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Showing posts from May, 2019

अथश्री प्रयाग कथाः सिविल सेवा परीक्षा के प्रतियोगियों पर रोचक उपन्यास

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- गंभीर सिंह पालनी// प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुटे युवाओं को लेकर हिन्दी में लिखे गए उपन्यासों ‘डार्क हॉर्स’ (लेखकः नीलोत्पल मृणाल) तथा ‘अल्पाहारी गृहत्यागी’ (लेखकः प्रचंड प्रवीर) की सूची में हाल ही में एक और नये उपन्यास का नाम जुड़ गया है; यह उपन्यास है श्री ललित मोहन रयाल का नया उपन्यास ‘अथश्री प्रयाग कथा ’। जहां एक ओर ‘अल्पाहारी गृहत्यागी’ उपन्यास में आई.आई.टी. की प्रवेश-परीक्षा की तैयारी कर रहे छात्रों की दुनिया का चित्रण है तो ‘डार्क हॉर्स’ उपन्यास शानो-शौकत वाली नौकरी आई.ए.एस. की अभिलाषा लिये प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुटे ग्रेजुएट/पोस्ट ग्रेजुएट युवाओं की ज़िंदगी और उनके संघर्षों को लेकर है। श्री ललित मोहन रयाल का नया उपन्यास ‘अथश्री प्रयागकथा’ भी सिविल सेवा के  लिए चुने जाने हेतु प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुटे युवाओं की ज़िंदगी और उन के संघर्षों को लेकर है। ‘डार्क हॉर्स’ उपन्यास में जहां दिल्ली के मुखर्जी नगर व उसके आस-पास रह रहे ऐसे प्रतियोगी छात्रों की दुनिया है तो ‘अथश्री प्रयाग कथा’ में इलाहाबाद में रहकर संघर्ष कर रहे ऐसे छात्रों क

राजशाही को हम आज भी ढो रहे

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डॉ. अरुण कुकसाल/-  ’हे चक्रधर, मुझे मत मार, घर पर मेरी इकत्या भैंस है जो मुझे ही दुहने देती है। हे चक्रधर, मुझे मत मार, घर पर मेरे बूढ़े पिता हैं। तू कितना निर्दयी है चक्रधर जो हमारी प्रार्थना को भी अनुसुना कर रहा है। चक्रधर, तेरी गोली से कोई सामने मर कर गिर रहा है तो बहुत से जान बचाने के लिए युमुना नदी में कूद रहे हैं।’ तिलाड़ी विद्रोह पर आधारित लोकगीत का भावानुवाद। तिलाड़ी विद्रोह (30 मई,1930) की 89वीं पुण्यतिथि पर यमुना के उन 100 से अधिक बागी बेटों को नमन और सलाम जिन्होंने अपने समाज के प्राकृतिक हक-हकूकों के लिए टिहरी राजशाही के सामने झुकने के बजाय जान देना बेहतर समझा और आज उन्हीं वीरों के हम वशंज तथाकथित जनतंत्र की खाल ओढ़े पहाड़ के जंगलों को मात्र तमाशाबीन बन धूं-धूं कर जलते हुए देखने को विवश हैं। ’तिलाड़ी विद्रोह’ को याद करते हुए रवांई के ‘सरबड़ियाड़’ क्षेत्र की यात्रा  (13-16 जुलाई 2016) का एक भाग ... वो रहा तिलाड़ीसेरा रवांई ढंडक का चश्मदीद गवाह 13 जुलाई, 2016  .......देर शाम रात्रि विश्राम के लिए बड़कोट से गंगनानी (5 किमी.) की ओर चलना हुआ। ‘पलायन एक चिंतन’ अभियान के सक्रिय

‘खुद’ अर ‘खैरि’ की डैअरि (diary)

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समीक्षक -आशीष सुन्दरियाल /  संसार की कै भि बोली-भाषा का साहित्य की सबसे बड़ी सामर्थ्य होंद वेकी संप्रेषणता अर साहित्य की संप्रेषणता को सबसे बड़ो कारण होंद वे साहित्य मा संचारित होण विळ संवेदना, प्रकट होण वळा भाव। अर भाव एवं भावोनुभूति की शब्दों का माध्यम से अभिव्यक्ति से रचना होंद कविता की। या फिर इनो भि ब्वले सकेंद कि कविता तैं जन्म देंद ‘भाव’, वो भाव जो जन्म ल्हेंदी ‘मन’ मा, जै खुणि गढविळ मा ब्वलदां हम ‘ज्यू’। ‘ज्यू त ब्वनू च’ कविता संग्रह मा भी हम तैं कवि अनूप रावत का ज्यू याने मन मा जन्म ल्हेंदा भाव अर यूं भावों से जन्म ल्हेदीं कविता ही नजर औंदिन्। अर शायद ये ही कारण से गढविळ का वरिष्ठ साहित्यकार मदन मोहन डुकलान यीं किताब की भूमिका को शीर्षक रखदन ‘क्वांसा पराणै कुंगलि कविता’ याने भावुक हृदय की कोमल कविताएं। ‘ज्यू त ब्वनू च’ कवि अनूप रावत की पैलि पुस्तक च अर अपणा ये पैला कविता संग्रह मा वो बनि- बनि की बावन कविताओं तै ल्हेकि पाठकों का समणि औणा छन। कवि को मूल स्वर पयालन च जनकि यीं पुस्तक का वास्ता द्वी शब्द लिखद दौं वरिष्ठ साहित्यकार दिनेश ध्यानी जी भी रेखांकित कर्ना छन।

कही पे आग कहीं पे नदी बहा के चलो

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जनकवि- डॉ. अतुल शर्मा/ गांव-गांव में नई किताब लेके चलो कहीं पे आग कहीं पे नदी बहा के चलो। हर आंख में सवाल चीखता रहेगा क्या जवाब घाटियों में बंद अब रहेगा क्या गांव-गांव में अब पैर को जमा के चलो कहीं पे आग कहीं पे नदी बहा के चलो। भ्रष्ट अन्धकार का समुद्र आयेगा सूर्य झोपड़ी के द्वार पहुंच जायेगा आंधियों के घरों में भी जरा जा के चलो कही पे आग कहीं पे नदी बहा के चलो। तेरी जुबान का सागर तो आज बोलेगा ये गांव के गली के राज सभी खोलेगा दिलों की वादियों में गीत का एक बहा के चलो कहीं पे आग कहीं पे नदी बहा के चलो। डॉ. अतुल शर्मा, एक परिचय - प्रसिद्ध जनकवि, विभिन्न राष्ट्रीय कवि सम्मेलनों के मंचों पर सक्रिय उपस्थिति व गीत प्रचलित। - उत्तराखंड आंदोलन सहित विभिन्न जनांदोलन में रचनात्मक भागीदारी। - स्वतंत्र लेखन, कविता, कहानी, उपन्यास व नाटकों पर चालीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित। - स्वाधीनता संग्राम सेनानी एवं कवि श्रीराम शर्मा ‘प्रेम’पर आधारित पांच पुस्तकों का संपादन, वाह रे बचपन (संपादित) विशेष चर्चित। - जनकवि डॉ. अतुल शर्मा विविध आयाम : डॉ. गंग

‘काफल’ नहीं खाया तो क्या खाया?

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देवेश आदमी // ************** 'काफल' (वैज्ञानिक नाम- मिरिका एस्कुलेंटा - myrica esculat ) एक लोकप्रिय पहाड़ी फल है। इस फल में अनेकों पौस्टिक आहार छिपे होते है। खनिज लवणों से भरपूर यह फल मानव जीवन से जुड़ा हुआ है। काफल दुनियां का अकेला फल है जिस पर 9 महीने के फूल (बौर) आने के बाद फल लगते है। उत्तरी भारत के पर्वतीय क्षेत्रों (उत्तराखंड, हिमाचल) और नेपाल के हिमालयी तलहटी क्षेत्र में पाया जाने वाला एक वृक्ष है। जो कि सदाबहार होता है, काफल का फल चैत्र माह में लगता है। काफल पर फूल जेठ माह में आ जाते हैं। काफल के पेड़ पर फल खत्म होने के 1 महीने बाद फूल आ जाते हैं। इसके पेड़ काफी बड़े होते हैं, ये पेड़ ठण्डी जगहों में होते हैं। काफल के पेड़ मानव आबादी के इर्दगिर्द होते है। इसका छोटा गुठली युक्त बेरी जैसा फल गुच्छों में आता है। जब यह कच्चा होता है तो हरा दिखता है और पकने के बाद लाल हो जाता है। इसका खट्टा-मीठा स्वाद बहुत मन को भाने वाला और पेट की समस्याओं में बहुत लाभकारी होता है। यह पेड़ अनेक प्राकृतिक औषधीय गुणों से भरपूर है। गर्मियों में लगने वाले ये फल पहाड़ी इलाकों में विशेष

नक्षत्र वेधशाला को विकसित करने की जरूरत

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अखिलेश अलखनियां/- सन् 1946 में शोधार्थियों और खगोलशास्त्र के जिज्ञासुओं के लिए आचार्य चक्रधर जोशी जी द्वारा दिव्य तीर्थ देवप्रयाग में स्थापित नक्षत्र वेधशाला ज्योतिर्विज्ञान के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण भेंट है। आचार्य चक्रधर जोशी जी ने भूतपूर्व लोकसभा अध्यक्ष श्री गणेश मावलंकर की प्रेरणा से सन् 1946 में नक्षत्र वेधशाला की नींव डाली थी। ताकि यहां ग्रह नक्षत्रों का अध्ययन करके लोग लाभ ले सकें। साथ ही उन्होंने बड़े परिश्रम से भारत के कोने-कोने में भ्रमण करके अनेक ग्रन्थ, पांडुलिपियां और महत्वपूर्ण पुस्तकें संग्रहित की। जिसके चलते नक्षत्र वेधशाला अपने अनूठे संग्रह के कारण क्षेत्रीय और देशी-विदेशी सैलानियों के आकर्षण का केंद्र रहा है। नक्षत्र वेधशाला में जर्मन टेलीस्कोप, जलघटी, सूर्यघटी, धूर्वघटी, बैरोमीटर, सोलर सिस्टम, राशि बोध, नक्षत्र मंडल चार्ट, दूरबीनें आदि समेत कई हस्तलिखित ग्रन्थ, भोज पत्र, ताड़ पत्र और दर्शन, संस्कृति, विज्ञान, ज्योतिष से सम्बंधित अनेक प्रकार का साहित्य मौजूद है। मगर, मौजूदा वक्त में इनका सही ढंग से उपयोग नहीं हो पा रहा है। इसका एक कारण सरकार की अनदेखी

अतीत की यादों को सहेजता दस्तावेज

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- संस्मरणात्मक लेखों का संग्रह ‘स्मृतियों के द्वार’ - रेखा शर्मा ‘गांव तक सड़क क्या आई कि वह आपको भी शहर ले गई।’ यह बात दर्ज हुई है हाल ही में प्रकाशित संस्मरणात्मक लेखों के संग्रह ‘ स्मृतियों के द्वार’  द्वार में। प्रबोध उनियाल ने अपने संपादकीय में लिखा कि- ‘स्मृतियों के द्वार’ एक पड़ताल है या कह लीजिए कि आपके गांव की एक डायरी भी। संग्रह में शामिल लेखक मानवीय संवदेनाओं के प्रति सचेत हैं। वह अतीत में लौटकर अपनी संस्कृति, विरासत, घर, समाज, रिश्ते-नाते, पर्यावरण, जल, जंगल जमीन आदि को अपने लेखों में सहेजते हैं। डॉ. शिवप्रसाद जोशी के आलेख ‘मेरे घर रह जाना’ में लिखा है कि- गांव के भवन की स्मृति में बहुत सघन है। वहीं पर भैंस पर चढ़ने और फिसलन भरी उसकी पीठ और सींगों को दोनों हाथ से पकड़ने का दृश्य उभरा है। वह सलमान रुश्दी, रघुवीर सहाय, मंगलेश डबराल को कोड करते हैं और कहते हैं कि ‘वो खोये हुए समय के कुहासे में खोये हुए शहर का एक खोया हुआ घर है।’ संग्रह में डॉ. अतुल शर्मा का आलेख ‘जहां मैं रह रहा हूं’ में गढ़वाल, कुमाऊं के नौले धारे और बावड़ियों की संस्कृतियों क

मेरि ब्वै खुणै नि आइ मदर्स डे (गढ़वाली कविता)

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पयाश पोखड़ा // मेरि तींदि गद्यलि निवताणा मा, मेरि गत्यूड़ि की तैण रसकाणा मा, लप्वड़्यां सलदरास उखळजाणा मा, मेरि ब्वै खुणै, नि आइ मदर्स डे || सर्या राति मेरि पीठ थमथ्याणा मा, मि सिवळणा को बेमाता बुलाणा मा, सिर्वणा दाथि कण्डळि लुकाणा मा, मेरि ब्वै खुणै, नि आइ मदर्स डे || बिसगीं दूदी फर ल्वै चुसाणा मा, पैनी हडक्यूं की माळा बिनाणा मा, अफु रुंदा रुंदा भि मी बुथ्याणा मा, मेरि ब्वै खुणै, नि आइ मदर्स डे || तातु पाणि परतिम स्यळाणा मा, फेरि मनतता पाणिम नवाणा मा, बाढ़ ज्वनि, बाढ़ बाढ़ करणा मा, मेरि ब्वै खुणै, नि आइ मदर्स डे || धकि धैं धै कैरिक नचाणा मा, था ले,था ले बोलिक हिटाणा मा, खुट्यूं छुणक्या धगुलि पैराणा मा, मेरि ब्वै खुणै, नि आइ मदर्स डे || मेरि जूंका की दवै ल्याणा मा, द्यप्तों का ठौ मा मुण्ड नवाणा मा, धौ संदकै मीथैं मंथा मा ल्याणा मा, मेरि ब्वै खुणै, नि आइ मदर्स डे || खटुला फर मेरि खुटळि लगाणा मा, डांडौं बटैकि घास लखुड़ु ल्याणा मा, छनि म गौड़ि भैंस्यूं थैं पिजाणा मा, मेरि ब्वै खुणै, नि आइ मदर्स डे || गुड़ ग

लोकभाषा के एक भयंकर लिख्वाड़ कवि (व्यंग्य)

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ललित मोहन रयाल // लोकभाषा में उनका उपनाम ’चाखलू’ था, तो देवनागरी में ’पखेरू’ । दोनों नाम समानार्थी बताए जाते थे। भयंकर लिख्वाड़ थे। सिंगल सिटिंग में सत्तर-अस्सी लाइन की कविता लिख मारते, जो कभी-कभी डेढ़-दो सौ लाइन तक की हद को छू जाती थी। क्या मजाल कि, कभी उनका सृजन-कर्म थमा हो। जितना लिखते थे, समूचा-का-समूचा सुना डालते। बचाकर बिल्कुल भी नहीं रखते थे, झूम-झूमकर सुनाते। खुद को ’कालजयी’ बताते थे, शायद इसलिए कि बस एकबार ही सही, अगर वे किसी तरह मंच तक पहुंच गए और खुदा-न-खास्ता माइक उनके हत्थे चढ़ गया, तो फिर उस पर लगभर कब्जा ही कर लेते थे। एडवर्स पजेशन टाइप का कब्जा। बिना भूमिका बांधे डाइरेक्ट कविता दागना शुरू कर देते। एकबार शुरू जो हुए, तो फिर घंटों जुबानरुपी तलवार को वापस म्यान में नहीं धरते थे। माइक छुड़ाने में पसीना छुड़ा देते। उन्हें मना करने के लिए मनाने में, आयोजकों को नाकों चने चबाने पड़ते थे। माइक को कसकर जकड़े रहते थे। कुल मिलाकर, उन्होंने समय-सीमा की कभी परवाह नहीं की। माइक बाएं हाथ से थामते थे और दनादन कविता सुनाते जाते। दाएं हाथ को फ्री रखे रहते थे, जो अपने बाद वाले नंब