July 2019 ~ BOL PAHADI

31 July, 2019

इ ब्यठुला - इ जनना (गढ़वाली)

bol pahadi

गीत (अनुवादित) / पयाश पोखड़ा //
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इ ब्यठुला
इ जनना
कै भि चीजि की
खत-पत खत्ता फोळ
नि करदा
न बेकार करदा
न बरबाद करदा
बिटोळणा रंदि
समळणा रंदि
ढकणा रंदि
बंधणा रंदि
ह्वै साक जख तक
आस विसवास तक
कभि तुलपाणा रंदि
कभि टंक्यांणा रंदि
कभि घम्याणा रंदि
कभि हवा बतास
कभि छट्यांणा रंदि
कभि बिराणा रंदि
कभि त्वड़णा रंदि
कभि ज्वड़णा रंदि
कतगै दां
अपणै घारम
खालि डब्बा
जमा करणा रंदि
कभि कागज पत्तर
कभि धोति कत्तर
उलटणा पुलटणा
अर गुलटणा रंदि
सुबेरा की कल्यौ रोटि
रुमक दां म्वड़खी बणै
चपाणा रंदि
खाणा रंदि अर
बासी भुज्जि
ठंडा तवा म
गरम करणा रंदि
गरम चुला दगड़
खांदा म्याळों थैं
लिपणा रंदि अर
लिपणा रंदि
सबुथैं खवै पिवैकि
तब फिर अपणि
थकुलि सजैकि
द्यखणा रंदि
चिर्यां लारा-लत्ता
टुट्यूं बटन
झिल्लु बटनकाज
दुबणाणा रंदि
टंगणा रंदि
सिलणा रंदि
सूखू अचार
सीला पापड़
मट्यरु लगीं दाळ
सड़्यूं आरु आम
कबस्यूं साग
या फिर
दुख दिंदरा रिस्ता
बटोळणि रंदि
समळणि रंदि
ढकणि रंदि
बंधणि रंदि
गाळ-गाळ आण तक
आस विसवास तक
बस यखमै तक
जै दिन वा तुम जनै
मुक फरकै द्याळि
वा घड़ि आखिरी ह्वालि
अर वा रात
ज्यूरा की ह्वालि ।

© पयाश पोखड़ा

28 July, 2019

गढ़वाली भाषा के हित के लिए व्यापक दृष्टि सर्वोपरी

bol pahadi
नरेन्द्र कठैत //

अक्सर सुनने में आता है कि हम हिंदी भाषा के आचार व्यवहार में तालव्य ‘श’ का उच्चारण सही नहीं कर पाते। तालव्य ‘श’ के स्थान पर दन्त ‘स’ उच्चारित करते हैं। देश को देस, प्रदेश को प्रदेस, आकाशवाणी को आकासवाणी इत्यादि हमारे श्रीमुख से आम बोलचाल में निकल ही जाते हैं। इसके पीछे एकमात्र कारण यही है कि गढ़वाली लोक व्यवहार में तालव्य ‘श’ नहीं है। क्योंकि गढ़वाली भाषा अभी तक ठेट गांव या यूं कहें देहात की ही भाषा रही है अतः हमारी हिंदी पर भी उसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। इसमें अतिरंजन या मनोरंजन का कोई भाव निहित नहीं है। खबीश को हम खबेस ही कह पाते हैं। क्या करें! ठेट देहाती जो ठहरे।

ठेट लोक व्यवहार के साथ भाषा के इस तारतम्य का वर्णन करते हुए आचार्य विनोवा जी एक स्थान पर  लिखते हैं - ‘देहाती लोग जो उच्चारण करते हैं, उसे हम अशुद्ध कहते हैं। लेकिन पाणिनी तो कहते हैं कि साधारण जनता जो बोली बोलती है, वही व्याकरण है। तुलसीदास जी ने रामायण आम लोगों के लिए लिखी है। वह मानते थे कि देहाती लोग ‘स’ ‘ष’ और ’श’ के उच्चारण में फर्क नहीं करते। आम लोगों की जबान में लिखने के लिए उन्होंने रामायण में सब जगह ‘स’ ही लिखा है। वह नम्र हो गये। उनको तो आम लोगों को रामायण सिखानी थी, तो फिर उच्चारण भी उन्हीं का होना चाहिए।’ आचार्य विनोवा जी के आंकलन के अनुसार तुलसीदास जी ने आमजन को समझाने के लिए सम्पूर्ण रामायण में ‘स’ का प्रयोग किया।

जहां तक गढ़वाली भाषा के लोक व्यवहार का प्रश्न है तो तालव्य ‘श’ तो गढ़वाली भाषा के लोक व्यवहार में भी नहीं है। जो शब्द लोक व्यवहार में नहीं है उसको लिखित साहित्य में प्रयोग करना उचित नहीं जान पड़ता। गढ़वाली भाषा में प्रथम पुस्तक प्रकाशित होने के बाद इन पंक्तियों के लेखक ने तालव्य ‘श’ के प्रयोग को नामोल्लेख तक ही सीमित करना शुरू किया। उसी लय पर लेखक आज भी कायम है।

अरविंद पुरोहित - बीना बेंजवाल कृत ‘गढ़वाली हिंदी शब्दकोश’ में ठीक यही युक्ति देखने को मिली है। अतः कह सकता हूं इस सन्दर्भ में अकेला नहीं है। किंतु भगवती प्रसाद नौटियाल - डा. अचलानन्द जखमोला द्वारा संपादित ‘वृहत त्रिभाषीय शब्दकोश’ में तालव्य ‘श’ को परिभाषित करते हुए लिखा गया है कि ‘इस वर्ण का प्रयोग सामान्यतः लिखित साहित्य में ही मिलता है बोलचाल में यह ‘स’ वर्ण के साथ परिर्वतनीय है। प्रश्न यही है कि अगर गढ़वाली लोक व्यवहार में तालव्य ‘श’ नहीं है तो फिर लिखित में क्यों?

गढ़वाली भाषा में हिंदी भाषा से आयातित एक अन्य अक्षर है - क्ष। यह अक्षर भी गढ़वाली भाषा और लोक व्यवहार में नहीं है। ‘क्ष’ अक्षर की उपस्थिति भी मेरे संज्ञान में आये किसी गढ़वाली शब्दकोश या किसी गढ़वाली पुस्तक में नहीं दिखी है। यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं कि इन अक्षरों से दूरी गढ़वाली भाषा की मजबूरी नहीं बल्कि उसकी एक अलग भाषाई छवि रही है।

प्रश्न विचारणीय है कि गढ़वाली भाषा की इस विसंगति का कारण क्या देवनागरी लिपि है? जिससे की गढ़वाली भाषा की तस्वीर हमें हिंदी के अनुरूप दिखती है। अथवा हिंदी भाषा की वर्णमाला के सभी स्वर और व्यंजनों को अपनाने की गढ़वाली भाषा के लिए वाध्यता है? किंतु गढ़वाली भाषा की अभी तक यही तकदीर रही है क्योंकि वह प्रबुद्धजनों द्वारा हिंदी के आइने से ही देखी जाती रही है। जबकि गढ़वाली भाषा का अपना एक पृथक ढांचा है। गढ़वाली भाषा में एक नहीं बल्कि अनेकों अक्षर, शब्द ऐसे हैं जिनका अर्थ गूढ़, व्यापक और शोधपरक है। आज भले ही गढ़वाली भाषा पर इतना मंथन करने की जरूरत महसूस न की जा रही हो किंतु यह निश्चित है कि इन तमाम बिंदुओं पर हमें भविष्य में मंथन करना ही है।

सर्वविदित है कि राज्याश्रय से लेकर अभी तक गढ़वाली भाषा ने विकास की एक लम्बी यात्रा तय की है। हाल ही में इसमें जनपद पौड़ी से ‘प्राथमिक कक्षाओं के लिए गढ़वाली पाठ्यक्रम’ के रूप में एक और नई कड़ी जुड़ी है। इसको आकार देने हेतु  समस्त माननीयों/पदाधिकारियों/बुद्धिजीवियों/भाषा विशेषज्ञों तथा पठन पाठन में रत सभी छात्रों- शिक्षकों को हार्दिक बधाई है!

त्रुटियों का रहना स्वाभाविक है। किंतु ऐसा भी नहीं है कि त्रुटियां आपकी दृष्टि में नहीं हैं। संशोधन अपेक्षित हैं। क्योंकि इसी बुनियाद पर भविष्य में गढ़वाली भाषा की कई इमारतें खड़ी होनी हैं। आज न सही तो कल इतिहास ने हमारे पदचाप गिनने ही हैं। अस्तुः गढ़वाली भाषा के हित के लिए व्यापक दृष्टि ही सबसे सर्वोपरी है।
एक बार पुनः पौड़ी जनपद की प्राथमिक पाठशालाओं के लिए पाठ्यक्रम निर्माण के श्रमसाध्य कार्य से जुड़े  समस्त माननीय/ पदाधिकारी/ बुद्धिजीवी/ भाषा विशेषज्ञ तथा पठन-पाठन में रत छात्र-शिक्षक हार्दिक बधाई स्वीकार करें।

ज्ञात हुआ कि गढ़वाली भाषा की परिधि में आने वाले जनपद रुद्रप्रयाग के जिलाधीश गढ़वाली भाषा प्रेमी श्री मंगेश घिल्डियाल भी पाठ्यक्रम तैयार करवाने में प्रयासरत हैं। उन्हें भी अग्रिम शुभकामनाएं!

27 July, 2019

तय करो किस ओर हो तुम

bol pahadi

बल्ली सिंह चीमा //

तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।
आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो ।।

ख़ुद को पसीने में भिगोना ही नहीं है ज़िन्दगी,
रेंग कर मर-मर कर जीना ही नहीं है ज़िन्दगी,
कुछ करो कि ज़िन्दगी की डोर न कमज़ोर हो ।
तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।।

खोलो आँखें फँस न जाना तुम सुनहरे जाल में,
भेड़िए भी घूमते हैं आदमी की खाल में,
ज़िन्दगी का गीत हो या मौत का कोई शोर हो ।
तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।।

सूट और लंगोटियों के बीच युद्ध होगा ज़रूर,
झोपड़ों और कोठियों के बीच युद्ध होगा ज़रूर,
इससे पहले युद्ध शुरू हो, तय करो किस ओर हो ।
तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।।

तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।
आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो ।।

08 July, 2019

तमsलि़ उंद गंगा: सांस्कृतिक विरासत का दस्तावेज़

आशीष सुंदरियाल //

आज के समय में जब हमें ‘अबेर’ नहीं होती बल्कि हम ‘late’ हो रहे होते हैं, हम ‘जग्वाल़’ नहीं करते ‘wait’ करते हैं, हमें ‘खुद’ नहीं लगती हम ‘miss’ करते हैं - ऐसे समय में एक गढ़-साहित्य एवं मातृभाषा प्रेमी अपने अथक प्रयासों से लगभग 1000 पृष्ठों का एक बृहद गढ़वाली़ भाषा शब्दकोश तैयार करता है तो एक सुखद अनुभूति होती है। साथ ही इस बात का भी विश्वास होता है कि जब तक समाज में इस तरह के भाषानुरागी हैं तब तक हमारा लोक व लोक की ‘पच्छ्याण’  (identity) -हमारी भाषा जीवित रहेगी।

गढ़वाली़ भाषा के शब्दकोश के निर्माण से गढ़वाली़ भाषा प्रेमी हर्षित तो होंगे ही, साथ ही इस भाषा ग्रन्थ की व्यापकता को देखकर अचम्भित भी होंगे कि कैसे  एक ही शब्द को अलग- अलग स्थानों में अलग अलग बोलियों में अलग अलग ढंग से बोला जाता है। कैसे एक syllable stress का प्रयोग समान दिखने वाले शब्दों की meaning बदल देता है। कैसे यदि एक शब्द ‘आणे’ (मुहावरे) में प्रयोग किया जाता है तो उसके मायने बदल जाते हैं।

यदि कोई यह जानना चाहता हो कि ‘अओल़’ या फिर ‘बयाल़’ का मतलब क्या है? या फिर ‘बालण पूजा’ क्या होती है- यह सब कुछ इस पुस्तक में उपलब्ध है। ‘ट्वाला’ , ‘निकरै’ व ‘सॉंगो’ जैसे शब्द जो धीरे धीरे विलुप्त होते जा रहे हैं, उनको भी इस संग्रह में संकलित किया गया है।

यह संकलन निःसंदेह गढवाली़ भाषा को सीखने व शोध करने वाले लोगों के लिए reference book के रूप में एक बेहतर विकल्प होगा। साथ ही साथ गढ़वाली भाषा में उपलब्ध अथाह शब्द भण्डार को देखकर  गढ़वाली को भाषा न मानने वाले लोगों की आँखें खुली की खुली रह जायेंगी।

01 July, 2019

मजबूत इच्छाशक्ति से मिला ‘महेशानन्द को मुकाम

डॉ. अरुण कुकसाल //

‘गांव में डड्वार मांगने गई मेरी मां जब घर वापस आई तो उसकी आखें आसूओं से ड़बडबाई हुई और हाथ खाली थे। मैं समझ गया कि आज भी निपट ’मरसा का झोल’ ही सपोड़ना पड़ेगा।...

गांव में शिल्पकार-सर्वण सभी गरीब थे इसलिए गरीबी नहीं सामाजिक भेदभाव मेरे मन-मस्तिष्क को परेशान करते थे।... मैं समझ चुका था कि अच्छी पढ़ाई हासिल करके ही इस सामाजिक अपमान को सम्मान में बदला जा सकता है। पर उस काल में भरपेट भोजन नसीब नहीं था तब अच्छी पढ़ाई की मैं कल्पना ही कर सकता था। पर मैंने अपना मन दृड किया और संकल्प लिया कि नियमित पढ़ाई न सही टुकड़े-टुकड़े में उच्च शिक्षा हासिल करूंगा। मुझे खुशी है कि यह मैं कर पाया।

आज मैं शिक्षक के रूप में समाज के सबसे सम्मानित पेशे में हूं।... पर जीवन में भोगा गया सच कहां पीछा छोड़ता है। अतीत में मिली सामाजिक ठ्साक वर्तमान में भी उतनी ही चुभती है। तब मेरा लेखन उसमें मरहम लगाता है। पाठकों के लिए वे कहानियां हैं परन्तु मेरे लिए अतीत के छाया चित्र हैं।’

हाल ही में अजीम़ प्रेमजी, पौड़ी की लाइब्रेरी में मित्र महेशानन्द जी मेरी तरफ मुखातिब थे। मजे की बात यह रही कि सामाजिक विभेद पर हुई लम्बी बातचीत में दोनों अंदर से असहज होते हुए भी चेहरों पर मुस्कराहट बनाये हुए थे।

अध्यापक एवं साहित्यकार महेशानन्द का जन्म 15 नवम्बर, 1967 को किवर्स गांव, पैडुलस्यूं पट्टी, पौड़ी गढ़वाल में हुआ। महेशानन्द की माता सतरी देवी और पिता सन्तू लाल मिस्त्री का तीन बच्चों वाला एक आम पहाड़ी शिल्पकार परिवार था। पुस्तैनी लोहारगिरी और मिस्त्री के काम में उनके पिता की पूरे इलाके में ख्याति थी। इसके बावजूद भी रोज की कड़ी मेहनत-मजदूरी के बाद ही घर-गृहस्थी की गाड़ी किसी तरह चलती थी।
ये बात जरूर है कि उस दौर के सामाजिक जीवन में अभाव तो थे परन्तु कुंठाओं ने आम आदमी के मन-मस्तिष्क में पनाह नहीं ली थी। कभी कई दिनों तक काम का जुगाड़ नहीं बन पाया तो उनके परिवार को फाका-मस्ती में भी रहना होता था। गरीब परिवार के लिए यह जीवन का सामान्य हिस्सा भर था इससे समाज में किसी तरह की असामान्यता का बोध नहीं होता था।

अपने गांव किवर्स से 1976 में 5वीं, दोमटखाल से 1981 में 8वीं, पौड़ी से 1985 में हाईस्कूल, 1987 में इंटर, 1994 में बी.ए. एवं 2010 में हिन्दी विषय में एम.ए. एवं श्रीनगर से 1997 में बी.एड. तथा 1999 में डायट, पौड़ी से विशिष्ट बीटीसी की शिक्षा प्राप्त करने में महेशानन्द जी का साथ अभावों और सामाजिक विसंगतियों ने कभी नहीं छोड़ा। परन्तु अपने नाम के अनुरूप भगवान ‘महेश’ की तरह अभावों एवं अपमानों के घूंट उनकी पढ़ने और बेहतर जीवन जीने की ललक को कम नहीं कर पाये।

हां, अतीत में भोगे गए यर्थाथ के निशां आज भी उनके व्यक्तित्व में गहरी जड़ों के साथ पैठ बनाये हुए हैं। तभी तो जीवन के किन्हीं लम्हों में वे याद आते ही साहित्यिक लेखन की विविध विधाओं के पात्रों का रूप अपने आप ही ले लेते हैं।

पौड़ी-अदवानी सड़क मार्ग पर टेका स्थल के पास ही किवर्स गांव है। किवर्स आज भी खेती से सम्पन्न और लोगों से भरा-पूरा गांव है। समृद्ध खेती और पौड़ी नगर से नजदीकी का सुखद परिणाम यह रहा कि यहां के ग्रामीणों ने गांव से पलायन कम किया है। बांज-चीड़ से घिरा पहाडी ढलान पर बसा किवर्स गांव महेशानन्द जी के जीवनीय संघर्षों की दास्तां को अपने में छुपाये हुए है। बचपन से ही उनके लिए गरीबी और जातीय विभेद से पार पाना आसान नहीं था। जहां स्कूल में प्यास लगने पर पानी पीने के लिए सर्वण मित्रों से गुहार करनी पड़ती हो, शिक्षक जातीय भेदभाव की मानसिकता से ग्रसित हो फिर घर आकर रोज देर रात जीविका के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती हो वहां पढ़ाई कहां मायने रखती होगी।

परन्तु महेशानन्द ने इस मिथक को तोड़ा। महेशानन्द बेहतर जीवन के लिए पढाई और जीविका हेतु मेहनत-मजदूरी को साथ-साथ रखते हुए इंटर पास हुए तो आगे पढ़ने की कोई गुंजाइश नहीं दिखी। तब अन्य पहाड़ी युवाओं की तरह रोजगार के लिए उनके पास ‘चलो दिल्ली’ की परम्परा को स्वीकारने के अलावा कोई चारा नहीं था। उन्हें दिल्ली के होटल लाइन में काम और पनाह दोनों मिली। सन् 1992 में शादी हो गई तो लगा गांव के आस-पास रहकर रोजगार करना ठीक रहेगा।

खेती, मजदूरी, बढ़ईगिरी और हल लगाने का ठेका जो भी रोजगार मिला उसे अपनाया। खुशकिस्मती यह रही कि आगे पढ़ने की इच्छा कम नहीं हुई थी। प्राईवेट बी.ए. करने के लिए प्रयास जारी थे। दिन-भर की हाड़-तोड़ मेहनत के बाद पूरी रात ढ़ेपुर (कमरे और छत के बीच ढाईफुट की जगह) में लैम्पू जलाकर पढ़ना होता था। अगली सुबह पढ़ाई छोड पेट के लिए जूझना मजबूरी थी। एक किताब भी साथ रहती ताकि पढ़ने का कोई मौका खाली न जा पाये।

बी.ए. पास कर लिया तब भी बेहतर रोजगार कहीं नजर नहीं आया। मजबूरन, पुस्तैनी काम-धंधा ही आय का साधन रहा। बी.एड. में चयन हुआ तो आर्थिक तंगी सामने दरवाजा रोके खड़ी थी। मददगारों ने हौसला दिया तो बी.एड. के बाद विशिष्ट बीटीसी की उपाधि भी प्राप्त कर ली। उसी के बदौलत 1999 में प्राथमिक विद्यालय कनोठाखाल, पोखड़ा में शिक्षक के पद पर नियुक्ति हो गई। वर्तमान में रा. पूर्व मा. विद्यालय, बाड़ा, पौड़ी (गढ़वाल) में वरिष्ठ अघ्यापक हैं।

महेशानन्द बचपन में पूरे गांव-इलाके में ‘बढ़िया चिट्ठी लिख्वार’ के नाम से लोकप्रिय थे। इसका फायदा यह हुआ कि गढ़वाली के लोक-शब्द, शब्द-विन्यास, शैली और प्रवाह उन अनपढ़ परन्तु पहाड़ी जीवन की पढ़ाई में निपुण महिलाओं से स्वतः ही मिल गए जो उनसे चिट्ठी लिखवाती थी। चिट्ठी लिखवाने वाली महिला अपने दुखः-दर्द बोलती हुई सुबकती रहती तो लिख्वार महेशानन्द के आंखों में भी आंसू होते थे।

ताज्जुब तब और होता जब वो परदेशी भाई या चाचा घर वापस आकर महेशानन्द से कहता कि भुला/बेटा तूने क्या चिट्ठी लिखी मेरे तो पढ़ते हुए आसूं आ गए थे। इसी चिट्ठी लिख्वार का एक पत्र सन् 1988 में दैनिक जागरण के ‘पाठकों के पत्र कालम’ में छपा। उसके कुछ दिनों बाद एक कविता भी प्रकाशित हुई तो लेखन की स्वाभाविक प्रतिभा ने अपनी राह पकड़ ली। उसके बाद पौड़ी से प्रकाशित गढ़वाली पत्र ‘खबरसार’ ने महेशानन्द को लिखने का प्लेटफार्म प्रदान किया।

महेशानन्द मूलतः कथाकार हैं। गढ़वाली भाषा के सिद्धहस्त साहित्यकार। ‘औगार’, ‘डड्वार’, ‘उलार’ और ‘पराज’ उनके प्रकाशित गढ़वाली कहानी संग्रह हैं। इसके अलावा एक 41 लघु गढ़वाली कहानियों का संग्रह ‘लकार’ भी प्रकाशित हुआ है। महेशानन्द की कहानियां पहाड़ी जन-जीवन की कथा-व्यथा से पल्लवित हुई हैं। पहाड़ के भूगोल की तरह उनके कथानकों में उतार-चढ़ाव और घुमाव हर वक्त सजीव रहता है।

उनकी कहानियां भले ही बोलती कम हों पर लोक शब्दों की ‘चटाक’ की गर्माहट उसमें हर समय मौजूद रहती है। वो अतीत के मोह और भविष्य की चिंता से ज्यादा वास्ता न रखते हुए वर्तमान का हिसाब-किताब करती हुई लगती हैं। अतीत और भविष्य के मुकाबले वर्तमान पर बात करना एवं लिखना ज्यादा चुनौतीपूर्ण और असज होता है। यह चुनौती कहानीकार महेशानन्द ने सहर्ष स्वीकारी है।

यह मानना पड़ेगा कि उसमें वह खरे साबित हुए हैं। लुप्तप्रायः हो गए गढ़वाली शब्दों, लोकोक्तियों और उच्चारणों को बेहद संजीदगी और सहजता से उन्होने अपनी कहानियों में उकेरा है। आज हमारे परिवारों में गढ़वाली भाषा का ठिंया किंचित मात्र भी नहीं रह गया है। ऐसे में महेशानन्द जी की कहानियों के पात्र ठेठ गढ़वाली में मजे से संवाद करते नजर आते हैं। वे हिन्दीनुमा गढ़वाली नहीं वरन असल गढ़वाली भाषा में अपने चरित्र को जीवंत किए हुए हैं।

महेशानन्द जी ने कहानियों से हटकर 17 गढ़वाली निबंधों का संग्रह ‘स्वीलू घाम’ पुस्तक का प्रकाशन किया है। साहित्यकार विमल नेगी के साथ गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की विश्व प्रसिद्ध कृति ‘गीतांजलि’ का गढ़वाली अनुवाद महेशानन्द की नवीनतम प्रकाशित रचना है। इसी वर्ष 2019 में सार्वजनिक हुई इस पुस्तक की चर्चा वृहद पाठक वर्ग में तेजी से हो रही है। वे आजकल ‘गढ़वाली-हिन्दी शब्दकोश’ एवं पहाड़ी महिला के जीवन-संघर्ष पर केन्द्रित ‘छिमला’ उपन्यास पर लेखन कार्य कर रहे है। ‘तैलु घाम’ काव्य संग्रह प्रकाशन में है जिसका 26 दिसम्बर, 2019 को लोकापर्ण होना है।

महत्वपूर्ण है कि अपने पिता के 26 दिसम्बर, 2013 को स्वर्गवास होने के बाद उनकी स्मृति में महेशानन्द प्रत्येक 26 दिसम्बर को अपनी एक नवीन साहित्यिक ति को लोकार्पित करते हैं। इसी के तहत उनके द्वारा वर्ष 2014 में ‘औगार’ (गढ़वाली कहानी संग्रह), वर्ष 2015 में डड्वार (गढ़वाली कहानी संग्रह), वर्ष 2016 में ‘उलार’ (गढ़वाली कहानी संग्रह), वर्ष 2017 में ‘पराज’ (गढ़वाली कहानी संग्रह) और वर्ष 2018 में ‘लकार’ (गढ़वाली लघु कहानी संग्रह) को लोकार्पित किया गया था।

अध्यापन और लेखन के अलावा महेशानन्द जी पेड़-पौंधों की देख-भाल में बेहद अभिरुचि रखते हैं। अपने गांव और स्कूल में तैयार नर्सरी पर्यावरण के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को प्रमाणित करती हैं। एक योग्य, नवाचारी, कुशल एवं मार्गदर्शी शिक्षक की प्रसिद्धि उनको मिली है। अनेकों पुरस्कारों के साथ प्रतिष्ठित ’कर्मवीर जयानंद भारतीय सम्मान-2018’ एवं ‘शैलेश मटियानी राज्य शैक्षिक पुरस्कार-2014’ से वे सम्मानित हैं।

आज के गढ़वाली साहित्यकारों की भीड़ में महेशानन्द वाकई ‘महेश’ हैं। वैसे मंडाण में तो हर कोई यही सोचता है कि मैं ही बेहतर कलाकार हूं। अच्छा रहेगा कि गढ़वाली के युवा लिख्वार महेशानन्द जी के साहित्य का अध्ययन करें ताकि वे हिन्दीनुमा गढ़वाली लिखने से अपने को उभार सकने में सक्षम हो सकें। साथ ही पहाड़ी समाज की अंतर आत्मा को वो समझ सकें।

डॉ. अरुण कुकसाल

पहाड़ के लोकजीवन में रची बसी रोपणी

संजय चौहान // 

          पहाड़ के लोकजीवन मे अषाड़ महीने का सदियों से गहरा नाता रहा है। अषाड़ का महीना पहाड़ में धान की रोपाई अर्थात रोपणी लगाने का महीना होता है। रोपणी और पहाड़ एक दूसरे के पूरक हैं। रोपणी पहाड़ के लोकजीवन मे इस तरह से रची बसी है कि आज भी रोपणी बरबस ही लोगों के मन को बेहद भाती है।
अषाड महीने का आगमन मानसून आने का भी सूचक माना जाता है। क्योंकि पहाड़ की खेती पूरी तरह से मौसम पर निर्भर होती है और जब बारिश आयेगी तभी रोपणी लगती है। रोपणी प्रकृति और अपनी माटी के प्रति लोगो के प्रेम को भी दर्शाती है। जनपद चमोली के कर्णप्रयाग ब्लाक के सिंदरवाणी गांव के ग्रामीणों ने अषाड की पहली रोपणी लगाई गई। इस दौरान पूरे गांव में उत्सव का माहौल था।

ऐसी लगती है रोपणी
रोपणी लगाने से एक रात पहले खेत को नहरों/कूलों के द्वारा पानी से भरा जाता है, जिससे सूखी मिट्टी गीली हो जाती है और फिर रोपाई के लिए खेत तैयार हो जाता है। जिसके बाद बैलों के सहारे पूरे खेत में हल लगाकर खेत को धान की रोपाई के लिए तैयार किया जाता है। तत्पश्चात महिलाओं द्वारा खेत में धान की छोटी-छोटी पौध को रोपा जाता है, जिसे रोपणी कहा जाता है।

सहभागिता का बेहतरीन उदाहरण
पहाड़ के घर गांव में लगने वाली रोपणी सामूहिक सहभागिता का बेहतरीन उदाहरण है। जिसमें गांव के लोगों के खेतों में रोपाई के अलग-अलग दिन निर्धारित होते हैं। जिस दिन जिसके खेत में रोपाई लगानी होती है, गांव की सभी महिलाएं वहां पहुंचती हैं। इन महिलाओं के भोजन, चाय-पानी की व्यवस्था भू-स्वामी को करनी होती है। भोजन में लजीज पकवान और व्यंजन शामिल होते हैं। भोजन सर्वप्रथम ईष्ट देवता और पितृ देवता को चढ़ाया जाता है। रोपाई के बाद महिलाएं और बच्चे एक साथ बैठकर भोजन करते हैं। सारा काम निपटने के बाद भू-स्वामी सभी लोगों की सहायता और आगमन के लिए उनका आभार व्यक्त करता है। एक एक करके पूरे अषाड में हर गांव के लोगों की रोपणी लगाई जाती है जो सामूहिक सहभागिता का सबसे बेहतरीन उदाहरण है।

परदेश से घर आते थे लोग
रोपणी लगाने के लिए दूर परदेस में काम करने वाले लोग छुट्टी लेकर अपने खेतों में रोपाई के कार्यक्रम में भाग लेने पहुंचते थे। बेटी से लेकर बेटों को रोपणी की बडी चिंता रहती थी। पहाड़ में रोपणी किसी लोकपर्व से कम नहीं होता है। रोपणी के जरिये गांव के लोगों का एक दूसरे मिलन भी होता है। लेकिन धीरे धीरे लोग रोपणी से विमुख होते जा रहे है। अब बहुत कम लोग ही रोपणी के लिए घर आते हैं।
विलुप्त होते ’हुडका बोल’

बेमौसम बारिश और कम उपज होने से लोग खेती को छोड़ रहे है। लोगों के खेती से विमुख होने से रोपणी के समय गाये जाने वाले कुमाऊं की लोकसंस्कृति ’हुडका बोल’ विधा पर भी संकट गहराने लगा है। इस परंपरा में एक लोक कलाकार हुड़का बजाते हुए लोकगाथाएं आदि का वर्णन करता था। लोकगाथाएं सुनते हुए रोपाई करने वाली महिलाओं को थकान का आभास भी नहीं होता था। लेकिन पिछले कुछ सालों से हुड़किया बोल की परंपरा कम ही दिखाई देती है। कतिपय स्थानों को छोड़कर हुड़किया बोल का आयोजन विलुप्त होने के कगार पर जा पहुंचा है।

वास्तव मे देखा जाए तो अषाड महीने में लगने वाली पहाड़ की रोपणी यहां के लोकजीवन का अभिन्न अंग तो रही है साथ ही लोकसंस्कृति की सौंधी खुशबू भी बिखेरती है। तभी तो इस पर पहाड़ के लोक में एक कहावत प्रचलित है।

आषाढ़ की रोपणी भादो कु घाम,
सौण की बरखा अशूज कु काम,
ह्युन्द की मैना की लम्बी लम्बी रात,
आहा कन छा आपडा गौं की बात,

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