कौन संभालेगा पहाड़ों को...


पहाड़ों पर कौन बांधेगा 'पलायन' और 'विस्‍थापन' को...

अब तक या कहें आगे भी पलायन पहाड़ की बड़ी चिंता में शामिल रहा, और रहेगा। मगर अब एक और चिंता 'विस्‍थापन' के रुप में सामने आ रही है। पहाड़ के जर्रा-जर्रा दरकने लगा है। गांवों की जिंदगी असुरक्षित हो गई है। सदियों से पहाड़ में भेळ्-पखाण, उंदार-उकाळ, घाम-पाणि, बसगाळ-ह्यूंद, सेरा-उखड़ से सामंजस्‍य बिठाकर चलने वाला पहाड़ी भी थर्र-थर्र कांप रहा है। नित नई त्रासदियों ने उसे इतना भयभीत कर दिया है कि अब तक रोजी-रोटी के बहाने से पलायन करने की उसकी मजबूरी के शब्‍दकोश में 'विस्‍थापन' नामक शब्‍द भी जुड़ गया है।

मजेदार बात कि कथित विकास की सड़कें भी उसके काम नहीं आ रही हैं, बल्कि भूस्‍खलन के रुप में मौत की खाई पैदा कर रही हैं। अब तक उसने कुछ अपने ही रुजगार के लिए बाहर भेजे थे। लेकिन अब वह खुद भी यहां से विस्‍थापित हो जाना चाहता है। निश्चित ही उसकी चिंताओं को नकारना मुश्किल है। क्‍योंकि जीवन को सुखद तरीके से जीने का उसका मौलिक हक है। जिसे अब तक किसी न किसी बहाने से छीना जाता रहा है। अब जब पहाड़ ही ढहने लगे हैं, और उसकी जान लेने पर आमादा हैं, तो हम भी कैसे कह सकते हैं कि नहीं 'तुम पहाड़ी हो, हिम्‍मत वाले हो, साहस और वीरता तुम्‍हारी रगों में समाई है' मौत से मुकाबला करने के लिए यहीं रहो, मारबांदी रहो।

ऐसे में यदि विकास की सड़कें उसे दूर परदेस ले जाना चाहती हैं, तो ले जाने दो। किंतु, प्रश्‍न यह भी कि यदि पहले 'पलायन' और अब उसकी चाह के अनुरुप 'विस्‍थापन' से आखिर पहाड़ तो खाली हो जाएंगे। एक सभ्‍यता, संस्कृति, परंपरा, पहचान, जीजिविषा पलती, फलती, बढ़ती थी, उसे कौन पोषित करेगा। क्‍योंकि भूगोल में बदलाव कहीं न कहीं हमारे बीच एक अलग तरह का दूराव पैदा कर देता है।

.... और इससे भी बड़ी चिंता कि यदि पहाड़ खाली हो गए तो देश की इस सरहद पर दूसरी रक्षापंक्ति को कौन संभालेगा। सेना तो मोर्चे पर ही दुश्‍मनों को पछाड़ सकती है। कोई उसके हौसले के लिए भी तो चाहिए। क्‍या पलायन और विस्‍थापन के बाद हम देशभक्ति की अपनी 'प्रसिद्धि' को कायम रख सकेंगे।

मेरी चिंता पहाड़ को लगे ऐसे अभिशाप से ही जुड़ी है, जो फिलहाल समाधान तो नहीं तलाश पा रही, लेकिन 'डर' जरुर पैदा कर रही है। खासकर तब अधिक, जब बांधों के निर्माण के दौरान मजबूरी में विस्‍थापित हुए लोगों की तरह अब हर तरफ विस्‍थापन की आवाजें उठने लगी हैं। जोकि जीवन की सुरक्षा के लिहाज से कतई गलत भी नहीं, मगर चिंताएं इससे आगे की भी तो हैं, उनका समाधान कौन निकालेगा।

इसलिए क्‍यों न कोई ऐसा रास्‍ता बने, विकास के साथ पहाड़ों में जीवन को सुरक्षा की भी गारंटी दे, बाहर से आने वाले सैलानियों को नहीं तो कम से कम हम पहाडि़यों को।

आलेख- धनेश कोठारी

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