2014 ~ BOL PAHADI

14 July, 2014

मैं हंसी नहीं बेचता

जी हां
मैं हंसी नहीं बेचता
न हंसा पाता हूं किसी को
क्‍योंकि मुझे कई बार
हंसने की बजाए रोना आता है

हंसने हंसाने के लिए
जब भी प्रयत्‍न करता हूं,
हमेशा गंभीर हो जाता हूं
इसी चेतना के कारण
हंसी, हमेशा रुला देती है

हास्‍य का हर एक किरदार
मेरे शब्‍दों में उलझकर
हंसाने की बजाए,
चिंतन पर ठहर जाता है

सामने सिसकते घाव
मुझे आह्लादित नहीं करते
फिर, कैसे शब्‍दों के जरिए
हंसाऊं किसी को
कैसे बेचूं मंचों पर हंसी
नहीं आता, यह शगल
इसलिए
मैं नहीं बेचता हंसी ।।

@धनेश कोठारी

02 June, 2014

गैरा बिटि सैंणा मा

उत्तराखण्ड की जनसंख्या के अनुपात में गैरसैंण राजधानी के पक्षधरों की तादाद को वोट के नजरिये से देखें तो संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता है। क्योंकि दो चुनावों में नतीजे पक्ष में नहीं गये हैं। सत्तासीनों के लिए अभी तक 'हॉट सबजेक्ट' नहीं बन पाया है। आखिर क्यों? लोकतंत्र के वर्तमान परिदृश्य में 'मनमानी' के लिए डण्डा अपने हाथ में होना चाहिए। यानि राजनितिक ताकत जरूरी है। राज्य निर्माण के दस साला अन्तराल में देखें तो गैरसैण के हितैषियों की राजनितिक ताकत नकारखाने में दुबकती आवाज से ज्यादा नहीं। कारणों को समझने के लिए राज्य निर्माण के दौर में लौटना होगा।

शर्मनाक मुजफ़्फ़रनगर कांड के बाद ही यहां मौजुदा राजनितिक दलों में वर्चस्व की जंग छिड़ चुकी थी। एक ओर उत्तराखण्ड संयुक्त संघर्ष समिति में यूकेडी और वामपंथी तबकों के साथ कांग्रेसी बिना झण्डों के सड़कों पर थे, तो दूसरी तरफ भाजपा ने 'सैलाब' को अपने कमण्डल भरने के लिए समान्तर तम्बू गाड़ लिये थे। जिसका फलित राज्यान्दोलन के शेष समयान्तराल में उत्तराखण्ड की अवाम खेमों में ही नहीं बंटी बल्कि चुप भी होने लगी थी। उम्मीदें हांफने लगी थी, भविष्य का सूरज दलों की गिरफ्त में कैद हो चुका था। ठीक ऐसे वक्त में केन्द्रासीन भाजपा ने राज्य बनाने की ताकीद की, तो विश्वास बढ़ा अपने पुराने 'खिलकों' पर 'चलकैस' आने का। किन्तु भ्रम ज्यादा दिन नहीं टिका। सियासी हलकों में 'आम' की बजाय 'खास' की जमात ने 'सौदौं की व्यवहारिकता' को ज्यादा तरजीह दी। नतीजा आम लो़गों की जुबान में कहें तो "उत्तराखण्ड से उप्र ही ठीक था"।

इतने में भी तसल्ली होती उन्हें तो कोई बात नहीं राज्य निर्माण की तारीख तक आते-आते भाजपा ने राज्य की सीमाओं को च्वींगम बना डाला। अलग पहाड़ी राज्य के सपने को बिखरने की यह पहली साजिश मानी जाती है। आधे-अधूरे मन से 'प्रश्नचिह्‍नों' पर लटकाकर थमा दिया हमें 'उत्तरांचल'। यों भी भाजपा पहले भी पृथक राज्य की पक्षधर नहीं थी। नब्बे दशक तक इस मांग को देशद्रोही मांग के रूप में भी प्रचारित किया गया। दुसरा, तब उसे उत्तराखण्ड को पूर्ण पहाड़ी राज्य बनाना राजनितिक तौर पर फायदेमन्द नहीं दिखा। शायद इसलिए कि पहाड़ की मात्र चार संसदीय सीटें केन्द्र के लिहाज से अहमियत नहीं रखती थी। आज के हालातों के लिए सिर्फ़ भाजपा ही जिम्मेदार है यह कहना कांग्रेस और यूकेडी का बचाव करना होगा। आखिर उसके पहले मुख्यमंत्री ने भी तो 'लाश पर' राज्य बनाने की धमकी दी थी। उसने भी तो अपने पूरे कार्यकाल में 'सौदागरों' की एक नई जमात तैयार की। जिसे गैरसैण से ज्यादा मुनाफ़े से मतलब है।
इन दिनों गढ़वाल सांसद सतपाल महाराज ने गैरसैण में बिधानसभा बनाने की मांग कर और इसके लिए क्षेत्र में सभायें जुटाकर भाजपा और यूकेडी में हलचल पैदा कर दी है। नतीजा की राजधानी आयोग की रिपोर्ट दबाकर बैठी निशंक सरकार ने इस मसले पर सर्वदलीय पंचायत बुलाने का शिगूफ़ा छोड़ दिया है। इन हलचलों को ईमानदार पहल मान लेना शायद जल्दबाजी के साथ भूल भी होगी। क्योंकि यह कवायद मिशन २०१२ तक पहाड़ को गुमराह करने तक ही सीमित लगती है। महाराज गैरसैण में राजधानी निर्माण करने की बजाय सिर्फ़ बिधानसभा की ही बात कर रहे हैं। तो उधर उनके राज्याध्यक्ष व प्रतिपक्ष ने गैरसैण में बिधानसभा पर भी मुंह नहीं खोल रहे हैं। ऐसे में क्या माना जाय? यूकेडी ने नये अध्यक्ष को कमान सौंपी है। वे गैरसैण राजधानी के पक्षधर भी माने जाते है। लेकिन क्या वे सत्ता के साझीदार होकर राजधानी निर्माण के प्रति ईमानदार हो पायेंगे?

गैरसैण के बहाने उत्तराखण्ड की एक और तस्वीर को भी देखें। जहां सत्ता ने सौदागरों की फौज खड़ी कर दी है। वहीं गांवों से वार्डों तक नेताओं की जबरदस्त भर्ती हुई है। जो अपने खर्चे पर विदेशों तक से वोट बुलाकर घोषित 'नेता' बन जाना चाहते हैं। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि बीते पंचायत चुनाव में ५५००० से ज्यादा लोग 'नेता' बनना चाहते थे। अब यदि इस राज्य में ५५००० लोग जनसेवा के लिए आगे आये तो गैरसैण जैसे मसले पर हमारी चिन्तायें फिजुल हैं। लेकिन ये फौज वाकई जनसेवा के लिए अवतरित हुई है यह हालातों को देखकर समझा जा सकता है।

ऐसे में गैरसैण राजधानी कब बनेगी? इस पर मैं अपनी एक गढ़वाली कविता उद्धृत करना चाहूंगा--

गैरा बिटि सैंणा मा

हे द्‍यूरा!
स्य राजधनि
गैरसैंण कब तलै
ऐ जाली?
बस्स बौजि!
जै दिन
तुमरि-मेरि
अर
हमरा ननतिनों का
ननतिनों कि
लटुलि फुलि जैलि
शैद
वे दिन
स्या राज-धनि
तै गैरा बिटि
ये सैंणा मा
ऐ जाली।

Source : Jyundal (A Collection of Garhwali Poems)
Copyright@ Dhanesh Kothari

30 April, 2014

लंपट युग में आप और हम

    बड़ा मुश्किल होता है खुद को समझाना, साझा होना और साथ चलना। इसीलिए कि 'युग' जो कि हमारे 'चेहरे' के कल आज और कल को परिभाषित करता है। अब आहिस्‍ता-आहिस्‍ता उसके लंपट हो जाने से डर लगता है। मंजिलें तय भी होती हैं, मगर नहीं सुझता कि प्रतिफल क्‍या होगा। जिसे देखो वही आगे निकलने की होड़ में लंपट होने को उतावला हो रहा है। हम मानें या नहीं, मगर बहुत से लोग मानते हैं, बल्कि दावा भी करते हैं, कि खुद इस रास्‍ते पर नहीं गए तो तय मानों बिसरा दिए जाओगे। दो टूक कहते भी हैं कि अब भोलापन कहीं काम नहीं आता, न विचार और न ही सरोकार अब 'वजूद' रखते हैं। काम आता है, तो बस लंपट हो जाना। इसीलिए सामने वाला लंपटीकरण से ही प्रभावित है।

लंपटीकरण आज के दौर में बाजार की जरुरत भी लगती है। सब कुछ बाजार से ही संयोजित है। सो बगैर बाजारु अभिरचना में समाहित हुए बिना कौन पहचानेगा, कैसे तन के खड़े होने लायक रह पाओगे। यह न समझें कि यह अकेली चिंता है। कह न पाएं, लेकिन है बहुतों की। हाल में एक जुमला अक्‍सर सुनने को मिलता है, अपनी बनाने के लिए धूर्तता के लिए धूर्त दिखना जरुरी नहीं, बल्कि सीधा दिखकर धूर्त होना जरुरी है। सीधे सपाट चेहरे हंसी लपेट हुए मासूम नजर आते हैं। लेकिन पारखी उनकी हंसी के पेंच-ओ-खम को ताड़ लेते हैं। 

अबके यही मासूम (धूर्त) लंपटीकरण की राह पर नीले रंग में नहाए हुए लग रहे हैं, और हमारा, आपका मन, दिल उन्‍हें 'तमगा' देने को उतावला हुए जा रहा है। बर्तज भेड़ हम उस लंपटीकरण की आभा के मुरीद हो रहे हैं।

अब यह न मान लें, कि लंपट हो जाना किसी एक को ही सुहा रहा है। यहां भी हमाम में सब नंगे हैं, कि कहावत चरितार्थ हो रही है। मानों साबित करने की प्रतिस्‍पर्धा हो। नहीं जीते (यानि लंपट नहीं हुए) तो पिछड़ जाएंगे। मेरा भी मन कई बार लंपट हो जाने को बेचैन हुआ। तभी कोई फुस्‍स फुसाया कि तुम में अभी यह क्‍वालिटी डेवलप नहीं हुई है। आश्‍चर्यचकित.. अच्‍छा तो लंपट होने के लिए किसी बैचलर डिग्री की जरुरत है। 

बताया कि इसकी पहली शर्त है, लकीर पीटना बंद करो। सिद्धांतों का जमाल घोटा पीना पिलाना छोड़ दो। गांधी की तरह गाल आगे बढ़ाने का चलन भी ओल्‍ड फैशन हो चला है। दिन को रात, रात को दिन बनाने अर्थात जतलाने और मनवाने का हुनर सीखो। जो तुम्‍हें सीधा सच्‍च कहे, खिंचके तमाच मार डालो। समझ जाएगा, मुंडा बिगड़ गया। बस.. दिल खुश्‍ा होकर बोल उठा, व्‍हाट ऐन आ‍इडिया सर जी। 

@Dhanesh Kothari

25 April, 2014

वह आ रहा है अभी..


कुछ लोग कह रहे हैं
तुम मत आओ
वह आ रहा है अभी

उसके आने से पहले
तुम आओगे, तो
कुछ नहीं बदलेगा यहां-वहां
न तुम में, न मुझमें, न किसी में

तुम्हें आने से पहले
देनी होगी परीक्षा  
छोड़ना होगा उसका विरोध
मानना और कहना होगा
जो वह कहे, मनवाए

तुम अभी मत आओ
पहले नंबर उसका है
टेस्ट पास करने का
उसके लिए कुछ मौखिक सवाल-
तैयार किए हैं हमने

जब तुम्हारा टेस्ट लिया जाएगा
तुम्हें नहीं मिलेंगे वैकल्पिक प्रश्न
अनसोल्ड पेपर की सुविधा-
अभ्यास के लिए

वह आना चाहता है प्रथम
हमने उसके लिए
कर दिए हैं सारे इंतजाम
माइनेस मार्किंग भी खत्‍म

इसलिए तुम मत आओ अभी
फेल हो जाओगे, परीक्षा में
उसे लांघने के कारण
तुम्हारा शुभेच्छु
सिर्फ तुम्हारा.. ।

@ #धनेश कोठारी

17 April, 2014

भ्रष्‍टाचार, आदत और चलन

समूचा देश भ्रष्‍टाचार को लेकर आतंकित है, चाहता है कि भ्रष्‍टाचार खत्‍म हो जाए। मगर, सवाल यह कि भ्रष्‍टाचार आखिर खत्‍म कैसे होगा। क्‍या एक आदमी को चुन लेने से देश भ्रष्‍टाचार मुक्‍त हो जाएगा। हंसी आती है ऐसी सोच पर .....  

16वीं लोकसभा का चुनाव देखिए। इसमें प्रचार में हजारों करोड़ खपाए जा रहे हैं। निर्वाचन आयोग ने भी 70 लाख तक की छूट दे दी। क्‍या ये सब मेहनत की कमाई का पैसा है। क्‍या यह भ्रष्‍टाचार को प्रश्रय देने की पहली सीढ़ी नहीं। आखिर जो चंदे के नाम पर करोड़ों अरबों दे रहा है, क्‍या कल वह धंधे के आड़े आने वाली चीजों को मैनेज करने के लिए दबाव नहीं बनाएगा। क्‍या आपके वह अलां फलां नेताजी बताएंगे कि उन्‍हें मिलने वाला धन किन स्रोतों से आया है। 

क्‍या आप उनसे यह सवाल पूछ सकेंगे, जब वह वोट मांगने आएं। क्‍या आप जानने के बाद उनसे सवाल करेंगे कि फलां घोटाले में उनका क्‍या हाथ था। दूसरा सवाल कि क्‍या आप अपने वाजिब हक के बाद भी रिश्‍वत देना या लेना छोड़ दोगे। क्‍या आप अपने हर काम को कानूनी तौर पर करने का मादा रखते हैं। क्‍या 30 से 40 प्रतिशत पर छूटने वाले ठेकों में एक रुपया भी कमीशन कोई नहीं लेगा। ऐसे ही सवाल कई हैं। जिनके जवाब आप भी जानते हैं। तो फिर भ्रष्‍टाचार कैसे खत्‍म हो सकता है। जब आप कुछ भी त्‍याग नहीं करना चाहते। महज एक वोट भ्रष्‍टाचार को खत्‍म नहीं कर सकता है, तय मानिए। 

इसके बाद भी मुझे लगता है कि आंखें आभा और चकाचौंध में बंद ही रहेंगी। फिर भला भोले आदमियों क्‍यों मान बैठे कि देश भ्रष्‍टाचार से मुक्‍त हो जाएगा। क्‍यों इन झूठी दलीलों को सच मान जाते हो, क्‍यों अपने वोट को जाया करते हो। तय मानिए कि यह जरुरी नहीं कि विचार पैसे वाले के पास ही होता है, एक गरीब भी विचार संपन्‍न होकर भविष्‍य को निर्धारित करने की क्षमता रखता है। 

भले ही उसके पास चुनाव में आपको आ‍कर्षित करने के लिए प्रचार करने के पर्याप्‍त संसाधन नहीं। बवंडर आपको उड़ा तो ले जा सकते हैं, स्‍थायित्‍व नहीं दे सकते। सो जागो... जागो मतदाता जागो, वोट करो, जमकर चोट करो.. आग्रहों और पुर्वाग्रहों से बाहर निकल कर .......

15 April, 2014

हां.. तुम जीत जाओगे

हां.. 
निश्चित ही
तुम जीत जाओगे
क्योंकि तुम जानते हो
जीतने का फन
साम, दाम, दंड, भेद

तुम्हें
सिर्फ जीत चाहिए
एक अदद कुर्सी के लिए
जिसके जरिए
साधे जाएंगे फिर वही
साम, दाम, दंड, भेद

जो
महत्वाकांक्षा रही है तुम्हांरी
घुटनों के बल उठने के दिन से
अब
दौड़ने लगे हो तुम, पूरे
साम, दाम, दंड, भेद के साथ

मगर, आखिरी सवाल कि
क्यान यह
साम, दाम, दंड, भेद
केवल तुम्हारा अपने लिए होगा
या कि
उनके लिए भी, जो
तुम्हारी जीत में सहभागी बनेंगे
बरगलाए जाने के बाद...

कापीराइट- धनेश कोठारी

12 April, 2014

बदलाव, अवसरवाद और भेडचाल

अवसरवाद नींव से लेकर शिखर तक दिख रहा है। वैचारिक अस्थिरता के कारण, नेता ही नहीं, पूर्व अफसर और अब तो आम आदमी भी विचलन का शिकार है। यह उक्ति कि 'जहां मिली तवा परात वहीं बिताई सारी रात' सटीक बैठ रही है।
कल तक जिनसे नाक भौं सिकाड़ी जाती थी, उन्‍हीं की गलबहियां डाली जा रही हैं। छोड़ने से लेकर शामिल होने तक के उपक्रम चालू हैं। क्‍या इसे बदलाव की बयार का परिणाम कहेंगे, क्‍या वास्‍तव में ऐसे सभी सुजन अपने आसपास बिगड़ते माहौल को सुधारने के हामी हैं। क्‍या यही आखिरी मौका है, क्‍या उनके सामने विकल्‍प सीमित और आखिरी हैं... ऐसे ही कई सवाल... जिनके सीधे उत्‍तर तो शायद मिले, मगर, भेड़ों के झुंड जरुर दौड़ते दिख रहे हैं। पहले भी दौड़ते थे, और लग रहा है कि शाश्‍वत दौड़ते रहेंगे। शिक्षा और उच्‍च शिक्षा का भी उसपर शायद ही प्रभाव पड़े।

लिहाजा, इस दौड़भाग के निहितार्थ भी समझे जाने चाहिए। यह आपाधापी स्‍वहित से आगे जाती नहीं दिखती। व्‍यक्तिवाद यहां भी हावी है, सूरज का ख्‍याल यहां भी बराबर रखा जा रहा है।
ऐसे में यह दावा कि समाज, राज्‍य और देश बदलेगा, मिथ्‍या लगता है। लक्षित बदलाव वास्‍तविक बदलाव की आगवानी कतई सूचक नहीं माना जा सकता है।
सो जागते रहो, जागते रहो.........

10 April, 2014

गिरगिट, अपराधबोध और कानकट्टा

आज सुबह से ही बड़ा दु:खी रहा। कहीं जाहिर नहीं किया, लेकिन वह बात बार-बार मुझे उलझाती रही, कि क्‍या मुझसे गुनाह, पाप हुआ है। साथ ही मन को खुद ढांढ़स भी बंधा रहा था कि नहीं, पाप नहीं हुआ। अंजाने में कोई बात हो जाए तो व्‍यवहारिक तौर पर उसे गुनाह नहीं माना जाता है। कानूनी तौर पर जरुर इसे गैर इरादतन अपराध की श्रेणी में रखा जाता है। सो पसोपेस अब भी बाकी है।
हुआ यह कि सुबह जब ड्यूटी जा रहा था, तो अपने घर के बाहर अचानक और अंजाने ही एक गिरगिट पैरों के तले रौंदा गया। उस पर पैर पड़ते ही क्रीच..क की आवाज से चौंक कर उछला, पीछे मुड़कर देखा तो गिरगिट परलोक सिधार चुका था। पहले क्रीच.. की आवाज पर मैंने समझा की कोई सूखी लकड़ी का दुकड़ा पैर के नीचे आया है। खैर ड्यूटी की देर हो रही थी, और गिरगिट मर चुका था। इसलिए आगे निकल पड़ा। लेकिन एक अंजाना अपराधबोध जो मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा था।
अब तक जब लिख रहा हूं, तब भी मुझे डरा रहा है कि अंजाने ही सही गुनाह तो हुआ है। देखकर चलना चाहिए था। वह भी जमीन को देखकर, आसमान को नहीं। रह-रह कर पुराने लोगों के बोल भी याद आ रहे थे। जिनमें कहा जाता था कि यदि कभी कोई छिपकली अपने हाथों मर जाए तो कानकट्टा होता है, यानि, कान का निचला हिस्‍सा अपने आप सड़ने लगता है। सच क्‍या है, नहीं मालूम। लेकिन यह बात छिपकली के संदर्भ में कही जाती रही हैं। गिरगिट के बारे क्‍या चलन है, यह जानना बाकी है।
तो, तीसरी तरफ मन सोच रहा था, कि मरने वाला तो जीव प्रजाति का ही गिरगिट था। अब जब अपने इर्दगिर्द जमानों से गिरगिटों को देखता, उनके बारे सुनता आया हूं। और वह कभी किसी के पैरों तले नहीं रौंदे गए, बल्कि वही औरों को पैरों तले रौंदते रहे, तो इसे किसी तरह के अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। क्‍या इससे भी कानकट्टा होता है।
सो, पता हो तो दोनों ही श्रेणियों के लिए जो अंजाम आप जानते हों, अवगत कराएं। क्‍योंकि मैं अभी भी कानकट्टे के डर में ही जी रहा हूं.. ।

धनेश कोठारी

07 April, 2014

लो अब मान्‍यता भी खत्‍म

लो अब उक्रांद की राज्‍य स्‍तरीय राजनीतिक दल की मान्‍यता भी खत्‍म हो गई है।
तो मान्‍यता खत्‍म होने के समय को लेकर क्‍या आपके जेहन में कुछ समझ आ रहा है। पहली बात कि बिल्लियों की लड़ाई को एक कारण माना जा सकता है।
दूसरी अहम बात आप याद करें, जब दिवाकर जी मंत्री थे और चुनाव चिह्न को लेकर झगड़ा चल रहा था तो राज्‍य निर्वाचन आयोग ने उसे जब्‍त कर दिया था। और वह भी ऐन विधानसभा चुनाव से पहले। आया समझ में...... नहीं न ... 


अब लोकसभा चुनाव है तो निर्वाचन आयोग को याद आया कि उक्रांद को विस चुनाव में मान्‍यता के लायक मत नहीं मिले, उसका मत प्रतिशत कम था।
सवाल कि विस चुनाव हुए दो साल हो चुके हैं, इससे पहले आयोग ने क्‍यों संज्ञान नहीं लिया... ऐन चुनाव के वक्‍त इस घोषणा का आशय क्‍या है.... कहीं यह राजनीति प्रेरित घोषणा तो नहीं... क्‍या उक्‍त दोनों निर्णयों को सत्‍तासीन दलों के प्रभाव में लिया गया फैसला तो नहीं हैं।
लिहाजा, यदि उक्रांद का भ्रम और सत्‍ता के केंद्र के आसपास रहने की लोलुपता खत्‍म नहीं हुई हो तो स्‍पष्‍ट है कि उसका एजेंडा भी राज्‍य का हितैषी नहीं .....

26 March, 2014

24 March, 2014

फूल चढ़ाने तक की देशभक्ति

आज शहीद ए आजम भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू का शहादत दिवस था। देश के अन्‍य शहरों, कस्‍बों की तरह मेरे शहर में भी जलसे हुए, श्रद्धांजलि की रस्‍में निभाई गई। बरसों से देख रहा हूं यही सब करतब। उनके द्वारा भी जो अखबारों क छपास से लेकर सोशल मीडिया के दरबारों तक नमन करने को मेहनत करते रहे, और कर रहे हैं। अधिकांश को नहीं मालूम कि भगत सिंह की शहादत का आशय क्‍या है।

क्‍यों वह भगत सिंह या अन्‍य शहीदों को नमन कर रहे हैं। सब किसी मंदिर के आगे मत्‍था टेककर आगे बढ़ने तक सीमित नजर आते हैं। इनमें आजकल ऐसे लोग भी शामिल हो गए हैं, जिन्‍हें चुनाव के इनदिनों में अपने नेता भगत सिंह के अवतार नजर आते हैं। भले पूर्व तक उनके वंशज उन्‍हें आतंकवादी कह कर संबोधित भी करते रहे।

युवा वर्ग भी देशा की व्‍यवस्‍थाओं को सुधारने के लिए किसी भगत सिंह के पुनर्जन्‍म की कल्‍पना करते हैं। कुछ को यह मालूम है कि भगत सिंह ने साथियों के साथ कोर्ट में बम डाला था। मगर वह यह नहीं बता पाते कि बम डाला क्‍यों था, आखिर उनका मकसद क्‍या था। इस दौरान हरबार यह भी दुहाई दी जाती है कि उनके बताए मार्ग पर चलकर देश को सुधारने में जुटें। मगर, उन्‍होंने कौन रास्‍ता अख्तिायार किया था, गुलामी से मुक्ति के लिए, शायद ही किसी को मालूम हो। इस दिन झलसे के लिए कई तो रटे रटाए बयानों तक सीमित होते हैं, तो कई इंटरनेट पर सर्च कर उनके बारे कुछ लाइनें जुटाकर उनकी कथा बांच कर खुद को देशभक्‍त साबित कर डालते हैं

सो सवाल उठता है कि क्‍या वास्‍तव में शहीदों को यह सही मायने में श्रद्धांजलि है, क्‍या इतनी सी रस्‍में निभाकर हम देशभक्‍त हो जाते हैं, क्‍या देशप्रेम दिखाने के लिए इतना भर करना काफी है। क्‍या इससे व्‍यवस्‍था और तंत्र में फैली सड़ांध खत्‍म हो जाएगी। या फिर हम भाड़े के टटू जैसे युग युगांतर तक स्‍वांग ही भरते रहेंगे। 

11 March, 2014

सर्ग दिदा

सर्ग दिदा पाणि पाणि
हमरि विपदा तिन क्य जाणि


रात रड़िन्‌ डांडा-कांठा
दिन बौगिन्‌ हमरि गाणि


उंदार दनकि आज-भोळ
उकाळ खुणि खैंचा-ताणि


बांजा पुंगड़ौं खौड़ कत्यार
सेरौं मा टर्कदीन्‌ स्याणि


झोंतू जुपलु त्वे ठड्योणा
तेरा ध्यान मा त्‌ राजा राणि


धनेश कोठारी
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09 March, 2014

घृणा, राजनीति और चहेते

आज एक राजनीतिक दल से जुड़े परिचित ने अपने स्‍मार्टफोन पर व्‍हाट्स अप से आई तस्‍वीर दिखाई। उनके नेता की गोद में बच्‍चे के रुप में एक दल की मुखिया दिखाई गई थी। तभी मेरे मुहं से तपाक से छूटा, अरे क्‍या वह कुंवारे ही बाप बन गए ... बेचारे परिचित कुछ नहीं कह सके। सब वाकया महिला दिवस पर आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान का है। तब मैंने मन में सोचा कि यही लोग हैं, जो यत्र नार्यस्‍तु पुज्‍यंते रमंते तत्र देवता का स्‍वांग  भरते हैं, और यही वह लोग हैं, जो नारियों का सम्‍मान इस रुप में भी करते हैं। 

उस वक्‍त मेरा मन निश्चित ही घृणा से भर गया। मन में घृणा इसलिए भी हुई कि क्‍या राजनीतिक विरोधों के लिए हम अपनी मानवीय संवेदनाओं को भी तिलांजलि दे चुके है। हमारा हास्‍य भी इतना असामाजिक, अनैतिक और अमानवीय हो गया है। प्रचार का इतना निकृष्‍टतम स्‍वरुप, वह भी महिला दिवस पर .... और वह भी उनके द्वारा जो महिलाओं की सुरक्षा दुहाई देते हैं। दूसरों के महिलाओं के साथ किए गए कुकृत्‍यों को अंगुलियों पर गिनाते फिरते हैं। धिक्‍कार ऐसी राजनीति और उसके चहेतों पर.... महोदय और आपके बिरादरान सुन रहे हैं न....

19 February, 2014

कन्फ्यूजिंग प्रश्नों पर चाहूं रायशुमारी

      अपने भविष्य को लेकर आजकल बड़ा कन्फ्यूजिया गया हूं। निर्धारण नहीं कर पा रहा हूं, कौन सा मुखौटा लगाऊं। आम- आदमी ही बना रहूं, या आम और आदमी के फेविकोल जोड़ से खासहो जाऊं। अतीत के कई वाकये मुझे पसोपेस में डाले हुए हैं। कुछ महीने पहले मेरी गली का पुराना चिंदी चोरउर्फ छुटभैयाधंधे को सिक्योर करने की खातिर खासबनना, दिखना और हो जाना चाहता था। एक ही सपना था उसका, कि बाय इलेक्शन या सेलेक्शन वह किसी भी सदन तक पहुंच जाए। फिर बतर्ज एजूकेशनल टूर हर महीने बैंकाकजैसे स्वर्गों की यात्रा कर आए। मगर, कल जब वह नुक्कड़ पर सुट्टामारते मिला, तो बोला- दाज्यू अब तुम बताओ यह आम आदमीबनना कैसा रहेगा? मैं हतप्रभ। देखा उसे, तो उसमें साधारण आदमी से ज्यादा आपवाला आदमीबनने की ललक दिखी, सो कन्फ्यूजिया गया। इसलिए उसे जवाब देने की बजाए मैं मन-मोहनहो गया।

फिर सोचा क्यों न आपके साथ ही चैनलों की डिबेटटाइप बकैती की जाए। बैठो, बात करते हैं, हम- तुम, इन कन्फ्यूजियाते प्रश्नों पर। आपसे रायशुमारी अहम है मेरे लिए। तब भी फलित न निकला तो एसएमएस, एफबी, ट्वीटर का ऑप्शन खुला है। जरुरी लगा तो प्रीपोल, पोस्टपोल, एग्जिट पोल भी संभव। रुको, बकैती से पहले बता दूं। गए साल प्रवचन में बापूकहते थे, प्रभु की शरण में आम और खास सब बराबर हैं। मगर, बड़ी बात है (आम) आदमी बनना। उससे पहले सुना था, ‘भैंसलाठी वाले की होती है। फिर सुना, देखा कि हर पांच साल में खास (नेता) लोग दशकों से मूरख बनते आम आदमी को खासकहते, बताते हैं। उसके भूत और भविष्य उनकी चिंता की कड़ाही में उबलते हैं। नौबत पादुकाएं उठाने की आएं, तो उसे सिर माथे लगाने से हिचकते नहीं।

अब देखो, अरविंद ने बड़ी नौकरी छोड़ी, आम आदमी बनें, तो सीधे सीएम बन गए। उन्हीं के नक्शेकदम कई और खासभी अपने ओहदोंको त्यागकर आम- आदमीबनने के लिए धरती पकड़ होने लगे हैं। आशुतोष भैया तो मलाई छोड़ चटाई पर आ भी गए। सो बंधु कन्फ्यूज बहुत है। समझना मुश्किल हो रहा है कि मेरे कन्फ्यूजन को दूर कौन करेगा, केजू, राहुल या नमो। केजू कथा का मूल पात्र तो आदमी पर आमका प्रत्यय लगाना नहीं भूलता। इसी फार्मूले से खुद को भी आदमी से पहले आमबताता है। दामादजी की तरह बनाना पीपुल्सनहीं कहता। वहीं राहुल बाबा तो वर्षों से झोपड़ी यात्राओं से बताते रहे हैं कि खास होते हुए भी उन्हें सुदामाके पास बैठना, उठना, लेटना अच्छा लगता है। वही आम आदमी जिनके लिए कभी दादीने गरीबी हटाओ का नारा दिया था।


इधर देसी मीडिया ने अपने नरेंद्र भाई को शॉर्टनेम नमोक्या दिया, कि हर कोई शनिदोष निवारणशैली में जापकरना नहीं भुल रहा। आखिर चायवाले का खासहोना, और फिर कारपोरेटी रैलियों को जुगाड़ कर वापस चायवालों (आम) तक पहुंचना भी तो बड़ी बात है। वेटिंग को कन्फर्म करने के लिए इशारों में बतियाए रहे हैं- उन्हें 60 साल दिए, मुझे 60 महीने दे दो। भुज से लेकर चतुर्भुज तक 350 की स्पीड वाली बुलेट शंटिंग कर दूंगा। सो भांति-भांति के मुखौटों को देख मैं कन्फ्यूज हूं। यदि मैं किन्नर नरेश (खास) बन गया, तो कितने दिनों का टिकाऊ समर्थन मांगना पड़ेगा। अभी तक तो दे दनादन कांग्रेसी घुड़की मिल रही है। तभी संजयकी उधार दृष्टि से मैंने इलाहबाद को निहारा। जहां संभवतः नमो और आशुतोष युद्धम् शरणम् गच्छामि। ऐसे में मेरे जैसे निठल्ले चिंतित हैं, कि इनके रहते अपने दशहरी, लंगड़े का क्या होगा। सो मैं कौन सा मुखौटा लगाऊं, है कोई सॉल्यूशन आपके पास।
@Dhanesh Kothari

14 February, 2014

बसंत


लो फिर आ गया बसंत
अपनी मुखड़ी में मौल्‍यार लेकर
चाहता था मैं भी
अन्‍वार बदले मेरी

मेरे ढहते पाखों में
जम जाएं कुछ पेड़
पलायन पर कस दे
अपनी जड़ों की अंग्‍वाळ

बुढ़ी झूर्रियों से छंट जाए उदासी
दूर धार तक कहीं न दिखे
बादल फटने के बाद का मंजर

मगर
बसंत को मेरी आशाओं से क्‍या
उसे तो आना है
कुछ प्रेमियों की खातिर
दो- चार फूल देकर
सराहना पाने के लिए

इसलिए मत आओ बसंत
मैं तो उदास हूं

धनेश कोठारी
कापीराइट सुरक्षित @2013

10 February, 2014

सिखै

सि
हमरा बीच बजार
दुकानि खोलि
भैजी अर भुल्‍ला
ब्‍वन्‍न सिखीगेन

मि
देळी भैर जैक
भैजी अर भुल्‍ला
व्‍वन्‍न मा
सर्माणूं सिखीग्‍यों

कापीराइट सुरक्षित
2010 मा मेरी लिखीं एक गढ़वळी कविता

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