April 2014 ~ BOL PAHADI

30 April, 2014

लंपट युग में आप और हम

    बड़ा मुश्किल होता है खुद को समझाना, साझा होना और साथ चलना। इसीलिए कि 'युग' जो कि हमारे 'चेहरे' के कल आज और कल को परिभाषित करता है। अब आहिस्‍ता-आहिस्‍ता उसके लंपट हो जाने से डर लगता है। मंजिलें तय भी होती हैं, मगर नहीं सुझता कि प्रतिफल क्‍या होगा। जिसे देखो वही आगे निकलने की होड़ में लंपट होने को उतावला हो रहा है। हम मानें या नहीं, मगर बहुत से लोग मानते हैं, बल्कि दावा भी करते हैं, कि खुद इस रास्‍ते पर नहीं गए तो तय मानों बिसरा दिए जाओगे। दो टूक कहते भी हैं कि अब भोलापन कहीं काम नहीं आता, न विचार और न ही सरोकार अब 'वजूद' रखते हैं। काम आता है, तो बस लंपट हो जाना। इसीलिए सामने वाला लंपटीकरण से ही प्रभावित है।

लंपटीकरण आज के दौर में बाजार की जरुरत भी लगती है। सब कुछ बाजार से ही संयोजित है। सो बगैर बाजारु अभिरचना में समाहित हुए बिना कौन पहचानेगा, कैसे तन के खड़े होने लायक रह पाओगे। यह न समझें कि यह अकेली चिंता है। कह न पाएं, लेकिन है बहुतों की। हाल में एक जुमला अक्‍सर सुनने को मिलता है, अपनी बनाने के लिए धूर्तता के लिए धूर्त दिखना जरुरी नहीं, बल्कि सीधा दिखकर धूर्त होना जरुरी है। सीधे सपाट चेहरे हंसी लपेट हुए मासूम नजर आते हैं। लेकिन पारखी उनकी हंसी के पेंच-ओ-खम को ताड़ लेते हैं। 

अबके यही मासूम (धूर्त) लंपटीकरण की राह पर नीले रंग में नहाए हुए लग रहे हैं, और हमारा, आपका मन, दिल उन्‍हें 'तमगा' देने को उतावला हुए जा रहा है। बर्तज भेड़ हम उस लंपटीकरण की आभा के मुरीद हो रहे हैं।

अब यह न मान लें, कि लंपट हो जाना किसी एक को ही सुहा रहा है। यहां भी हमाम में सब नंगे हैं, कि कहावत चरितार्थ हो रही है। मानों साबित करने की प्रतिस्‍पर्धा हो। नहीं जीते (यानि लंपट नहीं हुए) तो पिछड़ जाएंगे। मेरा भी मन कई बार लंपट हो जाने को बेचैन हुआ। तभी कोई फुस्‍स फुसाया कि तुम में अभी यह क्‍वालिटी डेवलप नहीं हुई है। आश्‍चर्यचकित.. अच्‍छा तो लंपट होने के लिए किसी बैचलर डिग्री की जरुरत है। 

बताया कि इसकी पहली शर्त है, लकीर पीटना बंद करो। सिद्धांतों का जमाल घोटा पीना पिलाना छोड़ दो। गांधी की तरह गाल आगे बढ़ाने का चलन भी ओल्‍ड फैशन हो चला है। दिन को रात, रात को दिन बनाने अर्थात जतलाने और मनवाने का हुनर सीखो। जो तुम्‍हें सीधा सच्‍च कहे, खिंचके तमाच मार डालो। समझ जाएगा, मुंडा बिगड़ गया। बस.. दिल खुश्‍ा होकर बोल उठा, व्‍हाट ऐन आ‍इडिया सर जी। 

@Dhanesh Kothari

25 April, 2014

वह आ रहा है अभी..


कुछ लोग कह रहे हैं
तुम मत आओ
वह आ रहा है अभी

उसके आने से पहले
तुम आओगे, तो
कुछ नहीं बदलेगा यहां-वहां
न तुम में, न मुझमें, न किसी में

तुम्हें आने से पहले
देनी होगी परीक्षा  
छोड़ना होगा उसका विरोध
मानना और कहना होगा
जो वह कहे, मनवाए

तुम अभी मत आओ
पहले नंबर उसका है
टेस्ट पास करने का
उसके लिए कुछ मौखिक सवाल-
तैयार किए हैं हमने

जब तुम्हारा टेस्ट लिया जाएगा
तुम्हें नहीं मिलेंगे वैकल्पिक प्रश्न
अनसोल्ड पेपर की सुविधा-
अभ्यास के लिए

वह आना चाहता है प्रथम
हमने उसके लिए
कर दिए हैं सारे इंतजाम
माइनेस मार्किंग भी खत्‍म

इसलिए तुम मत आओ अभी
फेल हो जाओगे, परीक्षा में
उसे लांघने के कारण
तुम्हारा शुभेच्छु
सिर्फ तुम्हारा.. ।

@ #धनेश कोठारी

17 April, 2014

भ्रष्‍टाचार, आदत और चलन

समूचा देश भ्रष्‍टाचार को लेकर आतंकित है, चाहता है कि भ्रष्‍टाचार खत्‍म हो जाए। मगर, सवाल यह कि भ्रष्‍टाचार आखिर खत्‍म कैसे होगा। क्‍या एक आदमी को चुन लेने से देश भ्रष्‍टाचार मुक्‍त हो जाएगा। हंसी आती है ऐसी सोच पर .....  

16वीं लोकसभा का चुनाव देखिए। इसमें प्रचार में हजारों करोड़ खपाए जा रहे हैं। निर्वाचन आयोग ने भी 70 लाख तक की छूट दे दी। क्‍या ये सब मेहनत की कमाई का पैसा है। क्‍या यह भ्रष्‍टाचार को प्रश्रय देने की पहली सीढ़ी नहीं। आखिर जो चंदे के नाम पर करोड़ों अरबों दे रहा है, क्‍या कल वह धंधे के आड़े आने वाली चीजों को मैनेज करने के लिए दबाव नहीं बनाएगा। क्‍या आपके वह अलां फलां नेताजी बताएंगे कि उन्‍हें मिलने वाला धन किन स्रोतों से आया है। 

क्‍या आप उनसे यह सवाल पूछ सकेंगे, जब वह वोट मांगने आएं। क्‍या आप जानने के बाद उनसे सवाल करेंगे कि फलां घोटाले में उनका क्‍या हाथ था। दूसरा सवाल कि क्‍या आप अपने वाजिब हक के बाद भी रिश्‍वत देना या लेना छोड़ दोगे। क्‍या आप अपने हर काम को कानूनी तौर पर करने का मादा रखते हैं। क्‍या 30 से 40 प्रतिशत पर छूटने वाले ठेकों में एक रुपया भी कमीशन कोई नहीं लेगा। ऐसे ही सवाल कई हैं। जिनके जवाब आप भी जानते हैं। तो फिर भ्रष्‍टाचार कैसे खत्‍म हो सकता है। जब आप कुछ भी त्‍याग नहीं करना चाहते। महज एक वोट भ्रष्‍टाचार को खत्‍म नहीं कर सकता है, तय मानिए। 

इसके बाद भी मुझे लगता है कि आंखें आभा और चकाचौंध में बंद ही रहेंगी। फिर भला भोले आदमियों क्‍यों मान बैठे कि देश भ्रष्‍टाचार से मुक्‍त हो जाएगा। क्‍यों इन झूठी दलीलों को सच मान जाते हो, क्‍यों अपने वोट को जाया करते हो। तय मानिए कि यह जरुरी नहीं कि विचार पैसे वाले के पास ही होता है, एक गरीब भी विचार संपन्‍न होकर भविष्‍य को निर्धारित करने की क्षमता रखता है। 

भले ही उसके पास चुनाव में आपको आ‍कर्षित करने के लिए प्रचार करने के पर्याप्‍त संसाधन नहीं। बवंडर आपको उड़ा तो ले जा सकते हैं, स्‍थायित्‍व नहीं दे सकते। सो जागो... जागो मतदाता जागो, वोट करो, जमकर चोट करो.. आग्रहों और पुर्वाग्रहों से बाहर निकल कर .......

15 April, 2014

हां.. तुम जीत जाओगे

हां.. 
निश्चित ही
तुम जीत जाओगे
क्योंकि तुम जानते हो
जीतने का फन
साम, दाम, दंड, भेद

तुम्हें
सिर्फ जीत चाहिए
एक अदद कुर्सी के लिए
जिसके जरिए
साधे जाएंगे फिर वही
साम, दाम, दंड, भेद

जो
महत्वाकांक्षा रही है तुम्हांरी
घुटनों के बल उठने के दिन से
अब
दौड़ने लगे हो तुम, पूरे
साम, दाम, दंड, भेद के साथ

मगर, आखिरी सवाल कि
क्यान यह
साम, दाम, दंड, भेद
केवल तुम्हारा अपने लिए होगा
या कि
उनके लिए भी, जो
तुम्हारी जीत में सहभागी बनेंगे
बरगलाए जाने के बाद...

कापीराइट- धनेश कोठारी

12 April, 2014

बदलाव, अवसरवाद और भेडचाल

अवसरवाद नींव से लेकर शिखर तक दिख रहा है। वैचारिक अस्थिरता के कारण, नेता ही नहीं, पूर्व अफसर और अब तो आम आदमी भी विचलन का शिकार है। यह उक्ति कि 'जहां मिली तवा परात वहीं बिताई सारी रात' सटीक बैठ रही है।
कल तक जिनसे नाक भौं सिकाड़ी जाती थी, उन्‍हीं की गलबहियां डाली जा रही हैं। छोड़ने से लेकर शामिल होने तक के उपक्रम चालू हैं। क्‍या इसे बदलाव की बयार का परिणाम कहेंगे, क्‍या वास्‍तव में ऐसे सभी सुजन अपने आसपास बिगड़ते माहौल को सुधारने के हामी हैं। क्‍या यही आखिरी मौका है, क्‍या उनके सामने विकल्‍प सीमित और आखिरी हैं... ऐसे ही कई सवाल... जिनके सीधे उत्‍तर तो शायद मिले, मगर, भेड़ों के झुंड जरुर दौड़ते दिख रहे हैं। पहले भी दौड़ते थे, और लग रहा है कि शाश्‍वत दौड़ते रहेंगे। शिक्षा और उच्‍च शिक्षा का भी उसपर शायद ही प्रभाव पड़े।

लिहाजा, इस दौड़भाग के निहितार्थ भी समझे जाने चाहिए। यह आपाधापी स्‍वहित से आगे जाती नहीं दिखती। व्‍यक्तिवाद यहां भी हावी है, सूरज का ख्‍याल यहां भी बराबर रखा जा रहा है।
ऐसे में यह दावा कि समाज, राज्‍य और देश बदलेगा, मिथ्‍या लगता है। लक्षित बदलाव वास्‍तविक बदलाव की आगवानी कतई सूचक नहीं माना जा सकता है।
सो जागते रहो, जागते रहो.........

10 April, 2014

गिरगिट, अपराधबोध और कानकट्टा

आज सुबह से ही बड़ा दु:खी रहा। कहीं जाहिर नहीं किया, लेकिन वह बात बार-बार मुझे उलझाती रही, कि क्‍या मुझसे गुनाह, पाप हुआ है। साथ ही मन को खुद ढांढ़स भी बंधा रहा था कि नहीं, पाप नहीं हुआ। अंजाने में कोई बात हो जाए तो व्‍यवहारिक तौर पर उसे गुनाह नहीं माना जाता है। कानूनी तौर पर जरुर इसे गैर इरादतन अपराध की श्रेणी में रखा जाता है। सो पसोपेस अब भी बाकी है।
हुआ यह कि सुबह जब ड्यूटी जा रहा था, तो अपने घर के बाहर अचानक और अंजाने ही एक गिरगिट पैरों के तले रौंदा गया। उस पर पैर पड़ते ही क्रीच..क की आवाज से चौंक कर उछला, पीछे मुड़कर देखा तो गिरगिट परलोक सिधार चुका था। पहले क्रीच.. की आवाज पर मैंने समझा की कोई सूखी लकड़ी का दुकड़ा पैर के नीचे आया है। खैर ड्यूटी की देर हो रही थी, और गिरगिट मर चुका था। इसलिए आगे निकल पड़ा। लेकिन एक अंजाना अपराधबोध जो मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा था।
अब तक जब लिख रहा हूं, तब भी मुझे डरा रहा है कि अंजाने ही सही गुनाह तो हुआ है। देखकर चलना चाहिए था। वह भी जमीन को देखकर, आसमान को नहीं। रह-रह कर पुराने लोगों के बोल भी याद आ रहे थे। जिनमें कहा जाता था कि यदि कभी कोई छिपकली अपने हाथों मर जाए तो कानकट्टा होता है, यानि, कान का निचला हिस्‍सा अपने आप सड़ने लगता है। सच क्‍या है, नहीं मालूम। लेकिन यह बात छिपकली के संदर्भ में कही जाती रही हैं। गिरगिट के बारे क्‍या चलन है, यह जानना बाकी है।
तो, तीसरी तरफ मन सोच रहा था, कि मरने वाला तो जीव प्रजाति का ही गिरगिट था। अब जब अपने इर्दगिर्द जमानों से गिरगिटों को देखता, उनके बारे सुनता आया हूं। और वह कभी किसी के पैरों तले नहीं रौंदे गए, बल्कि वही औरों को पैरों तले रौंदते रहे, तो इसे किसी तरह के अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। क्‍या इससे भी कानकट्टा होता है।
सो, पता हो तो दोनों ही श्रेणियों के लिए जो अंजाम आप जानते हों, अवगत कराएं। क्‍योंकि मैं अभी भी कानकट्टे के डर में ही जी रहा हूं.. ।

धनेश कोठारी

07 April, 2014

लो अब मान्‍यता भी खत्‍म

लो अब उक्रांद की राज्‍य स्‍तरीय राजनीतिक दल की मान्‍यता भी खत्‍म हो गई है।
तो मान्‍यता खत्‍म होने के समय को लेकर क्‍या आपके जेहन में कुछ समझ आ रहा है। पहली बात कि बिल्लियों की लड़ाई को एक कारण माना जा सकता है।
दूसरी अहम बात आप याद करें, जब दिवाकर जी मंत्री थे और चुनाव चिह्न को लेकर झगड़ा चल रहा था तो राज्‍य निर्वाचन आयोग ने उसे जब्‍त कर दिया था। और वह भी ऐन विधानसभा चुनाव से पहले। आया समझ में...... नहीं न ... 


अब लोकसभा चुनाव है तो निर्वाचन आयोग को याद आया कि उक्रांद को विस चुनाव में मान्‍यता के लायक मत नहीं मिले, उसका मत प्रतिशत कम था।
सवाल कि विस चुनाव हुए दो साल हो चुके हैं, इससे पहले आयोग ने क्‍यों संज्ञान नहीं लिया... ऐन चुनाव के वक्‍त इस घोषणा का आशय क्‍या है.... कहीं यह राजनीति प्रेरित घोषणा तो नहीं... क्‍या उक्‍त दोनों निर्णयों को सत्‍तासीन दलों के प्रभाव में लिया गया फैसला तो नहीं हैं।
लिहाजा, यदि उक्रांद का भ्रम और सत्‍ता के केंद्र के आसपास रहने की लोलुपता खत्‍म नहीं हुई हो तो स्‍पष्‍ट है कि उसका एजेंडा भी राज्‍य का हितैषी नहीं .....

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