16 December, 2013
09 November, 2013
08 November, 2013
07 November, 2013
04 November, 2013
03 November, 2013
02 November, 2013
बाबा की मूर्ति फिर चर्चाओं में....
भई देश दुनिया में उत्तराखंड
त्रासदी की प्रतीक बनी मूर्ति और बाबा एक बार फिर चर्चा में हैं। और यह बहस शुरू
हुई, 31 अक्टूबर गुरुवार को मूर्ति को लगाने और उसी रात उसे हटाने के बाद से।
क्षेत्र में कुछ बाबा के पक्ष और कुछ विपक्ष में आ गए हैं। दुहाई दी जा रही है कि
यह यहां का आकर्षण है, इसे दोबारा लगना चाहिए। लेकिन कुछ बैकडोर में यह भी बतिया
रहे हैं कि क्या यह गंगा पर अतिक्रमण नहीं। जब बीते 17 जून 2013 को पूर्वाह्न करीब
साढ़े 11 बजे आक्रोशित गंगा ने रास्ते में आड़े आ रही मूर्ति को अपने आगोश में जब्त
कर लिया, तो महज आध-पौन घंटे के भीतर यह देश दुनिया के मीडिया में सुर्खियां
बटोरने लगी थी।
बड़ी बात कि देश के मीडिया को यह फुटेज उनके किसी रिपोर्ट ने नहीं, बल्कि इस मूर्ति के साधकों की तरफ से ही भेजी गई बताते हैं। सवाल तब भी उठे कि आखिर मीडिया में सुर्खियां बटोरने के पीछे फाइबर की इस मूर्ति का फायदा क्या रहा होगा। खैर यह बीती बात हो गई।
बड़ी बात कि देश के मीडिया को यह फुटेज उनके किसी रिपोर्ट ने नहीं, बल्कि इस मूर्ति के साधकों की तरफ से ही भेजी गई बताते हैं। सवाल तब भी उठे कि आखिर मीडिया में सुर्खियां बटोरने के पीछे फाइबर की इस मूर्ति का फायदा क्या रहा होगा। खैर यह बीती बात हो गई।
नतीजा, श्रावणमास के बाद तक
तीर्थनगरी ऋषिकेश में भी खौफ के चलते पर्यटक नहीं आए। उन्हें लगा कि मूर्ति बह गई,
तो अब वहां क्या बचा होगा। जिसका नुकसान क्षेत्र के कारोबारियों को करीब तीन-चार
महीनों तक भुगतना पड़ा। जिसकी कसक अब तक बाकी है। अभी भी यहां का पर्यटन पूरी तरह
से पटरी पर नहीं लौटा है। ऐसे में अब फिर मूर्ति लगाने की वही कवायद शुरु हो गई है।
अब सवाल यह कि हाईकोर्ट के आदेशों
से पहले भी यदि आम आदमी यदि गंगा किनारे एक ईंट भी रखता था, तो मुखबिरों की सूचना
पर प्रशासन बगैर नोटिस, सूचना के ही उसे ढहा देता था। अब भी ढहाने को आतुर दिखता
है। मगर, यहां तो गंगा पर अतिक्रमण को सब देखते रहे, और आरती भी करते रहे। आखिर यह
रियायत क्यों...
सवाल यह भी कि क्या गंगा
को अतिक्रमित करती सिर्फ यह मूर्ति ही क्षेत्र में पर्यटन का आधार है। क्या इसके
बिना देस विदेश के सैलानी यहां नहीं आएंगे। सच क्या मानें..। कुछ लोग दबे छुपे कहते
हैं- इसके पीछे कोई बड़ा खेल संभव है। लिहाजा अब इस पर सोचा जाना जरुरी लगता है। साथ
ही इसका फलित भी निकाला जाना चाहिए, कि आखिर गंगा के हित में क्या है।
01 November, 2013
हे उल्लूक महाराज
आप जब कभी किसी के यहां भी पधारे, लक्ष्मी जी ने उसकी योग्यता देखे बगैर उसी पर विश्वास कर लिया। जिसका नतीजा है कि बांधों के, राज्य के, सड़कों के, पुलों के, पैरा पुश्तौं के, पीएमजीवाई के, मनरेगा आदि के बनने के बाद वही असल में आपका परम भक्त हो गया। वहीं आपदा की पीड़ा के बाद भी बग्वाळ को उत्साह के रुप में देख और मनाने को उतावला है। उसके अंग अंग से पटाखे फूट रहे हैं, लालपरी उसे झूमने के लिए प्रेरित कर रही है।
आपकी कृपा पंथनिरपेक्ष, असांप्रदायिक, अक्षेत्रवादी है। आप अपने वंश पूजकों के लिए कृपा पात्र हैं
मगर, मेरे लिए यह समझ पाना कुछ मुश्किल हो रहा है कि आपके कृपापात्रों की लाइन में लगने के क्या उत्तराखंड राज्य और उसके मूल अतृप्त वंशज भी लायक हैं या नहीं। क्या आपका और आपकी महास्वामिनी का ध्यान उनकी ओर भी जागेगा। या फिर वे केवल शहीद होने, लाठियां खाने, भेळ भंगारों में लुढ़कने, दवा, शिक्षा, रोजगार, मूलनिवास आदि के लिए तड़पने तक सीमित रहेंगे।
हे उल्लूक महाराज, इस अज्ञानी, अधम, गुस्ताख का मार्गदर्शन करने की कृपा करें। बताएं कि महा कमीना होने के लिए पहाड़ों में क्या बेचूं, कमान और हाईकमान तक कितना और कब-कब स्वाळी पकोड़ी, घी की माणि पहुंचाऊं।
आपकी कृपा दृष्टि की जग्वाळ में -
आपका यह स्व घोषित सेवक
आपकी कृपा पंथनिरपेक्ष, असांप्रदायिक, अक्षेत्रवादी है। आप अपने वंश पूजकों के लिए कृपा पात्र हैं
मगर, मेरे लिए यह समझ पाना कुछ मुश्किल हो रहा है कि आपके कृपापात्रों की लाइन में लगने के क्या उत्तराखंड राज्य और उसके मूल अतृप्त वंशज भी लायक हैं या नहीं। क्या आपका और आपकी महास्वामिनी का ध्यान उनकी ओर भी जागेगा। या फिर वे केवल शहीद होने, लाठियां खाने, भेळ भंगारों में लुढ़कने, दवा, शिक्षा, रोजगार, मूलनिवास आदि के लिए तड़पने तक सीमित रहेंगे।
हे उल्लूक महाराज, इस अज्ञानी, अधम, गुस्ताख का मार्गदर्शन करने की कृपा करें। बताएं कि महा कमीना होने के लिए पहाड़ों में क्या बेचूं, कमान और हाईकमान तक कितना और कब-कब स्वाळी पकोड़ी, घी की माणि पहुंचाऊं।
आपकी कृपा दृष्टि की जग्वाळ में -
आपका यह स्व घोषित सेवक
@Dhanesh Kothari
31 October, 2013
28 September, 2013
राइट टू रिजैक्ट शुभ, मगर कितना.... ?
राइट टू रिजेक्ट स्वस्थ लोकतंत्र के लिए शुभ माना जा सकता है, मगर कितना? इस पर भी सोचा जाना चाहिए। खासकर इसलिए कि क्या अब तक नकारात्मक वोटों से संसद या विधानसभाओं में पहुंचने वाले इससे रुक पाएंगे। शायद जानकार मानेंगे कि उनका जवाब ना में ही होगा। कारण कुछ लोग जो पहले भी वोट नहीं देते थे, क्या वह देश की राजनीतिक व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न नहीं था? हां अब इतना फर्क होगा कि नकारात्मक वोट की संख्या सार्वजनिक हो जाएगी। लेकिन फिर वही सवाल कि क्या इससे फायदा होगा?
मेरा मानना है कि राइट टू रिजेक्ट से बड़ा बदलाव आए या नहीं, लेकिन देश के शिक्षित वर्ग के रुझान का पता जरुर चल सकता है। कारण, देश में अब तक अनपढ़ों को किसी के भी पक्ष में बरगलाने में इसी वर्ग का सबसे बड़ा हाथ रहा है, और यही वर्ग चुनाव के बाद हरबार राजनीतिक प्रणाली, राजनेताओं, पार्टियों को बीच चौराहे बातों बातों में गालियां भी देता रहा है। सो साफ है कि अब उसे वोट के इस्तेमाल से पहले अपने चयन पर किंतु-परंतु के साथ मुहर लगानी होगी। वरना उसकी भूमिका, अंधभक्ति, स्वार्थ को भी सब जान जाएंगे।
हां एक बात अवश्य कही जा सकती है कि इससे निकलने वाली ध्वनि लोकतंत्र के कथित पहरुओं को भविष्य के लिए कोई कड़ा संदेश जरुर दे सकती है। और इससे राजनीतिक गलियारों में यदाकदा कोई साफ सुथरी छवि, ध्येय, निष्ठा वाला पहुंच सकता है। इस लिहाज से दीर्घकालीन योजनाओं की तरह राइट टू रिजेक्ट प्रणाली से भरोसा बांधा जा सकता है।
यह पहल एक और तरफ भी इशारा करती दिख रही है कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के समय का पहिया घुमने लगा है। जो कि राइट टू रिजेक्ट से राइट टू रिकॉल और फिर निर्वाचन के लिए 50+1 के मानक तक पहुंच सकती है। जिससे धनबल, बाहुबल, उन्माद, भावनात्मक शोषण जैसी कुटील चालों का बल निकाल सकती है।
यहां आप से अनुरोध कि सफाई के इस अभियान पर अपनी प्रतिक्रिया तो दें ही, साथ ही उस शिक्षित (अनपढ़) वर्ग को भी समझाने का प्रयास करें। शायद यह हमारे लिए देशभक्ति जताने का एक अच्छा माध्यम बन जाए। जो देश के साथ ही हमारी, आने वालों की जिंदगियों को सुरक्षित और खुशहाल बना सके।
आलेख- धनेश कोठारी
17 September, 2013
तय मानों
तय मानों
देश लुटेगा
बार-बार, हरबार लुटेगा
अंधों की कतारों में
समझते रहोगे-
ह्वां- ह्वां करते
सियारों के क्रंदन को गीत
अधूरे ज्ञान के साथ
दाखिल होते रहोगे
चक्रव्यूह में
बने रहोगे आपस में
पांडव और कौरव
तुम हो, और कोई नहीं
देश लुटेगा
बार-बार, हरबार लुटेगा
तब-तब, जब तक
खड़े रहोगे चुनाव के दिनअंधों की कतारों में
समझते रहोगे-
ह्वां- ह्वां करते
सियारों के क्रंदन को गीत
जब तक पिघलने दोगे
कानों में राष्ट्रनायकों का 'सीसा' अधूरे ज्ञान के साथ
दाखिल होते रहोगे
चक्रव्यूह में
बने रहोगे आपस में
पांडव और कौरव
तय मानों
देश के लुटने के जिम्मेदार तुम हो, और कोई नहीं
सर्वाधिकार- धनेश कोठारी
07 August, 2013
क्या यह चिंताएं वाजिब लगती हैं..
कोश्यारी जी को चिंता है कि यदि आपदा प्रभावित गांवों को जल्द राहत नहीं दी गई तो नौजवान माओवादी हो जाएंगे। समझ नहीं पा रहा हूं कि माओवादी होना क्या राष्ट्रद्रोही होना है, क्या माओवादी बनने का आशय आंतकी बनने जैसा है, यदि इन जगहों पर माओवादी पनप गए तो क्या पहाड़ और ज्यादा दरकने लगेंगे, क्या ये गांवों में लूटपाट शुरू कर देंगे, क्या ये लोग खालिस्तान या कश्मीर की तरह अलग देश की मांग कर बैठेंगे, आखिर क्या होगा यदि माओवाद को आपदा पीडि़त बन गए तो...
बड़ा सवाल यह कि ऐसी चिंता सिर्फ कोश्यारी जी की ही नहीं है, बल्कि राज्य निर्माण के बाद कांग्रेस, बीजेपी नौकरशाहों की चिंताओं में यह मसला शामिल रहा है। इसकी आड़ में केंद्र को ब्लैकमेल किया जाता रहा है, और किए जाने का उपक्रम जारी है।
यहां एक और बात साफ कर दूं कि मेरे जेहन में उपजे उक्त प्रश्नों का अर्थ यह न निकाला जाए कि मैं माओवाद का धुर समर्थक या अंधभक्त या पैरोकार हूं। बल्कि जिस तरह से पहाड़ के नौजवानों के माओवादी होने की चिंताएं जताई गई हैं, वह एक देशभक्त पहाड़ को गाली देने जैसा लग रहा है, जिसके युवा आज भी सेना में जाकर देश के लिए मर मिटने का जज्बा अपने सीने में पालते हुए बड़े होते हैं। जिसकी गोद में पले खेले युवा गढ़वाल और कुमाऊं रेजीमेंट के रुप में बलिदान की अमर गाथाएं लिखते रहें हैं। ऐसे में क्या यह चिंताएं वाजिब लगती हैं....
बड़ा सवाल यह कि ऐसी चिंता सिर्फ कोश्यारी जी की ही नहीं है, बल्कि राज्य निर्माण के बाद कांग्रेस, बीजेपी नौकरशाहों की चिंताओं में यह मसला शामिल रहा है। इसकी आड़ में केंद्र को ब्लैकमेल किया जाता रहा है, और किए जाने का उपक्रम जारी है।
यहां एक और बात साफ कर दूं कि मेरे जेहन में उपजे उक्त प्रश्नों का अर्थ यह न निकाला जाए कि मैं माओवाद का धुर समर्थक या अंधभक्त या पैरोकार हूं। बल्कि जिस तरह से पहाड़ के नौजवानों के माओवादी होने की चिंताएं जताई गई हैं, वह एक देशभक्त पहाड़ को गाली देने जैसा लग रहा है, जिसके युवा आज भी सेना में जाकर देश के लिए मर मिटने का जज्बा अपने सीने में पालते हुए बड़े होते हैं। जिसकी गोद में पले खेले युवा गढ़वाल और कुमाऊं रेजीमेंट के रुप में बलिदान की अमर गाथाएं लिखते रहें हैं। ऐसे में क्या यह चिंताएं वाजिब लगती हैं....
07 July, 2013
कौन संभालेगा पहाड़ों को...
पहाड़ों पर कौन बांधेगा 'पलायन' और 'विस्थापन' को...
अब तक या कहें आगे भी पलायन पहाड़ की बड़ी चिंता में शामिल रहा, और रहेगा। मगर अब एक और चिंता 'विस्थापन' के रुप में सामने आ रही है। पहाड़ के जर्रा-जर्रा दरकने लगा है। गांवों की जिंदगी असुरक्षित हो गई है। सदियों से पहाड़ में भेळ्-पखाण, उंदार-उकाळ, घाम-पाणि, बसगाळ-ह्यूंद, सेरा-उखड़ से सामंजस्य बिठाकर चलने वाला पहाड़ी भी थर्र-थर्र कांप रहा है। नित नई त्रासदियों ने उसे इतना भयभीत कर दिया है कि अब तक रोजी-रोटी के बहाने से पलायन करने की उसकी मजबूरी के शब्दकोश में 'विस्थापन' नामक शब्द भी जुड़ गया है।
मजेदार बात कि कथित विकास की सड़कें भी उसके काम नहीं आ रही हैं, बल्कि भूस्खलन के रुप में मौत की खाई पैदा कर रही हैं। अब तक उसने कुछ अपने ही रुजगार के लिए बाहर भेजे थे। लेकिन अब वह खुद भी यहां से विस्थापित हो जाना चाहता है। निश्चित ही उसकी चिंताओं को नकारना मुश्किल है। क्योंकि जीवन को सुखद तरीके से जीने का उसका मौलिक हक है। जिसे अब तक किसी न किसी बहाने से छीना जाता रहा है। अब जब पहाड़ ही ढहने लगे हैं, और उसकी जान लेने पर आमादा हैं, तो हम भी कैसे कह सकते हैं कि नहीं 'तुम पहाड़ी हो, हिम्मत वाले हो, साहस और वीरता तुम्हारी रगों में समाई है' मौत से मुकाबला करने के लिए यहीं रहो, मारबांदी रहो।
ऐसे में यदि विकास की सड़कें उसे दूर परदेस ले जाना चाहती हैं, तो ले जाने दो। किंतु, प्रश्न यह भी कि यदि पहले 'पलायन' और अब उसकी चाह के अनुरुप 'विस्थापन' से आखिर पहाड़ तो खाली हो जाएंगे। एक सभ्यता, संस्कृति, परंपरा, पहचान, जीजिविषा पलती, फलती, बढ़ती थी, उसे कौन पोषित करेगा। क्योंकि भूगोल में बदलाव कहीं न कहीं हमारे बीच एक अलग तरह का दूराव पैदा कर देता है।
.... और इससे भी बड़ी चिंता कि यदि पहाड़ खाली हो गए तो देश की इस सरहद पर दूसरी रक्षापंक्ति को कौन संभालेगा। सेना तो मोर्चे पर ही दुश्मनों को पछाड़ सकती है। कोई उसके हौसले के लिए भी तो चाहिए। क्या पलायन और विस्थापन के बाद हम देशभक्ति की अपनी 'प्रसिद्धि' को कायम रख सकेंगे।
मेरी चिंता पहाड़ को लगे ऐसे अभिशाप से ही जुड़ी है, जो फिलहाल समाधान तो नहीं तलाश पा रही, लेकिन 'डर' जरुर पैदा कर रही है। खासकर तब अधिक, जब बांधों के निर्माण के दौरान मजबूरी में विस्थापित हुए लोगों की तरह अब हर तरफ विस्थापन की आवाजें उठने लगी हैं। जोकि जीवन की सुरक्षा के लिहाज से कतई गलत भी नहीं, मगर चिंताएं इससे आगे की भी तो हैं, उनका समाधान कौन निकालेगा।
इसलिए क्यों न कोई ऐसा रास्ता बने, विकास के साथ पहाड़ों में जीवन को सुरक्षा की भी गारंटी दे, बाहर से आने वाले सैलानियों को नहीं तो कम से कम हम पहाडि़यों को।
आलेख- धनेश कोठारी
30 June, 2013
बाबा केदार के दरबार में
जगमोहन 'आज़ाद'//
खुद के दुखों का पिटारा ले
खुशीयां समेटने गए थे वो सब
जो अब नहीं है...साथ हमारे,बाबा केदार के दरबार में
हाथ उठे थे...सर झुके थे
दुआ मांगने के लिए...बहुत कुछ पाने के लिए
अपनो के लिए-मगर पता नहीं...बाबा ने क्यों बंद कर ली-आंखे
हो गए मौन-मां मंदाकिनी भी गयी रूठ ...और...फिर..
सूनी हो गयी कई मांओं की गोद
बिछुड़ गया बूढे मां-पिता का सहारा
उझड़ गयी मांग सुहानगों की
छिन गया निवाला कई के मुंह से
ढोल-दमाऊ-डोंर-थाली
लोक गीत की गुनगुनाहट
हो गयी मौन....हमेशा-हमेशा के लिए,कुछ नम् आँखे
जो बची रह गयी....खंड-खंड हो चुके
गांव में...वो खोज रही है...उन्हें
जो कल तक खेलते-कुदते थे
गोद में,खेत-खलिहान में इनके,असंख्य लाशों के ऊपर...चिखते-बिलखते हुए
बाबा केदार के दरबार में...।
किसको समेट
किस-किस को गले लगा कर
समेटे आंसू...इनके अंजूरी में अपने
किसी मां की गोद में लेटाएं
उनकी नहीं गुहार
किस पिता को सौंपे...उसका उजास कल
किन बूढी नम् आखों को दे
सहारा दूर तक चलते रहने का
कितने गांव बसाएं...कितने घरों को जोड़े
तिनका-तिनका जोड़
जो जमीजोद हो गए...बाबा केदार के दरबार में...।
मुश्किल बहुत मुश्किल है
इन आसूओं को समेटना
अंजूरी में अपनी
मुश्किल तो यह भी बहुत है
कि कैसे उन बूढ़ी नम् आंखों के सामने
लेटा दें उस इकलौती लाश को
जो इनसे कल ही तो आशीर्वाद ले
गयी थी...दो जून की रोटी कमाने
बाबा केदार के दरबार में...।
कैसे बताएं
उन आश भरी टकटकी लगायी उन निगाहों को
कि...जिनकी रहा वो देख रही है
वो अब कभी नहीं आयेगें लौटकर
बहों में उनकी...उन्हें नहीं बचा पाये
मंदाकिनी के तीव्र बेग के सामने
बाबा केदारा की दरबार में...।
...मगर उनके बिछूड़ो-
उनके आंखों के तारों की लाशों पर
खड़े होकर...कुछ सफेद पोश धारी
चीख रहे है...चिल्ला रहे है...सांत्वना दे रहे है...बूढी नम् आंखों,उजड़ी मांगों को
कि हमने...अपनी पूरी ताकता झोंक कर
हवाई दौरो के दमखम पर
मुआवजे के मरहम पर
तुम्हारे असंख्या रिश्तों को-असंख्य आंसूओं को बचा लिया है
ज़मी पर गिरने से...जिनमें-कुछ गुजराती है...कुछ हिन्दु कुछ मुस्लमान
कुछ सीख-ईसाई के भी...हमने समेट लिया इन सबके दुःखों को
खुद में....हमेशा के लिए
बाबा केदार के दरबार में...।
जगमोहन 'आज़ाद'
खुद के दुखों का पिटारा ले
खुशीयां समेटने गए थे वो सब
जो अब नहीं है...साथ हमारे,बाबा केदार के दरबार में
हाथ उठे थे...सर झुके थे
दुआ मांगने के लिए...बहुत कुछ पाने के लिए
अपनो के लिए-मगर पता नहीं...बाबा ने क्यों बंद कर ली-आंखे
हो गए मौन-मां मंदाकिनी भी गयी रूठ ...और...फिर..
सूनी हो गयी कई मांओं की गोद
बिछुड़ गया बूढे मां-पिता का सहारा
उझड़ गयी मांग सुहानगों की
छिन गया निवाला कई के मुंह से
ढोल-दमाऊ-डोंर-थाली
लोक गीत की गुनगुनाहट
हो गयी मौन....हमेशा-हमेशा के लिए,कुछ नम् आँखे
जो बची रह गयी....खंड-खंड हो चुके
गांव में...वो खोज रही है...उन्हें
जो कल तक खेलते-कुदते थे
गोद में,खेत-खलिहान में इनके,असंख्य लाशों के ऊपर...चिखते-बिलखते हुए
बाबा केदार के दरबार में...।
किसको समेट
किस-किस को गले लगा कर
समेटे आंसू...इनके अंजूरी में अपने
किसी मां की गोद में लेटाएं
उनकी नहीं गुहार
किस पिता को सौंपे...उसका उजास कल
किन बूढी नम् आखों को दे
सहारा दूर तक चलते रहने का
कितने गांव बसाएं...कितने घरों को जोड़े
तिनका-तिनका जोड़
जो जमीजोद हो गए...बाबा केदार के दरबार में...।
मुश्किल बहुत मुश्किल है
इन आसूओं को समेटना
अंजूरी में अपनी
मुश्किल तो यह भी बहुत है
कि कैसे उन बूढ़ी नम् आंखों के सामने
लेटा दें उस इकलौती लाश को
जो इनसे कल ही तो आशीर्वाद ले
गयी थी...दो जून की रोटी कमाने
बाबा केदार के दरबार में...।
कैसे बताएं
उन आश भरी टकटकी लगायी उन निगाहों को
कि...जिनकी रहा वो देख रही है
वो अब कभी नहीं आयेगें लौटकर
बहों में उनकी...उन्हें नहीं बचा पाये
मंदाकिनी के तीव्र बेग के सामने
बाबा केदारा की दरबार में...।
...मगर उनके बिछूड़ो-
उनके आंखों के तारों की लाशों पर
खड़े होकर...कुछ सफेद पोश धारी
चीख रहे है...चिल्ला रहे है...सांत्वना दे रहे है...बूढी नम् आंखों,उजड़ी मांगों को
कि हमने...अपनी पूरी ताकता झोंक कर
हवाई दौरो के दमखम पर
मुआवजे के मरहम पर
तुम्हारे असंख्या रिश्तों को-असंख्य आंसूओं को बचा लिया है
ज़मी पर गिरने से...जिनमें-कुछ गुजराती है...कुछ हिन्दु कुछ मुस्लमान
कुछ सीख-ईसाई के भी...हमने समेट लिया इन सबके दुःखों को
खुद में....हमेशा के लिए
बाबा केदार के दरबार में...।
जगमोहन 'आज़ाद'
क्या फर्क पड़ता है
ये इतनी लाशें
किस की हैं
क्यों बिखरी पड़ी हैं
ये बच्चा किसका है
मां को क्यों खोज रहा है....मां मां चिलाते हुए
दूर उस अंधेरे खंडहर में
वो सफेद बाल...बूढी नम आंखें
क्यों लिपटी हैं
एक मृत शरीर से
क्यों आखिर क्यों बिलख रही है
नयी नवेली दुल्हन
उस मृत पड़े शरीर से लिपट,लिपट कर
क्यों ज़मींदोज़ हो गए
गांव के गांव
कल तक जिन खेत-खलिहानों में
खनकती थी
चूड़ियां बेटी बहुओं के हाथों में
गुनगुनाते थे...लोक गीत
फ्योली-बुरांश के फूल भी
वो क्यों सिसक रहे हैं...वहां
जहां कल तक वो खिलखिलाते थे....ढोल-दमाऊ-डोंर-थाली
आखिर क्यों मौन...हो गए
क्यों कर ली बंद आंखें
देवभूमि के देवताओं ने
बाबा केदार के दरबार में....
इस मौन से,इस टूटने-बिखरने से
उनको
क्या फर्क पड़ता है
जो सुर्ख सफेद वस्त्र पहन
गुजर रहे हैं
इन लाशों और खंडहर हो चुकी ज़मीं के ऊपर से
जो खुद को सबसे बड़ा हितैषी बता रहे हैं
खंड-खंड हो चुके,घर-गांव का....देश की बात करने वाले ये चेहरे
इन लाशों पर खड़े होकर
सीना चौड़ाकर...करते है बयान-बाजी
कि
हमने अपने कुछ आंसूओं को समेट लिया है
अंजुरी में अपनी...बाकि बिखर गए तो हम क्या करें...
इनके
घर की दीवारें तो अब और अधिक
चमचमाएंगी
इनके घर में रखे पुराने टीवी
एलईडी टीवी की शक्ल में हो जाएंगे तब्दील
इनके बच्चे....विदेशों के बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में शिक्षार्थ जाएंगे
इनकी पुरानी खटारा गाड़ी
नयी-नयी गाड़ियों के काफिले में हो जायेगी तब्दील
....और....
मॉडर्न सोफों पर लेट
ए-सी रूमों में बैठकर
देखेंगे...ये सब उन लाशों को...आंसुओं को...उजड़ चुकी मांगों को,सूनी मांओं की गोद को
टूटे-बिखरे घरों को-जिन्हें...अभी-अभी एक आपदा ने लिया है-आगोश में अपनी...जिनके साथ होने का कर रहे हैं
दावा ये ... चमचमाते कैमरों के सामने खडे हो
बाबा केदार के दरबार में...।
इन्हें
क्या फर्क पड़ता है
असंख्य रिश्तों के टूट जाने,बिखर जाने से
असंख्य लाशों के सड़ जाने,गल जाने से
इनके लिए तो ये लाशें,इन लाशों पर
चीखते-बिलखते लोगों
खुशियां लेकर आयी है,वरदान बनकर आयी है
इन्हीं लाशों पर चलकर तो
ये अब खुद के लिए नयी ज़मीन तैयार करेंगे
खुद के भविष्य को उज्जवल बनाएंगे
....और...
एक दिन हम भी सब कुछ भूल कर
इनके उज्जवल भविष्य में शामिल हो जाएंगे...क्या फर्क पड़ता है।
जगमोहन आज़ाद
किस की हैं
क्यों बिखरी पड़ी हैं
ये बच्चा किसका है
मां को क्यों खोज रहा है....मां मां चिलाते हुए
दूर उस अंधेरे खंडहर में
वो सफेद बाल...बूढी नम आंखें
क्यों लिपटी हैं
एक मृत शरीर से
क्यों आखिर क्यों बिलख रही है
नयी नवेली दुल्हन
उस मृत पड़े शरीर से लिपट,लिपट कर
क्यों ज़मींदोज़ हो गए
गांव के गांव
कल तक जिन खेत-खलिहानों में
खनकती थी
चूड़ियां बेटी बहुओं के हाथों में
गुनगुनाते थे...लोक गीत
फ्योली-बुरांश के फूल भी
वो क्यों सिसक रहे हैं...वहां
जहां कल तक वो खिलखिलाते थे....ढोल-दमाऊ-डोंर-थाली
आखिर क्यों मौन...हो गए
क्यों कर ली बंद आंखें
देवभूमि के देवताओं ने
बाबा केदार के दरबार में....
इस मौन से,इस टूटने-बिखरने से
उनको
क्या फर्क पड़ता है
जो सुर्ख सफेद वस्त्र पहन
गुजर रहे हैं
इन लाशों और खंडहर हो चुकी ज़मीं के ऊपर से
जो खुद को सबसे बड़ा हितैषी बता रहे हैं
खंड-खंड हो चुके,घर-गांव का....देश की बात करने वाले ये चेहरे
इन लाशों पर खड़े होकर
सीना चौड़ाकर...करते है बयान-बाजी
कि
हमने अपने कुछ आंसूओं को समेट लिया है
अंजुरी में अपनी...बाकि बिखर गए तो हम क्या करें...
इनके
घर की दीवारें तो अब और अधिक
चमचमाएंगी
इनके घर में रखे पुराने टीवी
एलईडी टीवी की शक्ल में हो जाएंगे तब्दील
इनके बच्चे....विदेशों के बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में शिक्षार्थ जाएंगे
इनकी पुरानी खटारा गाड़ी
नयी-नयी गाड़ियों के काफिले में हो जायेगी तब्दील
....और....
मॉडर्न सोफों पर लेट
ए-सी रूमों में बैठकर
देखेंगे...ये सब उन लाशों को...आंसुओं को...उजड़ चुकी मांगों को,सूनी मांओं की गोद को
टूटे-बिखरे घरों को-जिन्हें...अभी-अभी एक आपदा ने लिया है-आगोश में अपनी...जिनके साथ होने का कर रहे हैं
दावा ये ... चमचमाते कैमरों के सामने खडे हो
बाबा केदार के दरबार में...।
इन्हें
क्या फर्क पड़ता है
असंख्य रिश्तों के टूट जाने,बिखर जाने से
असंख्य लाशों के सड़ जाने,गल जाने से
इनके लिए तो ये लाशें,इन लाशों पर
चीखते-बिलखते लोगों
खुशियां लेकर आयी है,वरदान बनकर आयी है
इन्हीं लाशों पर चलकर तो
ये अब खुद के लिए नयी ज़मीन तैयार करेंगे
खुद के भविष्य को उज्जवल बनाएंगे
....और...
एक दिन हम भी सब कुछ भूल कर
इनके उज्जवल भविष्य में शामिल हो जाएंगे...क्या फर्क पड़ता है।
जगमोहन आज़ाद