2018 ~ BOL PAHADI

23 August, 2018

तन के भूगोल से परे

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निर्मला पुतुल/

तन के भूगोल से परे
एक स्त्री के
मन की गांठें खोलकर
कभी पढ़ा है तुमने
उसके भीतर का खौलता इतिहास..?

अगर नहीं
तो फिर जानते क्या हो तुम
रसोई और बिस्तर के
गणित से परे
एक स्त्री के बारे में...?

साभार - कविता

19 August, 2018

क्योंकि दिल्ली से ‘हिमालय’ नहीं दिखता


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बचपन में गांव से हिमालय देखने को आतुर रहने वाले प्रसिद्ध साहित्यकार, वरिष्ठ पत्रकार और मंच संचालक गणेश खुगशाल ‘गणी’ को जब दिल्ली में प्रवास के दिनों में हिमालय नहीं दिखा तो उन्होंने दिल्ली को नमस्कार कर दिया और पौड़ी आ गए। इसके बाद वे पौड़ी के ही होकर रह गए। कई बार पौड़ी से बाहर मीडिया में नौकरी करने के मौके मिले, लेकिन उन्होंने पौड़ी नहीं छोड़ा।

गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी के मंचों का संचालन करने वाले ‘गणीदा’ कुशल संचालक के साथ ही वरिष्ठ कवि भी हैं। उन्हें गढ़वाली लोक साहित्य में ‘हाइकू’ शैली की कविता का जनक भी माना जाता है। लोक साहित्य में उनका लंबा सफर रहा है, जो अभी जारी है। हिमालयी सरोकारों का प्रतिनिधित्व करने वाली धाद पत्रिका के संपादक गणीदा इस माध्यम से भी लोकभाषा के संरक्षण में जुटे हैं। उन्हीं के साथ पत्रकार साथी मलखीत रौथाण की बातचीत के अंश-

मलखीत- गणीदा, आज आप बड़े मंचों के कुशल संचालक हैं, ये हुनर बचपन से ही आपके अंदर था?
गणीदा- नहीं जी! ये हुनर बचपन में नहीं था। बचपन में तो स्कूली कार्यक्रमों में सांस्कृतिक कार्यक्रमों से दूर ही रहता था। गुरूजी कहते थे गीत गाओ या फिर पत्थर लाने होंगे। मैं पत्थर ही लाता था।

मलखीत - फिर इस हुनर को कैसे विस्तार मिला। क्या कोई प्रेरणा रही है?
गणीदा- दरअसल, प्रेरणा तो हमेशा ही गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी जी की रही है। बचपन से ही नेगी जी को सुनता आ रहा हूं। जो कुछ भी हूं, इसे देव संयोग ही कहा जायेगा। लोकभाषा के प्रति प्रेम और लगाव बचपन से ही रहा है।

मलखीत - पहाड़ और लोकभाषा के प्रति आपका लगाव कैसे बढ़ा?
गणीदा- दरअसल, मैं सरकारी नौकरी कर रहा था। साल 1987 की बात है, मैं भोपाल में रहता था और वहां मेरी पूज्य माताश्री की मृत्यु हो गई। उस दौरान निचली मंजिल में लोग टेलीविजन देख रहे थे। जो मुझे बहुत बुरा लगा और मैंने कहा कि ये शहर संवेदनहींन शहर है और मैंने भोपाल छोड़ दिया। मुझे लगता है कि आज भी हर शहर संवेदनहींन शहर है। इसके बाद मैं दिल्ली आया, लेकिन यहां से जब हिमालय नहीं दिखा, तो अंततः वापस अपने गांव पौड़ी आ गया।

मलखीत - आपकी पहली कविता कौन सी थी।
गणीदा- कब तलैकि डौंरू बजली, कब तलैकि बजेली थाली। यह मेरी पहली गढ़वाली कविता थी।

मलखीत - गणीदा, आप रामलीला मंचन देखने भी जाते थे?
गणीदा- हां, बहुत शौक था। लेकिन पिताजी नहीं जाने देते थे, कहते थे कि बस दो दिन ही जाना है मंचन देखने को।

मलखीत - आप आकाशवाणी से कब और कैसे जुड़े?
गणीदा- मैं बचपन से ही आकाशवाणी से प्रसारित ग्राम जगत कार्यक्रम खूब सुनता था। कविता लिखते-लिखते मैंने कई बार आकाशवाणी को भी पत्र लिखे। आखिरकार साल 1988 में चक्रधर कंडवाल जी ने आकाशवाणी से कविता पाठ करने का सौभाग्य दिया।

मलखीत - आप मंच संचालन से कैसे जुड़े?
गणीदा- असल में, एक कार्यक्रम में मैंने नरेंद्र सिंह नेगी की मौजूदगी में काव्यपाठ किया था। इसके बाद एक अन्य कार्यक्रमों में नरेंद्र सिंह नेगी जी ने कहा कि गणी संचालन तू ही करेगा। मैंने कहा कि मुझे तो आता ही नहीं है। इस पर नेगी जी ने कहा कि जहां रूक जाओगे, वहां मैं बोलूंगा। यही से संचालन का सफर शुरू हुआ और ये सब नेगी जी की देन है।

मलखीत - आप धाद से भी जुड़े?
गणीदा- जी हां, करीब 1988 में मुझे धाद से जुड़ने का सौभाग्य मिला। मैं पत्रिका में लेखन भी करता रहा और धाद के कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी भी रही।

मलखीत - लोकभाषा की वर्तमान दशा व दिशा पर आप क्या कहना चाहेंगे?
गणीदा- बेशक, लोकभाषा पर काम हो रहा है। लेखन हो रहा है। लेकिन नई पीढ़ी लोकभाषा से दूर होती जा रही है। इस पर ध्यान देने की नितांत जरूरत है।

06 August, 2018

उत्तराखंड में राजनीतिक महत्वाकांक्षा का फ्रंट !

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धनेश कोठारी -
उत्तराखंड की राजनीति नई करवट बदलने को है। इसबार जिस नए मोर्चे की हलचल सामने आई है, उसकी जमीन तैयार करने में कोई और नहीं बल्कि भाजपा और कांग्रेस से बागी व नाराज क्षत्रप ही जुटे हैं। इसलिए राज्य के सियासी हलकों में इस कसरत के मायने निकाले और समझाए जा रहे हैं। कुछ इसे राज्य की बेहतरी, तो कुछ मूल दलों में वापसी के लिए दबाव बनाने की रणनीति का हिस्सा मान रहे हैं। लिहाजा, ऐसी राजनीतिक पैंतरेबाजी के बीच उत्तराखंड में तीसरे मोर्चे पर चर्चा तो लाजिमी है।

सन् 2000 में नए राज्य उत्तराखंड (तब उत्तरांचल) के गठन के साथ ही सियासी जमीन पर भाजपा और कांग्रेस के अलावा क्षेत्रीय और तीसरी ताकत के तौर पर यूकेडी को सामने रखा गया। 2002 में पहले आमचुनाव में यूकेडी को महज चार सीटें मिलीं। जबकि बसपा के खाते में उससे ज्यादा 07 सीटें रही। 2007 और 2012 में भी वह तीन और एक सीट के साथ चौथे नंबर पर सिमटी। बसपा तब भी क्रमशः 08 व 03 सीटों के साथ तीसरा स्थान कब्जाए रही।
सन् 2007 में भाजपा और 2012 में कांग्रेस की अल्पमत सरकारों को समर्थन देने में यूकेडी ने कतई देरी नहीं की। नतीजा 2017 आते-आते वह खुद जमींदोज हो गई। क्योंकि 2012 में जीते अपने एकमात्र विधायक प्रीतम सिंह पंवार को वह पहले ही पार्टी से बाहर कर चुकी थी।2017 में प्रीतम निर्दलीय ही कामयाब रहे। अब संयुक्त उक्रांद अपनी भूलों को स्वीकार रहा है।

इसी अंतराल में क्षेत्रीय ताकत बनने को बेताब उत्तराखंड रक्षा मोर्चा और उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी भी अस्तित्व में आईं, मगर वह भी भाजपा और कांग्रेस के चुनावी हथकंडों के आगे खुद को साबित न कर सके। रक्षा मोर्चा फिलवक्त गुम है, जबकि उपपा अभी भी जनमुद्दों पर संघर्षरत है। इससे इतर प्रदेश की सियासत में वामपंथी दल भाकपा, माकपा, भाकपा (माले) के अलावा सपा और एनसीपी भी मैदान में रहे।किंतु, वह भी भाजपा-कांग्रेस को खरोंच तक नहीं लगा सके।हरबार वोटों के बिखराव ने कांग्रेस और बीजेपी को ही बारी-बारी सत्ता सुख दिलाया।

अब रही बात नए मोर्चे की, तो अतीत क्षेत्रीय क्षत्रपों के पक्ष में पूरी तरह से कभी नहीं रहा, या कहें कि उत्तराखंड का सियासी गेम प्लान हमेशा बीजेपी-कांग्रेस के बीच ही फिक्स रहा। पिछले दिनों थर्ड फ्रंट को सिरे से ही नकारने वाले भाजपा और कांग्रेस नेताओं के बयान इस ओर इशारा भी करते हैं। पूरे आत्मविश्वास कहते हैं कि तीसरा मोर्चा उनके लिए कोई खतरा नहीं।

दूसरी बात नए मोर्चे की कवायद में जुटे क्षत्रप जनमुद्दों की खातिर सत्ता पर दबाव के लिए तीसरे मोर्चे की बात तो कह रहे हैं, लेकिन उन्होंने प्रस्तावित फ्रंट में गैर बीजेपी और गैर कांग्रेस दलों को साथ जोड़ने या उनके साथ चलने का संकेत भी नहीं दिया है। उनकी अब तक की बैठकों में इन दलों के समर्थक भी नहीं दिख रहे।

इसलिए, पहली नजर में यह कसरत सिर्फ नए राजनीतिक संगठन बनाने भर की कवायद ही लग रही है।ऐसे में थर्ड फ्रंट जैसी संभावना को इससे जोड़ना शायद जल्दबाजी होगी। प्रदेश की सियासत से वाकिफ लोग तो इस कसरत में सत्ता के लाभों से दूर हुए लोगों की महत्वाकांक्षाओं को छिपा हुआ देख रहे हैं। उनका यहां तक कहना है कि इनमें कब कौन अपने मूल दलों की अंगुलियां पकड़कर उनकी गोदी में बैठ जाए, कहा नहीं जा सकता।

लिहाजा, उत्तराखंड में संभावित तीसरे मोर्चे की हलचल के बीच फिलहाल ‘आगे-आगे देखिए होता है क्या’?

साभार- शिखर हिमालय (हिंदी पाक्षिक) 01 अगस्त अंक

04 August, 2018

ग़ज़ल (गढ़वाली)


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दिनेश कुकरेती (वरिष्ठ पत्रकार) -

जख अपणु क्वी नी, वख डांडा आगि कु सार छ भैजी,
जख सौब अपणा सि छन, वख भि त्यार-म्यार छ भैजी।

बाटा लग्यान नाता-पाथौं तैं, कुर्चिऽ सौब अपणि रौ मा,
जै परैं अपण्यास सि लगद, ऊ भि ट्यार-ट्यार छ भैजी।

सच त ई छ कि सिरफ दिखौ कीऽ, छपल्यास रैगे अब,
भितरी-भितरऽ जिकुड़्यों मा, सुलग्यूं अंगार छ भैजी।

जौं तिबरी-डंड्ळयों उसंकद छोड़ी, धार पोर ह्वै ग्यां हम,
सुणदौं कि अब ऊंकी जगा, सिरफ खंद्वार छ भैजी।

ब्याळ स्वीणा मा दिख्ये झळ, अर दिख्येंदी हर्चिग्ये।
कन बिसरुलु वीं तै, जिकुड़ि मा बसिं अन्वार छ भैजी।

खीसा देखी त, क्वी भि अपणु बणि जांद परदेस मा,
जु तुम द्यखणा छा मुखिड़ि परैं, झूठी चलक्वार छ भैजी।

03 August, 2018

उत्तराखंड में पारंपरिक बीज भंडारण विधियां और उपकरण



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डॉ. राजेन्द्र डोभाल -
मेरे लिए उत्तराखंड अपने अद्भुत व समृद्ध पारंपरिक ज्ञान के लिए हमेशा से एक शोध का विषय रहा है आज ऐसे ही एक विषय (बीज भंडारण) पर अपने विचार साझा करना चाहता हूं। बीज में मूल डीएनए है, जो एक ही तरह के पौधे का उत्पादन करने में सक्षम है। जहां एक ओर बीज भंडारण, घरेलू और सामुदायिक खाद्य सुरक्षा को अगले फसल तक सुनिश्चित करने में मदद करता है, वहीं दूसरी ओर अच्छे बीज भंडारण का मूल उद्देश्य बीज की सुरक्षा, गुणवत्ता और उसकी मात्रा को बनाए रखने के लिए पर्यावरणीय स्थितियों का निर्माण करना है। जिससे घरेलू खाद्य सुरक्षा पूर्ति के साथ साथ कम से कम बीज की हानि हो। सीड स्टोरेज यानि की बीज भंडारण, फसलों की कटाई के फलस्वरूप होने वाली एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। बीज और अनाज सामग्री को लंबे समय तक स्टोर करने के लिए उत्तराखंड के स्थानीय लोगों द्वारा अपने निजी अनुभवों, सूझबूझ और स्थानीय संसाधनों से निर्मित सामग्री का प्रयोग एक उत्कृष्ट तरीके से किया जाता है।

इन-वीवो या ऑन साइट प्रिजर्वेशन (कटाई के पहले संरक्षण):
इस शैली के अंतर्गत एक विशेष तकनीक याद आती है, जिसमे करीब-करीब पक चुके पौधों के सीड्स को पक्षियों (जैसे मुख्य रूप से तोते और कौवे) व अन्य जानवरों जैसे बंदर आदि से सुरक्षित रखने के लिए एक “बर्ड स्केर” (जिसे गढ़वाल में अक्सर डरोंणयां कहा जाता है) खेत में स्थापित किया जाता है। बर्ड स्केर द्वारा जानवरों में कैमोफ्लेज प्रभाव विकसित कर उन्हें भ्रमित कर, फसल की सुरक्षा की जाती है। (बर्ड स्केर पुतलों का ज़िक्र कर, स्मृति पर बचपन के दिन स्वतः ही अंकित हो जाते हैं जब मक्के (मुंगरी) के खेतों में लगे इन बर्ड स्केर पुतलों को देखकर मैं और मेरे साथी रोमांच से भर उठते और उत्सुकतावश पत्थर फेंक कर ये कन्फर्म करने की कोशिश करते कि क्या वाकई ये कोई इंसान है या फिर पुतला?)

पोस्ट हार्वेस्ट प्रिजर्वेशन (कटाई के उपरांत संरक्षण):
कटाई के बाद अनाज के साथ मिश्रित प्लांट मटेरियल जैसे अवांछनीय बीज या कर्नेल, भूसा, डंठल, खाली अनाज (एम्प्टी सीड्स) और खनिज मटेरियल जैसे पृथ्वी, पत्थर, रेत, धातु कण, इत्यादि पाए जाते हैं, जो निश्चित रूप से बीजों के भंडारण और प्रसंस्करण स्थितियों पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं, को कई विधियों द्वारा पृथक किया जाता है। इस तकनीक में अनाज या बीजों को साफ़ करके (जिनमें विनोविंग (फटेला), सेपेरेटिंग (रूंगडना) आदि प्रमुख हैं), कम से कम 2 दिनों के लिए धूप में सुखाने के बाद पारंपरिक भंडारण उपकरणों में अलग से भंडारित किया जाता है, जिन्हें स्थानीय तौर पर भकार, डोक, बिसौण/बिसाऊ, मटुल/मौहट, तुमड़ी/तोमडी (खोखली व सूखी बॉटलनुमा लौंकी), ठेकी, और मेटल बिन्स (गागर, तौल, कंटर और कसरा) कहा जाता है। आइये कुछ ऐसे ही पारम्परिक भण्डारण उपकरणों पर एक नजर डालते हैं।

भकार (वुडन बॉक्स):
भकार, एक विशाल आयताकार लकड़ी का बॉक्स होता है जिसका इस्तेमाल गेहूं और धान के सीड्स को लंबे समय तक सुरक्षित रखने के लिए किया जाता है। यह आमतौर पर चीड़ (पाइनस रॉक्सबर्घी) या देवदार (सेड्रस देओदारा), कटौंज (केस्टोनोपस ट्राइबोलॉइड), बांस (डेंड्रोकेलेमस स्ट्रीकस), निंगल (थम्नोकालेमस स्पिथफ्लोरा), तून (सेड्रेला टोना) की लकड़ी से बना होता है।

डोकः
यह एक बेलनाकार या अंडाकार बांस या रिंगाल (थेमनोकेलामस स्पेथिफ्लोरा) का बना बॉक्स है। जिसे अंदर और बाहर से गाय के गोबर व मिटटी के पेस्ट से प्लास्टरिंग कर बनाया जाता है (मिट्टी अनावश्यक नमी को अवशोषित कर बीज को सड़ने से बचती है। जबकि गाय का गोबर भंडारण कीटों के लिए एक विकर्षक (रेपलेंट) के रूप में कार्य करता है)। डोक में 50 से 100 किलो तक अनाज संगृहीत करने की कैपेसिटी होती है।

बिसौण/बिसाऊः
बिसौण/बिसाऊ का इस्तेमाल मुख्य रूप से दाल और बाजरा को सुखाने के लिए किया जाता रहा है। यह एक फ्लैट और अंडाकार आकार की संरचना बांस की पट्टियों से बनायीं जाती है। जिसे बाद में गाय के गोबर व गोमूत्र पेस्ट से प्लास्टरिंग कर खूब अच्छी तरह से सूखा कर प्रयोग में लाया जाता है।

मटुल/मौहटः
2015 में प्रकाशित एक शोध में किये गए सर्वे के अनुसार आज भी कुमाऊं में रह रहे 95 प्रतिशत रेस्पोंडेंट कृषक परिवारों द्वारा गेहूं और धान जैसे अनाज को सुखाने के लिए मटुल/मौहट (बांस की पट्टियों से बने चटाई) का प्रयोग किया जाता है।

तुमड़ी/तोमड़ीः
एक गोल या अंडाकार आकार वाली लौंकी (बोटल गार्ड) को 3-4 माह तक सूख जाने के बाद इसके बीज व पल्प निकल दिया जाता है। इसमें ढक्कन आम तौर पर लकड़ी या सूखे घास से बनायीं जाती है। मूलरूप से इसका उपयोग अगले सीजन के लिए बीज संग्रहित करने के लिए किया जाता है। कभी-कभी तुमड़ी का आकार बड़ा होने पर इसमें 10-15 किलो अनाज (एक मानक आकार में) संग्रहीत किया जा सकता है।

मेटल बिन्सः
धातुओं में तांबे, टिन व स्टील के बने डिब्बों का इस्तेमाल विशेष रूप से दाल और बाजरा को स्टोर करने के लिए किया जाता है। गढ़वाल में इन्हें गागर, तौल, कंटर और कसरा कहा जाता है।

ठेकीः
बाजरा और दालों के भंडारण के लिए पारंपरिक रूप से इस्तेमाल किए जाने वाला एक लकड़ी का कंटेनर है।

दूसरे चरण में, बीज सामग्री और अनाज की रक्षा के लिए एक उपाय के रूप में, किसान विभिन्न औषधीय पौधे, राख, तेल, नमक आदि का उपयोग करते हैं, जिन्हें उन्होंने अपने बड़े-बजुर्गों से सीखा। उत्तराखंड में, किसानों के लिए बीज केवल भविष्य के पौधों और भोजन का स्रोत नहीं है। बल्कि कई वर्षों के अथक प्रयासों व संघर्षों के फलस्वरूप प्राप्त वैज्ञानिक, व्यावहारिक व पारंपरिक सहज ज्ञान का प्रतीक है।

उत्तराखंड में वर्षों से चली आ रही पुराने परंपरागत भंडारण विधियों को प्रोत्साहित करने, एक वैज्ञानिक दस्तावेज बनाने और पुनर्जीवित करने की दिशा में मेरे द्वारा किया गया एक छोटा सा प्रयास, उत्तराखंड के स्थानीय लोगों (कृषि समुदाय) द्वारा विकसित ईको-फ्रेंडली व आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण, कृषि शैलियों के संरक्षण में अवश्य सहायक होगा।

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(लेखक महानिदेशक, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद्, उत्तराखंड हैं)

02 August, 2018

जैसे को तैसा


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( लघुकथा )
गांव में एक किसान रहता था जो दूध से दही और मक्खन बनाकर बेचने का काम करता था...
एक दिन उसकी बीबी ने उसे मक्खन तैयार करके दिया। वो उसे बेचने के लिए अपने गांव से शहर की तरफ रवाना हुआ...
वो मक्खन गोल पेढ़ों की शकल में बना हुआ था और हर पेढ़े का वजन एक किलो था...
शहर में किसान ने उस मक्खन को हमेशा की तरह एक दुकानदार को बेच दिया और दुकानदार से चायपत्ती, चीनी, तेल और साबुन वगैरह खरीदकर वापस अपने गांव को रवाना हो गया...
किसान के जाने के बाद -
दुकानदार ने मक्खन को फ्रिज में रखना शुरू किया...
उसे खयाल आया के क्यूं ना एक पेढ़े का वजन किया जाए...
वजन करने पर पेढ़ा सिर्फ 900 ग्राम का निकला...
हैरत और निराशा से उसने सारे पेढ़े तोल डाले, मगर किसान के लाए हुए सभी पेढ़े 900-900 ग्राम के ही निकले।
अगले हफ्ते फिर किसान हमेशा की तरह मक्खन लेकर जैसे ही दुकानदार की दहलीज पर चढ़ा...
दुकानदार ने किसान से चिल्लाते हुए कहा- दफा हो जा, किसी बेईमान और धोखेबाज शख्स से कारोबार करना... पर मुझसे नहीं। 900 ग्राम मक्खन को पूरा एक किलो कहकर बेचने वाले शख्स की वो शक्ल भी देखना गवारा नहीं करता...
किसान ने बड़ी ही ‘विनम्रता’ से दुकानदार से कहा ‘मेरे भाई मुझसे नाराज ना हो हम तो गरीब और बेचारे लोग हैं, हमारी माल तोलने के लिए बाट (वजन) खरीदने की हैसियत कहां’।
आपसे जो एक किलो चीनी लेकर जाता हूं, उसी को तराजू के एक पलड़े में रखकर दूसरे पलड़े में उतने ही वजन का मक्खन तोलकर ले आता हूं।
- साभार

07 June, 2018

जहां आज भी धान कुटती हैं परियां

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देवभूमि उत्तराखंड में अनगिनत, अद्भुत और चमत्कारिक स्थल हैं। उत्तराखंड में जनपद टिहरी के प्रतापनगर क्षेत्र का पीड़ी (कुंड) पर्वत भी इन स्थलों में एक है। मां भराड़ी का वास स्थल कहे जाने वाले पीड़ी पर्वत पर कई रहस्यमय स्थान हैं। मान्यता है कि यहां परियां भी वास करती हैं। इसलिए इस क्षेत्र को परियों का देश भी कहा जाता है। मगर, प्रचार प्रसार के अभाव में ऐसी चमत्कारिक जगहों को आज तक अपेक्षित पहचान नहीं मिली।

समुद्रतल से 9,999 फीट की ऊंचाई पर स्थित पीड़ी पर्वत रमणीक स्थान है। यहां से नागाधिराज हिमालय समेत मां सुरकंडा, कुंजापुरी और चंद्रबदनी का मंदिर भी दिखलाई देता है। यह क्षेत्र बांज बुरांश और कई जड़ी बुटियों के पेड़ पौधों से आच्छादित है। एक पहाड़ी पर मां भराड़ी देवी का मंदिर है। यह मंदिर प्राचीनकाल में आलू बगियाल ने बनवाया था। जिसका भव्य जीर्णोद्धार 2003 में किया गया। मंदिर के आसपास कई अद्भुत, रहस्यमयी और चमत्कारिक स्थान हैं। पीड़ी के ठीक पास की पहाड़ी को खैट पर्वत कहा जाता है।

गर्भ जोन गुफा
मां भराड़ी देवी मंदिर के पास एक बड़ी गुफा है। इसकी सही गहराई का अभी तक पता नहीं है। गुफा में पत्थर फेंकने पर काफी देर तक आवाज सुनाई देती है। माना जाता है कि यह गुफा गणेश प्रयाग (पुरानी टिहरी) तक है। जिससे मां भराड़ी देवी स्नान के लिए गणेश प्रयाग जाती हैं।

तीर प्रहार पहाड़
मंदिर के समीप की पहाड़ी के बीच गहरी और 200 मीटर लंबी दरार पड़ी हुई है। मान्यता है कि जब माता ने राक्षसों के वध के लिए तीर छोड़े थे, तब कुछ तीरों से पहाड़ पर दरारें पड़ गई थी। इसलिए इस पहाड़ी को तीर प्रहार कहा जाता है। यहां बड़ा ताल भी है। इस ताल में हड्डी और कंकाल नुमा पत्थर आज भी देखे जाते हैं, जो राक्षसों की हड्डियां बताई जाती हैं।

रावण तपस्थली
मंदिर के पास एक टापूनुमा एकांत स्थान है। यहां एक पत्थर पर भगवान शिव, माता पार्वती और गणेश की आकृति बनी हुई हैं। इस स्थान से हिमालय और आसमान के सिवाय और कुछ नहीं दिखाई देता है। माना जाता है कि यहां रावण ने भगवान आशुतोष शिव को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की थी।

उल्टी ओखलियां
मंदिर के ठीक सामने की पहाड़ी पर कुछ उल्टी ओखलियां बनी हैं। पहाड़ी पर जाने के लिए कोई रास्ता नहीं हैं। लेकिन दूर से ओखलियां साफ नजर आती हैं। यहां आज भी अनाज भूसा देखा जा सकता है। मान्यता है कि यहां आछरियां (परियां) धान कुटती हैं। पहाड़ी के ठीक नीचे अखरोट का बागान है। खास बात यह है कि इन अखरोटों को उसी स्थान पर खा सकते हैं।

आलेख- रविन्द्र सिंह थलवाल
फोटो- साभार गूगल

26 April, 2018

हमें सोचना तो होगा...!!


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दिल्ली में निर्भया कांड के बाद जिस तरह से तत्कालीन केंद्र सरकार सक्रिय हुई, नाबालिगों से रेप के मामलों पर कड़ी कार्रवाई के लिए एक नया कानून अस्तित्व में आया। 2014 में केंद्र में आई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार ने भी ऐसे मामलों पर कार्रवाई की अपनी प्रतिबद्धताओं को जाहिर किया, तो लगा कि देश में महिला उत्पीड़न और खासकर रेप जैसी वारदातों पर समाज में डर पैदा होगा। जो कि जरूरी भी था। मगर, एनसीआरबी के आंकड़े इसकी तस्दीक नहीं करते। समाज में ऐसी विकृत मनोवृत्तियों में कानून का खौफ आज भी नहीं दिखता।

                हाल ही में कठुआ (जम्मू कश्मीर) में महज आठ साल, सूरत (गुजरात) में 10 साल, सासाराम (बिहार) में सात साल की बच्चियों से गैंगरेप और रेप, उन्नाव (उत्तरप्रदेश) में नाबालिग से कथित बलात्कार प्रकरण में स्थानीय विधायक का नाम जुड़ना, मौजूदा हालातों को आसानी से समझा दे रहे हैं। यहां सवाल यह नहीं कि ऐसी वारदातों को रोकने और मुजरिमों को सजा देने में सरकारें फेल हुई हैं। बल्कि यह है कि पीड़ितों को न्याय दिलाने की बजाए जम्मू कश्मीर और उत्तर प्रदेश में जिस तरह से रेप के आरोपियों को बचाने के लिए समूह सड़कों पर उतरे, वह चिंतनीय है। राजनीतिक दलों के कई लोगों ने भी ऐसे समय में संवेदनशीलता दिखाने की बजाए बेहद शर्मनाक और गैर मर्यादित ढंग से टिप्पणियां कीं। नतीजा, उन्नाव मामले तो में कोर्ट को भी सख्त लहजे में अपनी बात कहनी पड़ी।

                पिछले दिनों केंद्र सरकार ने बलात्कार की वारदातों पर अंकुश लगाने के मकसद से अध्यादेश लाकर पॉक्सो एक्ट में बदलाव किया है। जिसके हिसाब से 12 साल तक की बालिका से रेप पर सीधे फांसी तजवीज की गई है। साथ ही अन्य उम्र की महिलाओं के साथ रेप पर भी सजा की अवधि को बढ़ा दिया है। ऐसे मामलों के निपटारे के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट की बात भी केंद्र सरकार ने कही है। लिहाजा, कानून में सख्ती एक अच्छा कदम है। मगर, यह भी तब तक नाकाफी ही मानें जाएंगे, जब तक क्रियान्यन में कड़ाई नहीं बरती जाए।

                दूसरी तरफ यह भी जरूरी है कि समाज खुद आगे आकर ऐसी विकृतियों को हतोत्साहित करने के लिए निष्पक्षता से आगे आए। सो सरकारों के अलावा समाज को भी इस दिशा में सोचना तो होगा...!!

आलेख- धनेश कोठारी

19 April, 2018

नई इबारत का वक्त


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हाल के वर्षों में पहाड़ों में रिवर्स माइग्रेशन एक उम्मीद बनकर उभरा है। प्रवासी युवाओं का वापस पहाड़ों की तरफ लौटना और यहां की विपरीत स्थितियों के बीच ही रास्ता तलाशने की कोशिशें निश्चित ही भविष्य के प्रति आशान्वित करती हैं, तो दूसरी तरफ पहाड़ों में ही रहते हुए कई लोगों ने अपने ही परिश्रम से अनेकों संभावनाओं को सामने रखा है। यदि उनकी इन्हीं कोशिशों को बल मिला और युवाओं ने प्रेरणा ली, तो पलायन से अभिशप्त उत्तराखंड के पर्वतीय हिस्सों में आने वाला वक्त एक नई ही इबारत लिखेगा।

                दरअसल, आजादी के बाद ही उत्तरप्रदेश का इस हिस्सा रहे उत्तराखंड के पर्वतीय भूभाग को भाषा और सांस्कृतिक भिन्नता के साथ अलग भौगोलिक कारणों से पृथक राज्य के रूप में स्थापित करने की मांग शुरू हो हुई थी। कुछ समय बाद रोजगार की कमी के चलते यहां से शुरू हुए पलायन ने इस मांग को और भी गाढ़ा किया। नतीजा, दशकों पुरानी मांग पर सन् 1994 में स्वतःस्फूर्त पृथक राज्य आंदोलन का संघर्ष निर्णायक साबित हुआ। नौ नवंबर 2000 को अलग राज्य के रूप में पर्वतीय जनमानस का एक सपना पूरा हुआ।

मगर, उनकी सोच के विपरीत तकलीफें कम होने की बजाए और भी बढ़ीं। जिस पलायन से पार पाने की उम्मीदें थीं, वह राज्य निर्माण के बाद और भी अधिक तेज हुई। उनके सपने नए राज्य में अवसरवादी राजनीति की भेंट चढ़ गए। पहाड़ी घरों में पिछले 17 सालों के अंतराल में सबसे अधिक ताले लटके। अधिकांश पलायन शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के साथ बुनियादी सुविधाओं की कमी के चलते सामने आया।

अब, देशभर से सुख सुविधाओं और अपनी महंगी नौकरियों को छोड़कर कुछ युवाओं ने वापसी का रुख किया और यहां मौजूदा स्थितियों में नई राहें खोजी हैं, तो जरूरत है कि सरकारें भी उनके रास्तों को समझे। नीतियों के निर्धारण में उनके अनुभवों और उनके सुझावों को शामिल करे। जो कि खुद राजनीतिक दलों के लिए मुनाफे का ही सौदा होगा।

आलेख- धनेश कोठारी

बारहनाजा : पर्वतजनों के पूर्वजों की सोच की उपज


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डा0 राजेन्द्र डोभाल
उत्तराखंड एक पर्वतीय राज्य तथा अनुकूल जलवायु होने के कारण एक कृषि प्रधान राज्य भी माना जाता रहा है। सामान्यतः उत्तराखंड मे विभिन्न फसलो की सिंचित, असिंचित, पारंपरिक और व्यसायिक खेती की जाती है। चूंकि स्वयं में कई पीढ़ियों से उत्तराखंड की खेती को पारंपरिक दृष्टिकोण से देखता आया हूं, अब पारंपरिक खेती पद्धतियों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परखने की कोशिश करता हूं, कि क्या हमारी पारंपरिक खेती की पद्धतियो में वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी था या केवल समय की आवश्यकता थी।

जहां तक मैं समझता हूं कि हर कृषक की तरह खेती की मूलभूत आवश्यकता परिवार तथा पशुधन के भरण-पोषण की ही रही होगी। तत्पश्चात जलवायु अनुकूल फसलों का चयन, उत्पादन तथा कम जोत भूमि में संतुलित पोषण के लिए अधिक से अधिक फसलों का समन्वय तथा समावेश कर उत्पादन करना ही रहा होगा। निःसन्देह बारहनाजा जैसे कृषि पद्धति में फसलों का घनत्व बढ़ जाता है तथा वैज्ञानिक रूप से उचित दूरी का भी अभाव पाया जाता है, परन्तु कम जोत, असिंचित खेती की दशा सभी पोषक आहारों की पूर्ति के साथ पशुचारा तथा भूमि उर्वरता को बनाए रखना भी काश्तकारों के लिए जटिल विषय रहा होगा। इन्हीं सब को दृष्टिगत रखते हुए एक अत्यंत प्रचलित एवं महत्वपूर्ण पारम्परिक खेती पद्धति विकसित हो गई, जिसे बारहनाजा के नाम से जाना जाता है।

जैसा कि नाम से ही विदित होता है कि बारहा अनाजों की मिश्रित खेती जिसे मुख्यतः चार या पांच श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है। अनाज जैसे मंडुआ, चौलाई, उगल, ज्वान्याला तथा मक्का जो कि कार्बोहाइड्रेट, कैल्शियम, लोह तथा ऊर्जा के प्रमुख स्रोत माने जाते हैं तथा पशुचारे के लिए भी प्रयुक्त किये जाते हैं। दलहनी फसलों मे राजमा, उड़द, लोबिया, भट्ट तथा नौरंगी आदि जो कि प्रोटीन का मुख्य स्रोत मानी जाती हैं। तिलहनी फसलों मे तिल, भंगजीर, सन्न तथा भांग जो तेल व खल एवं रेशा उत्पादन के लिए प्रयुक्त होती हैं। सब्जियों में उगल, चौलाई तथा मसाले में जख्या आदि, फलों के रुप में पहाडी ककड़ी का उत्पादन किया जाता है।

जहां एक ओर पर्वतीय क्षेत्र अपनी विविधता, पृथकता और अस्थिर पारिस्थितिक तंत्र के लिए जाने जाते हैं। वहीं दूसरी ओर स्थानीय लोगों ने यहां की बदलती जलवायु, मुख्यतः अनियमित वर्षा चक्र, सीमित भूमि संसाधन, भूमि क्षरण इत्यादि को ध्यान मे रखते हुए प्रतिकूल परिस्थितियों में भी प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के साथ-साथ, अपने निजी अनुभवों के आधार पर एक विशेष कृषि प्रणाली विकसित की जो इन सभी प्राकृतिक समस्याओं से निपटने में कारगर साबित हुई है। इसका आभास स्थानीय किसानों को बहुत पहले से ही था। साथ ही फसलों की गुणवत्ता व उत्पादकता में वृद्धि, पहाड़ की भौगोलिक सरंचना, जलवायु आदि को ध्यान में रखते हुए इस प्रणाली का चयन सर्वथा उपयुक्त रहा।

यदि संपूर्ण बारहनाजा प्रणाली पर एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखा जाय तो कई वैज्ञानिक पहलू उजागर होते हैं। जैसे दलहन फसलों के अंतर्गत राजमा, लोबिया, भट्ट, गहत, नौरंगी, उड़द और मूंग के प्रवर्धन के लिए मक्का लगाया जाता है। जो बीन्स के लिए स्तम्भ या आधार की आवश्यकता को पूरा करते हैं। साथ ही दलहनी फसलों मे वातावरणीय नाईट्रोजन स्थिरीकरण का भी अदभूत गुण होता है, जो मिट्टी की उर्वरकता को बनाए रखने और नाइट्रोजन को फिर से भरने में मदद करती है। जिसे अन्य सहजीवी फसलें उपयोग करती है। जबकि फलियां प्रोटीन का समृद्ध स्रोत होती हैं। पोषण सुरक्षा प्रदान करने के अलावा कैल्शियम, लोहा, फास्फोरस और विटामिन में समृद्ध होते हैं।

सब्जियां, टेनड्रिल बेअरिंग जैसे कददू, लौकी, ककड़ी आदि भूमि पर फैलकर, सूरज की रोशनी को अवरुद्ध करके, खरपतवार जैसे अवांछित पौधे को रोकने में मदद करती है। इन टेनड्रिल वाइन्स बेलों की पत्तियां एक लिविंग मल्च के रूप में मिट्टी में नमी बनाए रखने हेतु माइक्रोक्लाइमेट का निर्माण करती है। बेल के कांटेदार रोम कीटों से सुरक्षा प्रदान करते हैं। मक्का, सेम और टेनड्रिल वाइन्स में जटिल कार्बोहाइड्रेट, आवश्यक फैटी एसिड और सभी आठ आवश्यक एमिनो एसिडस इस क्षेत्र के मूल निवासियों की आहार संबन्धी जरूरतें पूरी करने में सहायक सिद्ध होते हैं।

राईजोस्पिफयर में उपस्थित माइक्रोबियल विविधता का प्रबंधन भी एक दीर्घकालिक सस्टेनेबल फसल उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। एक ही प्रकार की फसल का सतत् फसल प्रणाली द्वारा उत्पादन, मिट्टी में मौजूद सहजीवी, सूक्ष्मजीवों की संख्या को प्रभावित कर मिटटी की उर्वरता को कम करता है तथा एकल फसल में प्रचूर मात्रा में पोषक पौधे की उपलब्धता होने के वजह से कीट व्याधि का प्रकोप सर्वथा अधिक देखा गया है।

उत्तरी चीन के एक शोध कार्य के अनुसार दस स्प्रिंग फसलों को मोनोकल्चर प्रणाली व चार अन्य फसलों को इंटरक्रॉपिंग प्रणाली द्वारा उगाया गया और इन फसलों के राईजोस्पिफयर में मौजूद जीवाणु समुदाय की विविधता का तुलनात्मक अध्ययन किया गया जिससे यह ज्ञात हुआ कि एकमात्र फसल प्रणाली के मुकाबले, इंटरक्रॉपिंग के तहत राईजोस्पिफयर मिट्टी में उपस्थित जीवाणु समुदाय की विविधता व फसल की उत्पादन क्षमता में वृद्धि के बीच संभावित संबंध हैं।

मिश्रित फसल प्रणाली मे राईजोस्पिफयर जोन में मुख्य रुप से फ्लेविसोलिबैक्टर, ल्यूटिबैक्टर, राईजोवैसिलस, क्लोरोफलैक्सी वैक्टीरियम, डेल्टा प्रोटिओबैक्टीरयम, स्यूडोमोनास तथा लाइवेनोन्सिस की अधिकता पाई गई है। साथ ही यह भी पाया गया कि ओगल, बाजरा, मिलेट, ज्वार, सोरघम व मूंगफली फसलों का इंटरक्रॉपिंग विधि द्वारा उत्पादन इन्हीं फसलों के मोनोकल्चर उत्पादन की तुलना में माइक्रोबियल समुदाय की विविधता में वृद्धि करने में अधिक प्रभावशाली साबित होता है।

चूंकि बारहनाजा बुआई तथा पकने की अवधि में मानसून भी तेज होता है तथा ढालदार खेत होने के वजह से भूमि अपरदन की आशंका बनी रहती है। जिसके लिए सम्भवतः किसानों द्वारा बारहनाजा में कुछ अधिक ऊंचाई तथा चौड़ी पत्ती वाली फसलों का चयन किया गया। जिससे तेज वर्षा सीधे जमीन पर न गिरकर चौड़ी पत्ती वाले पौधे से टकराकर छोटी-छोटी बूंदो में बदलकर नमी बनाये रखे। दलहनी फसलों की पत्तियां जमीन पर गिरकर आगामी फसलों के लिए कार्बनिक पदार्थ भी बढ़ाती है। संपूर्ण बारहनाजा पद्धति मे फसलों का चयन में भी वैज्ञानिक परख झलकती है। जिसमे कुछ कम गहरी जड़ वाली फसलों के साथ अधिक गहरी जड़ वाली फसलों का भी समावेश दिखता है। जिससे जमीन से पोषक तत्व अलग-अलग सतहों से लिए जा सकें।

एक विविध बहुउद्देशीय प्रणाली के रूप में जैसे अनाज उत्पादकता, पशुओं के लिए चारा, मिट्टी के पोषक तत्वों में वृद्धि आदि के अतिरिक्त भी इस प्रणाली की एक और दिलचस्प बात यह थी, कि मुख्य फसलों जैसे गेहूं, धान, मंडुआ, बाजरा आदि के बीज ही उपयोग में लाये जाते हैं। जबकि कटाई के उपरांत खेत में बची हुई पत्तियां व डंठल मुक्त पशुओं के लिए चारे के रूप में छोड़ दिए जाते हैं। इस प्रक्रिया में पशुओं द्वारा छोड़े गए गोबर, डंठल व मिटटी में मौजूद सहजीवी सूक्ष्मजीवों के साथ साथ मौसमी विभिन्नता जैसे बर्फ, बारिश और धूप के मिले जुले प्रभाव, इन खेतों की उर्वरता बढ़ाने में अवश्य ही फुकुओका फार्मिंग (नेचुरल फार्मिंग और डू नथिंग फार्मिग) की तरह कार्य करते हैं। सीमित भूमि पर मूल भोजन की अलग-अलग फसलें, जिनमें रबी की फसलें, दलहन, मसाले, तिलहन एवं शाक सब्जियां को एक ही खेत में उगाये जाने के संदर्भ में भी, बारहनाजा प्रणाली की अवधारणा वैज्ञानिक और टिकाऊ है।

चूंकि उत्तराखंड की खेती का अधिकतम भूभाग असिंचित है, जोत भूमि कम है एवं मानसून के दौरान उगने वाली फसलों पर दबाव बढ़ना स्वाभाविक था। निसंदेह रुप से हमारे पूर्वज बारहनाजा जैसी पद्धति का वैज्ञानिक व्याख्या कर पाने मे सक्षम न रहे हों, परन्तु उनके द्वारा जलवायु अनुकूल फसलों का चयन, सहवर्ति फसलों का ज्ञान, कम जोत में सभी पोषक आहारों की पूर्ति के साथ-साथ भविष्य के लिए भूमि की उर्वरकता को बनाये रखना आदि जरुर वैज्ञानिक दृष्टिकोण को ही दर्शाता है।

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(लेखक- महानिदेशक, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद, उत्तराखंड)



17 April, 2018

हमरु गढ़वाल

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कवि श्री कन्हैयालाल डंडरियाल
खरड़ी डांडी
पुन्गड़ी लाल
धरती को मुकुट
भारत को भाल
हमरु गढ़वाल

यखै संस्कृति - गिंदडु, भुजयलु, ग्यगुडू, गड्याल।
सांस्कृतिक सम्मेलन - अठवाड़।
महान बलि - नारायण बलि।
तकनीशियन - जन्द्रों सल्ली।
दानुम दान - मुकदान।
बच्यूं - निरभगी, मवरयूं - भग्यान।

परोपकारी - बेटयूं को परवाण।
विद्वान - जु गणत के जाण।
नेता - जैन सैणों गोर भ्यालम हकाण।
समाज सुधारक - जैन छन्यू बैठी दारू बणाण।
बडू आदिम - जु बादीण नचाव।
श्रद्धापात्र - बुराली, बाघ अर चुड़ाव।

मार्गदर्शक - बक्या।
मान सम्मान - सिरी, फट्टी, रान।
दर्शन - सैद, मशाण, परी, हन्त्या।
उपचार - कण्डली टैर, जागरदार मैर, लाल पिंगली सैर।
खोज - बुजिना।
शोध - सुपिना।

उपज - भट्ट अर भंगुलो।
योजना - कैकी मौ फुकलो।
उद्योग - जागर, साबर, पतड़ी।
जीवन - यख बटे वख तैं टिपड़ी।
व्यंजन - खूंतड़ों अर बाड़ी।

कारिज - ब्या, बर्शी, सप्ताह।
प्रीतिभोज - बखरी अर बोतल।
पंचैत - कल्यो की कंडी, भाते तौली।
राष्ट्रीय पदक - अग्यल पट्टा, पिन्सन पट्टा, कुकर फट्टा।

बचपन - कोठयूं मा।
जवनी - पलटन, दफ्तर, होटल।
बुढ़ापा - गौल्यूं फर, चुलखंदयूं फर।
आशीर्वाद - भभूते चुंगटी।
वरदान - फटगताल, नि ह्वे, नि खै, नि रै, घार बौड़ी नि ऐ।

आयात - खनु, खरबट, मनीऑर्डर।
निर्यात - छवाड़ बटे छवाड़ तैं बाई और्डर।

शुभ कामना
भगवान सबु तैं
यशवान, धनवान,
बलवान बणों
पर मी से बकै ना।

फक्कड़ कवि श्री कन्हैयालाल डंडरियाल जी की एक रचना।

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