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Showing posts from November, 2019

आधुनिक गढ़़वाली कविता का संक्षिप्त इतिहास

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भीष्म कुकरेती (मुंबई) // गढ़़वाली भाषा का प्रारम्भिक काल गढ़़वाली भाषाई इतिहास अन्वेषण हेतु कोई विशेष प्रयत्न नहीं हुए हैं। अन्वेषणीय वैज्ञानिक आधारों पर कतिपय प्रयत्न डॉ. गुणानन्द जुयाल, डॉ. गोविन्द चातक, डॉ. बिहारी लाल जालंधरी, डॉ. जयंती प्रसाद नौटियाल ने अवश्य किया किन्तु तदुपरांत पीएचडी करने के पश्चात इन सुधिजनों ने अपनी खोजों का विकास नहीं किया और इनके शोध भी थमे रह गए। डॉ. नन्दकिशोर ढौंडियाल और इनके शिष्यों के कतिपय शोध प्रशंसनीय हैं पर इनके शोध में भी क्रमता का नितांत अभाव है। चूंकि भाषा के इतिहास में क्षेत्रीय इतिहास, सामाजिक विश्लेषण, भाषा विज्ञान आदि का अथक ज्ञान और अन्वेषण आवश्यक है। अतः इस विषय पर वांछनीय अन्वेषण की अभी भी आवश्यकता है।  अन्य विद्वानों में श्री बलदेव प्रसाद नौटियाल, संस्कृत विद्वान् धस्माना, भजन सिंह सिंह, अबोध बंधु बहुगुणा, मोहन लाल बाबुलकर, रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी', भीष्म कुकरेती आदि के गढ़वाली भाषा का इतिहास खोज कार्य वैज्ञानिक कम भावनात्मक अधिक हैं। इन विद्वानों के कार्य में क्रमता और वैज्ञनिक सन्दर्भों का अभाव भी मिलता है। इसके अतिरि

मान राम (हिन्दी कविता)

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अनिल कार्की // मानराम ! ओ बूढ़े पहाड़ लो टॉफी खा लो चश्मा पौंछ लो मेरे पुरखे टॉफी की पिद्दी सी मिठास तुम्हारे कड़वे अनुभवों को मीठा कर सकेगी मैं यह दावा कतई नहीं करूंगा आंखों में जोर डालो मानराम हम डिग्री कॉलेज के पढ़े हुए तुम्हारे बच्चे तुमसे पूछना चाहते हैं जीवन के सत्तानबे साल कैसे गुजरे ? क्या काम किया ? क्या गाया ? कैसा खाया ? कितनी भाषाएं बोल लेते हो ? नहीं मान राम हमें नहीं सुननी तुम्हारी गप्पें तुम रोओ नहीं हमारे सामने तुम्हारे आंसुओं में आंकड़े नहीं जो हमारे काम आ सकें या कि जिनसे हम लिख सकें बड़ी बात मान राम देश तुम्हारे हाथ का बुना टांट का बदबुदार पजामा नहीं देश डिजिटल है इस समय तुम अजूबे हो तुम्हारी केवल नुमाईश हो सकती है तुम्हारी कछुवे सी पीठ हजार साल पुरानी है शौका व्यापारियों का नून तेल ढोती हुई हिमाल के आर- पार तनी हुई उसी पीठ में है सैकड़ों बौद्ध उपदेश अहिंसा के, पीड़ा के, दया के जो अनपढ़े रह गए वर्षों से या कि ढके रह गए बोझ ढोते हुए तुम्हारे चश्मे का एक पाया ऊन से टिका है आज भी ऊन तुम्हारे आंख से गर्म सफेद आंसू सा टपकता रहा मै