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Showing posts from July, 2019

इ ब्यठुला - इ जनना (गढ़वाली)

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गीत (अनुवादित) / पयाश पोखड़ा // ************************* इ ब्यठुला इ जनना कै भि चीजि की खत-पत खत्ता फोळ नि करदा न बेकार करदा न बरबाद करदा बिटोळणा रंदि समळणा रंदि ढकणा रंदि बंधणा रंदि ह्वै साक जख तक आस विसवास तक कभि तुलपाणा रंदि कभि टंक्यांणा रंदि कभि घम्याणा रंदि कभि हवा बतास कभि छट्यांणा रंदि कभि बिराणा रंदि कभि त्वड़णा रंदि कभि ज्वड़णा रंदि कतगै दां अपणै घारम खालि डब्बा जमा करणा रंदि कभि कागज पत्तर कभि धोति कत्तर उलटणा पुलटणा अर गुलटणा रंदि सुबेरा की कल्यौ रोटि रुमक दां म्वड़खी बणै चपाणा रंदि खाणा रंदि अर बासी भुज्जि ठंडा तवा म गरम करणा रंदि गरम चुला दगड़ खांदा म्याळों थैं लिपणा रंदि अर लिपणा रंदि सबुथैं खवै पिवैकि तब फिर अपणि थकुलि सजैकि द्यखणा रंदि चिर्यां लारा-लत्ता टुट्यूं बटन झिल्लु बटनकाज दुबणाणा रंदि टंगणा रंदि सिलणा रंदि सूखू अचार सीला पापड़ मट्यरु लगीं दाळ सड़्यूं आरु आम कबस्यूं साग या फिर दुख दिंदरा रिस्ता बटोळणि रंदि समळणि रंदि ढकणि रंदि बंधणि र

गढ़वाली भाषा के हित के लिए व्यापक दृष्टि सर्वोपरी

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नरेन्द्र कठैत // अक्सर सुनने में आता है कि हम हिंदी भाषा के आचार व्यवहार में तालव्य ‘श’ का उच्चारण सही नहीं कर पाते। तालव्य ‘श’ के स्थान पर दन्त ‘स’ उच्चारित करते हैं। देश को देस, प्रदेश को प्रदेस, आकाशवाणी को आकासवाणी इत्यादि हमारे श्रीमुख से आम बोलचाल में निकल ही जाते हैं। इसके पीछे एकमात्र कारण यही है कि गढ़वाली लोक व्यवहार में तालव्य ‘श’ नहीं है। क्योंकि गढ़वाली भाषा अभी तक ठेट गांव या यूं कहें देहात की ही भाषा रही है अतः हमारी हिंदी पर भी उसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। इसमें अतिरंजन या मनोरंजन का कोई भाव निहित नहीं है। खबीश को हम खबेस ही कह पाते हैं। क्या करें! ठेट देहाती जो ठहरे। ठेट लोक व्यवहार के साथ भाषा के इस तारतम्य का वर्णन करते हुए आचार्य विनोवा जी एक स्थान पर  लिखते हैं - ‘देहाती लोग जो उच्चारण करते हैं, उसे हम अशुद्ध कहते हैं। लेकिन पाणिनी तो कहते हैं कि साधारण जनता जो बोली बोलती है, वही व्याकरण है। तुलसीदास जी ने रामायण आम लोगों के लिए लिखी है। वह मानते थे कि देहाती लोग ‘स’ ‘ष’ और ’श’ के उच्चारण में फर्क नहीं करते। आम लोगों की जबान में लिखने के लिए उन्होंने रामायण म

तय करो किस ओर हो तुम

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बल्ली सिंह चीमा // तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो । आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो ।। ख़ुद को पसीने में भिगोना ही नहीं है ज़िन्दगी, रेंग कर मर-मर कर जीना ही नहीं है ज़िन्दगी, कुछ करो कि ज़िन्दगी की डोर न कमज़ोर हो । तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।। खोलो आँखें फँस न जाना तुम सुनहरे जाल में, भेड़िए भी घूमते हैं आदमी की खाल में, ज़िन्दगी का गीत हो या मौत का कोई शोर हो । तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।। सूट और लंगोटियों के बीच युद्ध होगा ज़रूर, झोपड़ों और कोठियों के बीच युद्ध होगा ज़रूर, इससे पहले युद्ध शुरू हो, तय करो किस ओर हो । तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।। तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो । आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो ।।

तमsलि़ उंद गंगा: सांस्कृतिक विरासत का दस्तावेज़

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आशीष सुंदरियाल // आज के समय में जब हमें ‘अबेर’ नहीं होती बल्कि हम ‘late’ हो रहे होते हैं, हम ‘जग्वाल़’ नहीं करते ‘wait’ करते हैं, हमें ‘खुद’ नहीं लगती हम ‘miss’ करते हैं - ऐसे समय में एक गढ़-साहित्य एवं मातृभाषा प्रेमी अपने अथक प्रयासों से लगभग 1000 पृष्ठों का एक बृहद गढ़वाली़ भाषा शब्दकोश तैयार करता है तो एक सुखद अनुभूति होती है। साथ ही इस बात का भी विश्वास होता है कि जब तक समाज में इस तरह के भाषानुरागी हैं तब तक हमारा लोक व लोक की ‘पच्छ्याण’  (identity) -हमारी भाषा जीवित रहेगी। गढ़वाली़ भाषा के शब्दकोश के निर्माण से गढ़वाली़ भाषा प्रेमी हर्षित तो होंगे ही, साथ ही इस भाषा ग्रन्थ की व्यापकता को देखकर अचम्भित भी होंगे कि कैसे  एक ही शब्द को अलग- अलग स्थानों में अलग अलग बोलियों में अलग अलग ढंग से बोला जाता है। कैसे एक syllable stress का प्रयोग समान दिखने वाले शब्दों की meaning बदल देता है। कैसे यदि एक शब्द ‘आणे’ (मुहावरे) में प्रयोग किया जाता है तो उसके मायने बदल जाते हैं। यदि कोई यह जानना चाहता हो कि ‘अओल़’ या फिर ‘बयाल़’ का मतलब क्या है? या फिर ‘बालण पूजा’ क्या होती है-

मजबूत इच्छाशक्ति से मिला ‘महेशानन्द को मुकाम

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डॉ. अरुण कुकसाल // ‘गांव में डड्वार मांगने गई मेरी मां जब घर वापस आई तो उसकी आखें आसूओं से ड़बडबाई हुई और हाथ खाली थे। मैं समझ गया कि आज भी निपट ’मरसा का झोल’ ही सपोड़ना पड़ेगा।... गांव में शिल्पकार-सर्वण सभी गरीब थे इसलिए गरीबी नहीं सामाजिक भेदभाव मेरे मन-मस्तिष्क को परेशान करते थे।... मैं समझ चुका था कि अच्छी पढ़ाई हासिल करके ही इस सामाजिक अपमान को सम्मान में बदला जा सकता है। पर उस काल में भरपेट भोजन नसीब नहीं था तब अच्छी पढ़ाई की मैं कल्पना ही कर सकता था। पर मैंने अपना मन दृड किया और संकल्प लिया कि नियमित पढ़ाई न सही टुकड़े-टुकड़े में उच्च शिक्षा हासिल करूंगा। मुझे खुशी है कि यह मैं कर पाया। आज मैं शिक्षक के रूप में समाज के सबसे सम्मानित पेशे में हूं।... पर जीवन में भोगा गया सच कहां पीछा छोड़ता है। अतीत में मिली सामाजिक ठ्साक वर्तमान में भी उतनी ही चुभती है। तब मेरा लेखन उसमें मरहम लगाता है। पाठकों के लिए वे कहानियां हैं परन्तु मेरे लिए अतीत के छाया चित्र हैं।’ हाल ही में अजीम़ प्रेमजी, पौड़ी की लाइब्रेरी में मित्र महेशानन्द जी मेरी तरफ मुखातिब थे। मजे की बात यह रही कि सामाजिक विभेद

पहाड़ के लोकजीवन में रची बसी रोपणी

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संजय चौहान //            पहाड़ के लोकजीवन मे अषाड़ महीने का सदियों से गहरा नाता रहा है। अषाड़ का महीना पहाड़ में धान की रोपाई अर्थात रोपणी लगाने का महीना होता है। रोपणी और पहाड़ एक दूसरे के पूरक हैं। रोपणी पहाड़ के लोकजीवन मे इस तरह से रची बसी है कि आज भी रोपणी बरबस ही लोगों के मन को बेहद भाती है। अषाड महीने का आगमन मानसून आने का भी सूचक माना जाता है। क्योंकि पहाड़ की खेती पूरी तरह से मौसम पर निर्भर होती है और जब बारिश आयेगी तभी रोपणी लगती है। रोपणी प्रकृति और अपनी माटी के प्रति लोगो के प्रेम को भी दर्शाती है। जनपद चमोली के कर्णप्रयाग ब्लाक के सिंदरवाणी गांव के ग्रामीणों ने अषाड की पहली रोपणी लगाई गई। इस दौरान पूरे गांव में उत्सव का माहौल था। ऐसी लगती है रोपणी रोपणी लगाने से एक रात पहले खेत को नहरों/कूलों के द्वारा पानी से भरा जाता है, जिससे सूखी मिट्टी गीली हो जाती है और फिर रोपाई के लिए खेत तैयार हो जाता है। जिसके बाद बैलों के सहारे पूरे खेत में हल लगाकर खेत को धान की रोपाई के लिए तैयार किया जाता है। तत्पश्चात महिलाओं द्वारा खेत में धान की छोटी-छोटी पौध को रोपा जाता है, जिसे