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Showing posts from 2019

आधुनिक गढ़़वाली कविता का संक्षिप्त इतिहास

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भीष्म कुकरेती (मुंबई) // गढ़़वाली भाषा का प्रारम्भिक काल गढ़़वाली भाषाई इतिहास अन्वेषण हेतु कोई विशेष प्रयत्न नहीं हुए हैं। अन्वेषणीय वैज्ञानिक आधारों पर कतिपय प्रयत्न डॉ. गुणानन्द जुयाल, डॉ. गोविन्द चातक, डॉ. बिहारी लाल जालंधरी, डॉ. जयंती प्रसाद नौटियाल ने अवश्य किया किन्तु तदुपरांत पीएचडी करने के पश्चात इन सुधिजनों ने अपनी खोजों का विकास नहीं किया और इनके शोध भी थमे रह गए। डॉ. नन्दकिशोर ढौंडियाल और इनके शिष्यों के कतिपय शोध प्रशंसनीय हैं पर इनके शोध में भी क्रमता का नितांत अभाव है। चूंकि भाषा के इतिहास में क्षेत्रीय इतिहास, सामाजिक विश्लेषण, भाषा विज्ञान आदि का अथक ज्ञान और अन्वेषण आवश्यक है। अतः इस विषय पर वांछनीय अन्वेषण की अभी भी आवश्यकता है।  अन्य विद्वानों में श्री बलदेव प्रसाद नौटियाल, संस्कृत विद्वान् धस्माना, भजन सिंह सिंह, अबोध बंधु बहुगुणा, मोहन लाल बाबुलकर, रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी', भीष्म कुकरेती आदि के गढ़वाली भाषा का इतिहास खोज कार्य वैज्ञानिक कम भावनात्मक अधिक हैं। इन विद्वानों के कार्य में क्रमता और वैज्ञनिक सन्दर्भों का अभाव भी मिलता है। इसके अतिरि

मान राम (हिन्दी कविता)

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अनिल कार्की // मानराम ! ओ बूढ़े पहाड़ लो टॉफी खा लो चश्मा पौंछ लो मेरे पुरखे टॉफी की पिद्दी सी मिठास तुम्हारे कड़वे अनुभवों को मीठा कर सकेगी मैं यह दावा कतई नहीं करूंगा आंखों में जोर डालो मानराम हम डिग्री कॉलेज के पढ़े हुए तुम्हारे बच्चे तुमसे पूछना चाहते हैं जीवन के सत्तानबे साल कैसे गुजरे ? क्या काम किया ? क्या गाया ? कैसा खाया ? कितनी भाषाएं बोल लेते हो ? नहीं मान राम हमें नहीं सुननी तुम्हारी गप्पें तुम रोओ नहीं हमारे सामने तुम्हारे आंसुओं में आंकड़े नहीं जो हमारे काम आ सकें या कि जिनसे हम लिख सकें बड़ी बात मान राम देश तुम्हारे हाथ का बुना टांट का बदबुदार पजामा नहीं देश डिजिटल है इस समय तुम अजूबे हो तुम्हारी केवल नुमाईश हो सकती है तुम्हारी कछुवे सी पीठ हजार साल पुरानी है शौका व्यापारियों का नून तेल ढोती हुई हिमाल के आर- पार तनी हुई उसी पीठ में है सैकड़ों बौद्ध उपदेश अहिंसा के, पीड़ा के, दया के जो अनपढ़े रह गए वर्षों से या कि ढके रह गए बोझ ढोते हुए तुम्हारे चश्मे का एक पाया ऊन से टिका है आज भी ऊन तुम्हारे आंख से गर्म सफेद आंसू सा टपकता रहा मै

हमर गौंम (गढ़वाली कविता)

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केशव डुबर्याळ ‘मैती’// हमर गौंम, आइडिया नेटभर्क च, गोर, बछरू, भ्याल हकै, मनखि निझर्क च। हमर गौंम, पीडब्ल्डी सड़क च, मनखि भितर सियुं, भैर बांदर बेधड़क च। हमर गौंम, ऊर्जा निगमै बिजलि च, भैर मनखि उज्यळु, भितर अंध्यरु च। हमर गौंम, सरकरि प्राथमिक इस्कोल च, नाति पढ़णौ प्रावेट इस्कोल, बाजार भेज्यूं च। हमर गौंम, जल संस्थान कू पाणि च, बस भौत ह्वेगि यिख, अब देरादूनै स्याणि च।

चुनौ बाद (गढ़वाली कविता)

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धनेश कोठारी // बिकासन बोलि परदान जी! मिन कबारि औण ? पैलि तुमारा घौर औण कि/ गौं मा औण? अबे! ठैर यार बिन्डी कतामति न कार पैलि हिसाब त् लगौण दे तेरा बानौ खर्च कत्था ह्वे भुकौं कथगा कुखड़ा खलैन बोत्ळयूं पर छमोटा कै कैन लगैन कथगौं करै अबारि ‘चुनौ टूरिज्म’ अर कै- कैन करिन रुप्या हज्म कै कैतै ब्वन्न प्वड़े ई बाबा कैका खुट्टौं मा धैरि साफा क्य-क्य बोलि झूठ अर सच कैका शांत करिन् गुळमुच पदान जी! फेर बि... क्वी टैम क्वी बग्तऽ ? अबे! जरा थौ बिसौं घड़ेक गिच्चा परैं म्वाळु लगौ तिन बि कौन से अफ्वी हिटिक औण खुट्टौं बिगर त् तिन बि ग्वाया लगौण पुजण प्वड़ेला बिलौका द्यब्ता खबेसूं तै बि गड़ण प्वडे़ला उच्यणा बिधैकज्या नौ बि बजौण प्वड़ेली घंडुलि तब त् ऐ सकली तू हमरि मंडुलि धीरज धैर अर निसफिकरां रौ तैरा ई भरोसा त लड़्यों चुनौ तिन ई त् बणौण हमारि मौ बिगास बस घड़ेक तू चुप रौ।।

इंसानी जीवन के रेखांकन की कविताएं

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पुस्तक समीक्षा-  जलड़ा रै जंदन (गढ़वाली कविता संग्रह) डॉ. नंद किशोर हटवाल // कविताओं को अपने समय और समाज का दर्पण कहा जाता है। अपेक्षा की जाती है कि उसमें हमारा ‘आज’ हो। कविताएं अपने भाषाई और सामाजिक वर्ग की विशिष्टताओं और चिंताओं से भी परिचित कराए। उनमें उस वर्ग के अंतिम व्यक्ति की चिंताएं प्रतिध्वनित हों। अपनी माटी की खुशबू और प्रकृति की रम्यता में इंसान कहीं खो न जाए। कविता इलाकाई और भाषाई सीमाओं से बाहर निकली हुई, हवा की तरह आजाद और पानी की तरह सार्वभौम हो। उसमें अपने अंचल की मिठास तो हो लेकिन जकड़न न हो। क्षेत्रीय विशिष्ठताएं हों लेकिन बंधन न हों। देवेन्द्र जोशी के सद्य प्रकाशित गढ़वाली कविता संग्रह ‘जलड़ा रै जंदन’ को पढ़ते हुए कुछ इसी तरह की अनुभूतियों से गुजरा जा सकता है।  संग्रह की पहली कविता ‘जलड़ा रै जांदा’ में अपनी जड़ों से जुड़ने की एक गहरी चाहत दिखती है। कवि के अंतर्मन की यह चाहत अन्य कविताओं में भी प्रकट हुई है। कविता में आगे बढ़ने की इच्छा के समर्थन के साथ अपनी जड़ों को न भूलने, उनसे अलग न होने और उसे सिंचित करने की इच्छा खूबसूरत तरीके से व्यक्त हुई है।  कविता

गैळ बळद (गढ़वाली कविता)

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आशीष सुंदरियाल//  जब बटे हमरु गैळ बळ्द फेसबुक फर फेमस ह्वे तब बटि वो बळ्द/ बळ्द नि रै सेलिब्रिटी बणिगे अर मि वेकु सबसे बड़ु फैन  उन्त सिर्फ मि ना सर्या दुन्या आज वेकी फैन च                                                तबि त                                               वे दगड़ सेल्फी खिचाण वळों की                                                इतगा लम्बी लैन च                                               लोग पागल हुयां छन वेका बान                                               हर क्वी कनू च वेको गुणगान                                               लाइक कमेंट शेयर कना छन                                                लोग धड़ाधड़                                               क्वी दिल चिपकाणू च                                               क्वी अंगुठा दिखाणू च                                               क्वी वे तैं अपणि गौड़ी कु बोड़                                               त क्वी वे तैं                                                अपणि

उत्तराखंड के सीमांत क्षेत्रों में बसती हैं ये जनजातियां

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नवीन चंद्र नौटियाल // उत्तराखंड राज्य के गढ़वाल और कुमाऊं मंडलों के समाज में अन्य के साथ ही कई जनजातियां भी सदियों से निवासरत हैं। इनमें भोटिया, जौनसारी, जौनपुरी, रंवाल्टा, थारू, बोक्सा और राजी जातियां प्रमुख हैं। अब तक इतिहास से संबंधित प्रकाशित पुस्तकों में इनका काफी विस्तार से वर्णन भी मिलता है। ऐसी ही कुछ किताबों से पर्वतीय राज्य की जनजातियों को संक्षेप में जानने का प्रयास किय गया है। भोटिया जनजाति :  उत्तराखंड की किरात वंशीय भोटिया जनजाति का क्षेत्र कुमाऊं- गढ़वाल से लेकर तिब्बत तक फैला हुआ है। भोटिया समुदाय के लोग अपनी जीवटता, उद्यमशीलता और संस्कृतिक विशिष्टता और विभिन्नता के लिए जाने जाते हैं। मध्य हिमालय की भोटिया जनजाति इसी क्षेत्र की नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भारत की जनजातियों में सर्वाधिक विकसित हैं। उनकी खुशहाली और समृद्धि गैर- जनजातीय लोगों के लिए भी एक अनुकरणीय उदाहरण है। भोटिया वास्तव में एक जाति न होकर कई जातियों का समुदाय है। यह मध्य- हिमालयी क्षेत्र की सर्वाधिक जनसंख्या वाली जनजाति है। इस समुदाय में मारछा, तोल्छा, जोहारी, शौका, दारमी, चौंदासी, ब्यांसी आदि जातियों

दाताs ब्वारि, कनि दुख्यारि (गढ़वाली कहानी)

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कथाकार - भीष्म कुकरेती // गौं मा इन कबि नि ह्वे. इन कैन बि कबि नि देखी. हाँ बुन्याल त- गाँ मा क्या अडगें (क्षेत्र) मा झबरी ददि सबसे दानि मनखिण च, ह्वेगे होली  पिचाणा-छयाणा साल कि, पण कुनगस च बल झबरी ददि न बि इन अचर्ज नि द्याख. बैदजी ऐ- ऐक थकिगेन. वैदजीन क्या- क्या जि नि कार! पण दाता कि ब्वारि गौमती फर क्वी फरक इ नि पोड़. बैद चिरंजीलाल तै अफु पर इ रोष ऐगे, गुस्सा ऐगे. वैन आन नि द्याख जान नि द्याख अर गुस्सा मा अपणो इ सुयर भेळुन्द चुलै दे. अरे इन कबि नि ह्वे कि मरीज को दुःख बैद चिरंजीलाल को बिंगण मा नि आई हो.  ठीक च बैदें कर्द- कर्द मरीज मोरि बि ह्वाला पण चिरंजी तै दुःख को पता त पोड़ी जांद छौ. सुयर भेळुन्द चुलांद- चुलांद चिरंजीलालन धन्वन्तरी अर चरक का सौं घैंटीं कि आज से अब बैदकी नि करण बल. जब हथुं फर जस इ नि रैगे त किलै बैदकी करण. जस को जख तक सवाल च चिरंजी जरा मुर्दाक बि नाडी देखि लीन्दो छौ त मुर्दा चम खड़ो ह्वे जान्दो छौ. चिरंजीलाल न क्या- क्या दवा नि पिलैन पण दाता कि ब्वारि उनि कड़कड़ी इ राई. पूछेरूं गणत बुसेगे, गणत को क्वी फल सुफल नि ह्वेई. बक्की हल्दी... अर चौंळ सूंगी- सू

विलक्षण था आचार्य चक्रधर जोशी का जीवन

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गिरधर पंडित // आचार्य पंडित चक्रधर जोशी मूलतः दाक्षिणात्य ब्राह्मण परिवार से थे। यहां पर यह भी उल्लेख करना उचित होगा कि देवप्रयाग में बहुतायत ब्राह्मण दक्षिण भारत से हैं। जिनका संबन्ध आर्यों की पंच द्रविड़ शाखा से है। जोशी परिवार भी उसी में से है।  हिंदी तिथियों के अनुसार आचार्य जी का जन्म वामन द्वादशी को हुआ था। जोशी परिवार दक्षिण भारत में कहां से आये थे इस पर देवप्रयाग के बहुभाषाविद, संस्कृत के कवि नाटककार बहुमुखी प्रतिभा के धनी पं. मुरलीधर शास्त्री के अनुसार :- ‘आंध्र प्रदेशे शुभ गौतमी तटे, धान्यै युते कांकरवाड़ ग्रामें कौण्डिल्य गोत्रे द्विजवर्य गेहे, जातो हनुमासन विदुषाम वरिष्ठ।’ (स्मृति ग्रन्थ से) आंध्रप्रदेश के गोदावरी जिले के कांकरवाड नामक ग्राम से जोशी जी के पूर्वज कौण्डिल्य गोत्रीय ब्राह्मण दामोदर भट्टारक (दक्षिण में विद्वान के लिए भट्टारक शब्द प्रयुक्त होता है जो उत्तर में आकर खासकर देवप्रयाग में भट्ट हो गया) देवप्रयाग आकर बसे थे।  दामोदर के वासुदेव, वासुदेव के हनुमान, हनुमान के व्यंकट रमण और जयकृष्ण पुत्र हुए। व्यंकट रमण अल्पायु हुए। जयकृष्ण के लक्ष्म

पहाड़ के गांवों की ऐसी भी एक तस्वीर

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नरेंद्र कठैत//           साहित्यिक दृष्टि से अगर उत्तराखण्ड की आंचलिक पृष्ठभूमि को स्थान विशेष के परिपेक्ष्य में देखना, समझना चाहें तो इस श्रेणी में पहाड़ से गिने-चुने कलमकारों के नाम ही उभरकर सामने आते हैं। कुमाऊं की ओर से पहाड़ देखना, समझना हो तो टनकपुर से चिल्थी, चम्पावत, लोहाघाट, घाट होते हुए पिथौरागढ़ तक शैलेश मटियानी अपनी कहानियों के साथ ले जाते हैं। गढ़वाल की ओर से साहित्यकार मोहन थपलियाल, विद्यासागर नौटियाल, कुलदीप रावत, सुदामा प्रसाद प्रेमी हमें घुंटी-घनसाली, पौखाळ, डांगचौरा, श्रीनगर, कांडा, देलचौंरी, बिल्वकेदार, कोटद्वार, गुमखाल, कल्जीखाल, दूधातोली, मूसागली जैसे कई स्थान विशेष के न केवल नामों से बल्कि कहीं न कहीं उनके इतिहास भूगोल से भी हमें जोड़कर रखते हैं।            दरअसल नाम विशेष से मजबूती के साथ जुड़ी पहाड़ की ये शृंखलाएं ठेट गांवों तक चली जाती हैं। इनकी संख्या सौ-पचास में नहीं अपितु सैकड़ों में है। खोळा, कठुड़, अठूड़, कोट, श्रीकोट, पोखरी, कांडई, डांग, चोपड़ा, नौ गौं, बैध गौं, पाली, बागी इत्यादि नामों के तो एक नहीं अपितु कई-कई गांव पहाड़ की कंदराओं में हैं। प्रथमतः स्थान

मैंने या तूने (हिन्दी कविता)

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प्रदीप रावत ‘खुदेड़' // मैंने या तूने, किसी ने तो मशाल जलानी ही थी चिंगारी मन में जो जल रही थी उसे आग तो बनानी ही थी मैंने या तूने, किसी ने तो मशाल जलानी ही थी। मरना तुझे भी है मरना मुझे भी है यूं कब तक तटस्थ रहता तू यूं कब तक अस्पष्ट रहता तू फिर किस काम की तेरी ये जवानी थी मैंने या तूने, किसी ने तो मशाल जलानी ही थी। रो रही धारा ये सारी है वक्त तेरे आगे खड़ा है तय कर तू तुझे वक्त के साथ चलना है या कोई नया किस्सा गढ़ना है ये तेरी ही नहीं लाखों युवाओं की कहानी थी मैंने या तूने, किसी ने तो मशाल जलानी ही थी। आकांक्षाएं ये तेरी अति महत्वाकांक्षी हैं आसमान में उड़ते भी जमीं पर पांव रख तू बाज़ी हारे न ऐसा एक दांव रख तू हारी बाज़ी तुझे बनानी थी मैंने या तूने, किसी ने तो मशाल जलानी ही थी। तुफानों के थमने तक सब्र रख तू ज़िंदा है तो पड़ोस की खबर रख तू अपने अधिकारों में कब तक मदहोश रहेगा पर कर्तव्यों के प्रति कब तक खामोश रहेगा कुछ तो जिम्मेदारी तुझे उठानी थी मैंने या तूने, किसी ने तो मशाल जलानी ही थी। (युवा प्रदीप रावत ‘खुदेड़’ कवि होने के साथ ही सामाजिक स

गढ़वाल की राजपूत जातियों का इतिहास (भाग-1)

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संकलनकर्ता- नवीन चंद्र नौटियाल // उत्तराखंड राज्य के गढ़वाल क्षेत्र में निवास करने वाली राजपूत जातियों का इतिहास भी काफी विस्तृत है। यहां बसी राजपूत जातियों के भी देश के विभिन्न हिस्सों से आने का इतिहास मिलता है। इसी से जुड़ी कुछ जानकारियां आपसे साझा की जा रही हें। क्षत्रिय/ राजपूत :- गढ़वाल में राजपूतों के मध्य निम्नलिखित विभाजन देखने को मिलते हैं - 1. परमार (पंवार) :- परमार/ पंवार जाति के लोग गढ़वाल में धार गुजरात से संवत 945 में आए। इनका प्रथम निवास गढ़वाल राजवंश में हुआ। 2. कुंवर :- इन्हें पंवार वंश की ही उपशाखा माना जाता है। ये भी गढ़वाल में धार गुजरात से संवत 945 में आए। इनका प्रथम निवास भी गढ़वाल राजवंश में हुआ। 3. रौतेला :-  रौतेला जाति को भी पंवार वंश की उपशाखा माना जाता है। 4. असवाल :- असवाल जाति के लोगों का सम्बंध नागवंश से माना जाता है। ये दिल्ली के समीप रणथम्भौर से संवत 945 में यहां आए। कुछ विद्वान इनको चौहान कहते हैं। अश्वारोही होने से ये असवाल कहलाए। वैसे इन्हें गढ़वाल में थोकदार माना जाता है। 5. बर्त्वाल :- बर्त्वाल जाति के लोगों को पंवार वंश का वंशज माना जाता