2019 ~ BOL PAHADI

07 November, 2019

आधुनिक गढ़़वाली कविता का संक्षिप्त इतिहास

भीष्म कुकरेती (मुंबई) //
गढ़़वाली भाषा का प्रारम्भिक काल
गढ़़वाली भाषाई इतिहास अन्वेषण हेतु कोई विशेष प्रयत्न नहीं हुए हैं। अन्वेषणीय वैज्ञानिक आधारों पर कतिपय प्रयत्न डॉ. गुणानन्द जुयाल, डॉ. गोविन्द चातक, डॉ. बिहारी लाल जालंधरी, डॉ. जयंती प्रसाद नौटियाल ने अवश्य किया किन्तु तदुपरांत पीएचडी करने के पश्चात इन सुधिजनों ने अपनी खोजों का विकास नहीं किया और इनके शोध भी थमे रह गए। डॉ. नन्दकिशोर ढौंडियाल और इनके शिष्यों के कतिपय शोध प्रशंसनीय हैं पर इनके शोध में भी क्रमता का नितांत अभाव है। चूंकि भाषा के इतिहास में क्षेत्रीय इतिहास, सामाजिक विश्लेषण, भाषा विज्ञान आदि का अथक ज्ञान और अन्वेषण आवश्यक है। अतः इस विषय पर वांछनीय अन्वेषण की अभी भी आवश्यकता है। 

अन्य विद्वानों में श्री बलदेव प्रसाद नौटियाल, संस्कृत विद्वान् धस्माना, भजन सिंह सिंह, अबोध बंधु बहुगुणा, मोहन लाल बाबुलकर, रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी', भीष्म कुकरेती आदि के गढ़वाली भाषा का इतिहास खोज कार्य वैज्ञानिक कम भावनात्मक अधिक हैं। इन विद्वानों के कार्य में क्रमता और वैज्ञनिक सन्दर्भों का अभाव भी मिलता है। इसके अतिरिक्त सभी विद्वानों के अन्वेषण में समग्रता का अभाव भी है। जैसे डॉ. चातक और गुणानन्द जुयाल के अन्वेषणों में फोनोलोजी भाषा विज्ञान है, डॉ. जालंधरी ने ध्वनियों की खोज की है, पर क्षेत्रीय इतिहास के साथ कोई तालमेल नहीं है। 

अबोध बन्धु बहुगुणा ने नाथपन्थी भाषा साहित्य को आदि गढ़़वाली का नाम दिया है, किन्तु यह कथन भी भ्रामक कथन है। नाथपंथी साहित्य में गढ़़वाली है किन्तु नाथपंथी साहित्य संस्कृत के धार्मिक, अध्यात्मिक, कर्मकांडी साहित्य जैसा है। जिसे सभी हिन्दू कर्मकांड या अध्यात्मिक अवसरों पर प्रयोग करते हैं। उसी तरह नाथपन्थी साहित्य में गढ़़वाली अवश्य है पर यह नितांत गढ़़वाली भाषा नहीं कहलायी जाएगी। 

डॉ. शिवप्रसाद डबराल ने अपने ‘उत्तराखंड के इतिहास’ में पुरुषोत्तम सिंह समय वाले शिलालेख, अशोक चल का गोपेश्वर (उत्तराखंड का इतिहास भाग -1 पृष्ठ -97-98), मंकोद्य काव्य, दिल्ली सल्तनत आदि के सन्दर्भ से सिद्ध किया कि गढ़़वाली और कुमाउनी भाषाओं का उद्भव खस भाषा से हुआ। यानि कि कुमाउनी और गढ़़वाली भाषाओं का उद्भव कत्युरी शासनकाल (650 ईसवी से पहले) (पंवार वंश से पहले गढ़वाल-कुमाऊं पर कत्युरी वंशीय शासन था और गढ़़वाल में चौहान/पंवार वंशीय शासन 650 ईसवी से 1948 तक रहा है) में हुआ। 
डॉ. बिहारी लाल जालंधरी (2006 ई।) के गढ़़वाली-कुमाउनी भाषाई ध्वनियों के अन्वेषण से भी सिद्ध हुआ है कि कुमाउनी-गढ़़वाली भाषाओं की माँ एक ही भाषा थीं। कुमाउनी भाषा लोक साहित्य के संकलनकर्ता भी स्वीकार करते हैं कि गढ़़वाली कुमाउनी कि माँ एक ही भाषा रही होगी। चूँकि गढ़़वाली भाषा के अतिरिक्त अभी तक यह सिद्ध नहीं हुआ/अथवा प्रमाण मिले हैं कि पंवार वंशीय या चौहान वंशीय शासन कालों में गढ़वाळी भाषा के अतिरिक्त कोई अन्य भाषा भी गढ़़वाल की जन भाषा थी तो सिद्ध होता है कि गढ़़वाल राष्ट्र में खस भाषा समापन के उपरान्त गढ़़वाली भाषा ही गढ़़वाल कि जन भाषा थी। 

प्रथम ईसवी के करीब खस भाषा गढ़वाल में बोली जाती रही है और धीरे- धीरे खस भाषा की अवन्नति या क्षरण हुआ। छठवीं सदी आते-आते खस अपभ्रंश होकर गढ़़वाली में बदल चुकी थी। छठवीं सदी से गढ़वाल में यद्यपि शासनकाल का चक्र बदलता गया, किन्तु चौहान/ पंवार वंशीय शासन में नवीं सदी से अठाहरवीं सदी तक कोई भारी परिवर्तन गढ़़वाल में नहीं आया। हां भारत से प्रवासी गढ़़वाल में बसते गए, किन्तु उन्होंने गढ़़वाली भाषा में कोई आमूल परिवर्तन नहीं किया। बस अपने साथ लाए शब्दों को गढ़़वाली में मिलाते गए होंगे। 

निष्कर्ष में कह सकते हैं कि गढ़़वाली भाषा से पहले गढ़़वाल में खस अपभ्रंश का बोलबाला था। जो कि खस भाषा कि उपज थी या ये कह सकते हैं कि गढ़़वाली भाषा की माँ खस भाषा है और छठवीं सदी से लेकर ब्रिटिशकाल के प्रारम्भ होने तक गढ़़वाल में एक ही जन भाषा थी और वह थी। यदि खस अपभ्रंश को गढ़़वाली भाषा माने तो गढ़वाल में गढ़़वाली भाषा प्रथम सदी से विद्यमान रही है। 

बाजूबंद काव्य शैली 
गढ़़वाली की आदि काव्य शैली गढ़़वाली भाषा का आदि काव्य (Prilimitive Poetry) बाजूबंद काव्य है। जो कि दुनिया की किसी भी भाषा कविता क्षेत्र में लघुतम रूप की कविताएं हैं। ये कविताएं दो पदों की होती हैं, जिसमें प्रथम पद निरर्थक (पट मिलाने के निहित प्रयोग) होता है द्वितीय चरण सार्थक व सारगर्भित होता है। गढ़़वाली काव्य की यह अपनी विशेषता लिए विशिष्ट काव्य शैली है। बाजूबंद काव्य अन्य लोकगीतों के प्रकार और कवित्व में भी गढ़़वाली भाषा किसी भी बड़ी भाषा के अनुसार वृहद रूप वाली है, सभी प्रकार के छंद, कवित्व शैली गढ़़वाली लोकगीतों में मिलता है। 

नाथपन्थी साहित्य और गढ़़वाली लोकसाहित्य में मनोविज्ञान एवं दर्शनशास्त्र
नाथपंथी साहित्य आने से गढ़़वाली भाषा में मनोविज्ञान और दर्शनशास्त्र की व्याख्याएं जनजीवन में आयी। यह एक विडम्बना ही है कि कर्मकांडी ब्राह्मण जिस साहित्य की व्याख्या कर्मकांड के समय करते हैं वह विद्वता की दृष्टि से उथला है और जो जन साहित्य सारगर्भित है, जिसमें मनोविज्ञान की परिभाषाएं छुपी हैं। जिस साहित्य में भारतीय षट दर्शनशास्त्र का निचोड़ है उसे सदियों से वह सर्वोच स्थान नहीं मिला जिसका यह साहित्य हकदार है। 

नाथपंथी साहित्य के वाचक डळया नाथ या गोस्वामी, ओल्या, जागरी, औजी/ दास होते हैं। किन्तु सामाजिक स्थिति के हिसाब से इन वाचकों को अछूतों की श्रेणी में रखा गया और आश्चर्य यह भी है कि आमजनों को यह साहित्य अधिक भाता था/है, उनके निकट भी रहा है। बगैर नाथपंथी साहित्य सन्दर्भ रहित लेख गढ़़वाली कविता इतिहास नहीं कहा जाएगा।

डॉ. विष्णु दत्त कुकरेती के अनुसार नाथ साहित्य में ढोलसागर, दमौसागर घटस्थापना, नाद्बुद, चौडियावीर मसाण, समैण, इंद्रजाल, कामरूप जाप, महाविद्या, नर्सिंग की चौकी, अथ हणमंत, भैर्बावली, नर्सिंग्वाळी, छिद्रवाळी, अन्छरवाळी, सैदवाळी, मोचवाळी, रखवाळी, मैमदा रखवाळी, काली रखवाळी।

कलुवा रखवाळी, डैण रखवाळी, ज्यूड़तोड़ी रखवाळी, मन्तरवाळी, फोड़ी बयाळी, कुर्माख़टक, गणित प्रकाश, संक्राचारी विधि, दरीयाऊ, ओल्याचार, भौणा बीर, मन्तर गोरील काई, पंचमुखी हनुमान, भैर्वाष्ट्क, दरिया मन्तर, सर्व जादू उक्खेल, सब्दियां, आप रक्षा, चुड़ा मन्तर, चुड़ैल का मन्त्र, दक्खण दिसा, लोचड़ा की वैढाई, गुरु पादिका, श्रीनाथ का सकुलेश, नाथ निघंटु आदि काव्य शास्त्र प्रमुख हैं। 

नाथ संप्रदायी साहित्य का मौलिक गढ़़वाली भाषा पर प्रभाव 
चूंकि गढ़वाल में नाथ सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव सातवीं सदी से होना शुरू हो गया था और इस साहित्य ने गढ़़वाल के जनजीवन में स्थान बनाना शुरू कर दिया था। ग्यारवीं सदी तक यह साहित्य जनजीवन का अभिन्न अंग बन गया था। अथ इस साहित्य के भाषा ने खस जनित गढ़़वाली भाषा में परिवर्तन किए। नाथ साहित्य ने खस जनित गढ़़वाली भाषा पर शैलीगत एवं शब्द सम्पदागत प्रभाव डाला। किन्तु उसकी आत्मा एवं व्याकरणीय संरचना पर कोई खास प्रभाव ना डाल सकी। हां नाथ सम्प्रदायी साहित्य ने गढ़़वाली भाषा को खड़ी बोली, बज्र और राजस्थानी भाषाओं के निकट लाने में एक उत्प्रेरणा काम अवश्य किया। 

यदि गढ़़वाल में दरिया वाणी में मन्तर पढ़े जाएंगे तो राजस्थानी भाषा का प्रभाव गढ़़वाली पर आना ही था। जिस तरह कर्मकांड की संस्कृत भाषा ने गढ़़वाली भाषा को प्रभावित किया उसी तरह नाथ साहित्य ने गढ़़वाली भाषा को प्रभावित किया। किन्तु यह कहना कि नाथ साहित्य गढ़़वाली कि आदि भाषा है, इतिहास व भाषा के दोनों के साथ अन्याय करना होगा। यदि ऐसा होता तो अन्य लोक साहित्य में भी हमें इसी तरह की भाषा के दर्शन होते। 
अबोध बंधु बहुगुणा ने क्यों कर नाथ संप्रदायी काव्य को आदि- गढ़़वाली काव्य/ गद्य नाम दिया होगा? किन्तु यह भी सही है नाथ सम्प्रदायी साहित्य ने मूल गढ़़वाली भाषा को प्रभावित अवश्य किया है। नाथ सम्प्रदायी साहित्य के प्रभाव ने कुछ बदलाव किए किन्तु गढ़़वाली भाषा में आमूल चूल परिवर्तन नहीं किया। यदि ऐसा होता तो आज की नेपाली सर्वथा गढ़़वाली से भिन्न होती। 

हमें किसी भी भाषा के इतिहास लिखते समय निकटस्थ क्षेत्र के कृषिगत या कृषि में होने वाली भाषा/ ज्ञान पर भी पुरा ध्यान देना चाहिए। जिस पर अबोध बंधु बहुगुणा ने ध्यान नहीं दिया कि गढ़़वाली, कुमाउनी और नेपाली भाषाओं में कृषिगत ज्ञान या कृषि सम्बन्धी शब्द एक जैसे हैं। इस दृष्टि से भी नाथपंथी साहित्य गढ़़वाली का आदि साहित्य नहीं माना जाना चाहिए। 

आधुनिक कविता इतिहास यद्यपि गढ़़वाली कविता कि समालोचना एवं कवियों कि जीवनवृति लिखने कि शुरूवात पंडित तारादत्त गैरोला ने 1937 ई. से की, किन्तु अबोध बंधु बहुगुणा को गढ़़वाली कविता और गद्य का क्रमगत इतिहास लिखने का श्रेय जाता है। अतः कविताकाल कि परिसीमन उन्हीं के अनुसार आज भी हो रही है। इस लेख में भी गढ़़वाली कविता कालखंड बहुगुणा के अनुसार ही विभाजित की जाएगी। 

डॉ. नन्द किशोर ढौंडियाल ने कालखंड के स्थान पर नामों को महत्व दिया जैसे पांथरी युग या सिंह युग। पूर्व- आधुनिक काल गढ़़वाली साहित्य का आधुनिक काल 1850 ई. से शुरू होता है। किन्तु आधुनिक रूप में कविताएं पूर्व में भी रची जाती रही हैं। हां उनका लेखा जोखा काल ग्रसित हो गया है। किन्तु कुछ काव्य का रिकॉर्ड मिलता है। 

13वीं सदी में रचित काशीराज जयचंद कि कविता का रिकॉर्ड बताता है कि कविताएं गढ़वाल में विद्यमान थीं। डॉ. हरिदत्त भट्ट शैलेश, भजन सिंह सिंह, मोहनलाल बाबुलकर, अबोध बहुगुणा, चक्रधर बहुगुणा एवं शम्भू प्रसाद बहुगुणा आदि अन्वेषकों ने 19वीं सदी से पहले उपलब्ध (रेकॉर्डेड) साहित्य के बारे में पूर्ण जानकारी दी है। 

18वीं सदी कि कविता जैसे मांगळ, गोबिंद फुलारी, घुर बंशी घोड़ी, पक्षी संघार (1750 ई. से पहले) जैसी कविताएं अपने कवित्व पक्ष कि उच्चता और गढ़़वाली जनजीवन की झलक दर्शाती हैं। गढ़वाल के महाराजा सुदर्शन शाह कृत सभासार (1828) यद्यपि बज्र भाषा में है, किन्तु प्रत्येक कविता का सार गढ़़वाली कविता में है। इसी तरह दुनिया में एकमात्र कवि जिसने पांच भाषाओं में कविताएं (संस्कृत, गढ़़वाली, कुमाउनी, नेपाली और खड़ी बोली) रचीं और एक अनोखा प्रयोग भी किया कि दो भाषाओं को एक ही कविता में लाना याने एक पद एक भाषा का और दूसरा पद दूसरी भाषा का। ऐसे कवि थे गुमानी पन्त ( 1780-1840) 1850 से 1925 ई. तक।

गढ़़वाली में आधुनिक कविताएं लिखने का आरम्भ ब्रिटिशकाल में ही शुरू हुआ। हां 1875 ई. के बाद पं. हरिकृष्ण रुडोला, लीलादत्त कोटनाला एवं महंत हर्षपुरी की त्रिमूर्ति ने गढ़़वाली आधुनिक कविताओं का श्रीगणेश किया। यद्यपि इन्हांने कविता रचना 19वीं सदी में कर दिया था। इन कविताओं का प्रकाशन ’गढ़़वाली’ पत्रिका एवं गढ़़वाली का प्रथम कविता संग्रह ’गढ़़वाली कवितावली’ में ही हो सका। 

बीसवीं सदी का प्रारम्भिक काल गढ़़वाली समाज के लिए एक अति महत्वपूर्ण काल रहा है। ब्रिटिश शासन कि कृपा से ग्रामीणों को शासन के तहत पहली बार शिक्षा ग्रहण का अवसर मिला। जो कि गढ़़वाली राजा के शासन में उपलब्ध नहीं था। प्राथमिक स्कूलों के खुलने से ग्रामीण गढ़वाल में शिक्षा के प्रति रुचि पैदा हुई। पैसा आने से व नौकरी के अवसर प्राप्त होने से गढ़़वाली गढ़वाल से बहार जाने लगे खासकर सेना में नौकरी करने लगे। पलायन का यह प्राथमिक दौर था। 

समाज में प्रवासियों और शिक्षितों कि पूछ होने लगी थी एवं समाज में इनकी सुनवाई भी होने लगी थी। समाज एक नए समाज में बदलने को आतुर हो रहा था। धन कि अवश्यकता का महत्व बढ़ने लगा था। व्यापार में अदला-बदली (बार्टर) व्यवस्था और सहकारिता के सिद्धांत पर चोट लगनी शुरू हो गई थी और कहीं ना कहीं सामाजिक सुधार की आवश्यकता महसूस भी हो रही थी। स्वतंत्रता आंदोलन गढ़वाल में जड़ें जमा चुका ही था। इस दौर में सामाजिक बदलाव व समाज की अपेक्षाएं व आवश्यकताओं का सीधा प्रभाव गढ़़वाली कविताओं पर पड़ा। 

सामाजिक उत्थान, प्रेरणादायक, जागरण, धार्मिक, देशभक्ति जैसी वृत्ति इस समय कि कविताओं में मिलती है। कवित्व संस्कृत और खड़ी बोली से पूरी तरह प्रभावित है। यहां तक कि गढ़़वाली भाषा के शब्दों को छोड़ हिंदी शब्दों कि भरमार इस युग की कृतियों में मिलती है। यह कर्म आज तक चला आ रहा है। चूंकि कर्मकांडी ब्राह्मणों में पढने-पढ़ाने का रिवाज था और आधुनिक शिक्षा ग्रहण में भी ब्राह्मणों ने अगल्यार ली, अतः 1925 तक आधुनिक कवि ब्राह्मण ही हुए हैं। 

इस समय के कवियों में रुडोला, कोटनाला, पूरी त्रिमूर्ति के अतिरिक्त आत्माराम गैरोला, सत्यशरण रतूड़ी, भवानी दत्त थपलियाल, तारादत्त गैरोला, चंद्रमोहन रतूड़ी, शशि शेखरानंद सकलानी, सनातन सकलानी, देवेन्द्र रतूड़ी, गिरिजा दत्त नैथाणी, मथुरादत्त नैथाणी, सुर्द्त्त सकलानी, अम्बिका प्रसाद शर्मा, रत्नाम्बर चंदोला, दयानन्द बहुगुणा, सदानन्द कुकरेती मुख्य कवि हैं। 

काव्य संकलनों में गढ़़वाली कवितावली (1932) का विशेष स्थान है। जो कि विभिन्न कवियों की कविताओं का प्रथम संकलन भी है। इसके सम्पादक तारादत्त गैरोला हैं और प्रकाशक विश्वम्बर दत्त चंदोला हैं। इस संग्रह का परिवर्तित रूप में दूसरा संग्रह 1984 में चंदोला की सुपुत्री ललिता वैष्णव ने प्रकाशित किया। गढ़़वाली कवितावली गढ़़वाली भाषा का प्रथम संग्रह है और ऐतिहासिक है। किन्तु इस संग्रह में भूमिका व कवियों के बारे में समालोचना व जीवन वृत्ति हिंदी भाषा में है। 

गढ़़वाली साहित्य की विडम्बना ही है कि आज भी काव्य संग्रहों में भूमिका अधिकतर हिंदी में होती है। 1925 से 1950 का काल सामाजिक स्थिति तो वही रही, किन्तु स्थितियों में गुणकारक वृद्धि हुई। यानि कि शिक्षा वृद्धि, उच्च शिक्षा के प्रति प्रबल इच्छा, कृषि पैदावार की जगह धन की अत्यंत आवश्यकता, गढ़़वाल से पलायन में वृद्धि, कई सामाजिक कुरीतियों व सामाजिक ढांचों पर कई तरह के सामाजिक आक्रमण में वृद्धि, सैकड़ों साल से चली आ रही जातिगत व्यवस्था पर प्रहार, स्वतंत्र आन्दोलन में तीव्रता और ग्रामीणों का इसमें अभिनव योगदान, शिक्षा में ब्राह्मणों के एकाधिकार पर प्रबल आघात, नए सामाजिक समीकरणों की उत्पत्ति आदि इस काल की मुख्य सामाजिक प्रवृतियां रही हैं। 

1947 में भारत को स्वतंत्रता मिलना भी इसी काल में हुआ और इस घटना का प्रभाव आने वाली कविताओं पर पड़ा। इस काल में पुरुष वर्ग के नौकरी हेतु गढ़वाल से बाहर रहने से शृंगार विरह रस में भी वृद्धि हुई। हिंदी व अंग्रेजी से अति मोह, वास्तुशिल्प में बदलाव, धार्मिक अनुष्ठानों में बदलाव के संकेत, कृषि उपकरणों, कपड़ों में परिवर्तन, गढ़़वाली सभ्यता में बाह्य प्रभाव जैसे सामाजिक स्थिति इस काल की देन हैं। 

प्रवास में गढ़़वाली सामाजिक संस्थाएं गढ़़वाली साहित्यिक उत्थान में कार्यरत होने लग गईं थीं। जहां तक कविताओं का प्रश्न है सभी कुछ प्रथम काल जैसा ही रहा। हां कवियों की भाषा अधिक मुखर दिखती है और गढ़़वाली कविताओं पर हिंदी साहित्य विकास का सीधा प्रभाव अधिक मुखर हो कर आया है। अंग्रेजी साहित्य का भी प्रभाव कहीं-कहीं दिखने लगता है। यद्यपि यह मुखर होकर नहीं आई है। 

गढ़़वाली लोकवृत्ति एवं छन्दशैली में कमी दिखने लगी है। विषयों में सामाजिक सुधार को प्रधानता मिली है, विषयगत व कविताशैली में नए प्रयोग भी इस काल में मिलने लगे हैं। इस काल में जनमानस को यदि किसी कवि ने उद्वेलित किया है तो वह है रामी बौराणी के रचयिता बलदेव प्रसाद शर्मा दीन। रामी बौराणी कविता आज कुमाउनी और गढ़़वाली समाज में लोकगीत का स्थान ग्रहण कर चुकी है। 

इस काल की दूसरी महत्वपूर्ण घटना अथवा उपलब्धि रूप मोहन सकलानी द्वारा रचित गढ़़वाली में प्रथम महाकाव्य ’गढ़़ बीर महाकाव्य ’(1927-28) है। महाकवि भजन सिंह ‘सिंह’ का इस क्षेत्र में आना एक अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धि है। कई संस्कृत साहित्य का अनुवाद भी इस युग में हुआ। यथा ऋग्वेद का अनुवाद, कालिदास की अनुकृति आदि इस काल के कवियों में तोताकृष्ण गैरोला, योगेन्द्र पुरी, केशवानन्द कैंथोला, शिव नारायण सिंह बिष्ट, बलदेव प्रसाद नौटियाल, सदानंद जखमोला, भोलादत्त देवरानी, कमल साहित्यालंकार, भगवती चरण निर्मोही, सत्य प्रसाद रतूड़ी, दयाधर भट्ट आदि प्रमुख कवि हैं। 

1951 से 1975 तक सारे भारत में स्वतंत्रता उपरान्त जो बदलाव आए वही परिवर्तन गढ़़वाल व गढ़़वाली प्रवासियों में भी आए। स्वतंत्रता का सुख, स्वतंत्रता से विकास इच्छा में तीव्र वृद्धि, समाज में समाज से अधिक व्यक्तिवाद में वृद्धि, आर्थिक स्थिति व शिक्षा में वृद्धि, राजनेताओं द्वारा प्रपंच वृद्धि आदि इसी समय दिखे हैं। गढ़़वाल के परिपेक्ष में पलायन में कई गुणा वृद्धि, मनीऑर्डर अर्थव्यवस्था से कई सामाजिक परिवर्तन, औरतों का प्रवास में आना, संयुक्त परिवार से व्यक्तिपुरक परिवार को महत्व मिलना, गढ़़वालियों द्वारा सेना में उच्च पद पाना, होटलों में नौकरी से लेकर आईएएस ऑफिसर की पदवी पाना, नौकरी पेशा वालों को अधिक सम्मान, कृषि पर निर्भरता की कमी, कई सामाजिक-धार्मिक कुरीतियों में कमी- किन्तु नई कुरीतियों का जन्म, हेमवतीनंदन बहुगुणा का धूमकेतु जैसा पदार्पण या राजनीति में चमकाना, गढ़़वाल विश्वविद्यालय, आकाशवाणी नजीबाबाद जैसे संस्थानों का खुलना, देहरादून का गढ़़वाल कमिश्नरी में सम्मलित किया जाना, 1969 में कांग्रेस छोड़ उत्तरप्रदेश में संयुक्त सरकार का बनना फिर संयुक्त सरकार से जनता का मोहभंग होना, गढ़़वाल चित्रकला पुस्तक का प्रकाशन, उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा गढ़़वाली साहित्य को पहचान देने, चीन की लड़ाई, मोटर, बस, रास्तों में वृद्धि, लड़कियों की शिक्षा को सामाजिक प्रोत्साहन, अंतरजातीय विवाहों की शुरूवात (हेमवती नंदन बहुगुणा व शिवानन्द नौटियाल उदाहरण हैं), जाड़ों में गृहणियों द्वारा परदेस में पति के पास भेजने की प्रथा का आना, पुराने सामाजिक समीकरणों का टूटना व नए समीकरणों का बनना आदि इस युग की विशेषताएं हैं। 

चौधरी चरण सिंह द्वारा हिंदी की वकालत हेतु अंग्रेजी विषय को माध्यमिक कक्षाओं से हटाना जैसी राजनैतिक घटनाओं ने भी गढ़़वाली समाज पर प्रभाव डाला। जिसका सीधा प्रभाव गढ़़वाली कवियों व उनकी कविताओं पर पड़ा। कविता के परिपेक्ष में सामाजिक संस्थाओं द्वारा साहित्य को अधिक महत्व देना, गढ़़वाली साहित्यिक राजधानी दिल्ली बन जाना, कवि सम्मेलनों का विकास, नाटकों का मंचन वृद्धि, साहित्यिक गोष्ठियों का अनुशीलन, जीत सिंह नेगी की अमर कृति तू ह्वेली बीरा का रचा जाना, मैको पाड़ नि दीण और घुमणो कु दिल्ली जाण जैसे लोकगीतों का अवतरण, लोकगीतों का संकलन एवं उन पर शोध, चन्द्रसिंह राही का पदार्पण आदि मुख्य घटनाएं हैं। 

कविताओं ने नए कलेवर भी धारण किए, इस युग में कई नए प्रयोग गढ़़वाली कविताओं में मिलने लगे, पुराने छंद गीतेय शैली से भी मोह, हिंदी भाषा पर कम्यूनिस्टी प्रभाव भी गढ़़वाली कविता में आने लगा। अनुभव गत विषय, रियलिज्म, व्यंग्य में नई धारा, नए बिम्ब व प्रतीक, प्रेरणादायक कविताओं से मुक्ति से छटपटाहट, पलायन से प्रवाशियों व वासियों के दुःख, शैलीगत बदलाव, विषयगत बदलाव, कवित्व में बदलाव आदि इस युग की देन है। इस युग की गढ़़वाली कविताओं की विशेषता भी है, मानवीय संवेदनाओं को इसी युग में नई पहचान मिली। 

अबोध बंधु बहुगुणा, कन्हैया लाल डंडरियाल, जीत सिंह नेगी, गिरधारी लाल थपलियाल ‘कंकाल’, ललित केशवान, जयानंद खुकसाल ‘बौळया’, प्रेम लाल भट्ट, सुदामा प्रसाद डबराल ’प्रेमी’ जैसे महारथियों के अतिरिक्त पार्थसारथि डबराल, नित्यानंद मैठाणी, शेर सिंह गढ़़देशी, डॉ. गोविन्द चातक, गुणानन्द पथिक, भगवान सिंह रावत ‘अकेला’, डॉ. शिवानन्द नौटियाल, महेश तिवाड़ी, शिवानन्द पाण्डेय ‘प्रमेश’, रामप्रसाद गैरोला, जगदीश बहुगुणा ‘किरण’, महावीर प्रसाद गैरोला, चन्द्रसिंह राही, डॉ. उमाशंकर थपलियाल ’समदर्शी’, डॉ. उमाशंकर ’सतीश’, ब्रह्मानंद बिंजोला, भगवान सिंह कठैत, महिमानन्द सुन्द्रियाल, सचिदानन्द कांडपाल, रघुवीर सिंह रावत, डॉ. पुरुषोत्तम डोभाल, परशुराम थपलियाल, मित्रानंद डबराल शर्मा, श्रीधर जमलोकी, जीवानन्द श्रीयाल, कुलानन्द भारद्वाज ’भारतीय’, मुरली मनोहर सती ‘गढ़़कवि’, वसुंधरा डोभाल, उमा दत्त नैथाणी, सर्वेश्वर जुयाल, अमरनाथ शर्मा, विद्यावती डोभाल, ब्रजमोहन कबटियाल, चंडी प्रसाद भट्ट ‘व्यथित’, गोविन्द राम सेमवाल, जयानंद केशवान, शम्भू प्रसाद धस्माना, जग्गू नौडियाल, घनश्याम रतूड़ी ‘सैलानी’, धर्मानन्द उनियाल, बद्रीश पोखरियाल, जयंती प्रसाद बुड़ाकोटी, पाराशर गौड़ जैसे कवि मुख्य हैं। इनमें से कईओं ने आगे जाकर कई प्रसिद्ध कविताएं गढ़़वाली कविता को दीं। जैसे पाराशर गौड़ का इंटरनेट माध्यम में कई तरह का योगदान! 

कई उपलब्धियों और सामाजिक व काव्य आंदोलनों का युग 1976 से 2010 तक
सन 1976 से 2010 तक भारत को कई नए माध्यम मिले और इन माध्यमों ने गढ़़वाली कविता को कई तरह से प्रभावित किया। यदि टेलीविजन/ऑडियो वीडियो कैसेट माध्यम ने रामलीला व नाटकों के प्रति जनता में रूचि कम की, तो साथ ही आम गढ़़वाली को ऑडियो व वीडियो माध्यम भी मिला। जिससे गढ़़वाली ललित साहित्य को प्रचुर मात्र में प्रमुखता मिली। माध्यमों की दृष्टि से टेलीविजन, ऑडियो, वीडियो, फिल्म व इन्टरनेट जैसे नए माध्यम गढ़़वाली साहित्य को उपलब्ध हुए। सभी माध्यमों ने कविता साहित्य को ही अधिक गति प्रदान की।

सामाजिक दृष्टि से भारत में इमरजेंसी, जनता सरकार, अमिताभ बच्चन की व्यक्तिवादी- क्रांतिकारी छवि, खंडित समाज में व्यक्ति पूजा वृद्धि, समाज द्वारा अनाचार, भ्रष्टाचार को मौन स्वीकृति; गढ़़वालियों द्वारा अंतरजातीय विवाहों को सामाजिक स्वीकृति, प्रवासियों द्वारा प्रवास में ही रहने की (लाचारियुक्त?) वृत्ति और गढ़़वाल से युवा प्रवासियों की अनिच्छा, कई तरह के मोहभंग, संयुक्त परिवारों का सर्वथा टूटना, प्राचीन सहकारिता व्यवस्था का औचित्य समाप्त होना, ग्रामीण व्यवस्था पर शहरीकरण का छा जाना; गढ़़वालियों द्वारा विदेश गमन; सामाजिक व धार्मिक अनुष्ठानों में दिखावा प्रवृति, पहाड़ी भूभाग में कृषि कार्य में भयंकर ह्रास; गांव के गांव खाली हो जाना आदि सामाजिक परिवर्तनों ने गढ़़वाली कविताओं को कई तरह से प्रभावित किया। 

हेमवती नंदन बहुगुणा द्वारा इंदिरा गांधी को चैलेंज करना जैसी घटनाओं का कविता पर अपरोक्ष असर पड़ा। व्यवस्था पर भयंकर चोट करना इसी घटना की एक उपज है। जगवाळ फिल्म के बाद अन्य फिल्मों का निर्माण; उत्तराखंड आंदोलन, हिलांस पत्रिका आंदोलन, धाद द्वारा ग्रामीण स्तर पर कवि सम्मलेन आयोजन का आंदोलन, प्रथम गढ़़वाली भाषा दैनिक समाचार पत्र गढ़़ ऐना का प्रकाशन, चिट्ठी पतरी, उत्तराखंड खबर सार, गढ़़वालै धै या रन्त रैबार जैसे पत्रिकाओं या समाचार पत्रों का दस साल से भी अधिक समय तक प्रकाशित होना, उत्तराखंड राज्य बनाना आदि ने भी गढ़़वाली कविता को प्रभावित किया। 

गढ़़वाली साहित्यिक राजधानी दिल्ली से देहरादून स्थानांतरित होना व पौड़ी, कोटद्वार, गोपेश्वर, स्यूंसी बैंजरों जैसे स्थानों में साहित्यिक उप राजधानी बनने ने भी कविताओं को प्रभावित किया। गढ़़वाली कवियों व आलोचकों में गढ़़वाली को अन्तर्राष्ट्रीय भाषाई स्तर देने की कोशिश भी इसी समय दिखी। कवित्व व कविता की दृष्टि से यह काल सर्वोत्तम काल माना जाएगा और आधार भी देता है। आने वाला समय गढ़वाली कविता का स्वर्णकाल होगा। 

इस काल में शैल्पिक संरचना, व्याकरणीय संरचना, आतंरिक संरचना- वाक्य, अलंकार, प्रतीक, बिम्ब, मिथ, फन्तासी, लय, विरोधाभास, व्यंजना, विडम्बना, पारम्परिक लय, शास्त्रीय लय, मुक्त लय, अर्थ लय में कई नए प्रयोग भी हुए, तो परंपरा का भी अविर्भाव हुआ। सभी अलंकारों का खुल कर प्रयोग हुआ है और सभी रसों के दर्शन इस काल की गढ़़वाली कविताओं में मिलेंगी। 

फोरम के हिसाब से भी कई नए कलेवर इस वक्त गढ़़वाली कविताओं में प्रवेश हुए। यथा हाइकु कवित्व की अन्य दृष्टि में भी संस्कृत के पारंपरिक सिद्धांत, काव्य सत्य, आदर्शवाद, उद्दात स्वरूप, औचित्य, विभिन्न काव्य प्रयोजन, नव शास्त्रवाद, काल्पनिक, यथार्थपरक, जीवन की आलोचना, संप्रेषण, स्वच्छंद, कलावाद, यथार्थवाद, अति यथार्थवाद, अभिव्यंजनावाद, प्रतीकवाद, अस्तित्ववाद, धर्मपरक, अध्यात्मपरक, निर्व्यक्तिता, व्यक्तिता, वस्तुनिष्ठ - समीकरण, विद्वता वाद; वक्रोक्तिवाद आदि सभी इस युग की कविताओं में मिल जाती हैं। 

काव्य विषय में भी विभिन्नता है सभी तरह के विषयों की कविता इस काल में मिलती हैं। अबोध बंधु बहुगुणा का भुम्याल, कन्हैया लाल डंडरियाल का नागराजा (पांच भाग) और प्रेमलाल भट्ट का उत्तरायण जैसे महाकाव्य इस काल की विशेष उपलब्धि हैं। कविता संग्रहों में अबोधबंधु सम्पादित शैलवाणी (1980 ) एवं मदन डुकलान सम्पादित व भीष्म कुकरेती द्वारा समन्वय सम्पादित चिट्ठी पतरी (अक्टॅूबर 2010) का वृहद कविता विशेषांक व अंग्वाळ (जिसमें गढ़़वाली कविता का इतिहास व तीन सौ से अधिक कवियों की कविताएं संकलित हैं) विशिष्ठ संग्रह हैं। 

कई खंडकाव्य भी इस काल में छपे हैं। अन्य कविता संग्रहों में जो की विभिन्न कवियों के कविता संकलन हैं में ग्वथनी गौ बटे (सं. मदन डुकलान), बिजिगे कविता (सं. मधुसुदन थपलियाल) एवं ग्वै (सं. तोताराम ढौंडियाल) विशेष उल्लेखनीय मानी जाएंगी। गढ़़वाली कवितावली का द्वितीय संस्करण भी एक ऐतिहासिक घटना है। कुमाउनी, गढ़़वाली भाषाओं के विभिन्न कवियों की कविता संकलन एक साथ दो संकलन प्रकाशित हुए हैं। दोनों संग्रह उड़ी घेंडुड़ी और डांडा कांठा के स्वर (गजेंद्र बटोही संपादक ) व मदन डुकलाण सम्पादित अंग्वाळ  में 300 से ऊपर कविताएं संकलित हैं। 

इस काल के कवियों की फेरिहस्त लम्बी है। पूरण पंथ पथिक, मदन डुकलान, लोकेश नवानी, नरेंद्र सिंह नेगी, हीरा सिंह राणा, नेत्र सिंह असवाल, गिरीश सुंदरियाल, वीरेन्द्र पंवार, जयपाल सिंह रावत ’छिपड़ु दा’, हरीश जुयाल, मधुसुदन थपलियाल, निरंजन सुयाल, धनेश कोठारी, वीणा पाणी जोशी, बीना बेंजवाल, नीता कुकरेती, शांति प्रसाद जिज्ञासु, चिन्मय सायर, देवेन्द्र जोशी, बीना पटवाल कंडारी, डॉ. नरेंद्र गौनियाल, महेश ध्यानी, दीनदयाल बन्दुनी, महेश धस्माना, सत्यानन्द बडोनी, डॉ. नन्दकिशोर हटवाल, ध्रुव रावत, गुणानन्द थपलियाल, कैलाश बहुखंडी, मोहन बैरागी, सुरेश पोखरियाल, मनोज घिल्डियाल, कुटज भारती, नागेन्द्र जगूड़ी नीलाम्बर, दिनेश ध्यानी, देवेन्द्र चमोली, सुरेन्द्र दत्त सेमल्टी, चक्रधर कुकरेती, विजय कुमार भ्रमर, बलवंत सिंह रावत, सुरेन्द्र पाल, भवानी शंकर थपलियाल, खुशहाल सिंह रावत, रजनी कुकरेती, दिनेश कुकरेती, श्रीप्रसाद गैरोला, रामकृष्ण गैरोला, राकेश भट्ट, महेशानन्द गौड़, शाक्त ध्यानी, जबर सिंह कैंतुरा, डॉ. राजेश्वर उनियाल, संजय सुंदरियाल, प्रीतम अपच्छयाण, डॉ. मनोरमा ढौंडियाल, देवेन्द्र कैरवान, अनसूया प्रसाद डंगवाल, विपिन पंवार, विवेक पटवाल, जगमोहन सिंह जयाड़ा, विनोद जेठुड़ी, सुशील पोखरियाल, शशि हसन राजा, हेमू भट्ट, गणेश खुगशाल, डॉ. नंदकिशोर ढौंडियाल, डॉ. प्रेमलाल गौड़ शास्त्री, मोहन लाल ढौंडियाल, सतेन्द्र चौहान, शकुंतला इष्टवाल, विश्व प्रकाश बौड़ाई, अनसूया प्रसाद उपाध्याय, राजेन्द्र प्रसाद भट्ट, शिवदयाल शैलज, शशि भूषण बडोनी, बच्ची राम बौडाई, संजय ढौंडियाल, कुलबीर सिंह छिल्बट, चित्र सिंह कंडारी, अनिल कुमार सैलानी, रणबीर दत्त, चन्दन, रामस्वरूप सुन्द्रियाल, सुशील चन्द्र, अशोक कुमार उनियाल यज्ञ, दर्शन सिंह बिष्ट, तोताराम ढौंडियाल, ओमप्रकाश सेमवाल, सतीश बलोदी, सुखदेव दर्द, देवेश जोशी, गिरीश पंत मृणाल, मायाराम ढौंडियाल, लीलानंद रतूड़ी, रमेश चन्द्र संतोषी, गजेंद्र नौटियाल, सिद्धि लाल विद्यार्थी, विमल नेगी, नरेन्द्र कठैत, रमेश चन्द्र घिल्डियाल, हरीश मैखुरी, मुरली सिंह दीवान, विनोद उनियाल, अमरदेव बहुगुणा, गिरीश बेंजवाल, ब्रजमोहन शर्मा, ब्रज मोहन नेगी, सुनील कैंथोला, हरीश बडोला, उद्भव भट्ट, दिनेश जुयाल, दीपक रावत, पृथ्वी सिंह केदारखंडी, बनवारी लाल सुंदरियाल, एन शर्मा, मदन सिंह धयेडा, मनोज खर्कवाल, सतीश रावत, मृत्युंजय पोखरियाल, हरिश्चंद्र बडोला, संदीप  रावत, बालकृष्ण ध्यानी, पयाश पोखड़ा, वीरेंद्र जुयाल, रमेश हितैषी,  मनोज भट्ट, बालकृष्ण ममगाईं,  नरेश उनियाल मुख्य कवि हैं।

05 November, 2019

मान राम (हिन्दी कविता)

अनिल कार्की //

मानराम !
ओ बूढ़े पहाड़
लो टॉफी खा लो
चश्मा पौंछ लो मेरे पुरखे

टॉफी की पिद्दी सी मिठास
तुम्हारे कड़वे अनुभवों को
मीठा कर सकेगी
मैं यह दावा कतई नहीं करूंगा

आंखों में जोर डालो मानराम
हम डिग्री कॉलेज के पढ़े हुए तुम्हारे बच्चे
तुमसे पूछना चाहते हैं

जीवन के सत्तानबे साल कैसे गुजरे ?
क्या काम किया ?
क्या गाया ?
कैसा खाया ?
कितनी भाषाएं बोल लेते हो ?

नहीं मान राम
हमें नहीं सुननी तुम्हारी गप्पें
तुम रोओ नहीं हमारे सामने
तुम्हारे आंसुओं में आंकड़े नहीं
जो हमारे काम आ सकें
या कि जिनसे हम लिख सकें बड़ी बात

मान राम देश तुम्हारे हाथ का बुना
टांट का बदबुदार पजामा नहीं
देश डिजिटल है इस समय
तुम अजूबे हो
तुम्हारी केवल नुमाईश हो सकती है

तुम्हारी कछुवे सी पीठ
हजार साल पुरानी है
शौका व्यापारियों का नून तेल ढोती हुई
हिमाल के आर- पार तनी हुई
उसी पीठ में है सैकड़ों
बौद्ध उपदेश
अहिंसा के, पीड़ा के, दया के
जो अनपढ़े रह गए वर्षों से
या कि ढके रह गए बोझ ढोते हुए

तुम्हारे चश्मे का एक पाया
ऊन से टिका है आज भी
ऊन तुम्हारे आंख से
गर्म सफेद आंसू सा टपकता रहा
मैं जानता हूं तुम्हारी स्मृतियों में
भेड़ें तुमसे ज्यादा खुशकिस्मत रही हैं

अपने कांपती अंगुलियों से
तुम लकड़ी के सीकों पर
ऊन से बुन रहे हो कमर पट्ट आज भी
ताकि जमे रहे कमर पे पीठ

जबकि हम चौंक रहे हैं मान राम
तुम्हारी बिनाई पर
तुम्हारा दर्द
कला का महानतम नमूना नहीं
हमारी नजर का धोखा भर है।
जिन्हें गरीबी और मेहनत का रिश्ता नहीं पता
वे इसे जरूर कला कहेंगे तुम्हारी।

गाओ मानराम
तिब्बती गीत
नाचो भी
निकालो गले से भर्रायी आवाज
पुरातन आदिम
हम बजायेंगे ताली
और तुम खुश हो जाओगे

सुनो मानराम
अगले आगामी जन्मों में
जब भी जाओ तिब्बत
ध्यान में रमा हुआ
कहीं मिल जाए तथागत
तो अपने लिए निर्वाण न सही
पर कमर चड़क की दवा जरूर मांग लाना।
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(लम्बी उम्र तक सौका व्यापारियों का नून तेल ढोकर कठिन हिमालयी रास्तों से तिब्बत पहुंचाने वाले एक 97 वर्षीय दलित बुर्जुग से मिलने के बाद जो अब भी तंगहाली और भूमिहीन जीने को अभिशप्त है)

31 October, 2019

हमर गौंम (गढ़वाली कविता)


केशव डुबर्याळ ‘मैती’//

हमर गौंम,
आइडिया नेटभर्क च,
गोर, बछरू, भ्याल हकै,
मनखि निझर्क च।

हमर गौंम,
पीडब्ल्डी सड़क च,
मनखि भितर सियुं,
भैर बांदर बेधड़क च।

हमर गौंम,
ऊर्जा निगमै बिजलि च,
भैर मनखि उज्यळु,
भितर अंध्यरु च।

हमर गौंम,
सरकरि प्राथमिक इस्कोल च,
नाति पढ़णौ प्रावेट इस्कोल,
बाजार भेज्यूं च।

हमर गौंम,
जल संस्थान कू पाणि च,
बस भौत ह्वेगि यिख,
अब देरादूनै स्याणि च।

24 October, 2019

चुनौ बाद (गढ़वाली कविता)


धनेश कोठारी //

बिकासन बोलि
परदान जी!
मिन कबारि औण ?
पैलि तुमारा घौर औण
कि/ गौं मा औण?

अबे! ठैर यार
बिन्डी कतामति न कार
पैलि हिसाब त् लगौण दे
तेरा बानौ खर्च कत्था ह्वे

भुकौं कथगा कुखड़ा खलैन
बोत्ळयूं पर छमोटा कै कैन लगैन
कथगौं करै अबारि ‘चुनौ टूरिज्म’
अर कै- कैन करिन रुप्या हज्म

कै कैतै ब्वन्न प्वड़े ई बाबा
कैका खुट्टौं मा धैरि साफा
क्य-क्य बोलि झूठ अर सच
कैका शांत करिन् गुळमुच

पदान जी! फेर बि...
क्वी टैम क्वी बग्तऽ ?

अबे! जरा थौ बिसौं
घड़ेक गिच्चा परैं म्वाळु लगौ
तिन बि कौन से अफ्वी हिटिक औण
खुट्टौं बिगर त् तिन बि ग्वाया लगौण

पुजण प्वड़ेला बिलौका द्यब्ता
खबेसूं तै बि गड़ण प्वडे़ला उच्यणा
बिधैकज्या नौ बि बजौण प्वड़ेली घंडुलि
तब त् ऐ सकली तू हमरि मंडुलि

धीरज धैर अर निसफिकरां रौ
तैरा ई भरोसा त लड़्यों चुनौ
तिन ई त् बणौण हमारि मौ
बिगास बस घड़ेक तू चुप रौ।।

22 October, 2019

इंसानी जीवन के रेखांकन की कविताएं

पुस्तक समीक्षा-  जलड़ा रै जंदन (गढ़वाली कविता संग्रह)
डॉ. नंद किशोर हटवाल //

कविताओं को अपने समय और समाज का दर्पण कहा जाता है। अपेक्षा की जाती है कि उसमें हमारा ‘आज’ हो। कविताएं अपने भाषाई और सामाजिक वर्ग की विशिष्टताओं और चिंताओं से भी परिचित कराए। उनमें उस वर्ग के अंतिम व्यक्ति की चिंताएं प्रतिध्वनित हों। अपनी माटी की खुशबू और प्रकृति की रम्यता में इंसान कहीं खो न जाए। कविता इलाकाई और भाषाई सीमाओं से बाहर निकली हुई, हवा की तरह आजाद और पानी की तरह सार्वभौम हो। उसमें अपने अंचल की मिठास तो हो लेकिन जकड़न न हो। क्षेत्रीय विशिष्ठताएं हों लेकिन बंधन न हों। देवेन्द्र जोशी के सद्य प्रकाशित गढ़वाली कविता संग्रह ‘जलड़ा रै जंदन’ को पढ़ते हुए कुछ इसी तरह की अनुभूतियों से गुजरा जा सकता है। 

संग्रह की पहली कविता ‘जलड़ा रै जांदा’ में अपनी जड़ों से जुड़ने की एक गहरी चाहत दिखती है। कवि के अंतर्मन की यह चाहत अन्य कविताओं में भी प्रकट हुई है। कविता में आगे बढ़ने की इच्छा के समर्थन के साथ अपनी जड़ों को न भूलने, उनसे अलग न होने और उसे सिंचित करने की इच्छा खूबसूरत तरीके से व्यक्त हुई है। 
कविता ‘जख्या’ आम आदमी को परिभाषित करती है- 
मी सदानी गाली खांदू रयूं/कै का पुगड़ों/गल्ति से भी जम गयूं/धाणि किसाण्यूंन/चट्ट उपाड़ि फुंड चुटै द्यूं

‘ठांगरा’ कविता वैयक्तिक छटपटाहट के खिलाफ सामाजिक रूप से आगे बढ़ने- बढ़ाने की हिमायत करती है-
हम खुणै/क्य हरगण ह्वे होलू/न ठंगरा ल्है सकणा छां/न घैंटि सकणा छां/लगुलौं तैं/अंक्वै फलना-फुलणा खुणे/ठंगरा जरूरी छन।

‘हमारा कूड़ा’ कविता में- जांदरा (हाथ की चक्की)/ बीजि जांदन बिंनसरी मा/अर बांचण बैठि जांदा/ भूख मिटौणा मंत्र/अर चिड़ौंदा तिलक धार्रों तैं...’ कहकर कवि ने श्रम के सुरीलेपन की तह में दबी चुभन और श्रम के खिलाफ रहने वाली किसी भी प्रवृत्ति के अस्वीकार को बयां किया है। 

‘जांदरे’ की गरगराहट को भूख मिटाने के मंत्र के रूप में सुनना कवि की अनुभूति की ऊंचाइयों को दर्शाती है। यह कर्मकाण्ड के सामने कामगारों के जीत की कविता है। संग्रह की कई कविताओं में श्रम की पक्षधरता दिखती है। यथा ‘बड़ू आदिम’ कविता खेती किसानी करने वाले को बड़ा आदमी बनाती है। 

संग्रह की कविताओं में लोकगीत की शैलियों और टैक्निक के प्रभाव भी दिखते हैं। सम्बोधन शैली उत्तराखण्ड के लोकगीतों की बहुप्रयुक्त शैली रही है। इसका प्रयोग कवि ने बखूबी किया है। मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोगों ने कविताओं का सौंन्दर्य बढ़ाया है तो नए अप्रचलित शब्दों के प्रयोगों ने शब्दों को मृत होने से बचाया है। विषय चयन में नवीनता है। जख्या, अछ्याणू, बल्द, जुत्ता कविताओं में समकालीन प्रवृत्तियां दृष्टिगत हुई हैं। राजनैतिक, सामाजिक चेतना का विस्तार और व्यंग्य कविताओं में दिखता है।

संग्रह का दूसरा खण्ड गीत का खण्ड है। इसमें उत्तराखण्ड आन्दोलन से लेकर अन्य अवसरों पर लिखे गीत संग्रहीत हैं। पहला संग्रह ‘कांठ्यों मा ओंण से पैलि’ (1984) और उसके बाद ये दूसरा संग्रह जलड़ा रै जंदन गढ़वाली साहित्य में मील के पत्थर कहे जा सकते हैं।

गढ़वाली भाषा में लिखी गई इस संग्रह की कविताएं संवेदनाओं और वैचारिक स्तर पर काफी विस्तार लिए हैं। डाडी-कांठी, झरने, बादल, घुघूती, घाम, बरखा जैसी छायावादी प्रवृत्तियों से आगे बढ़ते हुए जोशी की कविताएं इंसानी जीवन की विडम्बनाओं और राजनैतिक विद्रूपों को अनावृत करती हैं। 

कुल मिला कर ‘जलड़ा रै जंदन’ संग्रह की कविताएं खूबसूरत प्रकृति, पहाड़ों, नदियों, झरनो, मंदिरों और देवताओं की भूमि में इंसानी जीवन के रेखांकन की कविताएं हैं।

संग्रह :  जलड़ा रै जंदन (गढ़वालि काव्य संग्रै)
कवि :  देवेन्द्र जोशी, फोन नं. 7895905366
प्रकाशक :  विनसर पब्लिशिंग कम्पनी, 
           8, प्रथम तल, के0सी0 सिटी सेंटर 
           4 डिस्पेंसरी रोड़, देहरादून-248001
कुल पृष्ठ : 116, मूल्य : 100.00

रचनाकार का पता : छैल, 76 विद्या विहार, कारगी रोड, देहरादून-24001
पुस्तक प्राप्ति : प्रकाशक, लेखक एवं युगवाणी प्रेस, 14 बी, क्रास रोड, देहरादून।

समीक्षक : डॉ. नंद किशोर हटवाल

20 October, 2019

गैळ बळद (गढ़वाली कविता)

आशीष सुंदरियाल// 

जब बटे हमरु गैळ बळ्द
फेसबुक फर फेमस ह्वे
तब बटि
वो बळ्द/ बळ्द नि रै
सेलिब्रिटी बणिगे
अर मि
वेकु सबसे बड़ु फैन 
उन्त सिर्फ मि ना
सर्या दुन्या आज वेकी फैन च 
                                              तबि त
                                              वे दगड़ सेल्फी खिचाण वळों की 
                                              इतगा लम्बी लैन च
                                              लोग पागल हुयां छन वेका बान
                                              हर क्वी कनू च वेको गुणगान
                                              लाइक कमेंट शेयर कना छन 
                                              लोग धड़ाधड़
                                              क्वी दिल चिपकाणू च
                                              क्वी अंगुठा दिखाणू च
                                              क्वी वे तैं अपणि गौड़ी कु बोड़
                                              त क्वी वे तैं 
                                              अपणि बाछी कु बुबा बताणू च
                                              जैको ब्याळी तक क्वी कामकाज नि छौ
                                              वो आज ये बळ्दै कान्ध कन्याणू च
                                              चैनल वळा 
                                              हमारि छानि बटे लाइव प्रसारण कना छन
                                              अर
                                              वेका बारम् इनि- इनि बात ब्वना छन 
                                              जो मि तैं भि नि छन पता
                                             जो जनम बटे छौं वे तैं घुळाणू
                                             ठ्यली-ठ्यलि कै एक फांगी बवाणू
                                             पर
                                             अब टी.वी. मा ऐगे
                                             त
                                             मि तैं भि वी ब्वन प्वड़णू च
                                             कि
                                             जब बटे
                                             हमरु गैळ बळ्द 
                                             फेसबुक फर फेमस ह्वे
                                             तब बटि 
                                             वो बळ्द/ बळ्द नि रै..












आशीष सुंदरियाल// 

19 October, 2019

उत्तराखंड के सीमांत क्षेत्रों में बसती हैं ये जनजातियां

नवीन चंद्र नौटियाल //

उत्तराखंड राज्य के गढ़वाल और कुमाऊं मंडलों के समाज में अन्य के साथ ही कई जनजातियां भी सदियों से निवासरत हैं। इनमें भोटिया, जौनसारी, जौनपुरी, रंवाल्टा, थारू, बोक्सा और राजी जातियां प्रमुख हैं। अब तक इतिहास से संबंधित प्रकाशित पुस्तकों में इनका काफी विस्तार से वर्णन भी मिलता है। ऐसी ही कुछ किताबों से पर्वतीय राज्य की जनजातियों को संक्षेप में जानने का प्रयास किय गया है।

भोटिया जनजाति : 
उत्तराखंड की किरात वंशीय भोटिया जनजाति का क्षेत्र कुमाऊं- गढ़वाल से लेकर तिब्बत तक फैला हुआ है। भोटिया समुदाय के लोग अपनी जीवटता, उद्यमशीलता और संस्कृतिक विशिष्टता और विभिन्नता के लिए जाने जाते हैं। मध्य हिमालय की भोटिया जनजाति इसी क्षेत्र की नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भारत की जनजातियों में सर्वाधिक विकसित हैं। उनकी खुशहाली और समृद्धि गैर- जनजातीय लोगों के लिए भी एक अनुकरणीय उदाहरण है।

भोटिया वास्तव में एक जाति न होकर कई जातियों का समुदाय है। यह मध्य- हिमालयी क्षेत्र की सर्वाधिक जनसंख्या वाली जनजाति है। इस समुदाय में मारछा, तोल्छा, जोहारी, शौका, दारमी, चौंदासी, ब्यांसी आदि जातियों के लोग शामिल हैं। कश्मीर के लद्दाख में इन्हें भोटा और हिमाचल प्रदेश के किन्नौर में इन्हें भोट कहा जाता है। इनकी भाषा तिब्बती भाषा से मिलती- जुलती होने के कारण इन्हें उत्तराखंड के मूल निवासी रहे खसों में भी शामिल नहीं किया जा सकता है। भोटिया लोगों के भारत-तिब्बत सीमा पर बसे होने के कारण इनकी भाषा में तिब्बती प्रभाव होना स्वाभाविक है।

गढ़वाल में मारछा जनजाति के मूल गांव माणा, गमसाली, नीति और बम्पा हैं। जबकि तोल्छा लोगों के मूल गांव कोसा, कैलाशपुर, फरकिया, मलारी, जेलुम, फाक्ती, द्रोणागिरी, लाता, रैणी, सुराई ठोठा और सुबाई आदि हैं। सुबाई, मल्लगांव और सुक्की जैसे कुछ गांवों में दोनों जातियों की मिश्रित आबादी निवास करती है। तोल्छा जाति के लोग स्वयं को ऊंची जाति का मानते हैं।

अधिकतर जनजातियां ‘जल, जंगल, जमीन’ के समीप रहकर पूरी तरह से प्रकृति पर निर्भर रहते हैं और प्रकृति के रक्षक और मददगार भी साबित होते हैं। परन्तु भोटिया समुदाय के लोगों के साथ ऐसा नहीं देखा जाता है। भोटिया वास्तव में आजीविका के लिए एक घुमन्तु और व्यापारिक मानव समूह रहा है। भारत और तिब्बत के बीच में रहने और दोनों भू-भागों व्यापार करने के लिए उन्हें एक ऐसी विलक्षण भाषा की जरुरत पड़ी जो कि दुनिया के अन्य क्षेत्रों में न बोली जाति हो। न ही दूसरा व्यापारिक वर्ग उसे समझता हो। इसीलिए इनकी बोली को सांकेतिक भाषा भी कहा गया है। अलग-अलग क्षेत्रों के भोटिया लोगों के जनजीवन, बोली-भाषा और रहन-सहन में बहुत अंतर दिखाई देता है।
कुमाऊं मंडल के पिथौरागढ़ जिले के धारचुला क्षेत्र में रहने वाली ‘रं’ भोटिया जाति, मुनस्यारी क्षेत्र की शौका भोटिया जाति, गढ़वाल मंडल के चमोली जिले की नीति-माणा घाटी में रहने वाली रोंग्पा भोटिया जाति और उत्तरकाशी जिले की भटवाड़ी तहसील में रहने वाली जाड़ भोटिया जातियों की बोलियों में बहुत अंतर दिखाई देता है।

भोटिया जनजाति के लोग अन्य हिमालयी जनजातियों की तरह खेती और वनों पर आश्रित नहीं रहे, बल्कि उन्होंने व्यापार को अपनी आजीविका का आधार बनाया। उत्तरकाशी से लेकर पिथौरागढ़ तक के सारे सीमान्त क्षेत्र में भोटिया समुदाय की बस्तियां प्रायः छोटी और छितरी हुई दिखाई देती हैं। ये स्वयं को खस राजपूत मानते हैं।

उत्तराखंड की जनजातीय विविधता में भी भोटिया जनजाति में जितनी सांस्कृतिक विविधता मिलती है, उतनी किसी अन्य जनजाति में नहीं मिलती। पिथौरागढ़ के भोटिया जहां शौक और फिर ब्यांसी, जोहारी और दारमी या रं कहलाते हैं, वहीं गढ़वाल के भोटिया मारछा, तोलछा और जाड़ जातियों के नाम से जाने जाते हैं। ये ना स्वयं को क्षत्रिय वंशी मानते हैं बल्कि इनके नाम भी अन्य क्षत्रिय जातियों की ही तरह होते हैं। गढ़वाल के मारछा, तोलछा और जाड़ ने गंगाड़ी क्षत्रियों की रावत, राणा, नेगी, कुंवर और चौहान जैसी उपजातियों भी अपनाई हुई हैं।

पलायन का असर समूचे उत्तराखंड में देखा जा सकता है। जब गढ़वाल और कुमाऊं दोनों ही मंडलों से असंख्य लोग पहाड़ों को छोड़कर मैदानी इलाकों की ओर पलायन कर रहे हैं, भोटिया जनजाति बहुल क्षेत्रों में भी पलायन का असर देखा जा सकता है। तिब्बत सीमा से लगी नीति घाटी के रैणी, लाता, सूकी, गुरपक, भल्ला गांव, फागती जुम्मा, द्रोणागिरी, गरपक, जेलम, संगला, कोषा, मलारी, कैलाशपुर, महरगांव, फरकिया, बम्पा, गमसाली और नीति जैसे गांवों में अब पुरानी रौनक नहीं रह गयी है। भोटिया जनजाति के इन गांवों में लगभग 60 प्रतिशत लोग निचली घाटियों में ही स्थायी रूप से बस गए हैं और ग्रीष्मकाल में लगभग 40 प्रतिशत लोग ही इन गांवों में लौटते हैं।

जौनसारी : 
जौनसारी गढ़वाल की प्रमुख जनजाति रही है। गढ़वाल के इन जनजाति बहुल क्षेत्र को जौनसार कहा जाता है। वास्तव में जौनसारी कोई जाति नहीं है बल्कि जौनसार- बावर क्षेत्र की विभिन्न उप- जातियों का एक समूह है। अपनी सांस्कृतिक विलक्षणता के कारण यह क्षेत्र हमेशा चर्चित रहा है। देहरादून जिले की चकराता, त्यूनी और कालसी तहसीलों के विस्तृत भौगोलिक क्षेत्र में फैला जौनसार भू-भाग गढ़वाल के कई विकासखंडों का स्पर्श करता है।

हिमाचल प्रदेश के सिरमौर से लेकर देहरादून जिले की चकराता तहसील और उत्तरकाशी जिले के हिमाचल प्रदेश से लगे मोरी ब्लॉक तक की जनजातीय पट्टी में लगभग एक ही प्राचीन मानव समूह के लोग निवास करते हैं। इनमें टिहरी जिले का जौनपुर भी शामिल है। यहां आज भी पाण्डव या महाभारतकालीन सभ्यता के अंश मौजूद हैं। मूलतः ये लोग आयुद्धजीवी खस माने जाते हैं। इनके त्यौहारों और परंपराओं में युद्ध का अंश मौजूद रहता है।

जौनसारी गढ़वाल का सबसे बड़ा जनजातीय समूह माना जाता है। जौनसार-बावर के तीन उपखंड हैं- जौनसार, लोहखंडी और बावर। इस क्षेत्र का नाम जौनसार बावर कैसे पड़ा, इसमें विद्वानों का अलग-अलग मत है। यमुना के इस पार बसने वाले को जौनसार और पावर नदी के पार बसने वालों को पावर से बावर पुकारा जाता है। कुछ साहित्यकार जौनसार को यावान्सार का रूप मानते हैं क्योंकि इतिहास में यह क्षेत्र यवनी शासक के अधीन रहा है। नामकरण का कारण चाहे जो भी रहा हो, लेकिन जौनसार-बावर क्षेत्र यमुना व टौंस नदी के मध्य एक द्वीप के समान है। यहां दो ब्लॉक चकराता और कालसी और तीन तहसीलें चकराता, कालसी और त्यूणी हैं।

जौनसार इलाके में कई जनजातियां निवास करती हैं। गढ़वाल के देहरादून जिले की कालसी, त्यूनी और चकराता तहसीलों के अंतर्गत आने वाले जौनसार-बावर इलाके में निवास करने वाली जौनसारी जाति स्वयं एक जनजाति है। जौनसारी जनजाति का सम्बंध महाभारत काल से माना जाता है। जौनसार और बावर वैसे तो दो अलग-अलग इलाके हैं परन्तु दोनों को एक साथ संबोधित किया जाता है। जौनसार के लोग स्वयं को पाण्डवों का वंशज मानते हैं जबकि बावर के लोग स्वयं को कौरवों (दुर्योधन) का वंशज मानते हैं। इन दोनों समुदायों के मध्य आपसी व्यवहार एवं संबन्ध इतिहास में कम ही रहे हैं। दोनों जनजातियों में आपस में शादी-विवाह भी नगण्य ही रहे हैं।

जौनसार क्षेत्र सांस्कृतिक विविधता का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करता है। चकराता और कालसी ब्लॉकों में जौनसारी, टिहरी के थत्यूड़ क्षेत्र में जौनपुरी और यमुना घाटी (कमल नदी घाटी) व रवाईं उप घाटी के पुरोला और मोरी ब्लॉकों में रंवाल्टा समूह के लोग निवास करते हैं। इसके अलावा हिमाचल प्रदेश के सीमान्त क्षेत्र के लोग भी रीति-रिवाज और और खान-पान की दृष्टि से जौनसारियों के सहोदर माने जाते है। जौनसारी जाति के लोगों को मंगोल और खस प्रजाति के मिश्रण वाली जनजाति माना जाता है।

जौनसार बावर में उत्तराखंड के अन्य पहाड़ी इलाकों की ही तरह वर्ण व्यवस्था प्रचलित रही है, जिनमें प्रदेश के अन्य पहाड़ी इलाकों की ही तरह खस राजपूतों और ब्राह्मणों का दबदबा रहा है। इन दोनों जातियों में भी राजपूतों का वर्चस्व अधिक रहा है। इतिहास में खस मध्य एशिया की शक्तिशाली जाति रही है। जिसने झेलम घाटी से लेकर कुमाऊं तक के समस्त क्षेत्र में अपना अधिपत्य बनाए रखा था।

जौनसारी लोग महासू देवता की पूजा करते हैं। जौनसार में विवाह को जजोड़ा कहा जाता है। जौनसार की बहुचर्चित बहुपति प्रथा और बहु पत्नी प्रथा अब लगभग लुप्त हो चुकी हैं। जौनसारी लोग बैसाखी, दशहरा, दीपावली, माघ मेला, नुणाई, जगड़ा आदि त्योहार मनाते हैं। इस क्षेत्र में दीपावली पूरे एक महीने बाद मनायी जाती है।

रंवाल्टा- जौनपुरी :
उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में हिमाचल के सिरमौर से लेकर उत्तरकाशी के मोरी ब्लॉक की बंगाण पट्टी तक  रंवाल्टा- जौनपुरी जनजातीय समूह निवास करता है। जौनसार बावर के साथ जमुना पार जौनपुर क्षेत्र है जो जौनसार के रीति-रिवाज, बोली-भाषा से मिलता- जुलता है। जिससे जौनसार की कोरुखत, बहलाड़, लखवाड़, फैटाड़ और सेली खत मिलती हैं। जौनपुर कर नैनबाग, जमुना पुल, सिलवाड़ पट्टी आदि क्षेत्र मिलते हैं। जिनमें आपस में रिश्ते भी हैं।

थारू  :
उत्तराखंड में निवास करने वाली जनजातियों में से थारू जनजाति भी एक है। ये उत्तराखंड के तराई वाले क्षेत्र से लेकर उत्तर में नेपाल तक फैले हुए हैं। इनका प्रभाव क्षेत्र ज्यादातर कुमाऊं में रहा है। गढ़वाल के कुछ सीमान्त क्षेत्रों में थारू जनजाति के लोग मिल जाते हैं। यह जनजाति कृषि पर आधारित जनजाति रही है। इन्होंने तराई क्षेत्र की उपजाऊ ज़मीन को अपना कर्म- क्षेत्र चुना और धरती- पुत्र बन गये।

दुनिया की अधिकांश जनजातियां वनों पर निर्भर और आखेटक संग्राहक रही हैं और कृषि पर निर्भर न होने के कारण उनके जीवन को स्थायित्व नहीं मिला। लेकिन थारू जनजाति कृषि पर आधारित होने के कारण इनके जीवन को स्थायित्व मिला है। इसीलिए थारुओं की आबादी फलती-फूलती रही है। वे आज उत्तराखंड की तराई से लेकर उत्तर-प्रदेश के पीलीभीत तक फैले हुए हैं। थारू जनजाति के बारे में इतिहासकारों और साहित्यकारों के अलग-अलग मत हैं। कोई उन्हें मंगोलियन तो कोई उन्हें किरात वंशीय मानता है। वहीं दूसरी ओर थारू जनजाति के लोग स्वयं को राजस्थान के राजपूत और राणा प्रताप के वंशज मानते हैं।

बोक्सा :
बोक्सा को मानव-विज्ञानी लोग खानाबदोश मानते थे परन्तु बोक्स समुदाय के लोगों के तराई क्षेत्र में स्थायी होने के प्रमाण भी मिलते हैं। कुछ विद्वान् इन्हें मंगोलों की नस्ल का मानते हैं तो कुछ का मानना है कि ये किरातों के वंशज हैं। इतिहासकार इन्हें थारुओं की ही एक उप-शाखा भी मानते हैं।

थारुओं की ही तरह बोक्सा भी तराई के मूल निवासी हैं। ये भी स्वयं को राजस्थान के राजपूत मानते हैं। कुछ मानव विज्ञानी इन्हें थारुओं की ही एक शाखा मानते हैं। कुछ मानव विज्ञानी उन्हें मंगोलियन मानते हैं। बोक्स तराई के अलावा कोटद्वार- भाबर और देहरादून में भी बसे हैं। इनकी एक शाखा कभी मिहिर या मेहर नाम से देहरादून में पायी जाती थी, जो अब अन्य क्षत्रियों में विलीन हो गई है। सहारनपुर हिमाचल प्रदेश में भी इनकी कुछ शाखाएं हैं।

राजी :
उत्तराखंड की कई जनजातियां धीरे-धीरे विलुप्ति की कगार पर हैं। अधिकतर जनजातियां अपने परिवेश में रहते हुए वर्तमान परिस्थितियों के साथ संघर्ष कर रही हैं। विलुप्त होती आदिम जातियों में से एक उत्तराखंड की ‘वन राजी’ या ‘वन रौत’ जाति भी शामिल है। प्रदेश से मिहिर या मेहर जनजाति पहले ही विलुप्त हो चुकी है या फिर किसी और जाति में विलीन हो चुकी है। राजी मूलतः आदिम आखेट आधारित मानव समूह है, जिसे ‘वन रावत’ या ‘वन मानुष’ के नाम से भी जाना जाता है। वन रावत का मतलब जंगल का राजा भी होता है। राजी लोग स्वयं को अस्कोट के प्राचीन राजवंश के वंशज मानते हैं, इसलिए वे अपनी जाति रजवार भी लिखते हैं, जबकि नृवंश विज्ञानी उन्हें किरातों के वंशज मानते हैं।

सन्दर्भ ग्रन्थः-
1- उत्तराखंड : जनजातियों का इतिहास - जय सिंह रावत
2- जौनसार बावर - ऐतिहासिक सन्दर्भ  (समाज, संस्कृति और इतिहास) - टीकाराम शाह

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नई दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया में शोधार्थी श्री नवीन चंद्र नौटियाल मूलरूप से उत्तराखंड राज्य के जनपद पौड़ी गढ़वाल के कोट ब्लॉक अंतर्गत रखूण गांव, सितोनस्यू पट्टी के मूल निवासी हैं। उत्तराखंड के इतिहास, साहित्य, भाषा आदि के अध्ययन में उनकी गहरी अभिरुचि है। उनका मानना है कि नई पीढ़ी को अपने इतिहास, परंपराओं, भाषा आदि की जानकारियां जरूर होनी चाहिए। इसीलिए वह सोशल मीडिया पर ऐसी जानकारियों को साझा कर अपनी मुहिम को जारी रखे हुए हैं।

17 October, 2019

दाताs ब्वारि, कनि दुख्यारि (गढ़वाली कहानी)

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कथाकार - भीष्म कुकरेती //

गौं मा इन कबि नि ह्वे. इन कैन बि कबि नि देखी. हाँ बुन्याल त- गाँ मा क्या अडगें (क्षेत्र) मा झबरी ददि सबसे दानि मनखिण च, ह्वेगे होली  पिचाणा-छयाणा साल कि, पण कुनगस च बल झबरी ददि न बि इन अचर्ज नि द्याख. बैदजी ऐ- ऐक थकिगेन. वैदजीन क्या- क्या जि नि कार! पण दाता कि ब्वारि गौमती फर क्वी फरक इ नि पोड़. बैद चिरंजीलाल तै अफु पर इ रोष ऐगे, गुस्सा ऐगे. वैन आन नि द्याख जान नि द्याख अर गुस्सा मा अपणो इ सुयर भेळुन्द चुलै दे. अरे इन कबि नि ह्वे कि मरीज को दुःख बैद चिरंजीलाल को बिंगण मा नि आई हो. 

ठीक च बैदें कर्द- कर्द मरीज मोरि बि ह्वाला पण चिरंजी तै दुःख को पता त पोड़ी जांद छौ. सुयर भेळुन्द चुलांद- चुलांद चिरंजीलालन धन्वन्तरी अर चरक का सौं घैंटीं कि आज से अब बैदकी नि करण बल. जब हथुं फर जस इ नि रैगे त किलै बैदकी करण. जस को जख तक सवाल च चिरंजी जरा मुर्दाक बि नाडी देखि लीन्दो छौ त मुर्दा चम खड़ो ह्वे जान्दो छौ. चिरंजीलाल न क्या- क्या दवा नि पिलैन पण दाता कि ब्वारि उनि कड़कड़ी इ राई.

पूछेरूं गणत बुसेगे, गणत को क्वी फल सुफल नि ह्वेई. बक्की हल्दी... अर चौंळ सूंगी- सूंगी बेहोश क्या परजामा मा चलीगेन पण मजाल च...  कबि नागराजा त कबि ग्विल्ल, कबि दुध्या नरसिंग त कबि डौन्ड्या नरसिंग या कबि सैद या देवी बाक मा उपजी जाओ. सुबेर दाताक ड्यार नागर्जा क घड्यळ, दुफरा मा डौंड्या नर्सिंगौ घड्यळ अर रत्या घड्यळ मा देवी नचै. बक्कयूं बाके अधार पर तीन दै हंत्या क जळकटै बि ह्वेगे. इथगा दिनु  बिटेन जागर्युं बास अब ये इ गाँ मा हुयुं च. इथगा घड्यळ धरणो परांत बि दाता कि ब्वारि नि ह्वाई सुख्यारी. ये इ हुर्स्या हुर्सी मा भौतुंन अपण ड्यार बि घड्यळ धौरिदेन. 

अब दुसरो अडगें का एक बाक्की न बाक मा ब्वाल बल बिंडी सौ साल पैलि क्वी बूड खूड लडै़ मा घैल ह्वे छौ. खुंकरी को कचयूँ वै बूड खूड तै कवा, करैं, चिलंगौं न कोरि कोरिक खै छौ. वै पुरखा कि अधीति, अटकदि भटकदि आत्मा अब दाता कि ब्वारि तैं चैन नि लीण दीणि च. बुल्दन बल  जैकु म्वारु वु क्या नि कारू. दाता क ब्वेन महादेव चट्टीम गंगाळम नारेण बळी बि कराई। पण दाता कि नौली- नौली ब्वारि न ठीक नि हूण छौ स्यू  वा ठीक नि ह्वाई.

दाता क डंड्यळ म, छज्जाम, चौकम, मनिखौं, बूड बुड्यूँ,  नौना नौन्याळयूँ पिपड़कारो मच्युं रौंद छौ. घसेर्युं छ्वीं दाता क ब्वारि छ्वीं बिटेन शुरू होंदी छै अर दाता क ब्वारि छ्वीं मा खतम होंदी छै. ग्वेरूं क बातचित मा बि गोर ना दाता कि ब्वारि इ होंदी छै. स्कूलया बि स्कूल जांद दै  दाता क ड्यार हाजरी लगावन अर तब स्कूल जिना जावन. अर फिर स्कूल बिटेन सीदा दाता क ड्यार जावन अर तब फिर अपण ड्यार जावन. दाना सयाणा जु पैल कैक चौक मा छ्वीं लगान्दा छया अब बस सुबेर बिटेन स्याम तलक इख दाता क चौक मा इ जमघट लगैक छ्वीं लगांदन अर दगड मा दाता क ब्वे तै सलाह मसवरा बि दीणा रौंदन. अच्काल, दाता कौंका चौंतरा जवान, अध्बुडेड़, बुड्यों कुणि तमाखू खाणै एकमात्र जगा च.

गौं कि बात च त दुःख सुख मा काम नि आण त कब काम आण भै! जु बि आओ वु पैल दाता क ब्वे तै ढाढ़स द्याओ अर फिर चौक मा बैठी जाओ. बनि- बनि क लोक याने बनि- बनि क राय मशवरा. दाता क ब्वे बि हेरक क बुल्यूं मानणो बिवस छै. क्वी ब्वाल बल तैं ब्वारि तै गरम पाणि पिलाओ त ब्वारि तै तातो पाणि दिए जान्द छौ, अर क्वी वैबरी ब्वालो बल मेरी स्याळ बि इनी बीमार ह्वे छै अर वीन छांच क्या पे कि वा ठीक ह्वेगे छै. बस क्या दाता क ब्वारि तैं वैबरी छाँछ पिलाए जांद छौ. क्वी ब्वाल बल ब्वारि तै ढिकाण द्याओ त ढिकाण दे दिए जांद. मतबल जति मुख तति तरां बैदकी.

अब जब दाता क ड्यार म अडगें लोक सुबेर बिटेन स्याम तलक जमा रावन त बात कख बिटेन कख पौंछि जाली अर कथगा इ बात होली. उख एक पन्थ द्वी काज हूणो छौ. लोक दाता क ब्वारिक खबर सार बि लीणा अर दगड मा कथगा इ काम बि निबटाणा छया. जब इथगा लोक कट्ठा ह्वेक बैठयां रावन त ब्यौवरी/ ब्यौपार बि होणि छौ. अर फिर ब्यौथौं छ्वीं बि लगणि छौ. यूँ आठ दस दिनु मा दाताक चौक मा इ बीसेक जनम पत्र्युं दिखण दाखण ह्वे, चार नौन्युं मांगण फिक्स ह्वे, आठ जोड़ी बल्द बि इखी बिकेन, कथगा गौड़्यू गोशी, गौशाला बदलेन, द्वी तीन भैंसी इना उना ह्वेन, चार तन्दला बखरों क ब्यौपार बि इखी यूं दिनु ह्वे. द्वी कतर पुंगड़ो ब्यौपार तक इखम ह्वे ग्याई. दाता क ब्वारि कनफणि सि बीमार क्या ह्वे कि दाता क ड्यार अच्काल ब्यवरयौ कुणि मंडी बि बौणिगे.   

    दाता! अहा, दाता! यनु मयळु च बल सरा अडगैं की ब्वे प्रार्थना कर्दन बल हे भूम्या! नौनु देलि त दाता जन. दाता जब द्वी सालौ छौ त बुबा भग्यान ह्वेग्याई अर ब्वे रंडोळ (विधवा) ह्वेगे छै. रंडोळ ब्वेन पड्याळ कौरिक, मजदूरी कौरिक दाता तै पढ़ाई अर आज दाता लखनौ कोलेज मा प्रोफेसर च. ब्यौ क टैम आई त दाता न बोली दे जैञ ब्वेन म्यार बान इथगा खैरि खैनि त जख ब्वे ब्वालली मीन तखी ब्यौ करण. बस स्यू ब्यौ ह्वेग्याई.

पण भाग त द्याखदी दाताक ब्वे का! ब्यौ क उपरान्त पलुणि क तिसर  दिन इ दाताराम तै ड्यूटी पर जाण पोड़. बल उख कोलेज मा समेस्टर की इमतान छन त छुट्टी इथगा इ मीलेन. अर जनि दाता कुटद्वर पौंची होलु  की इना दाता क ब्वारि गौमती अड़गटे गे, कड़कड़ी क कड़कड़ी ह्वेगे. अर इन लग जन बुल्यां ईं ब्वारि खुणि लुचुड़ ऐगे धौं! भूत पिचास, सैद, डैण लग्यां दुख्यर सब्यूंन देखिन पण इन अजाण दुःख कैन नि देखी छौ. एक द्वी दिन मा बबाल ह्वेग्याई बल दाता क ब्वारि मैत इ बिटेन बीमार च.

ग्विर्मिलाक हुणो छौ. लोक दाताक चौक मा जम्यां छ्या. मथि डंड्यळम दाताक ब्वारि रोजक तरां कबि अपण दांत किटणि त कबि खळ-खळ गिच उफारणि छै. कबि एक हौड़ फरकणि त कबि हैंको हौड़ फरक जाओ. कबि खताखति उस्वासी ल्याओ त कबि आंखि कताड़िक  टकटकी लगैक मथि ढ़ाईपरौ  कडियूं,  पटला,  बौळ दिखद जावो. कबि वा अस्यौ (पसीना) मा नये जाओ त कबि वीं तै जड्डू लगी जाओ. अबि गोमती रूंग म्याळ मा पड़ी- पड़ी, मुट्ठी बौटि बौटिक कणाणि छै.

कुछ लोक बैठयां छ्या, जनानी कुमसाणा छ्या, झबरी ददि सीढ़ी मा बैठि छै कि रणेथक परमानाथ डळया गुरु इकतारा बजांद- बजांद चौक मा ऐ. परमानाथ ए गांवक डळया गुरु छौ. वो  इकतारा बजांद- बजांद बडी भली भौंण मा गाणो छौ-
माता रोये जनम जनम कू, बहन रोई छै मासा।
तिरया रोये डेढ़ घड़ी कू, आन करे घर बासा।।

सबि लोक चित्वळ ह्वेगेन बल परमा डळया कख- कखक डाक लांद धौं! अर क्या फरकांद धौं! परमानाथन एकतारा दिवाल पर खड़ो कार चिलम भौर अर लम्बी-लम्बी सोड मारिक धुंवारोळी कार. जब सोड मारिक परमानाथ तै सेळ सि पोड़ त वो सीधो सीढ़ी चौढ़ अर झबरी ददिक तौळ विळ सीढ़ी मा बैठिगे।

वैन झबरी ददि मांगन सौब बिरतांत सूण अर फिर से चिलम पर जोर की सोड पर सोड मारिन. सरा वातावरण मा धुंवारोळी फैलीगे. अब फिर वैन भित्रां मुख कौरिक दाताक ब्वारिक तर्फां ह्यार. झबरी ददि बिटेन सबी बिरतांत बि सूण. परमानाथान दाता क ब्वे तै धाई लगाई, ’ये बौ! जरा तै ब्वारि तै भैर छज्जा मा लादि.’ परमानाथ ए गांवक डळया गुरु छौ त वैकी बात क्वी बि अणसुणि नि करदो छौ.

जनानी दाता की ब्वारि तै छजा मा लैन. परमा डळयान दाताक ब्वारि तै खूब ह्यार. एक दै ना कति दै ह्यार. फिर परमा तौळ चौक मा ऐग्याई. चौक बिटेन वैन झबरी ददि तै ब्वाल, “हे झबरी ददि! मी त बोदू त्वे तै जिंदु इ कुंडम जळे दीन्दा त भलो छौ.“

झबरी ददि पर जन बुल्यां बणाक लगीगे होऊ, वीन बि तड़ाक से ब्वाल, ’अपणि ब्वे तै जिन्दो ख्ड्यार तू.“ पण दगड मा झबरी ददि समजण बि बिसेगे कि परमानाथ तै क्वी अकल कि बात सूजीगे. वा सने- सने कौरिक  सीड़ी उतरण मिसेगे.  

फिर परमानाथ न चिरंजीलाल तै सुणायि, “ बैद जी तुम त दवाई का इ गुलाम छंवां. मन बि कवी चीज होंद कि ना?“ चिरंजीलाल उनि बि दुखी छौ वैन कुछ नि ब्वाल.

परमानाथ न झबरी ददि तै जोर कैकी पूछ, “ये ददि कति नाती नातिण  छन त्यार?“

“ए अभागी गुरु दाग नि लगै. झड़ नाती, नतेण सौब मिलैक होला तीन बीसी से अग्यारा कम.“ झबरी ददि क जबाब छौ

परमानाथ न ब्वाल, ’अर अबि बि नि समजी कि दाता कि ब्वारि किलै दुखयारी च“
झबरी ददि न ब्वाल, ‘जु तू अफु तै भेमाता समजदी त बोल..“
परमानाथ न पूछ, “दाता ब्यौ बाद कति राति घौर राई?“
झबरी न जबाब दे , “द्वि रातिकृ“
परमानाथ न पूछ, ’अर दाता क ब्वारिक उमर क्या होली?’
झबरी ददि न जबाब मा ब्वाल,’ होली बीस- इक्कीस..“
परमानाथन जबाब दे, “ए खाडून्द कि ददि! जवान ब्वारि, ब्योला ब्यौ क द्वी राति बाद देस चलेगे त ब्वारि न दुख्यर होणि च कि ना?“

झबरी ददिन अपण कपाळ पर जोर कि चमकताळ लगाई, “ए म्यरा भुभरड़! हाँ इनमा त ब्वारि न दुख्यर हुणि च.. कि ना... अर जवान ब्वारि अर ब्योला त द्वी राति... अच्छा तबी ब्वारिक दंत सिल्याणा छन तबी वा दंत किटणि च. तबि अस्यौ..
ये ब्वे! मेरी खुपड़ी मा या बात किलै नि आई..“
परमानाथ न ब्वाल, “अब तेरा बर्मंड मा बात भीजीगे?“
झबरी ददिन धाई लगान्द ब्वाल, “ये दाताक ब्वे! भोळ इ कैरा दगड ब्वारि तै दाता क पास लखनौ भेज. मी नाती नातिण्यु सौं घौटिक बुलणु छौं जनि ब्वारि दाता तै द्याख्ली वीन अफिक ठीक ह्वेजाण.“
चिरंजीलाल वैद दौड़िक परमानाथ क ध्वार आई अर खुसफुस अवाज मा ब्वाल, ’मतब , देह सुख कि कामना से दाता कि ब्वारि दुखयारी च?“
परमानाथ न ब्वाल, “कनो आँख, कंदूड़, साँस लीणो ढंग नि बथाणा छन कि देह सुख कि कामना से इ दाता कि ब्वारि दुखयारी च“
चिरंजीलाल वैद को जबाब छौ, ’अरे मीन यीं दृष्टि से टटोळ इ नी च.. हाँ देह कामना की..“
दान, बूड खूड समजीगेन कि असली बीमारी क्या च. इना कैरा दाता की ब्वारि तै भोळ लखनौ लिजाणो तयारी मा लग उना परमानाथ अपण एकतारा बजाण बिसेगे अर गाण मिस्याई...
सुन रे बेटा  गोपीचंद जी, बात सूनी की चित लाइ।
कंचन काया, कनक कामिनी, मति कैसी भरमाई।।

0000 0000
पांच सात दिनु पैथर कैरा जब लखनौ बिटेन घौर बौड़ त वैन बताई बल दाता कि ब्वारि लखनौ पौंछणा तीनेक दिन मा ठीक ह्वेग्याई. 


copyright@ Bhishma Kukreti
Photo source- google 

16 October, 2019

विलक्षण था आचार्य चक्रधर जोशी का जीवन

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गिरधर पंडित //

आचार्य पंडित चक्रधर जोशी मूलतः दाक्षिणात्य ब्राह्मण परिवार से थे। यहां पर यह भी उल्लेख करना उचित होगा कि देवप्रयाग में बहुतायत ब्राह्मण दक्षिण भारत से हैं। जिनका संबन्ध आर्यों की पंच द्रविड़ शाखा से है। जोशी परिवार भी उसी में से है। 

हिंदी तिथियों के अनुसार आचार्य जी का जन्म वामन द्वादशी को हुआ था। जोशी परिवार दक्षिण भारत में कहां से आये थे इस पर देवप्रयाग के बहुभाषाविद, संस्कृत के कवि नाटककार बहुमुखी प्रतिभा के धनी पं. मुरलीधर शास्त्री के अनुसार :-
‘आंध्र प्रदेशे शुभ गौतमी तटे, धान्यै युते कांकरवाड़ ग्रामें
कौण्डिल्य गोत्रे द्विजवर्य गेहे, जातो हनुमासन विदुषाम वरिष्ठ।’
(स्मृति ग्रन्थ से)
आंध्रप्रदेश के गोदावरी जिले के कांकरवाड नामक ग्राम से जोशी जी के पूर्वज कौण्डिल्य गोत्रीय ब्राह्मण दामोदर भट्टारक (दक्षिण में विद्वान के लिए भट्टारक शब्द प्रयुक्त होता है जो उत्तर में आकर खासकर देवप्रयाग में भट्ट हो गया) देवप्रयाग आकर बसे थे। 

दामोदर के वासुदेव, वासुदेव के हनुमान, हनुमान के व्यंकट रमण और जयकृष्ण पुत्र हुए। व्यंकट रमण अल्पायु हुए। जयकृष्ण के लक्ष्मीधर और खुशहाली राम दो पुत्र हुए। दोनों ज्योतिष और कर्मकांड में पारंगत थे। लक्ष्मीधर के दो पुत्र चक्रधर और पृथ्वीधर हुए।

जब आचार्य जी का अवसान हुआ तो देवप्रयाग में सभी को एक प्रकाशपुंज के बुझने का दुःख तो हुआ ही पर साथ ही एक परंपरा का अवसान भी दिखाई दिया। देवप्रयाग के तंत्र सम्राट, लेखक व कवि आचार्य जितेंद्र भारती ने जोशी जी के अवसान के बाद जो शंका व्यक्त की थी उस समय वही कहा जा सकता था। उन्हीं के शब्दों में :-
‘यंत्र वेधशाला में खड़े हैं, मुंह बाए हुए
पूछते हैं विलख कहां चक्रधर चला गया
पुस्तकों के पन्ने खुले बंद, पूछने लगे हैं
कुछ तो बताओ कहां चक्रधर चला गया।’
(स्मृति ग्रन्थ से)

सचमुच कुछ समय तक यही सत्य था परिवार आघात से उभर नही पा रहा था, यंत्रों पुस्तकों और संग्रहीत दुर्लभ वस्तुओं पर धूल की परतें चढ़ रही थी। ऐसा कोई कद्रदान शिष्य भी उन्हें उपलब्ध नहीं हुआ था जो इस निधि और परंपरा को संभालता और आगे बढ़ाता। हर तरफ अंधेरा ही था। लंबी अवधि तक नक्षत्र वेधशाला के आभा मंडल पर धुंध ही व्याप्त रहा।

पाठकों को यह भी विदित हो कि आचार्य जी प्रसिद्ध आध्यात्मिक साधक भी थे। जिन्होंने बदरीनाथ के चरण पादुका नामक स्थल जो ऋषिगंगा के किनारे पर है, वर्षों तक साधना भी की थी। जिस समय उन्हें डायबटीज ने घेरा था तब यह बीमारी असाध्य सी थी। जोशी जी का स्वास्थ्य गिरता जा रहा था, परंतु लगता है उन्होंने तब ही तय कर लिया था कि ऐनकेन प्रकारेण ज्योतिष, शोध आदि की परंपरा को तो जीवित ही रखना होगा। शायद इसीलिए उन्होंने बिना जाहिर किये अपने जीते जी अपनी बौद्धिक परंपरा को दो भागों में बांट लिया था। जिसके दो पक्ष थे :- भौतिक और आध्यात्मिक, कर्मकांड और ज्योतिष। 

इसी क्रम में उन्होंने अपने बड़े पुत्र सुधाकर को पाश्चात्य शिक्षा की तरफ मोड़ दिया था। जिन्होंने कुछ समय तक व्यवसाय कर वेधशाला को थामने का प्रयास किया, किंतु शुगर की बीमारी से उनकी किडनी जबाब दे गई और वे जल्द ही चले गए। द्वितीय पुत्र दिवाकर ने पौरोहित्य का काम संभाला, परन्तु विवाह के कुछ समय बाद एक पुत्री को जन्म देकर वे भी स्वर्गवास हो गये। याने परिवार पर एक के बाद एक दुःख का पहाड़ टूटता गया। 

जैसा कि हम परंपरा विभाजन की बात कर रहे थे। निश्चय ही जोशी जी ने अपनी अंतर्दृष्टि से भांप लिया था कि शेष दो पुत्र प्रभाकर और भास्कर ही उनकी असली विरासत आगे बढ़ाएंगे। इसीलिए उन्होंने तृतीय पुत्र प्रभाकर को सामाजिक एवमं व्यवहारिक अध्ययन के मार्ग पर लगा लिया। साथ ही प्रभाकर से एक हस्तलिखित समाचार पत्रिका का कार्य शुरू करवा दिया। बिना किसी औपचारिक घोषणा के उन्हें पुस्तकालय प्रवंधन में डाल दिया। 

सबसे छोटे पुत्र भास्कर को पारंपरिक संस्कृत शिक्षा की ओर मोड़ दिया था। यद्यपि नगर को अभी भी आशा की कोई किरण नजर नही आ रही थी, पर किसी तरह संघर्ष और हिम्मत कर इन दोनों भाइयों ने वेधशाला की परंपरा को संभालना प्रारम्भ कर दिया। जिसके बाद प्रभाकर ने एमए तथा पीएचडी हिंदी में कर नौकरी के बजाय वेधशाला की सांसारिक परंपरा को जारी रखने का निश्चय किया और लेखन अध्ययन और पत्रकारिता को ही अपना जीवन बनाया। 

दूसरी तरफ भास्कर ने आचार्य परीक्षा पास कर कर्मकांड, ज्योतिष और साधना के क्षेत्र में प्रसिद्धि हासिल की। भास्कर में शुरू से ही सन्यासी प्रवृत्ति रही, वह हर साल बदरीनाथ में महाप्रभु की बैठक में, जो शिवालय के पीछे है, साधना में लीन रहते थे। उन्होंने कथा प्रवचन भी करना प्रारम्भ किया। कथा करते समय उनकी नजर हमेशा स्वयं और पुस्तक में रहती थी। कभी वे श्रोताओं की तरफ नहीं देखते। न कभी हंसी, मजाक या असामयिक प्रसंग छेड़ते। आज उनमें आचार्य जी की प्रत्यक्ष छवि नजर आती है। स्वभाव से सौम्य अभिमान रहित और सच्चे साधक लगते हैं।

संकटों से पार पाकर दोनों भाईयों ने वेधशाला को उसका वैभव लौटा दिया। वही पुरानी रौनक, वही आगंतुकों का जमावाड़ा, उनका आतिथ्य आदि सब लौटा ही नही, ऊंचे आयाम तक पहुंच गया। यह भी प्रमाणित कर दिया कि आचार्य जी के जाने के बाद न वेधशाला के यंत्र खड़े मुहं बाए हुए हैं, बंद हैं बल्कि आगंतुक व शोध छात्र वहां अध्य्यन के लिए आते रहते हैं और मुफ्त आवास और प्रसाद स्वरूप भोजन भी पाते हैं। वह भी पूरी तरह पारिवारिक वातावरण में। 

इस परम्परा को जीवित रखने में अगर किसी का सच्चा योगदान है तो वह है आचार्य स्व. पं. चक्रधर जोशी जी की धर्मपत्नी श्रीमती विद्या देवी की। जो प्रारम्भ से ही परिवार और अतिथि सत्कार, सेवा को अपनी साधना में चुकी है। जीवन के इस अन्तिम पड़ाव पर भी  उनकी सेवा वृत्ति यथावत है। निश्चय ही वे पूज्यनीय एवम अनुकरणीय है।

अंत मे चलते चलाते एक घटना जो वेधशाला की निस्वार्थ सेवा परंपरा से जुड़ी है उसका उल्लेख करना भी जरूरी है। क्योंकि आचार्य जी ने जो खुद मुझे अपने श्रीमुख से सुनाई थी कि :-
‘एक बार दक्षिण भारत का एक निर्धन युवा साधु सर्दी की रात में पैदल देवप्रयाग पहुंचा। अमूमन सर्दियों में पहाड़ में लोग आठ बजे तक भोजन कर निपट जाते हैं। होटल भी बंद हो जाते है। यह साधु भूखा था। किसी ने इसे वेधशाला के रास्ते लगा दिया। वहां भोजन देर से ही होता है। करीब 10 बजे के बाद वह साधु भटकता हुआ वेधशाला पहुंचा। लेकिन अंधेरे में नीचे खेत में गिर गया। पैरों पर उसके खरोंच आ गई थी। गिरते ही वह जोर से चिल्लाया  कारण कि वह गेट से अंदर दाखिल नहीं हो सका, बन्द होने के कारण।

उसकी आवाज सुन जोशी जी ने कारिंदों से उसे ऊपर लाने को कहा। इतने में जोशी की दया मूर्ति पत्नी भी वहां आ गई तुरन्त  आचार्य जी ने उनसे कहा- ’सुधाकर की माजी यह तो बहुत ऊंचे दर्जे का फकीर हैं हमारे भाग्य से भगवान ने इन्हें यहां भेज दिया। इसके लिए पहले तो गर्म पानी करो, फिर भोजन बनाओ ऐसे लोगों की सेवा दुर्लभ होती है। आचार्य जी की पत्नी बिना किसी प्रतिकूल प्रतिक्रिया व्यक्त किये तुरन्त सहर्ष आदेश पालन कर पानी ले आयी। जोशी जी ने अपने हाथों से उस साधु को तौलिया भिगाकर पोंछा फिर तेल मालिश की और भोजन कराया। अचार, पापड़, घी, दही सब भोजन में था। फिर उसके सोने की व्यवस्था भी की।’ 

जब यह वृत्तांत मैंने सुना तो उनसे सवाल किया बुढ़ाजी (पिता के मामा) क्या वह सचमुच में पहुंचा हुआ, ऊंचे स्तर का संत था? तो आचार्य जी मुस्कराए और बोले ’यह अच्छे भोजन की आस लेकर आया था। अगर मैं उसे महिमामंडित नहीं करता तो कारिंदे और परिवारजंन श्रद्धा और उत्साह से सेवा नहीं करते। इसलिए उसे उच्चकोटि का संत बताना पड़ा। जीवन में ऐसी सेवा से बढ़कर कोई पूजा नही है।’ आप आश्चर्य करेंगे कि आचार्य जी बहुत अच्छे मजाक भी कर लेते थे। जो समसामयिक और सटीक होते थे। 

यह था आचार्य जी के जीवन का एक और पहलू। जो भी हो  वेधशाला आज पहले से अधिक आकर्षण का केंद्र बनी हुई है। उस महान विभूति को जितना याद किया जाय कम ही है। उसे शत-शत नमन।


गिरधर पंडित 

19 September, 2019

पहाड़ के गांवों की ऐसी भी एक तस्वीर

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नरेंद्र कठैत//

          साहित्यिक दृष्टि से अगर उत्तराखण्ड की आंचलिक पृष्ठभूमि को स्थान विशेष के परिपेक्ष्य में देखना, समझना चाहें तो इस श्रेणी में पहाड़ से गिने-चुने कलमकारों के नाम ही उभरकर सामने आते हैं। कुमाऊं की ओर से पहाड़ देखना, समझना हो तो टनकपुर से चिल्थी, चम्पावत, लोहाघाट, घाट होते हुए पिथौरागढ़ तक शैलेश मटियानी अपनी कहानियों के साथ ले जाते हैं। गढ़वाल की ओर से साहित्यकार मोहन थपलियाल, विद्यासागर नौटियाल, कुलदीप रावत, सुदामा प्रसाद प्रेमी हमें घुंटी-घनसाली, पौखाळ, डांगचौरा, श्रीनगर, कांडा, देलचौंरी, बिल्वकेदार, कोटद्वार, गुमखाल, कल्जीखाल, दूधातोली, मूसागली जैसे कई स्थान विशेष के न केवल नामों से बल्कि कहीं न कहीं उनके इतिहास भूगोल से भी हमें जोड़कर रखते हैं। 

          दरअसल नाम विशेष से मजबूती के साथ जुड़ी पहाड़ की ये शृंखलाएं ठेट गांवों तक चली जाती हैं। इनकी संख्या सौ-पचास में नहीं अपितु सैकड़ों में है। खोळा, कठुड़, अठूड़, कोट, श्रीकोट, पोखरी, कांडई, डांग, चोपड़ा, नौ गौं, बैध गौं, पाली, बागी इत्यादि नामों के तो एक नहीं अपितु कई-कई गांव पहाड़ की कंदराओं में हैं। प्रथमतः स्थान विशेष से जुड़े ये नाम ही हमारी कला, साहित्य, संस्कृति, शिल्प के आधारभूत स्तंभ रहे हैं। 

          मां ने किसी स्थान विशेष में स्थायित्व हेतु आधारभूत वस्तुओं का संग्रह किया तो आंचलिकता का पुट मिला- ब्वेन जोड़ी (बैंज्वाड़ी), मां ने खेतों की निराई- गुड़ाई की तो नाम सामने आया- ब्वेन गोड़ि (बैंगोड़ि), गहरे स्थान में कोई गांव स्थित है तो नाम मिलता है- गैर गौं, गांव ऊंचे धरातल पर है तो- वुंचुर। धार पर अवस्थित है तो- धर गौं। 

          पहाड़ के साथ दो नाम और जुड़े हैं- धार और खाळ। हर एक धार और हर एक खाळ पहाड़ की रीढ़ हैं। सबका अपना अलग नाम, अपना अलग इतिहास, अपना अलग भूगोल है। कहने का तात्पर्य यही है कि हर एक स्थान विशेष के नाम के पीछे कुछ न कुछ मूलभूत कारण अवश्य रहे हैं।

          किंतु आधारभूत ढ़ाचों की मूल संरचना को नकारते हुए कपितय बुद्धिजीवियों में मूल स्थानों के नामों के परिर्वतन की एक होड़ सी मची है। इस होड़ में पिछले दो दशकों में कई गांवों, स्थानों का नाम परिर्वतन किया जा चुका है। गौं के स्थान पर पुर और नगर शब्द सुशोभित हो गए हैं। 

          गढ़वाली भाषा में एक लोकोक्ति प्रचलित है- ‘कुंडी जौं कि पाबौ।’ अर्थार्थ पहले कुंडी गांव जाऊं या पाबौ गांव।’ यह लोकोक्ति कंडवालस्यूं पट्टी में कुंडी और पाबौ नाम के आस-पास सटे दो गांवों से सन्दर्भित है। क्योंकि पौराणिक काल में कुंडी गांव में देवस्थल था और पाबौ गांव में राजा का थान। इस तरह दुविधा के सन्दर्भ में ‘कुंडी जौं कि पाबौ’ लोकोक्ति कुंडी तथा पाबौ दो गांवों के इतिहास, भूगोल की ओर भी सदियों से हमारा ध्यान खींचती रही है। लेकिन अब यह लोकोक्ति लुप्त होने की कगार पर है। क्योंकि इस लोकोक्ति में सन्दर्भित पाबौ गांव का नाम पवनपुर लिखा जाने लगा है। 

          ‘इस स्थान पर ज्यादा हवा चलती है, इसलिए पवनपुर नाम रखा गया।’ नई पीढ़ी का यह तर्क कहीं से भी तर्कसम्मत नहीं लगता। यदि एक ही नाम के कई गांव हैं तो प्रत्येक गांव की अपनी अलग मौलिक पहचान है। प्रश्न विचारणीय है कि यूं नाम परिवर्तन से क्या साहित्य, संस्कृति, कला से जुड़े सन्दर्भ खण्डित नहीं होंगे? 

          यह लिखने में कदापि संकोच नहीं कि मूल आधारभूत ढाचों, सन्दर्भो के साथ इस भांति की छेड़छाड़ से गांव अब गांव न रहे। अब संस्कृति संरक्षण का वह प्रसंग ही समझ से परे लगता है जिसकी छाया में रहते हुए भी हम स्थानीय उत्पाद कंघी, सूप, नकचुंडी, कनगुच्छी के निर्माण शिल्प भी सुरक्षित नहीं रख पाये। इस उठापटक के बीच आज भले ही संस्कृति की सनातनता टूटी न हो पर वह बेबस अवश्य है।

          खैर, एक ओर जहां मूल नामों के साथ छेड़छाड़ जारी है वहीं इन्हीं पहाड़ों के बीच से आस-पास सटे हुए कुछेक ऐसे गांव मेरे संज्ञान में आये हैं जिनके नामोल्लेख के अंत में कुछेक वर्णों का अद्भुत संयोग देखने को मिलता है। 

‘ळा’ एवं ‘ड़ा’ वर्णों का आकारान्त संयोग देखिए-
कोट - कोटसाड़ा, खल्लू - चमराडा, उळळी - मरोड़ा, कुंडा - मरोड़ा, सीकू - भैंसोड़ा, नगर - मिरचौड़ा, सल्डा - कंडोळा, कांडा - चमरोड़ा, डांग - अगरोडा, ल्वाली - गगवाड़ा, कोटी - कमेड़ा इत्यादि।

ऐसे ही इकारांत संयोग यूं दिखता है-
जमळा - मिन्थी, बाड़ा - पिसोली, धरी - पोखरी, कंडी - मुछियाळी, च्वींचा - बैंज्वाड़ी, क्यार्क - सिरोळी आदि-आदि।

         उल्लेखनीय है कि दो गांवों का एक साथ नामोल्लेख करते समय भी प्रथम वर्णित गांव का ही पहले उच्चारण किया जाता है। आस-पास सटे दो गांवों के नामोल्लेख में वर्णों के इस संयोग के पार्श्व में कुछ न कारण अवश्य होगें। 

          प्रश्न चिचारणीय है कि क्या उक्त गांवो की नींव रखते हुए हमारे पुर्वजों द्वारा उच्चारण विषयक संयोग का ध्यान रखा गया? या राम-सीता, कृष्ण-गीता, गंगा-यमुना, बद्री-केदार, घर-द्वार की तरह ये नाम भी हमारी बोल-चाल, आचार-व्यवहार में सुविधा अनुसार स्वतः ही ढ़लते चले गए? अथवा ‘कहां नीती कहां माणा, एक श्याम सिंह पटवारी ने कहा-कहां जाना’ युक्ति की भांति ही राजस्व वसूली/ कर निर्धारण की सुविधा को देखते हुए यह युक्ति सांमती प्रथा के कारण प्रचलन में आयी? 

हो सकता है अन्य गांवों के साथ भी ऐसे ही संयोग जुड़े हों। जो भी हों हमें उनका बोध हो, उनपर गहराई से अवश्य शोध हो।
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नरेंद्र कठैत

मैंने या तूने (हिन्दी कविता)

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प्रदीप रावत ‘खुदेड़' //

मैंने या तूने,
किसी ने तो मशाल जलानी ही थी
चिंगारी मन में जो जल रही थी
उसे आग तो बनानी ही थी
मैंने या तूने,
किसी ने तो मशाल जलानी ही थी।

मरना तुझे भी है
मरना मुझे भी है
यूं कब तक तटस्थ रहता तू
यूं कब तक अस्पष्ट रहता तू
फिर किस काम की तेरी ये जवानी थी
मैंने या तूने,
किसी ने तो मशाल जलानी ही थी।

रो रही धारा ये सारी है
वक्त तेरे आगे खड़ा है
तय कर तू
तुझे वक्त के साथ चलना है
या कोई नया किस्सा गढ़ना है
ये तेरी ही नहीं लाखों युवाओं की कहानी थी
मैंने या तूने,
किसी ने तो मशाल जलानी ही थी।

आकांक्षाएं ये तेरी
अति महत्वाकांक्षी हैं
आसमान में उड़ते भी जमीं पर पांव रख तू
बाज़ी हारे न ऐसा एक दांव रख तू
हारी बाज़ी तुझे बनानी थी
मैंने या तूने,
किसी ने तो मशाल जलानी ही थी।

तुफानों के थमने तक सब्र रख तू
ज़िंदा है तो पड़ोस की खबर रख तू
अपने अधिकारों में कब तक मदहोश रहेगा
पर कर्तव्यों के प्रति कब तक खामोश रहेगा
कुछ तो जिम्मेदारी तुझे उठानी थी
मैंने या तूने,
किसी ने तो मशाल जलानी ही थी।
bol pahadi

(युवा प्रदीप रावत ‘खुदेड़’ कवि होने के साथ ही सामाजिक सरोकारों के प्रति भी बेहद सजग रहते हैं। उनकी कविताओं और सामायिक लेखों में यह दिखाई भी देता है।)

08 September, 2019

गढ़वाल की राजपूत जातियों का इतिहास (भाग-1)

bol pahadi

संकलनकर्ता- नवीन चंद्र नौटियाल //
उत्तराखंड राज्य के गढ़वाल क्षेत्र में निवास करने वाली राजपूत जातियों का इतिहास भी काफी विस्तृत है। यहां बसी राजपूत जातियों के भी देश के विभिन्न हिस्सों से आने का इतिहास मिलता है। इसी से जुड़ी कुछ जानकारियां आपसे साझा की जा रही हें।

क्षत्रिय/ राजपूत :- गढ़वाल में राजपूतों के मध्य निम्नलिखित विभाजन देखने को मिलते हैं -
1. परमार (पंवार) :- परमार/ पंवार जाति के लोग गढ़वाल में धार गुजरात से संवत 945 में आए। इनका प्रथम निवास गढ़वाल राजवंश में हुआ।

2. कुंवर :- इन्हें पंवार वंश की ही उपशाखा माना जाता है। ये भी गढ़वाल में धार गुजरात से संवत 945 में आए। इनका प्रथम निवास भी गढ़वाल राजवंश में हुआ।

3. रौतेला :-  रौतेला जाति को भी पंवार वंश की उपशाखा माना जाता है।

4. असवाल :- असवाल जाति के लोगों का सम्बंध नागवंश से माना जाता है। ये दिल्ली के समीप रणथम्भौर से संवत 945 में यहां आए। कुछ विद्वान इनको चौहान कहते हैं। अश्वारोही होने से ये असवाल कहलाए। वैसे इन्हें गढ़वाल में थोकदार माना जाता है।

5. बर्त्वाल :- बर्त्वाल जाति के लोगों को पंवार वंश का वंशज माना जाता है। ये संवत 945 में उज्जैन/ धारा से गढ़वाल आए और बड़ेत गांव में बस गए।

6. मंद्रवाल (मनुराल) :- ये कत्यूरी वंश के राजपूत हैं। ये संवत 1711 में कुमाऊं से गढ़वाल में आकर बसे। इनको कुमाऊं के कैंत्यूरा जाति के राजाओं की सन्तति माना जाता है।

7. रजवार :- कत्यूरी वंश के वंशज रजवार जाति के लोग संवत 1711 में कुमाऊं से गढ़वाल आए थे।

8. चन्द :- ये सम्वत 1613 में गढ़वाल आए। ये कुमाऊं के चन्द राजाओं की संतानों में से एक मानी जाती हैं।

9. रमोला :- ये चौहान वंश के वंशज हैं जो संवत 254 में मैनपुरी, उत्तर प्रदेश से गढ़वाल में आए और रमोली गांव में रहने के कारण ये रमोला कहलाए। इन्हें पुरानी ठाकुरी सरदारों की संतान माना जाता है।

10. चौहान :- ये चौहान वंश के वंशज मैनपुरी से यहां आए। इनका गढ़ ऊप्पू गढ़ माना जाता था।

11. मियां :- ये सुकेत और जम्मू से गढ़वाल में आए। ये यहां के मूल निवासी नहीं थे। लेकिन ये गढ़वाल के साथ नातेदारी होने के कारण गढ़वाल में आए।

गढ़वाल में राजपूत जातियों में बिष्ट, रावत, भण्डारी, नेगी, गुसाईं आदि प्रमुख समूह हैं, जिनके अंतर्गत कई जातियां समाहित हैं।

रावत जाति के राजपूत :- गढ़वाल में रावत जाति राजपूतों की एक प्रमुख जाति मानी जाती है। इसके अतर्गत कई जातियां समाहित हैं। ये सभी रावत जातियां अलग-अलग स्थानों से आकर गढ़वाल में बसी हैं।

12. दिकोला रावत :- दिकोला रावत की पूर्व जाति (वंश) मरहठा है। ये महाराष्ट्र से संवत 415 में गढ़वाल में आए और दिकोली गांव को अपना बनाया।

13. गोर्ला रावत :- गोर्ला रावत पंवार वंश के वंशज हैं जो गुजरात से संवत 817 में गढ़वाल आए। गोर्ला रावत का प्रथम गांव गुराड़ माना जाता है।

14. रिंगवाड़ा रावत :- इन्हें कैंत्यूरा वंश का वंशज माना जाता है। जो कुमाऊं से संवत 1411 में गढ़वाल आए। इनका प्रथम गढ़ रिंगवाड़ी गांव माना जाता था।

15. बंगारी रावत :- बंगारी रावत बांगर से संवत 1662 में गढ़वाल आए। बांगरी का अपभ्रंश बंगारी माना जाता है।

16. बुटोला रावत :- ये तंअर वंश के वंशज हैं। ये दिल्ली से संवत 800 में गढ़वाल आए। इनके मूलपुरुष बूटा सिंह माने जाते हैं।

17. बरवाणी रावत :- ये तंअर वंश के वंशज मासीगढ़ से संवत 1479 में आए। इनका गढ़वाल में प्रथम  निवास नैर्भणा क्षत्रिय था।

18. जयाड़ा रावत :- ये दिल्ली के समीप किसी अज्ञात स्थान से गढ़वाल में आए। गढ़वाल में इनका प्रथम गढ़ जयाड़गढ़ माना जाता था।

19. मन्यारी रावत :- इनके मूल स्थान के बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है। ये लोग गढ़वाल की मन्यारस्यूं पट्टी में बसने के कारण मन्यारी रावत कहलाए।

20. जवाड़ी रावत :- इनका प्रथम गांव जवाड़ी गांव माना जाता है।

21. परसारा रावत :- ये चौहान वंश के वंशज हैं जो संवत 1102 में ज्वालापुर से आकर सर्वप्रथम गढ़वाल के परसारी गांव में आकर बसे।

22. फरस्वाण रावत :- मथुरा के समीप किसी स्थान से ये संवत 432 में गढ़वाल आए। इनका प्रथम गांव गढ़वाल का फरासू गांव माना जाता है।

23. मौंदाड़ा रावत :- ये पंवार वंश के वंशज हैं जो संवत 1405 में गढ़वाल में आकर बसे। इनका प्रथम गांव मौंदाड़ी गांव माना जाता है।

24. कयाड़ा रावत :- इन्हें पंवार वंश का वंशज माना जाता है। ये संवत 1453 में गढ़वाल आए।

25. गविणा रावत :- इन्हें भी पंवार वंश का वंशज माना जाता है। गवनीगढ़ इनका प्रथम गढ़ था।

26. लुतड़ा रावत :- ये चौहान वंश के वंशज हैं जो संवत 838 में लोहा चांदपुर से गढ़वाल आए। इनमें पुराने राजपूत ठाकुर आशा रावत और बाशा रावत थोकदार कहलाते थे।

27. कठेला रावत :- कठेला रावत राजपूत जाति के बारे में पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी जी लिखते हैं कि “इनका मूल वंश कठौच/कटौच और गोत्र काश्यप है और ये कांगड़ा से गढ़वाल में आकर बसे हैं। ऐसा माना जाता है कि इनका गढ़वाल राजवंश से रक्त सम्बंध रहा है। इनकी थात की पट्टी गढ़वाल में कठूलस्यूं मानी जाती है। कुमाऊं के कठेला थोकदारों के गांव देवाइल में भी ‘कठेलागढ़’ था।”

28. तेरला रावत :- ये गुजड़ू पट्टी के थोकदार माने जाते हैं।

29. मवाल रावत :- गढ़वाल में इनकी थात की पट्टी मवालस्यूं मानी जाती है। इनका मूल निवास नेपाल तथा ये कुंवर वंश के माने जाते हैं।

30. दूधाधारी रावत :- ये बिनोली गांव, चांदपुर के निवासी माने जाते हैं।

31. मसोल्या रावत :- पंवार पूर्व जाति के वंशज मसोल्या रावत धार के मूल निवासी हैं जो गढ़वाल में बसे हैं।

इसके अलावा जेठा रावत, तोदड़ा रावत, कड़वाल रावत, तुलसा रावत, मौरोड़ा रावत, गुराडी रावत, कोल्ला रावत, घंडियाली रावत, फर्सुड़ा रावत, झिंक्वाण रावत, मनेसा रावत, कफोला रावत जातियों के बारे में अभी जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी है।

बिष्ट जाति के राजपूत :- गढ़वाल में बिष्ट जाति राजपूतों में गिनी जाती है, इसके अंतर्गत कई अन्य उपजातियां/ उपसमूह आते हैं जो यह प्रदर्शित करते हैं कि बिष्ट जाति किसी एक समूह से नहीं बल्कि कई अन्य जातियों से मिलकर बनी है। ये सभी जातियां कई वर्ष पूर्व अलग-अलग स्थानों से आयी और गढ़वाल में बस गयी।

32. बगड़वाल बिष्ट :- बगड़वाल बिष्ट जाति के लोग सिरमौर, हिमाचल से संवत 1519 में गढ़वाल आए और तत्पश्चात यहीं के निवासी हो गए। इनका प्रथम गढ़ बगोडी/ बगोड़ी गांव माना जाता है।

33. कफोला बिष्ट :- ये लोग यदुवंशी लोगों के वंशज माने जाते हैं, जो इतिहास में कम्पीला नामक स्थान से गढ़वाल में आए और फिर यहीं के मूल निवासी हो गए। इनकी थात पौड़ी गढ़वाल जिले की कफोलस्यूं पट्टी मानी जाती है।

34. चमोला बिष्ट :- पंवार वंशी चमोला बिष्ट जाति के लोग उज्जैन से संवत 1443 में गढ़वाल में आए। गढ़वाल के चमोली क्षेत्र में बसने के कारण ये चमोला बिष्ट कहलाए।

35. इड़वाल बिष्ट :- इन्हें परिहार वंशी माना जाता हैं। ये कि दिल्ली के नजदीक किसी अज्ञात स्थान से संवत 913 में गढ़वाल में आए और ईड़ गांव के निवासी होने के कारण इस नाम से प्रसिद्ध हुए।

36. संगेला/संगला बिष्ट :- संगेला/संगला बिष्ट जाति के लोग गुजरात क्षेत्र से संवत 1400 में गढ़वाल में आए।
37. मुलाणी बिष्ट :- मुलाणी बिष्ट लोगों को कैंत्यूरा वंश का वंशज माना जाता है। ये कुमाऊं क्षेत्र से संवत 1403 में गढ़वाल आए और मुलाणी गांव में बस गए।

38. धम्मादा बिष्ट :- ये चौहान वंश से सम्बंधित हैं। ये दिल्ली के मूल निवासी थे जो कि गढ़वाल में बस गए।

39. पडियार बिष्ट :- ये परिहार वंश के वंशज माने जाते हैं। ये धार क्षेत्र से संवत 1300 में गढ़वाल में आए।

40. साबलिया बिष्ट :- ये सूर्यवंशी वंश के वंशज और उपमन्यु गोत्र के लोग हैं कत्यूरियों की संतान माने जाते हैं। ये पहले उज्जैन से गढ़वाल की साबली पट्टी में आये और उसके बाद कुमाऊं गए। इसके अलावा तिल्ला बिष्ट, बछवाण बिष्ट, भरेला बिष्ट, हीत बिष्ट, सीला बिष्ट के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं हो सकी है।

भण्डारी जाति के राजपूत :- भण्डारी जाति के लोगों को राजपूत जाति के अधीन रखा जाता है।

41. काला भंडारी :- ये काली कुमाऊं के मूल निवासी माने जाते हैं।

42. पुंडीर भंडारी :- पुण्डीर वंशीय भण्डारी जाति के लोग मायापुर के मूल निवासी थे जो संवत 1700 में गढ़वाल आए।
इसके अतिरिक्त तेल भंडारी और सोन भंडारी के बारे में कोई जानकारी नहीं मिली है।

नेगी जाति के राजपूत :-

43. पुण्डीर नेगी :- पुण्डीर नेगी संवत 1722 में सहारनपुर से आकर गढ़वाल में बसे। रतूड़ी जी के अनुसार, पृथ्वीराज रासो में ये दिल्ली के समीप के होने कहे गए हैं।

44. बगलाणा नेगी :- बगलाणा नेगी बागल क्षेत्र से संवत 1703 में गढ़वाल आए। इनका मुख्य गांव शूला माना जाता है।

45. खूंटी नेगी :- ये संवत 1113 में नगरकोट-कांगड़ा, हिमाचल से आकर गढ़वाल में बसे। गढ़वाल में इनका प्रथम गांव खूंटी गांव है।

46. सिपाही नेगी :- सिपाही नेगी संवत 1743 में नगरकोट-कांगड़ा, हिमाचल से गढ़वाल में आए। सिपाहियों में भारती होने से इनका नाम सिपाही नेगी पड़ा।

47. संगेला नेगी :- ये जाट राजपूत जाति के वंशज हैं। ये संवत 1769 में सहारनपुर से आकर गढ़वाल में बसे। संगीन रखने से ये संगेला नेगी कहलाए।

48. खड़खोला नेगी :- ये कैंत्यूरा जाति के वंशज मने जाते हैं। ये कुमाऊं से संवत 1169 में गढ़वाल आए यहां के खड़खोली नामक गांव में कलवाड़ी के थोकदार रहे। इसीलिए खड़खोली नाम से प्रचलित हुए।

49. सौंद नेगी :- इनकी पूर्व जाति (वंश) राणा है। ये गढ़वाल में कैलाखुरी से आए और गढ़वाल के सौंदाड़ी गांव में बसने के कारण सौंद नेगी के नाम से जाने गए।

50. भोटिया नेगी :- ये हूण राजपूत जाति के वंशज हैं जो हूण देश से आकर गढ़वाल में बसे।

51. पटूड़ा नेगी :- पटूड़ी गांव में बसने के कारण ये पटूड़ा नेगी कहलाए।

52. महरा/ म्वारा/ महर नेगी :- इनकी पूर्व जाति (वंश) गुर्जर राजपूत है। ये लंढौरा स्थान से आकर गढ़वाल में बसे।

53. बागड़ी/ बागुड़ी नेगी :- ये संवत 1417 में मायापुर स्थान से आकर गढ़वाल में बसे। बागड़ नामक स्थान से आने के कारण ये बागड़ी/ बागुड़ी नेगी कहलाए।

54. सिंह नेगी :- बेदी पूर्व जाति से सम्बद्ध सिंह नेगी  संवत 1700 में पंजाब से आकर गढ़वाल में बसे।

55. जम्बाल नेगी :- ये जम्मू से आकर गढ़वाल में बसे हैं।

56. रिखल्या/ रिखोला नेगी :- रिखल्या/ रिखोला राजपूत नेगी डोटी, नेपाल के रीखली गर्खा से आए और छंदों के आश्रय में रहे। रीखली गर्खा से आने के कारण ही इनका नाम रिखल्या/ रिखोला नेगी पड़ा।

57. पडियार नेगी :- ये परिहार वंश के वंशज है। जो संवत 1860 में दिल्ली के समीप से गढ़वाल में आए।

58. लोहवान नेगी :- इनकी पूर्व जाति (वंश) चौहान है। ये संवत 1035 में दिल्ली से आकर गढ़वाल के लोहबा परगने में बसे और यहीं के निवासी हो गए।

59. गगवाड़ी नेगी :- गगवाड़ी नेगी जाति के लोग संवत 1476 में मथुरा के समीप के क्षेत्र से आकर गढ़वाल के गगवाड़ी गांव में बसे।

60. चोपड़िया नेगी :- ये लोग संवत 1442 में हस्तिनापुर से आकर गढ़वाल के चोपड़ा गांव में बसे।

61. सरवाल नेगी :- सरवाल नेगी जाति के लोग संवत 1600 में पंजाब से आकर गढ़वाल में बसे।

62. घरकण्डयाल नेगी :- ये पांग, घुड़दौड़स्यूं के निवासी माने जाते हैं।

63. कुमयां नेगी :- ये कुमैं, काण्डा आदि गांवों में निवास करते हैं।

64. भाणा नेगी :- ये पटना के मूल निवासी हैं।

65. कोल्या नेगी :- ये जाति कुमाऊं से आकर गढ़वाल के कोल्ली गांव में बस गयी।

66. सौत्याल नेगी :- ये जाति डोटी, नेपाल से आकर गढ़वाल के सौती गांव में बस गयी।

67. चिन्तोला नेगी :- ये चिंतोलगढ़ के मूल निवासी हैं।

68. खडक्काड़ी नेगी :- ये मायापुर से आकर गढ़वाल में आकर बसे हैं।

69. बुलसाडा नेगी :- कैंत्यूरा पूर्व जाति के वंशज बुलसाडा नेगी कुमाऊं के मूल निवासी हैं।

इसके अतिरिक्त नीलकंठी नेगी, नेकी नेगी, जरदारी नेगी, हाथी नेगी, खत्री नेगी, मोंडा नेगी आदि के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं हो सकी है।

गुसाईं जाति के राजपूत

70. कंडारी गुसाईं :- कंडारी गुसाईं जाति के लोग मथुरा के समीप किसी स्थान से संवत 428 में गढ़वाल आए। इन्हें कंडारी गढ़ के ठाकुरी राजाओं के वंश की जाति माना जाता है।

71.  घुरदुड़ा गुसाईं :- घुरदुड़ा गुसाईं जाति के बारे में रतूड़ी जी लिखते हैं कि “ये लोग स्वयं को लगभग नवीं शताब्दी में गुजरात के मेहसाणा से आया हुआ मानते हैं। इनके मूलपुरुष का नाम चंद्रदेव घुरदेव बताया जाता है। गढ़वाल में एक पूरी पट्टी इनकी ठकुराई पट्टी है। कुमाऊं में ये लोग गढ़वाल से ही गए हैं।”

72. पटवाल गुसाईं :- पटवाल गुसाईं जाति के बारे में माना जाता है कि ये प्रयाग से संवत 1212 में गढ़वाल में आए। गढ़वाल के पाटा गांव में बसने से इनके नाम से ही गढ़वाल के एक पट्टी का नाम पटवाल स्यूं पड़ा।

73. रौथाण गुसाईं :- ये संवत 945 में रथभौं दिल्ली के समीप किसी अज्ञात स्थान से आकर गढ़वाल में बसे।

74. खाती गुसाईं :- पौड़ी गढ़वाल में खातस्यूं खाती गुसाईं जाति की थात की पट्टी मानी जाती है।

ठाकुर जाति के राजपूत

75. सजवाण ठाकुर :- महाराष्ट्र से आए मरहट्टा वंश के सजवाण ठाकुर जाति के लोग गढ़वाल में आए और यहीं के निवासी हो गए। ये प्राचीन ठाकुरी राजाओं की संतानें मानी जाती हैं।

76. मखलोगा ठाकुर :- पुण्डीर वंशीय मख्लोगा ठाकुर संवत 1403 में मायापुर से गढ़वाल के मखलोगी नामक गांव में आकर बसे और तत्पश्चात वहीं के निवासी हो गए।

77. तड्याल ठाकुर :- इनका प्रथम गांव तड़ी गांव बताया जाता है।

78. पयाल ठाकुर :- ये कुरुवंशी वंश से सम्बद्ध हैं। ये हस्तिनापुर से आकर गढ़वाल के पयाल गांव में बसे।

79. राणा ठाकुर :- ये सूर्यवंशी वंश वंशज हैं जो कि संवत 1405 में चितौड़ से गढ़वाल में आकर बसे।

अन्य राजपूत

80. राणा :- नागवंशी वंश से सम्बंधित राणा राजपूत जाति के लोग हूण देश से आकर गढ़वाल में बसे। इन्हें गढ़वाल के प्राचीन निवासियों में से एक माना जाता है।

81. कठैत :- कटोच वंश के वंशज कठैत जाति के लोग कांगड़ा, हिमाचल से आकर गढ़वाल में बस गए।

82. वेदी खत्री :- ये खत्री वंश के वंशज हैं जो संवत 1700 में नेपाल से गढ़वाल आए।

83. पजाई :- पजाई राजपूतों को कुमाऊं का मूल निवासी माना जाता है।

84. रांगड़़ :- ये रांगड़़ वंश के वंशज हैं जो सहारनुपर से गढ़वाल में आकर बस गए।

85. कैंत्यूरा :- ये कैंत्यूरा वंश के हैं जो कुमाऊं से गढ़वाल में आए।

86. नकोटी :- ये नगरकोटी वंश के वंशज हैं जो नगरकोट, कांगड़ा से गढ़वाल में आए। गढ़वाल के नकोट गांव में बसने के कारण ये नकोटी कहलाए।

87. कमीण :- इनके बारे में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं है।

88. कुरमणी :- इनके मूलपुरुष का नाम कुर्म था संभवतः उनके नाम से ही ये कुरमणी कहलाए।

89. धमादा :- इन्हें पुराने गढ़ाधीश की संतानें माना जाता हैं।

90. कंडियाल :- इनका प्रथम गांव कांडी था इसीलिए ये कंडियाल कहलाए।

91. बैडोगा :- बैडोगा जाति के लोगों का प्रथम गांव गढ़वाल का बैडोगी गांव माना जाता है।

92. मुखमाल :- इनका प्रथम गांव मुखवा या मुखेम गांव माना जाता है।

93. थपल्याल :- ये थापली गांव, चांदपुर में बसने के कारण थ्पल्याल कहलाए।

94. डंगवाल :- डंगवाल जाति के राजपूत गढ़वाल के डांग गांव के निवासी हैं।

95. मेहता :- यह जाति दरअसल वैश्य है जो कि संवत 1590 में पानीपत से गढ़वाल आयी।

96. रणौत :- इसे सिसोदियों की एक शाखा माना जाता है जो कि राजपुताना से गढ़वाल में आयी।

97. रौछेला :- ये जाति दिल्ली से गढ़वाल में आयी।

98. जस्कोटी :- ये जाति सहारनपुर, उ.प्र. से आकर गढ़वाल के जसकोट नामक गांव में आकर बस गयी।

99. दोरयाल :- ये द्वाराहाट, कुमाऊं के निवासी माने जाते हैं।

100. मयाल :- ये कुमाऊं के मूल निवासी माने जाते हैं।

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सन्दर्भ :-
1. गढ़वाल का इतिहास - प. हरिकृष्ण रतूड़ी, संपा. - डॉ. यशवंत सिंह कठोच
2. गढ़वाली भाषा और उसका लोकसाहित्य - डॉ. जनार्दन प्रसाद काला
3. गढ़वाल हिमालय : इतिहास, संस्कृति, यात्रा एवं पर्यटन  - रमाकांत बेंजवाल
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संकलनकर्ता - नवीन चन्द्र नौटियाल
शोधार्थी, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली
मूल निवासी- गांव - रखूण, पट्टी - सितोनस्यूं, पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखंड)
वर्तमान निवासी- जनकपुरी, नई दिल्ली।।

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