अतीत की यादों को सहेजता दस्तावेज ~ BOL PAHADI

15 May, 2019

अतीत की यादों को सहेजता दस्तावेज



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- संस्मरणात्मक लेखों का संग्रह ‘स्मृतियों के द्वार’
- रेखा शर्मा

‘गांव तक सड़क क्या आई कि वह आपको भी शहर ले गई।’ यह बात दर्ज हुई है हाल ही में प्रकाशित संस्मरणात्मक लेखों के संग्रह ‘ स्मृतियों के द्वार’ द्वार में। प्रबोध उनियाल ने अपने संपादकीय में लिखा कि- ‘स्मृतियों के द्वार’ एक पड़ताल है या कह लीजिए कि आपके गांव की एक डायरी भी। संग्रह में शामिल लेखक मानवीय संवदेनाओं के प्रति सचेत हैं। वह अतीत में लौटकर अपनी संस्कृति, विरासत, घर, समाज, रिश्ते-नाते, पर्यावरण, जल, जंगल जमीन आदि को अपने लेखों में सहेजते हैं।

डॉ. शिवप्रसाद जोशी के आलेख ‘मेरे घर रह जाना’ में लिखा है कि- गांव के भवन की स्मृति में बहुत सघन है। वहीं पर भैंस पर चढ़ने और फिसलन भरी उसकी पीठ और सींगों को दोनों हाथ से पकड़ने का दृश्य उभरा है। वह सलमान रुश्दी, रघुवीर सहाय, मंगलेश डबराल को कोड करते हैं और कहते हैं कि ‘वो खोये हुए समय के कुहासे में खोये हुए शहर का एक खोया हुआ घर है।’

संग्रह में डॉ. अतुल शर्मा का आलेख ‘जहां मैं रह रहा हूं’ में गढ़वाल, कुमाऊं के नौले धारे और बावड़ियों की संस्कृतियों को शोधपूर्ण तरीके से सहेजा गया है। वे लिखते हैं ‘सोचता हूं कि इन सूखे कुंओं में क्या कभी पानी आ सकेगा?’ दूसरे आलेख में एक विशिष्ट चरित्र ‘खड़ग बहादुर’ का अद्भुत शब्दचित्र खींचा गया है। डॉ. सविता मोहन ‘स्मृति में मेरा गांव’ आलेख में ‘ढौंड’ गांव में अपने बचपन को याद करती हैं। वे लिखती हैं- ‘पूरा गांव बांज, बुरांस, चीड़, हिंस्यालु, किनगोड़, घिंगारु के वृक्षों से आच्छादित था। कविता का एक अंश मां से जुड़ी आत्मीयता को सहेजता है।

इस संग्रह में एक महत्वपूर्ण संस्मरणात्मक लेख है प्रसिद्ध कवियत्री रंजना शर्मा का- ‘बांस की कलम से कंप्यूटर तक’। उन्होंने अपने पिता स्वाधीनता संग्राम सेनानी श्रीराम शर्मा ‘प्रेम’ के गांव दोस्पुर पहुंचकर अद्भुत अहसास का संस्मरण प्रस्तुत किया है। लिखती हैं- ‘संस्कारों की नदी सी है जो वर्तमान में अपना रास्ता तय कर बहती जा रही है।’

इस पुस्तक में जगमोहन रौतेला का लेख ‘बरसात में भीगते हुए जाते थे स्कूल’ बहुत सहज और बेहतरीन है। वह रवाही नदी और गमबूट का जिक्र भी करते हैं। ये लेख पहाड़ की और बचपन की यादें समेटे हुए है। महेश चिटकारिया का लेख ‘मूंगफली की ठेली से शुरू जिंदगी’ में रामलीला शुरू होने से पहले मूंगफली बेचना और संघर्षशील जीवन जीते हुए भारतीय स्टेट बैंक के बड़े अधिकारी होने तक की कथा उकेरी गई है।

हरीश तिवारी का लेख- ‘पिता के जीवन से मिली सीख’ एक दस्तावेज है। वे लिखते हैं- ‘11 जनवरी 1948 को नागेंद्र सकलानी और मोलू भरदारी शहीद हुए थे। उस आंदोलन में मेरे पिता देवीदत्त तिवारी और त्रेपन सिंह नेगी भी मौजूद थे। संग्रह में डॉ. सुनील दत्त थपलियाल ने एक मार्मिक लेख लिखा है- ‘मेले में मां के दिए दो रुपये’। इसमें वे लिखते हैं कि ‘रास्ते भर दो रुपये से क्या-क्या खरीदूंगा यही उधेड़बुन मेरे बचपन में चलती रही। जलेबी, मूंगफली, नारियल और जाने क्या-क्या।

‘स्मृतियों के द्वार’ पुस्तक में धनेश कोठारी ने लिखा है ‘शहर में ढूंढ़ रहा हूं गांव’। वे लिखते हैं ‘जिन्हें अपनी जड़ों से जुड़ रहने की चाह रहती है वह जरूर कभी कभार ही सही शहरों से निकल कर किसी पहाड़ी पगडंडियों की उकाळ उंदार को चढ़ और उतर लेते हैं’। उन्होंने बहुत नई तरह से अपनी बात लिखी।

इस संस्मरणात्मक संग्रह में डॉ. राकेश चक्र का लेख ‘खिसकते पहाड़ दरकते गांव’, महावीर रवांल्टा का ‘आज भी पूजनीय हैं गांव जलस्रोत’, गणेश रावत का ‘कार्बेट की विरासत संजोये हुए छोटी हल्द्वानी’, राजेंद्र सिंह भंडारी का ‘जड़ों से जुड़े रहने की पहल’, प्रो. गोविंद सिंह रजवार का ‘जैविक खेती से जगी उम्मीद’, डॉ. श्वेता खन्ना का ‘कुछ सोचें सोच बदलें’, कमलेश्वर प्रसाद भट्ट का ‘अब पथरीले पहाड़ भी होंगे हरे भरे’, रतन सिंह असवाल का ‘मेरे गांव का गणेश भैजी’, बंशीधर पोखरियाल का लेख ‘आदर्श गांव पोखरी’ एक डाक्यूमेंशन है।

अजय रावत अजेय का लेख ‘घटाटोप अंधेरे के बीच सुबह की उम्मीद’, आशुतोष देशपांडे का ‘पिता की दी हुई कलम’ और शशिभूषण बडोनी का लेख ‘कुछ उम्मीद तो जगती है’ सकारात्मक लेख हैं। सुधीर कुमार सुंदरियाल का लेख ‘गांव भलू लगदु’ और डॉ. दिनेश शर्मा का लेख ‘लोहार मामा’ आकर्षित करता है। ज्योत्सना ने लिखा है- ‘गांव मुझे रहता है याद’

आभा काला का ‘परंपराओं से आज भी बंधा है राठ’ और सुरेंद्र उनियाल का लेख ‘कुछ छुट गए कुछ छिटक गए’ गांव के अच्छे शब्दचित्र है। आशीष डोभाल ने अपने लेख ‘पेड़ और पानी गांव की कहानी’ में सकारात्मक टिप्पणी की है। डॉ. संजय ध्यानी ने ‘निरंकार की पूजाई का उत्सव’ और शिवप्रसाद बहुगुणा का लेख ‘ हमारी सांझी विरासत’ पठनीय हैं। वहीं दुर्गा नौटियाल का लेख ‘मास्टर जी की गुड़ की भेली’ बालमन का सच्चा संस्मरण अद्भुत है।

संग्रह में ललिता प्रसाद भट्ट का लेख ‘प्रयास यदि किए जाएं’, अशोक क्रेजी का ‘रिश्ते नातों से बंधा था जीवन’, आचार्य रामकृष्ण पोखरियाल का ‘यादें जो वापसी को कहती हैं’, विशेष गोदियाल का ‘अभावों के आगे भी हैं रास्ते’, नरेंद्र रयाल का ‘हुई जहां जीवन की भोर’ और सत्येंद्र चौहान ‘सोशल’ का लेख ‘स्वयं करनी होगी पहल' प्रेरणाप्रद हैं।

काव्यांश प्रकाशन ऋषिकेश से प्रकाशित 172 पृष्ठ की इस किताब का मूल्य दो सौ रुपये है। पुस्तक में स्केच व फोटो तथा मुख्य पृष्ठ आकर्षक हैं। इसकी रुपसज्जा धनेश कोठारी ने और फोटो सहयोग मनोज रांगड़, डॉ. सुनील थपलियाल, आरएस भंडारी व शशिभूषण बडोनी ने किया है।

इंटरनेट प्रस्तुति- धनेश कोठारी

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