19 August, 2018

क्योंकि दिल्ली से ‘हिमालय’ नहीं दिखता


https://www.bolpahadi.in/

बचपन में गांव से हिमालय देखने को आतुर रहने वाले प्रसिद्ध साहित्यकार, वरिष्ठ पत्रकार और मंच संचालक गणेश खुगशाल ‘गणी’ को जब दिल्ली में प्रवास के दिनों में हिमालय नहीं दिखा तो उन्होंने दिल्ली को नमस्कार कर दिया और पौड़ी आ गए। इसके बाद वे पौड़ी के ही होकर रह गए। कई बार पौड़ी से बाहर मीडिया में नौकरी करने के मौके मिले, लेकिन उन्होंने पौड़ी नहीं छोड़ा।

गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी के मंचों का संचालन करने वाले ‘गणीदा’ कुशल संचालक के साथ ही वरिष्ठ कवि भी हैं। उन्हें गढ़वाली लोक साहित्य में ‘हाइकू’ शैली की कविता का जनक भी माना जाता है। लोक साहित्य में उनका लंबा सफर रहा है, जो अभी जारी है। हिमालयी सरोकारों का प्रतिनिधित्व करने वाली धाद पत्रिका के संपादक गणीदा इस माध्यम से भी लोकभाषा के संरक्षण में जुटे हैं। उन्हीं के साथ पत्रकार साथी मलखीत रौथाण की बातचीत के अंश-

मलखीत- गणीदा, आज आप बड़े मंचों के कुशल संचालक हैं, ये हुनर बचपन से ही आपके अंदर था?
गणीदा- नहीं जी! ये हुनर बचपन में नहीं था। बचपन में तो स्कूली कार्यक्रमों में सांस्कृतिक कार्यक्रमों से दूर ही रहता था। गुरूजी कहते थे गीत गाओ या फिर पत्थर लाने होंगे। मैं पत्थर ही लाता था।

मलखीत - फिर इस हुनर को कैसे विस्तार मिला। क्या कोई प्रेरणा रही है?
गणीदा- दरअसल, प्रेरणा तो हमेशा ही गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी जी की रही है। बचपन से ही नेगी जी को सुनता आ रहा हूं। जो कुछ भी हूं, इसे देव संयोग ही कहा जायेगा। लोकभाषा के प्रति प्रेम और लगाव बचपन से ही रहा है।

मलखीत - पहाड़ और लोकभाषा के प्रति आपका लगाव कैसे बढ़ा?
गणीदा- दरअसल, मैं सरकारी नौकरी कर रहा था। साल 1987 की बात है, मैं भोपाल में रहता था और वहां मेरी पूज्य माताश्री की मृत्यु हो गई। उस दौरान निचली मंजिल में लोग टेलीविजन देख रहे थे। जो मुझे बहुत बुरा लगा और मैंने कहा कि ये शहर संवेदनहींन शहर है और मैंने भोपाल छोड़ दिया। मुझे लगता है कि आज भी हर शहर संवेदनहींन शहर है। इसके बाद मैं दिल्ली आया, लेकिन यहां से जब हिमालय नहीं दिखा, तो अंततः वापस अपने गांव पौड़ी आ गया।

मलखीत - आपकी पहली कविता कौन सी थी।
गणीदा- कब तलैकि डौंरू बजली, कब तलैकि बजेली थाली। यह मेरी पहली गढ़वाली कविता थी।

मलखीत - गणीदा, आप रामलीला मंचन देखने भी जाते थे?
गणीदा- हां, बहुत शौक था। लेकिन पिताजी नहीं जाने देते थे, कहते थे कि बस दो दिन ही जाना है मंचन देखने को।

मलखीत - आप आकाशवाणी से कब और कैसे जुड़े?
गणीदा- मैं बचपन से ही आकाशवाणी से प्रसारित ग्राम जगत कार्यक्रम खूब सुनता था। कविता लिखते-लिखते मैंने कई बार आकाशवाणी को भी पत्र लिखे। आखिरकार साल 1988 में चक्रधर कंडवाल जी ने आकाशवाणी से कविता पाठ करने का सौभाग्य दिया।

मलखीत - आप मंच संचालन से कैसे जुड़े?
गणीदा- असल में, एक कार्यक्रम में मैंने नरेंद्र सिंह नेगी की मौजूदगी में काव्यपाठ किया था। इसके बाद एक अन्य कार्यक्रमों में नरेंद्र सिंह नेगी जी ने कहा कि गणी संचालन तू ही करेगा। मैंने कहा कि मुझे तो आता ही नहीं है। इस पर नेगी जी ने कहा कि जहां रूक जाओगे, वहां मैं बोलूंगा। यही से संचालन का सफर शुरू हुआ और ये सब नेगी जी की देन है।

मलखीत - आप धाद से भी जुड़े?
गणीदा- जी हां, करीब 1988 में मुझे धाद से जुड़ने का सौभाग्य मिला। मैं पत्रिका में लेखन भी करता रहा और धाद के कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी भी रही।

मलखीत - लोकभाषा की वर्तमान दशा व दिशा पर आप क्या कहना चाहेंगे?
गणीदा- बेशक, लोकभाषा पर काम हो रहा है। लेखन हो रहा है। लेकिन नई पीढ़ी लोकभाषा से दूर होती जा रही है। इस पर ध्यान देने की नितांत जरूरत है।

Popular Posts

Blog Archive

Our YouTube Channel

Subscribe Our YouTube Channel BOL PAHADi For Songs, Poem & Local issues

Subscribe