पर्याय छन। देश कि सीमौं पर सैनिक अपणा कर्तव्यूं कि मिसाल च। त, घौर मु वेकु परिवार बि ‘जिन्दगी का युद्ध’ मा जिंदगी भर मोर्चा पर रैंदु। दरोल्या-नचाड़ों का लिहाज से यू गीत जरुर ‘बेमाफिक’ ह्वे सकदु।
नरेन्द्र सिंह नेगी का कैनवास पर एक हौर शब्दचित्र ‘बिनसिरि की बेला’ का रूप मा बेहतर स्ट्रोक, रंगूं अर आकृत्यों मा उभर्द। यखमा पहाड़ कु जीवंत परिवेश, जीवन कि एक मधुर लय अर कौतुहल का विभिन्न दृश्य स्वाभाविकता का दगड़ पेंट होयां छन।
प्रेम का रिश्तों मा बंदिशें जुगूं बिटि आज बि जन कि तन च। सामाजिक जकड़न कि ‘गेड़ाख’ आज बि ढीली नि ह्वे। माया प्लवित तब बि ह्वे। अन्तरजातीय रिश्तों कि मजबूरियों थैं रेखांकित कर्दू गीत ‘झगुली कंठयाली’ संकलन कि एक हौर कर्णप्रिय रचना च। ये गीत से नेगी की लगभग डेढ़ दशक पुराणी छवि ताजा ह्वे जांदि।
लाटा-काला शैद ही समझौन्, किलैकि ‘मिन त सम्झि’ एक चंचल स्त्री कि हकीकत च या फिर ‘चंचल स्त्री’ का माध्यम से कुछ हौर.........ह्रास होण कि पीड़ा कु बयान च। अपणी उलझनूं का बावजूद मेरा ख्याल से ये गीत मा बि स्वस्थ सुण्ण वाळों थैं पर्याप्त स्पेस च।
रिलीज से पैलि ही मीडिया अटेंशन पै चुकि ‘तुम बि सुणा’ सरकारूं कि मंशौं थैं सरेआम नि कर्द, बल्कि जनादोलनों का बाद थौ बिसौंदारा लोखूं तैं बि बोल्द कि ‘लड़ै जारी राली’। राजधानी का दगड़ी पहाड़ का हौरि मसलों पर भाजपा-कांग्रेस कि द्वी अन्वारूं थैं ‘मधुमक्खियों’ का अलावा सब जाणदान् अर माणद्न। लेकिन यूकेडी की प्रतिबद्धतौं मा रळी चुकी ‘जक-बक’ तैं नरेन्द्र सिंह नेगीन् देर से सै खुब पछाणी। गीत सुण्ण-सुणौण से ज्यादा गैरसैंण का पक्ष मा मजबूत जमीन तैयार कर्द। यू गीत नेगी कि बौद्धिक अन्वार थैं जनप्रियता दिलौंण मा बि सक्षम च।
सलाण्या स्यळी थैं सिर्फ राजधानी का मसला पर नरेन्द्र सिंह नेगी कि तय सोच कु रहस्योद्घाटन कर्न वाळु संकलन मात्र मान लेण काफी नि होलु। बल्कि, सलाण्या स्यळी थैं बेहतर गीतूं, धुनूं, शैली अर रणनीतिक संरचना का माफिक जाण्ण बि उचित होलु। किलैकि, कुछ चटपटा मसालों का दगड़ ही सलाण्या स्यळी मा हर वर्ग, क्षेत्र तक पौंछणै अर ‘कुछ’ थैं मात देण कि रणनीतिक क्षमता भरपूर च। ‘माया कू मुण्डारु’ कि अपेक्षा ‘सलाण्या स्यळी’ रेटिंग मा अव्वल च।
Review By - Dhanesh Kothariमार येक खैड़ै
तिन बोट बि दियाली
तिन नेता बि बणैयाली
अब तेरि नि सुणदु
त मार येक खैड़ै
ब्याळी वु हात ज्वड़दु छौ
आज ताकतवर ह्वेगे
अब त्वै धमकौंणु च
त मार येक खैड़ै
वेंन ही त बोलि छौ
तेरू हळ्ळु गर्ररू ब्वकलु
तु निशफिकरां रै
अब नि सकदु
त मार येक खैड़ै
तेरि जातौ छौ थातौ छौ
गंगाजल मा वेन
सौं घैंट्यै छा
अब अगर नातु तोड़दु
त मार येक खैड़ै
Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari
तिन नेता बि बणैयाली
अब तेरि नि सुणदु
त मार येक खैड़ै
ब्याळी वु हात ज्वड़दु छौ
आज ताकतवर ह्वेगे
अब त्वै धमकौंणु च
त मार येक खैड़ै
वेंन ही त बोलि छौ
तेरू हळ्ळु गर्ररू ब्वकलु
तु निशफिकरां रै
अब नि सकदु
त मार येक खैड़ै
तेरि जातौ छौ थातौ छौ
गंगाजल मा वेन
सौं घैंट्यै छा
अब अगर नातु तोड़दु
त मार येक खैड़ै
Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari
पांसा
१
रावण धरदा बनि-बनि रुप
राम गयां छन भैर
चुरेड चुडी पैरौणान सीता
देळी मु बैठीं डौर
२
अफ्वीं बुलौंदी दुशासनुं द्रौपदा
कृष्ण क्य करू अफसोस
चौसर चौखाना दुर्योधनूं का
सेळ्यूं च पांड्वी जोश
३
टाटपट्टी मा एकलव्य बैठ्यांन
द्रोण मास्साब कि जग्वाळ
अर्जुन जाणान ईंग्लिश मीडियम
वाह रे ज्ञान कि खोज
४
येक टांग मा खडा भस्मासुर
शिवजी लुक्यां कविलासुं
मोहनी मंथ्यणि रैंप मा हिट्णीं
शकुनि खेन्ना छन पासों
Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari
रावण धरदा बनि-बनि रुप
राम गयां छन भैर
चुरेड चुडी पैरौणान सीता
देळी मु बैठीं डौर
२
अफ्वीं बुलौंदी दुशासनुं द्रौपदा
कृष्ण क्य करू अफसोस
चौसर चौखाना दुर्योधनूं का
सेळ्यूं च पांड्वी जोश
३
टाटपट्टी मा एकलव्य बैठ्यांन
द्रोण मास्साब कि जग्वाळ
अर्जुन जाणान ईंग्लिश मीडियम
वाह रे ज्ञान कि खोज
४
येक टांग मा खडा भस्मासुर
शिवजी लुक्यां कविलासुं
मोहनी मंथ्यणि रैंप मा हिट्णीं
शकुनि खेन्ना छन पासों
Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari
08 August, 2010
म्यारा डेरम
म्यारा डेरम
गणेश च चांदरु नि
नारेण च पुजदारु नि
उरख्याळी च कुटदारु नि
जांदरी च पिसदारु नि
डौंर थाळी च बजौंदारु नि
पुंगड़ा छन बुतदारु नि
ओडु च सर्कौंदारु नि
गोरु छन पळ्दारु नि
मन्खि छन बचळ्दारु नि
बाटा छन हिट्दारु नि
डांडा छन चड़्दारु नि
Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari
गणेश च चांदरु नि
नारेण च पुजदारु नि
उरख्याळी च कुटदारु नि
जांदरी च पिसदारु नि
डौंर थाळी च बजौंदारु नि
पुंगड़ा छन बुतदारु नि
ओडु च सर्कौंदारु नि
गोरु छन पळ्दारु नि
मन्खि छन बचळ्दारु नि
बाटा छन हिट्दारु नि
डांडा छन चड़्दारु नि
Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari
तेरी आँख्यूं देखी
रामा कैसटस् प्रस्तुत ऑडियो-वीडियो ''तेरी आँख्यूं देखी'' से गढ़वाली गीत-संगीत के धरातल पर बहुमुखी प्रतिभा नवोदित संजय पाल और लक्ष्मी पाल ने पहला कदम रखा है। संजय-लक्ष्मी गढ़वाली काव्य संग्रह 'चुंग्टि' के सुप्रसिद्ध रचनाकार स्वर्गीय सुरेन्द्र पाल जी की संतानें हैं। लिहाजा 'तेरी आँख्यूं देखी' को भी पहाड़ के सामाजिक तानेबाने में अक्षुण्ण सांस्कृतिक मूल्यों को जीवंत रखने की कोशिश के तौर पर देखा और सुना जा सकता है। एलबम का एक गीत 'मेरो पहाड़' इसका बेहतरीन उदाहरण है।
न्यू रिलीज 'तेरी आँख्यूं देखी' का पहला गीत 'तु लगदी करीना' पहाड़ी 'करीना' से प्रेम की नोकझोंक के जरिये नई छिंवाल को मुग्ध करने के साथ ही 'बाजार' से फायदा पटाने के मसलों से भरपूर है। मनोरम वादियों की लोकेशन पर फैशनपरस्त स्टाइल में सजी इस कृति को अच्छे गीतों की श्रेणी में शामिल किया जा सकता है। हां, पिक्चराईजेशन में नेपाली वीडियोज का असर साफ दिखता है। गढ़वाली संगीत में स्क्रीन पर ऐसे प्रयोग अभी नये हैं। जिन्हें पहाड़ का आधुनिक चेहरा भी कहा जा सकता है।
प्रसिद्ध देशगान 'मिले सुर मेरा तुम्हारा' की तर्ज पर रचा गया एलबम का दूसरा गीत 'मेरो पहाड़' उत्तराखण्ड का राज्यगान होने की सामर्थ्य रखता है। इस गीत से संजय पाल ने रचनाकर्म के क्षेत्र में नई संभावनाओं को भी रेखांकित किया है। इसमें उत्तराखण्ड के सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक एवं पुरातात्विक रंगों का खूबसूरत समावेश दर्शाता है कि संजय के पर्दापण का मकसद सिर्फ 'बाजार' को 'लूटना' नहीं है, बल्कि वह पहाड़ की वैभवशाली 'अन्वार' को दुनिया को भी दिखाना चाहता है। गीत के दृश्यांकन में यह दिखता भी है। इस रचना से संजय ने अपने पिता प्रसिद्ध कवि स्वर्गीय सुरेन्द्र पाल की विरासत को संभालने की जिम्मेदारी को बखूबी निभाया है।
सचमुच, पहाड़ सैलानियों को जितने सुन्दर और मोहक दिखते हैं, उतना ही सच है यहां का 'पहाड़' जैसा जीवन। कारण सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं रोजगार की मौलिक जरुरतों के इंतजार में 'विकास' आज भी 'टकटकी' बांधे है। सो, यहां जिंदा रहने के मायनों को समझा जा सकता है। तीसरा गीत ‘रंगस्याणु च सौंगु’ पहाड़ के ऐसे ही वर्तमान की प्रतिनिधि रचना है। बेहतर रचना के बावजूद गायकी इसका असर कम करती है। ‘औ लाडी खुट्टी बढ़ौ’ गीत हर माँ-बाप की उम्मीदों में एक कामयाब बच्चे की कल्पना की कहानी कहता है। वे उसी कामयाब बेटे में बुढ़ापे की आशायें भी तलाशते हैं। इस संकलन का सुन्दर और मार्मिक गीत होने के साथ ही यह प्रस्तुति हर बेटे से आह्वान भी करती है कि, .... औ लाडी थामि ले औ... ।
शीर्षक गीत ‘तेरी आँख्यूं देखी’ में नवोदित अभिनेत्री पूनम पाण्डेय के कशिश पैदा करते चेहरे-मोहरे के बावजूद यह प्रेमगीत खास प्रभाव नहीं छोड़ता है। विश्वाश की नींव पर रचे गये इस गीत के दृश्यांकन में कई शॉर्ट्स में प्रकाश के प्रभाव के प्रति लापरवाही या कहें अधकचरापन साफ झलकता है।
स्वर्गीय सुरेन्द्र पाल की कविता ‘ना पी ना पी’ के स्वरबद्ध कर संजय ने अपने पिता के साहित्यिक अवदान को ताजा किया है। कह सकते हैं कि यह पूर्वजों को श्रद्धांजलि भी है। गीत पहाड़ में शराब के कारण उत्पन्न त्रासद स्थितियों की चित्रात्मक प्रस्तुति है। ऐसे गीत भले ही इस संवेदनशून्य समाज में जुबानी सराहना पाते हैं, किंतु दूसरी ओर सांझ ढलते ही कई सराहने वाले नशे में ‘धुत्त’ होकर इन्हें अप्रासंगिक भी बना डालते हैं। तब भी कवि/गीतकार का संदेश रचनाकार की सामाजिक प्रतिबद्धता को अवश्य जाहिर करता है। यही उसका धर्म भी है।
’जननी जन्मभूमिश्च: स्वर्गादपि गरियसि’ की उक्ति निश्चित ही ‘बौड़ा गढ़देश’ गीत पर लागू होती है। पहाड़ अपने नैसर्गिक सौंदर्य के साथ ही जीवंत सांस्कृतिक ताने-बाने के लिए भी जाना जाता है। जहां मण्डांण क थाप पर सिर्भ थिरकन ही नहीं पैदा होती बल्कि कल्पना के कैनवास पर यहां आस्वाद में गाढ़े-चटख रंग बिखर जाते हैं और इन्हीं रंगों में मिलता है बांज की जड़ों का मीठा पानी, थिरकता झूमैलो, रोट-अरसा की रस्याण, ग्योंवळी सार्यों की हरियाली, मिट्टी की सौंधी सुगंध और इंतजार करती आंखें। मीना राणा के स्वर इस गीत को कर्णप्रिय बनाते हैं।
शिव की भूमि उत्तराखण्ड में आज तक शिव जागे हैं यह नहीं, लेकिन लोकतंत्र के साक्षात ‘स्वयंभू शंकर’ राजनीति की चौपाल में जरुर जागे हुए विराट रुप में अवतरित हैं। उन्होंने अपने नजदीकी भक्तों के अलावा बाकी को ‘खर्सण्या’ बनाकर नियति के भरोसे छोड़ा हुआ है। अराध्य शिव को जगाता यह आखिरी गीत ‘कैलाशपति भोले’ यों तो लोकतंत्र के कथानक से अलग भक्ति का ही तड़का है, मगर त्रिनेत्र के खुलने की ‘जग्वाळ’ वह भी अवश्य करता है।’
'तेरी आँख्यूं देखी'’ नवोदित संजय के साथ प्रख्यात लोकगायक चन्द्रसिंह राही, मीना राणा, लक्ष्मी पाल, मधुलिका नेगी, कल्पना चौहान, गजेन्द्र राणा और मंगलेश डंगवाळ के स्वरों से सजी है। गीत स्वर्गीय सुरेन्द्र पाल और संजय-लक्ष्मी के हैं। संगीत संयोजन में हारुन मदार ने रुटीन म्यूजिक से अलग नयापन परोसा है। वीडियो को निर्देशन संजय के साथ विजय भारती ने संभाला है। सो कह सकते हैं कि नये प्रयोगों के कारण श्रोता-दर्शकों की बीच ‘तेरी आँख्यूं देखी’ को पहचान मिलनी ही चाहिए।
Review By - Dhanesh Kothari
भैजी !!
पहाड़ ऐकि देखिल्यावा पहाड़ थैं
सुबेर ह्वेगे, कविलासूं बटि गुठ्यार तक
खगटाणिन् तब्बि दंतुड़ी, बतावा धौं पहाड़ थैं
कुम्भ नह्येगेन करोंड़ूं, वारु-न्यारु अरबूं कू ह्वेगे
खिलकौं पर चलकैस नि ऐ, समझावा धौं पहाड़ थैं
ब्याळी-आज अर भोळ, आण-जाण त लग्यूं रैंण
रौण-बसण कू भरोसू बि, दे द्यावा धौं पहाड़ थैं
मेरा सट्ट्यों तुम तब ह्वेल्या त्, जम्मै नि होयांन्
जब चौरास मा पसरी, घाम तपदु देखिल्या पहाड़ थैं
Copyright@ Dhanesh Kothari
07 August, 2010
र्स्वग च मेरू पहाड़
गौं मा पाणि नि
पाणि नि त मंगरा नि
मंगरा नि त धैन-चैन नि
धैन-चैन नि त धाण नि
धाण नि त मनखि नि
मनखि नि त हौळ् नि
हौळ् नि त खेती नि
खेती नि त उपज्यरू नि
उपज्यरू नि त ज्यूंद रौणौं मतबल...?
गौं मा स्कूल नि
स्कूल नि त मास्साब नि
मास्साब नि त पढ़दारा नि
पढ़दारा नि त मिड्डे मील नि
मिड्डे मील नि त स्कूल जाणौं मतबल...?
गौं मा डाळा नि
डाळा नि त बौंण नि
बौंण नि त घ्वीड़-काखड़ नि
घ्वीड़-काखड़ नि त बाघ नि
बाघ नि त जंगळ् बचाणौं मतबल...?
गौं मा अगर क्वी च त
वू गौं कू प्रधान-प्रधानी च
बिधैकौ न्यसड़ू च
सांसदौ हौळ च
कदाचित हौर क्वी च त
वू मौळु च, त् रौणौं मतबल...?
तब्बि-
मेरू पहाड़ र्स्वग च।
पाणि नि त मंगरा नि
मंगरा नि त धैन-चैन नि
धैन-चैन नि त धाण नि
धाण नि त मनखि नि
मनखि नि त हौळ् नि
हौळ् नि त खेती नि
खेती नि त उपज्यरू नि
उपज्यरू नि त ज्यूंद रौणौं मतबल...?
गौं मा स्कूल नि
स्कूल नि त मास्साब नि
मास्साब नि त पढ़दारा नि
पढ़दारा नि त मिड्डे मील नि
मिड्डे मील नि त स्कूल जाणौं मतबल...?
गौं मा डाळा नि
डाळा नि त बौंण नि
बौंण नि त घ्वीड़-काखड़ नि
घ्वीड़-काखड़ नि त बाघ नि
बाघ नि त जंगळ् बचाणौं मतबल...?
गौं मा अगर क्वी च त
वू गौं कू प्रधान-प्रधानी च
बिधैकौ न्यसड़ू च
सांसदौ हौळ च
कदाचित हौर क्वी च त
वू मौळु च, त् रौणौं मतबल...?
तब्बि-
मेरू पहाड़ र्स्वग च।
06 August, 2010
घौर औणू छौं
उत्तराखण्ड जग्वाळ रै मैं घौर औणू छौं
परदेस मा अबारि बि मि त्वे समळौणू छौं
दनकी कि ऐगे छौ मि त सुबेर ल्हेक
आसरा खुणि रातभर मि डबड्यौणूं छौं
र्वे बि होलू कब्बि ब्वैळ् मि बुथ्याई तब
खुचलि फरैं कि एक निंद कू खुदेणू छौं
छमोटों बटि खत्ये जांद छौ कत्ति दां उलार
मनखि-मनखि मा मनख्यात ख्वज्यौणू छौं
बारा बीसी खार मा कोठार लकदक होंदन्
बारा बन्नि टरक्वैस् मा आमदनी पूर्योणू छौं
Copyright@ Dhanesh Kothari
परदेस मा अबारि बि मि त्वे समळौणू छौं
दनकी कि ऐगे छौ मि त सुबेर ल्हेक
आसरा खुणि रातभर मि डबड्यौणूं छौं
र्वे बि होलू कब्बि ब्वैळ् मि बुथ्याई तब
खुचलि फरैं कि एक निंद कू खुदेणू छौं
छमोटों बटि खत्ये जांद छौ कत्ति दां उलार
मनखि-मनखि मा मनख्यात ख्वज्यौणू छौं
बारा बीसी खार मा कोठार लकदक होंदन्
बारा बन्नि टरक्वैस् मा आमदनी पूर्योणू छौं
Copyright@ Dhanesh Kothari
हिकमत न छोड़
उकाळ उकळं कि तब्बि हिकमत न छोड़
तिन जाणै जा कखि उंड-फंडु चलि जा
पण, हौर्यों तैं त् अफ्वू दगड़ न ल्हसोड़
औण-जाण त् रीत बि जीवन बि च
औंदारौं कू बाटू जांदरौं कि तर्फ न मोड़
रोज गौळी ह्यूं अर रोज बौगी पाणि
कुछ यूं कू जमण-थमण कू जंक-जोड़
हैंका ग्वेर ह्वेक तेरु क्य फैदू ह्वे सकद
साला! वे भकलौंदारा थैं छक्वैकि भंजोड़ ॥
कॉपीराइट- धनेश कोठारी
05 August, 2010
सुबेर होण ई च
अन्धेरा तू जाग्यूं रौ, भोळ त सुबेर होण ई च।
सेक्की तेरि तब तलक, राज तिन ख्वोण ई च॥
आज हैंसी जा जथा हैंसदें, ठट्टा बि लगैकर तू
जुगू बटि पैट्यूं घाम, आखिर वेन् औण ई च॥
माना कि यख तुबैं बि, तेरा धड़्वे बिजां होला
तब्बि हमुन् उज्याळा कू, हौळ त लगौण ई च॥
ब्याळी कि तरां आज नि, आजै चार भोळ क्य होलू
आज माण चा भोळ, तेरा फजितान् त होण ई च॥
तेरा बुज्यां आंखों मा, चा न दिख्यो कुछ न कत्त
हत्त खुट्टौन् जलक-जुपै करि घाम त ख्वौज्यौण ई च॥
निराश ऐ उदास रै तू, जब बि मेरि देळ्यी मा
बर्सूं का बणबास बाद त, बग्वाळ मनौण ई च॥
कॉपीराइट- धनेश कोठारी
04 August, 2010
बिगास
ब्वै का सौं
ब्याळी ही अड़ेथेल छौ मिन्
तुमारा गौं खुणि बिगास
परसी त ऐ छा मैंमु
तुमारा मुल्क का बिधैक
ब्लोक का प्रमुख
गौं का परधान
बिगास कि खातिर
ऊंका गैल मा छा
सोरा-सरिक
द्वी-येक चकड़ैत
जण्ण चारे-क लठैत
परैमरी का मास्टर जी
पैरा चिंणदारा ठेकेदार
चाट पूंजि खन्दारा गल्लेदार
सिफारिशि फोन बि ऐगे छा
लाट साबूं का
रोणत्या ह्वेक मांगणा छा बिगास
सब्बि भरोसू देगेन् मिथैं
कमी-शनि बुखणौ कू
मेरि बि धरिं छै
वे दिनी बटि/ कि
आज मि मांगणू छौं बोट
भोळ मिन् तुम
मंगत्या नि बणै/ त
अपड़ि ब्वै कू.........!
जा फंडु जा गौं
जागणूं होलू तुमतैं बिगास
जागणूं होलू तुमारि मवसि कू
कॉपीराइट- धनेश कोठारी
ब्याळी ही अड़ेथेल छौ मिन्
तुमारा गौं खुणि बिगास
परसी त ऐ छा मैंमु
तुमारा मुल्क का बिधैक
ब्लोक का प्रमुख
गौं का परधान
बिगास कि खातिर
ऊंका गैल मा छा
सोरा-सरिक
द्वी-येक चकड़ैत
जण्ण चारे-क लठैत
परैमरी का मास्टर जी
पैरा चिंणदारा ठेकेदार
चाट पूंजि खन्दारा गल्लेदार
सिफारिशि फोन बि ऐगे छा
लाट साबूं का
रोणत्या ह्वेक मांगणा छा बिगास
सब्बि भरोसू देगेन् मिथैं
कमी-शनि बुखणौ कू
मेरि बि धरिं छै
वे दिनी बटि/ कि
आज मि मांगणू छौं बोट
भोळ मिन् तुम
मंगत्या नि बणै/ त
अपड़ि ब्वै कू.........!
जा फंडु जा गौं
जागणूं होलू तुमतैं बिगास
जागणूं होलू तुमारि मवसि कू
कॉपीराइट- धनेश कोठारी
बोली-भाषा
नवाणैं सि स्याणि छौं
गुणदारौं कू गाणि छौं
बरखा कि बत्वाणी छौं
मंगरौं कू पाणि छौं
निसक्का कि ताणि छौं
कामकाजि कू धाणि छौं
हैंकै लायिं-पैर्यायिं मा
अधीत सि टरक्वाणि छौं
कोदू, झंगोरु, चैंसू-फाणू
टपटपि सि गथ्वाणी छौं
हलकर्या सासु का बरड़ाट मा
बुथ्योंदारी सि पराणी छौं
अद्दा-अदुड़ी, सेर-पाथू
यूंकै बीचै मांणि छौं
बोली छौं मि भाषा छौं
अपड़ी ब्वै कि बाणी छौं
कॉपीराइट- धनेश कोठारी