संकलन - नवीन नौटियाल // उत्तराखंड के गढ़वाल (मंडल) परिक्षेत्र में अनेकों जातियों का निवास है। उनका इतिहास हमारी धरोहर है। जरूरी है कि आज और आने वाले कल में नई पीढ़ियां भी इससे वाकिफ हों, यह प्रयास है। यहा निवासरत जातियां कैसे यहां बसे, कहां से और कब यहां आए, इन्हीं सब बिन्दुओं को इतिहास की पूर्व प्रकाशित पुस्तकों से संदर्भ सहित संकलित किया जा रहा है। इस शृंखला के पहले भाग (भाग- 01) में आइए जानते हैं गढ़वाल में निवास कर रही ब्राह्मण जातियों के विषय में- ब्राह्मण :- गढ़वाल में निवास करने वाली ब्राह्मण जातियों के बारे में यह माना जाता है कि 8वीं - 10वीं शताब्दी के मध्य में ये लोग अलग-अलग मैदानी भागों से आकर यहां बसे और यहीं के रैबासी (निवासी) हो गए। गढ़वाल में प्राचीन समय से ब्राह्मणों के तीन वर्ग हैं। इतिहासकारों ने उन्हें सरोला, निरोला (नानागोत्री या हसली) तथा गंगाड़ी नाम दिए हैं। राहुल सांकृत्यायन यहां के ब्राह्मणों को सरोला, गंगाड़ी, दुमागी व देवप्रयागी चार श्रेणियों में बांटते हैं। गढ़वाल की ब्राह्मण जातियों को मुख्य रूप से तीन भागों में बांटा जा सकता है - (अ) सरोला ब्राह्म
संकलनकर्ता- नवीन चंद्र नौटियाल // उत्तराखंड राज्य के गढ़वाल क्षेत्र में निवास करने वाली राजपूत जातियों का इतिहास भी काफी विस्तृत है। यहां बसी राजपूत जातियों के भी देश के विभिन्न हिस्सों से आने का इतिहास मिलता है। इसी से जुड़ी कुछ जानकारियां आपसे साझा की जा रही हें। क्षत्रिय/ राजपूत :- गढ़वाल में राजपूतों के मध्य निम्नलिखित विभाजन देखने को मिलते हैं - 1. परमार (पंवार) :- परमार/ पंवार जाति के लोग गढ़वाल में धार गुजरात से संवत 945 में आए। इनका प्रथम निवास गढ़वाल राजवंश में हुआ। 2. कुंवर :- इन्हें पंवार वंश की ही उपशाखा माना जाता है। ये भी गढ़वाल में धार गुजरात से संवत 945 में आए। इनका प्रथम निवास भी गढ़वाल राजवंश में हुआ। 3. रौतेला :- रौतेला जाति को भी पंवार वंश की उपशाखा माना जाता है। 4. असवाल :- असवाल जाति के लोगों का सम्बंध नागवंश से माना जाता है। ये दिल्ली के समीप रणथम्भौर से संवत 945 में यहां आए। कुछ विद्वान इनको चौहान कहते हैं। अश्वारोही होने से ये असवाल कहलाए। वैसे इन्हें गढ़वाल में थोकदार माना जाता है। 5. बर्त्वाल :- बर्त्वाल जाति के लोगों को पंवार वंश का वंशज माना जाता
संकलन- नवीन नौटियाल // उत्तराखंड राज्य के भूभाग गढ़वाल मंडल के प्रशासनिक भू-क्षेत्र की सीमाएं समय-समय पर बढ़ती-घटती रहीं हैं। गढ़वाल से तात्पर्य उस समस्त भू-भाग से है जहां आज गढ़वाली भाषा/ बोली प्रचलन में है अथवा इतिहास के कालखंड में प्रचलन में रही है। गढ़वाली भाषा/ बोली की शब्द- सम्पदा और समृद्धि को निम्नलिखित उदाहरणों के माध्यम से बेहतर समझा जा सकता हैं - 1. गढ़वाली भाषा में अनगिनत क्रियापद हैं। जिनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं- हरचण - खोना, गंवाना; बुजण - बंद होना; घटण - कम होना; घैंटण - गाढ़ना; बाण - हल लगाना; बुतण - बीज बोना; बोकण - बोझ उठाना; जग्वालण - इंतज़ार करना; ग्वड़ण - कमरे में बंद करना; तचण - गर्म होना; खैंडण - मिलाना, घोटना; बिरौण - अलग करना; मलासण - सहलाना; सोरण - झाड़ू लगाना; लोसण - घसीटते हुए ले जाना; लुच्छण - जबरदस्ती छीन लेना; लुकण - छिपना; संटौंण - परस्पर विनिमय करना; सनकौण - संकेत करना; तड़कण - दरार पड़ना; तड़कौण - किसी कीड़े द्वारा काटना; बगण - बहना; खतण - गिराना; मठाण - मांजना; हि