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Showing posts from 2018

तन के भूगोल से परे

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निर्मला पुतुल/ तन के भूगोल से परे एक स्त्री के मन की गांठें खोलकर कभी पढ़ा है तुमने उसके भीतर का खौलता इतिहास..? अगर नहीं तो फिर जानते क्या हो तुम रसोई और बिस्तर के गणित से परे एक स्त्री के बारे में...? साभार - कविता

क्योंकि दिल्ली से ‘हिमालय’ नहीं दिखता

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बचपन में गांव से हिमालय देखने को आतुर रहने वाले प्रसिद्ध साहित्यकार, वरिष्ठ पत्रकार और मंच संचालक गणेश खुगशाल ‘गणी’ को जब दिल्ली में प्रवास के दिनों में हिमालय नहीं दिखा तो उन्होंने दिल्ली को नमस्कार कर दिया और पौड़ी आ गए। इसके बाद वे पौड़ी के ही होकर रह गए। कई बार पौड़ी से बाहर मीडिया में नौकरी करने के मौके मिले, लेकिन उन्होंने पौड़ी नहीं छोड़ा। गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी के मंचों का संचालन करने वाले ‘गणीदा’ कुशल संचालक के साथ ही वरिष्ठ कवि भी हैं। उन्हें गढ़वाली लोक साहित्य में ‘हाइकू’ शैली की कविता का जनक भी माना जाता है। लोक साहित्य में उनका लंबा सफर रहा है, जो अभी जारी है। हिमालयी सरोकारों का प्रतिनिधित्व करने वाली धाद पत्रिका के संपादक गणीदा इस माध्यम से भी लोकभाषा के संरक्षण में जुटे हैं। उन्हीं के साथ पत्रकार साथी मलखीत रौथाण की बातचीत के अंश- मलखीत - गणीदा, आज आप बड़े मंचों के कुशल संचालक हैं, ये हुनर बचपन से ही आपके अंदर था? गणीदा - नहीं जी! ये हुनर बचपन में नहीं था। बचपन में तो स्कूली कार्यक्रमों में सांस्कृतिक कार्यक्रमों से दूर ही रहता था। गुरूजी कहते थे गीत गाओ या

उत्तराखंड में राजनीतिक महत्वाकांक्षा का फ्रंट !

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धनेश कोठारी - उत्तराखंड की राजनीति नई करवट बदलने को है। इसबार जिस नए मोर्चे की हलचल सामने आई है, उसकी जमीन तैयार करने में कोई और नहीं बल्कि भाजपा और कांग्रेस से बागी व नाराज क्षत्रप ही जुटे हैं। इसलिए राज्य के सियासी हलकों में इस कसरत के मायने निकाले और समझाए जा रहे हैं। कुछ इसे राज्य की बेहतरी, तो कुछ मूल दलों में वापसी के लिए दबाव बनाने की रणनीति का हिस्सा मान रहे हैं। लिहाजा, ऐसी राजनीतिक पैंतरेबाजी के बीच उत्तराखंड में तीसरे मोर्चे पर चर्चा तो लाजिमी है। सन् 2000 में नए राज्य उत्तराखंड (तब उत्तरांचल) के गठन के साथ ही सियासी जमीन पर भाजपा और कांग्रेस के अलावा क्षेत्रीय और तीसरी ताकत के तौर पर यूकेडी को सामने रखा गया। 2002 में पहले आमचुनाव में यूकेडी को महज चार सीटें मिलीं। जबकि बसपा के खाते में उससे ज्यादा 07 सीटें रही। 2007 और 2012 में भी वह तीन और एक सीट के साथ चौथे नंबर पर सिमटी। बसपा तब भी क्रमशः 08 व 03 सीटों के साथ तीसरा स्थान कब्जाए रही। सन् 2007 में भाजपा और 2012 में कांग्रेस की अल्पमत सरकारों को समर्थन देने में यूकेडी ने कतई देरी नहीं की। नतीजा 2017 आते-आते वह

ग़ज़ल (गढ़वाली)

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दिनेश कुकरेती (वरिष्ठ पत्रकार) - जख अपणु क्वी नी, वख डांडा आगि कु सार छ भैजी, जख सौब अपणा सि छन, वख भि त्यार-म्यार छ भैजी। बाटा लग्यान नाता-पाथौं तैं, कुर्चिऽ सौब अपणि रौ मा, जै परैं अपण्यास सि लगद, ऊ भि ट्यार-ट्यार छ भैजी। सच त ई छ कि सिरफ दिखौ कीऽ, छपल्यास रैगे अब, भितरी-भितरऽ जिकुड़्यों मा, सुलग्यूं अंगार छ भैजी। जौं तिबरी-डंड्ळयों उसंकद छोड़ी, धार पोर ह्वै ग्यां हम, सुणदौं कि अब ऊंकी जगा, सिरफ खंद्वार छ भैजी। ब्याळ स्वीणा मा दिख्ये झळ, अर दिख्येंदी हर्चिग्ये। कन बिसरुलु वीं तै, जिकुड़ि मा बसिं अन्वार छ भैजी। खीसा देखी त, क्वी भि अपणु बणि जांद परदेस मा, जु तुम द्यखणा छा मुखिड़ि परैं, झूठी चलक्वार छ भैजी।

उत्तराखंड में पारंपरिक बीज भंडारण विधियां और उपकरण

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डॉ. राजेन्द्र डोभाल - मेरे लिए उत्तराखंड अपने अद्भुत व समृद्ध पारंपरिक ज्ञान के लिए हमेशा से एक शोध का विषय रहा है आज ऐसे ही एक विषय (बीज भंडारण) पर अपने विचार साझा करना चाहता हूं। बीज में मूल डीएनए है, जो एक ही तरह के पौधे का उत्पादन करने में सक्षम है। जहां एक ओर बीज भंडारण, घरेलू और सामुदायिक खाद्य सुरक्षा को अगले फसल तक सुनिश्चित करने में मदद करता है, वहीं दूसरी ओर अच्छे बीज भंडारण का मूल उद्देश्य बीज की सुरक्षा, गुणवत्ता और उसकी मात्रा को बनाए रखने के लिए पर्यावरणीय स्थितियों का निर्माण करना है। जिससे घरेलू खाद्य सुरक्षा पूर्ति के साथ साथ कम से कम बीज की हानि हो। सीड स्टोरेज यानि की बीज भंडारण, फसलों की कटाई के फलस्वरूप होने वाली एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। बीज और अनाज सामग्री को लंबे समय तक स्टोर करने के लिए उत्तराखंड के स्थानीय लोगों द्वारा अपने निजी अनुभवों, सूझबूझ और स्थानीय संसाधनों से निर्मित सामग्री का प्रयोग एक उत्कृष्ट तरीके से किया जाता है। इन-वीवो या ऑन साइट प्रिजर्वेशन (कटाई के पहले संरक्षण): इस शैली के अंतर्गत एक विशेष तकनीक याद आती है, जिसमे क

जैसे को तैसा

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( लघुकथा ) गांव में एक किसान रहता था जो दूध से दही और मक्खन बनाकर बेचने का काम करता था... एक दिन उसकी बीबी ने उसे मक्खन तैयार करके दिया। वो उसे बेचने के लिए अपने गांव से शहर की तरफ रवाना हुआ... वो मक्खन गोल पेढ़ों की शकल में बना हुआ था और हर पेढ़े का वजन एक किलो था... शहर में किसान ने उस मक्खन को हमेशा की तरह एक दुकानदार को बेच दिया और दुकानदार से चायपत्ती, चीनी, तेल और साबुन वगैरह खरीदकर वापस अपने गांव को रवाना हो गया... किसान के जाने के बाद - दुकानदार ने मक्खन को फ्रिज में रखना शुरू किया... उसे खयाल आया के क्यूं ना एक पेढ़े का वजन किया जाए... वजन करने पर पेढ़ा सिर्फ 900 ग्राम का निकला... हैरत और निराशा से उसने सारे पेढ़े तोल डाले, मगर किसान के लाए हुए सभी पेढ़े 900-900 ग्राम के ही निकले। अगले हफ्ते फिर किसान हमेशा की तरह मक्खन लेकर जैसे ही दुकानदार की दहलीज पर चढ़ा... दुकानदार ने किसान से चिल्लाते हुए कहा- दफा हो जा, किसी बेईमान और धोखेबाज शख्स से कारोबार करना... पर मुझसे नहीं। 900 ग्राम मक्खन को पूरा एक किलो कहकर बेचने वाले शख्स की वो शक्ल भी देखना गवारा नहीं करत

मन की बात... बबड़ाणु रांदू । Garhwali Ghazal । Vijay Sailani । Jahmohan Bisht । #bol pahadi

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जहां आज भी धान कुटती हैं परियां

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देवभूमि उत्तराखंड में अनगिनत, अद्भुत और चमत्कारिक स्थल हैं। उत्तराखंड में जनपद टिहरी के प्रतापनगर क्षेत्र का पीड़ी (कुंड) पर्वत भी इन स्थलों में एक है। मां भराड़ी का वास स्थल कहे जाने वाले पीड़ी पर्वत पर कई रहस्यमय स्थान हैं। मान्यता है कि यहां परियां भी वास करती हैं। इसलिए इस क्षेत्र को परियों का देश भी कहा जाता है। मगर, प्रचार प्रसार के अभाव में ऐसी चमत्कारिक जगहों को आज तक अपेक्षित पहचान नहीं मिली। समुद्रतल से 9,999 फीट की ऊंचाई पर स्थित पीड़ी पर्वत रमणीक स्थान है। यहां से नागाधिराज हिमालय समेत मां सुरकंडा, कुंजापुरी और चंद्रबदनी का मंदिर भी दिखलाई देता है। यह क्षेत्र बांज बुरांश और कई जड़ी बुटियों के पेड़ पौधों से आच्छादित है। एक पहाड़ी पर मां भराड़ी देवी का मंदिर है। यह मंदिर प्राचीनकाल में आलू बगियाल ने बनवाया था। जिसका भव्य जीर्णोद्धार 2003 में किया गया। मंदिर के आसपास कई अद्भुत, रहस्यमयी और चमत्कारिक स्थान हैं। पीड़ी के ठीक पास की पहाड़ी को खैट पर्वत कहा जाता है। गर्भ जोन गुफा मां भराड़ी देवी मंदिर के पास एक बड़ी गुफा है। इसकी सही गहराई का अभी तक पता नहीं है। गुफा में पत्थर

हमें सोचना तो होगा...!!

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दिल्ली में निर्भया कांड के बाद जिस तरह से तत्कालीन केंद्र सरकार सक्रिय हुई, नाबालिगों से रेप के मामलों पर कड़ी कार्रवाई के लिए एक नया कानून अस्तित्व में आया। 2014 में केंद्र में आई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार ने भी ऐसे मामलों पर कार्रवाई की अपनी प्रतिबद्धताओं को जाहिर किया, तो लगा कि देश में महिला उत्पीड़न और खासकर रेप जैसी वारदातों पर समाज में डर पैदा होगा। जो कि जरूरी भी था। मगर, एनसीआरबी के आंकड़े इसकी तस्दीक नहीं करते। समाज में ऐसी विकृत मनोवृत्तियों में कानून का खौफ आज भी नहीं दिखता।                 हाल ही में कठुआ (जम्मू कश्मीर) में महज आठ साल, सूरत (गुजरात) में 10 साल, सासाराम (बिहार) में सात साल की बच्चियों से गैंगरेप और रेप, उन्नाव (उत्तरप्रदेश) में नाबालिग से कथित बलात्कार प्रकरण में स्थानीय विधायक का नाम जुड़ना, मौजूदा हालातों को आसानी से समझा दे रहे हैं। यहां सवाल यह नहीं कि ऐसी वारदातों को रोकने और मुजरिमों को सजा देने में सरकारें फेल हुई हैं। बल्कि यह है कि पीड़ितों को न्याय दिलाने की बजाए जम्मू कश्मीर और उत्तर प्रदेश में जिस तरह से रेप के आरोपियों को बचाने के ल

नई इबारत का वक्त

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हाल के वर्षों में पहाड़ों में रिवर्स माइग्रेशन एक उम्मीद बनकर उभरा है। प्रवासी युवाओं का वापस पहाड़ों की तरफ लौटना और यहां की विपरीत स्थितियों के बीच ही रास्ता तलाशने की कोशिशें निश्चित ही भविष्य के प्रति आशान्वित करती हैं, तो दूसरी तरफ पहाड़ों में ही रहते हुए कई लोगों ने अपने ही परिश्रम से अनेकों संभावनाओं को सामने रखा है। यदि उनकी इन्हीं कोशिशों को बल मिला और युवाओं ने प्रेरणा ली, तो पलायन से अभिशप्त उत्तराखंड के पर्वतीय हिस्सों में आने वाला वक्त एक नई ही इबारत लिखेगा।                 दरअसल, आजादी के बाद ही उत्तरप्रदेश का इस हिस्सा रहे उत्तराखंड के पर्वतीय भूभाग को भाषा और सांस्कृतिक भिन्नता के साथ अलग भौगोलिक कारणों से पृथक राज्य के रूप में स्थापित करने की मांग शुरू हो हुई थी। कुछ समय बाद रोजगार की कमी के चलते यहां से शुरू हुए पलायन ने इस मांग को और भी गाढ़ा किया। नतीजा, दशकों पुरानी मांग पर सन् 1994 में स्वतःस्फूर्त पृथक राज्य आंदोलन का संघर्ष निर्णायक साबित हुआ। नौ नवंबर 2000 को अलग राज्य के रूप में पर्वतीय जनमानस का एक सपना पूरा हुआ। मगर, उनकी सोच के विपरीत तकलीफें कम

बारहनाजा : पर्वतजनों के पूर्वजों की सोच की उपज

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डा0 राजेन्द्र डोभाल उत्तराखंड एक पर्वतीय राज्य तथा अनुकूल जलवायु होने के कारण एक कृषि प्रधान राज्य भी माना जाता रहा है। सामान्यतः उत्तराखंड मे विभिन्न फसलो की सिंचित, असिंचित, पारंपरिक और व्यसायिक खेती की जाती है। चूंकि स्वयं में कई पीढ़ियों से उत्तराखंड की खेती को पारंपरिक दृष्टिकोण से देखता आया हूं, अब पारंपरिक खेती पद्धतियों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परखने की कोशिश करता हूं, कि क्या हमारी पारंपरिक खेती की पद्धतियो में वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी था या केवल समय की आवश्यकता थी। जहां तक मैं समझता हूं कि हर कृषक की तरह खेती की मूलभूत आवश्यकता परिवार तथा पशुधन के भरण-पोषण की ही रही होगी। तत्पश्चात जलवायु अनुकूल फसलों का चयन, उत्पादन तथा कम जोत भूमि में संतुलित पोषण के लिए अधिक से अधिक फसलों का समन्वय तथा समावेश कर उत्पादन करना ही रहा होगा। निःसन्देह बारहनाजा जैसे कृषि पद्धति में फसलों का घनत्व बढ़ जाता है तथा वैज्ञानिक रूप से उचित दूरी का भी अभाव पाया जाता है, परन्तु कम जोत, असिंचित खेती की दशा सभी पोषक आहारों की पूर्ति के साथ पशुचारा तथा भूमि उर्वरता को बनाए रखना भी काश्तकारों के

हमरु गढ़वाल

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कवि श्री कन्हैयालाल डंडरियाल खरड़ी डांडी पुन्गड़ी लाल धरती को मुकुट भारत को भाल हमरु गढ़वाल यखै संस्कृति - गिंदडु, भुजयलु, ग्यगुडू, गड्याल। सांस्कृतिक सम्मेलन - अठवाड़। महान बलि - नारायण बलि। तकनीशियन - जन्द्रों सल्ली। दानुम दान - मुकदान। बच्यूं - निरभगी, मवरयूं - भग्यान। परोपकारी - बेटयूं को परवाण। विद्वान - जु गणत के जाण। नेता - जैन सैणों गोर भ्यालम हकाण। समाज सुधारक - जैन छन्यू बैठी दारू बणाण। बडू आदिम - जु बादीण नचाव। श्रद्धापात्र - बुराली, बाघ अर चुड़ाव। मार्गदर्शक - बक्या। मान सम्मान - सिरी, फट्टी, रान। दर्शन - सैद, मशाण, परी, हन्त्या। उपचार - कण्डली टैर, जागरदार मैर, लाल पिंगली सैर। खोज - बुजिना। शोध - सुपिना। उपज - भट्ट अर भंगुलो। योजना - कैकी मौ फुकलो। उद्योग - जागर, साबर, पतड़ी। जीवन - यख बटे वख तैं टिपड़ी। व्यंजन - खूंतड़ों अर बाड़ी। कारिज - ब्या, बर्शी, सप्ताह। प्रीतिभोज - बखरी अर बोतल। पंचैत - कल्यो की कंडी, भाते तौली। राष्ट्रीय पदक - अग्यल पट्टा, पिन्सन पट्टा, कुकर फट्टा। बचपन - कोठयूं मा। जवनी