मान राम (हिन्दी कविता)

अनिल कार्की //

मानराम !
ओ बूढ़े पहाड़
लो टॉफी खा लो
चश्मा पौंछ लो मेरे पुरखे

टॉफी की पिद्दी सी मिठास
तुम्हारे कड़वे अनुभवों को
मीठा कर सकेगी
मैं यह दावा कतई नहीं करूंगा

आंखों में जोर डालो मानराम
हम डिग्री कॉलेज के पढ़े हुए तुम्हारे बच्चे
तुमसे पूछना चाहते हैं

जीवन के सत्तानबे साल कैसे गुजरे ?
क्या काम किया ?
क्या गाया ?
कैसा खाया ?
कितनी भाषाएं बोल लेते हो ?

नहीं मान राम
हमें नहीं सुननी तुम्हारी गप्पें
तुम रोओ नहीं हमारे सामने
तुम्हारे आंसुओं में आंकड़े नहीं
जो हमारे काम आ सकें
या कि जिनसे हम लिख सकें बड़ी बात

मान राम देश तुम्हारे हाथ का बुना
टांट का बदबुदार पजामा नहीं
देश डिजिटल है इस समय
तुम अजूबे हो
तुम्हारी केवल नुमाईश हो सकती है

तुम्हारी कछुवे सी पीठ
हजार साल पुरानी है
शौका व्यापारियों का नून तेल ढोती हुई
हिमाल के आर- पार तनी हुई
उसी पीठ में है सैकड़ों
बौद्ध उपदेश
अहिंसा के, पीड़ा के, दया के
जो अनपढ़े रह गए वर्षों से
या कि ढके रह गए बोझ ढोते हुए

तुम्हारे चश्मे का एक पाया
ऊन से टिका है आज भी
ऊन तुम्हारे आंख से
गर्म सफेद आंसू सा टपकता रहा
मैं जानता हूं तुम्हारी स्मृतियों में
भेड़ें तुमसे ज्यादा खुशकिस्मत रही हैं

अपने कांपती अंगुलियों से
तुम लकड़ी के सीकों पर
ऊन से बुन रहे हो कमर पट्ट आज भी
ताकि जमे रहे कमर पे पीठ

जबकि हम चौंक रहे हैं मान राम
तुम्हारी बिनाई पर
तुम्हारा दर्द
कला का महानतम नमूना नहीं
हमारी नजर का धोखा भर है।
जिन्हें गरीबी और मेहनत का रिश्ता नहीं पता
वे इसे जरूर कला कहेंगे तुम्हारी।

गाओ मानराम
तिब्बती गीत
नाचो भी
निकालो गले से भर्रायी आवाज
पुरातन आदिम
हम बजायेंगे ताली
और तुम खुश हो जाओगे

सुनो मानराम
अगले आगामी जन्मों में
जब भी जाओ तिब्बत
ध्यान में रमा हुआ
कहीं मिल जाए तथागत
तो अपने लिए निर्वाण न सही
पर कमर चड़क की दवा जरूर मांग लाना।
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(लम्बी उम्र तक सौका व्यापारियों का नून तेल ढोकर कठिन हिमालयी रास्तों से तिब्बत पहुंचाने वाले एक 97 वर्षीय दलित बुर्जुग से मिलने के बाद जो अब भी तंगहाली और भूमिहीन जीने को अभिशप्त है)

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