October 2010 ~ BOL PAHADI

31 October, 2010

पण कब तलक

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मेरा बिजाल्यां बीज अंगर्ला
सार-खार मेरि भम्मकली
गोसी कबि मेरु भुक्कि नि जालू
कोठार, दबलौं कि टुटलि टक्क
पण, कब तलक

मेरा जंगळूं का बाघ
अपणा बोंण राला
मेरा गोठ्यार का गोरु बाखरा
उजाड़ जैकि
गेड़ बांधी गाळी ल्याला
दूद्याळ् थोरी रांभी कि
पिताली ज्यू पिजण तक
पण, कब तलक

मेरा देशूं लखायां
फिर बौडिक आला
पुंगड़्यों मा मिस्यां डुट्याळ
फंड्डु लौटी जाला
पिठी कू बिठ्गु
मुंड मा कू भारू
कम ह्वै जालु
कुछ हद तक
पण, कब तलक

Copyright@ Dhanesh Kothari
Photo source- Mera pahad

27 October, 2010

बाघ

बाघ
  गौं मा    
जंगळुं मा मनखि   
ढुक्यां छन रात
-दिन 

डन्ना छन घौर-बौण द्‌वी   
लुछणान्‌ एक हैंका से आज-भोळ    
अपणा घौरूं मा ज्यूंद रौण कू संघर्ष   
आखिर कब तक चाटणा, मौळौणा रौला अपणा घौ     
क्य ह्‍वे सकुलु कबि पंचैती फैसला केरधार का वास्ता      
या मनख्यात जागली कबि कि पुनर्स्थापित करद्‍यां वे जंगळुं मा   



Copyright@ Dhanesh Kothari

21 October, 2010

काव्य आन्दोलनों का युग १९७६- से २०१० तक

सन १९७६ से २०१० तक भारत को कई नए माध्यम मिले और इन माध्यमों ने गढ़वाली कविता को कई तरह से प्रभावित किया। यदि टेलीविजन/ऑडियो वीडियो कैसेट माध्यम ने रामलीला व नाटको के प्रति जनता में रूचि कम की तो साथ ही आम गढ़वाली को ऑडियो व वीडियो माध्यम भी मिला। जिससे गढ़वाली ललित साहित्य को प्रचुर मात्र में प्रमुखता मिली।
माध्यमों की दृष्टि से टेलीविजन, ऑडियो, वीडियो, फिल्म व इन्टरनेट जैसे नये माध्यम गढ़वाली साहित्य को उपलब्ध हुए। और सभी माध्यमों ने कविता साहित्य को ही अधिक गति प्रदान की।
सामाजिक दृष्टि से भारत में इमरजेंसी, जनता सरकार, अमिताभ बच्चन की व्यक्तिवादी-क्रन्तिकारी छवि, खंडित समाज में व्यक्ति पूजा वृद्धि, समाज द्वारा अनाचार, भ्रष्टाचार को मौन स्वीकृति; गढ़वालियों द्वारा अंतरजातीय विवाहों को सामाजिक स्वीकृति, प्रवासियों द्वारा प्रवास में ही रहने की (लाचारियुक्त?) वृति और गढ़वाल से युवा प्रवासियों की अनिच्छा, कई तरह के मोहभंग, संयुक्त परिवारों का सर्वथा टूटना, प्राचीन सहकारिता व्यवस्था का औचित्य समाप्त होना, ग्रामीण व्यवस्था पर शहरीकरण का छा जाना; गढ़वालियों द्वारा विदेश गमन; सामाजिक व धार्मिक अनुष्ठानो में दिखावा प्रवृति, पहाड़ी भू-भाग में कृषि कार्य में भयंकर ह्रास; गांव के गांव खाली हो जाना, आदि सामाजिक परिवर्तनों ने गढ़वाली कविताओं को कई तरह से प्रभावित किया। हेमवती नंदन बहुगुणा द्वारा इंदिरा गाँधी को चैलेंज करना जैसी घटनाओं का कविता पर अपरोक्ष असर पडा। व्यवस्था पर भयंकर चोट करना इसी घटना की एक उपज है।
जगवाळ फिल्म के बाद अन्य फिल्मों का निर्माण; गढ़वाली साहित्यिक राजधानी दिल्ली से देहरादून स्थानांतरित होना व पौड़ी, कोटद्वार, गोपेश्वर, स्युन्सी बैजरों जैसे स्थानों में साहित्यिक उप राजधानी बनने ने भी कविताओं को प्रभावित किया। गढ़वाली कवियों व आलोचकों ने गढ़वाली को अन्तरराष्ट्रीय भाषाई स्तर देने की कोशिश भी इसी समय दिखी।
कवित्व व कविता की दृष्टि से यह काल सर्वोत्तम काल माना जाएगा और अभास भी देता है। आने वाला समय गढ़वाली कविता का स्वर्णकाल होगा। इस काल में शैल्पिक संरचना, व्याकरणीय संरचना, आतंरिक संरचना- वाक्य, अलंकार, प्रतीक, बिम्ब, मिथ, फैन्तासी, लय, विरोधाभास, व्यंजना, विडम्बना, पारम्परिक लय, शास्त्रीय लय, मुक्त लय, अर्थ लय, में कई नए प्रयोग भी हुए तो परंपरा का भी निर्भाव हुआ। सभी अलंकारों का खुलकर प्रयोग हुआ है और सभी रसों के दर्शन इस काल की गढ़वाली कविताओं में मिलता है। कलेवर, संरचना के हिसाब से भी कई नए कलेवर इस वक्त गढ़वाली कविताओं में प्रवेश हुए। यथा हाइकु।
कवित्व की अन्य दृष्टि में भी संस्कृत के पारंपरिक सिद्धांत, काव्य सत्य, आदर्शवाद, उद्दात स्वरूप, औचित्य, विभिन्न काव्य प्रयोजन, नव शास्त्रवाद, काल्पनिक, यथार्थपरक, जीवन की आलोचना, सम्प्रेष्ण, स्वछ्न्द्वाद, कलावाद, यथार्थवाद, अतियथार्थवाद, अभिव्यंजनावाद, प्रतीकवाद, अस्तित्ववाद, धर्मपरक, अद्ध्यात्मपरक, निर्व्यक्तिता, व्यक्तिता, वस्तुनिष्ठ - कविता संग्रहों में अबोध बंधु सम्पादित शैलवाणी (१९८०) एवं मदन डुकलान सम्पादित व भीष्म कुकरेती द्वारा समन्वय सम्पादित चिठ्ठी-पतरी (अक्टुबर २०१०) का बृहद कविता विशेषांक व अंग्वाळ (प्रकाशनाधीन, जिसमें गढ़वाली कविता का इतिहास व तीन सौ से अधिक कवियों की कविता संकलित हैं) विशिष्ठ संग्रह हैं। कई खंडकाव्य भी इस काल में छपे हैं।  अन्य कविता संग्रहों में जो की विभिन्न कवियों के कवियों की कविता संकलन हैं में ग्वथनी गौ बटे (सं. मदन डुकलान), बीजिगे कविता (सं. मधुसुदन थपलियाल) एवं ग्वै (सं.तोताराम ढौंडियाल) इस काल के कवियों की फेरिहस्त लम्बी है,
इस तरह हम पाते हैं कि आधुनिक गढ़वाली काव्य अपने समय कि सामाजिक परिस्थितियों को समुचित रूप से दर्शाने में सक्षम हो रही है और समय के साथ संरचना व नए सिद्धान्तों को भी अपनाती रही है।
उत्तराखंड आन्दोलन, हिलांस पत्रिका आन्दोलन, धाद द्वारा ग्रामीण स्तर पर कवि सम्मलेन आयोजन आन्दोलन, कविता पोस्टर, प्रथम गढ़वाली भाषा दैनिक समाचार पत्र गढ़ऐना का प्रकाशन, चिट्ठी-पतरी, उत्तराखंड खबरसार, गढ़वालै धै या रन्तरैबार जैसे पत्रिकाओं या समाचार पत्रों का दस साल से भी अधिक समय तक प्रकाशित होना, उत्तराखंड राज्य बनाना आदि ने भी गढ़वाली कविता को प्रभावित किया। समीकरण, विद्वतावाद; व्क्रोक्तिवाद, आदि सभी इस युग की कविताओं में मिल जाती हैं। काव्य विषय में भी विभिन्नता है सभी तरह के विषयों की कविता इस काल में मिलती हैं अबोध बंधु बहुगुणा का भुम्याल, कन्हैयालाल डंडरियाल का नागराजा (पाँच भाग) और प्रेमलाल भट्ट का उत्तरायण जैसे महाकाव्य इस काल की विशेष उपलब्धि हैं। विशेष उल्लेखनीय मानी जाएँगी। 
गढ़वाली कवितावली का द्वितीय संस्करण भी एक ऐतिहासिक घटना है। कुमाउनी, गढ़वाली भाषाओं के विभिन्न कवियों की कविता संकलन एक साथ दो संकलन प्रकाशित हुए हैं। दोनों संग्रहों उड़ घेंडुड़ी और डांडा कांठा के स्वर के संपादक गजेन्द्र बटोही हैं। पूरण पंत पथिक’, मदन डुकलान, लोकेश नवानी, नरेंद्र सिंह नेगी, हीरा सिंह राणा, नेत्रसिंह असवाल, गिरीश सुंदरियाल, वीरेन्द्र पंवार, जयपाल सिंह रावत 'छ्‌यपड़ु दा’, हरीश जुयाल, मधुसुदन थपलियाल, निरंजन सुयाल, धनेश कोठारी, वीणापाणी जोशी, बीना बेंजवाल, नीता कुकरेती, शांति प्रसाद जिज्ञासु, चिन्मय सायर, देवेन्द्र जोशी, बीना पटवाल कंडारी, डा. नरेंद्र गौनियाल, महेश ध्यानी, दीन दयाल बन्दुनी, महेश धस्माना, सत्यानन्द बडोनी, डा. नन्द किशोर हटवाल, ध्रुब रावत, गुणानन्द थपलियाल, कैलाश बहुखंडी, मोहन बैरागी, सुरेश पोखरियाल, मनोज घिल्डियाल, कुटज भारती, नागेन्द्र जगूड़ी नीलाम्बर, दिनेश ध्यानी, देवेन्द्र चमोली, सुरेन्द्र दत्त सेमल्टी, चक्रधर कुकरेती, विजय कुमार भ्रमर, बलवंत सिंह रावत, सुरेन्द्र पाल, भवानी शंकर थपलियाल, खुशहाल सिंह रावत, रजनी कुकरेती, दिनेश कुकरेती, श्री प्रसाद गैरोला, रामकृष्ण गैरोला, राकेश भट्ट, महेशानन्द गौड़, शक्ति ध्यानी, जबर सिंह कैन्तुरा, डा. राजेश्वर उनियाल, संजय सुंदरियाल, प्रीतम अपच्छयाण, डा. मनोरमा ढौंडियाल, देवेन्द्र कैरवान, अनसूया प्रसाद डंगवाल, विपिन पंवार, विवेक पटवाल, जगमोहन सिंह जयाड़ा, विनोद जेठुरी, सुशील पोखरियाल, शशि हसन राजा, हेमू भट्ट हेमू, गणेश खुगसाल, डा. नन्दकिशोर ढौंडियाल, डा. प्रेमलाल गौड़ शास्त्री, मोहनलाल ढौंडियाल, सतेन्द्र चौहान, शकुंतला इस्टवाल, विश्वप्रकाश बौड़ाई, अनसूया प्रसाद उपाध्याय, राजेन्द्र प्रसाद भट्ट, शिव दयाल शलज, शशि भूषण बडोनी, बच्चीराम बौड़ाई, संजय ढौंडियाल, कुलबीर सिंह छिल्ब्ट, चित्र सिंह कंडारी, अनिल कुमार सैलानी, रणबीर दत्त, चन्दन, रामस्वरूप सुन्द्रियाल, सुशील चन्द्र, अशोक कुमार उनियाल यज्ञ, दर्शन सिंह बिष्ट, तोताराम ढौंडियाल, ओमप्रकाश सेमवाल, सतीश बलोदी, सुखदेव दर्द, देवेश जोशी, गिरीश पन्त मृणाल, मायाराम ढौंडियाल, लीलानन्द रतूड़ी, रमेश चन्द्र संतोषी, गजेन्द्र नौटियाल, सिद्धिलाल विद्यार्थी, विमल नेगी, नरेन्द्र कठैत, रमेश चन्द्र घिल्डियाल, हरीश मैखुरी, मुरली सिंह दीवान, विनोद उनियाल, अमरदेव बहुगुणा, गिरीश बेंजवाल, ब्रजमोहन शर्मा, ब्रजमोहन नेगी, सुनील कैंथोला, हरीश बडोला, उद्भव भट्ट, दिनेश जुयाल, दीपक रावत, पृथ्वी सिंह केदारखण्डी, बनवारी लाल सुंदरियाल व एन शर्मा, मदन सिंह धयेडा, मनोज खर्कवाल, सतीश रावत, मृत्युंजय पोखरियाल, हरिश्चंद्र बडोला मुख्य कवि हैं।  
@Bhishma Kukreti

20 October, 2010

मेरि पुंगड़्यों


मेरि पुंगड़्यों
हौरि धणि अब किछु नि होंद
पण, नेता खुब उपजदन्
 
मेरि पुंगड़्यों
बीज बिज्वाड़
खाद पाणि
लवर्ति-मंड्वर्ति
किछु नि चैंद
स्यू नाज पाणि
डाळा बुटळा
खौड़ कत्यार तक
किछु नि होंद
पण, नेता खुब उपजदन्
 
मेरि पुंगड़्यों
यू न घामन् फुकेंदन्
न पाळान् अळैंदन्
न ह्यूंद यूं कु ठिणीं
न रूड़्यों यि ठंगरेंदन्
बसगाळ, बिजुग्ति बर्खि बि
यूंकि चाना नि पुरोंद
झाड़-झंक्काड़
हर्याळी का आसार
किछु नि दिखेन्दन्
पण, नेता खुब उपजदन




 











Copyright@ Dhanesh Kothari

१९५१ से १९७५ तक

सारे भारत में स्वतंत्रता उपरान्त जो बदलाव आये वही परिवर्तन गढ़वाल व गढ़वाली प्रवासियों में भी आये, स्वतंत्रता का सुख, स्वतंत्रता से विकास, इच्छा में तीव्र वृद्धि, समाज में समाज से अधिक व्यक्तिवाद में वृद्धि, आर्थिक स्थिति व शिक्षा में वृद्धि, राजनेताओं द्वारा प्रपंच वृद्धि आदि इसी समय दिखे गये हैं।
गढ़वाल के परिपेक्ष में पलायन में कई गुणा वृद्धि, मन्यार्डरी अर्थव्यवस्था से कई सामजिक परिवर्तन, औरतों का प्रवास में आना, संयुक्त परिवार से व्यक्तिपुरक परिवार को महत्व मिलना, गढ़वालियों द्वारा, सेना में उच्च पद पाना, होटलों में नौकरी से लेकर आईएएस ऑफिसर की पदवी पाना, नौकरीपेशा वालों को अधिक सम्मान, कृषि पर निर्भरता की कमी, कई सामाजिक-धार्मिक कुरुरीतियों में कमी। किन्तु नयी कुरीतियों का जन्म, हेमवती नंदन बहुगुणा का धूमकेतु जैसा पदार्पण या राजनीती में चमकना, गढ़वाल विश्वविद्यालय, आकाशवाणी नजीबाबाद जैसे संस्थानों का खुलना, देहरादून का गढ़वाल कमिश्नरी में सम्मलित किया जाना, १९६९ में कांग्रेस छोड़ उत्तरप्रदेश में संविद सरकार का बनना, फिर संविद सरकार से जनता का मोहभंग होना, गढ़वाल चित्रकला पुस्तक का प्रकाशन, उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा गढ़वाली साहित्य को पहचान देने, चीन की लड़ाई, मोटर बस रास्तों में वृद्धि, लड़कियों की शिक्षा को सामाजिक प्रोत्साहन, अंतरजातीय विवाहों की शुरूआत (हेमवती नंदन बहुगुणा व शिवानन्द नौटियाल उदाहरण हैं), जाड़ों में गृहणियों द्वारा परदेश में पति के पास भेजने की प्रथा का आना, पुराने सामाजिक समीकरणों का टूटना व नए समीकरणों का बनना आदि इस युग की विशेषताएं है, चौधरी चरण सिंह द्वारा हिंदी की वकालत हेतु अंग्रेजी विषय को माध्यमिक कक्षाओं से हटाना जैसी राजनैतिक घटनाओं ने भी गढ़वाली समाज पर प्रभाव डाला। जिसका सीधा प्रभाव गढ़वाली कवियों व उनकी कविताओं पर पड़ा।
कविता के परिपेक्ष में सामाजिक संस्थाओं द्वारा साहित्य को अधिक महत्व देना, गढ़वाली साहित्यिक राजधानी दिल्ली का बन जाना, कवि सम्मेलनों का विकास, नाटकों का मंचन वृद्धि, साहित्यिक गोष्ठियों का अनुशीलन, जीत सिंह नेगी की अमर कृति तू ह्वेली बीराका रचा जाना, मैको पाड़ नि दीण और घुमणो कु दिल्ली जाणजैसे लोकगीतों का अवतरण, लोकगीतों का संकलन एवं उन पर शोध, चन्द्र सिंह राही का पदार्पण आदि मुख्य घटनाएँ हैं।
कविताओं ने नए कलेवर भी धारण किये, इस युग में कई नए प्रयोग गढ़वाली कविताओं में मिलने लगे,
अबोधबंधु बहुगुणा, कन्हैयालाल डंडरियाल, जीत सिंह नेगी, गिरधारी लाल थपलियाल कंकाल’, ललित केशवान, जयानंद खुकसाल बौळया’, प्रेमलाल भट्ट, सुदामा प्रसाद डबराल 'प्रेमी', जैसे महारथियों के अतिरिक्त पार्थसारथि डबराल, नित्यानंद मैठाणी, शेरसिंह गढ़देशी, डा. गोविन्द चातक, गुणानन्द पथिक, भगवन सिंह रावत अकेला’, डा. शिवानन्द नौटियाल, महेश तिवाड़ी,
पुराने छंद गीतेय शैली से भी मोह, हिंदी भाषा पर कम्युनिस्ट प्रभाव भी गढ़वाली कविता में आने लगा, अनुभव गत विषय, रियलिज्म, व्यंग्य में नई धारा, नये बिम्ब व प्रतीक, प्रेरणादायक कविताओं से मुक्ति से छटपटाहट, पलायन से प्रवासियों व वासियों के दुःख, शैलीगत बदलाव, विषयगत बदलाव, कवित्व में बदलाव आदि इस युग की देन हैं और इस युग की गढ़वाली कविताओं की विशेषता भी है। मानवीय संवेदनाओं को इसी युग में नयी पहचान मिली। शिवानन्द पाण्डेय प्रमेश’, रामप्रसाद गैरोला, जगदीश बहुगुणा किरण’, महावीर प्रसाद गैरोला, चन्द्र सिंह राही, डा. उमाशंकर थपलियाल 'समदर्शी', डा उमाशंकर थपलियाल 'सतीश', ब्रह्मानंद बिंजोला, भगवन सिंह कठैत, महिमानन्द सुन्द्रियाल, सचिदानन्द कांडपाल, रघुवीर सिंह रावत, डा. पुरुषोत्तम डोभाल, परशुराम थपलियाल, मित्रानंद डबराल शर्मा, श्रीधर जमलोकी, जीवानन्द श्रीयाल, कुलानन्द भारद्वाज 'भारतीय', मुरलीमनोहर सती गढ़कवि’, वसुंधरा डोभाल, उमादत्त नैथाणी, सर्वेश्वर जुयाल, अमरनाथ शर्मा, विद्यावती डोभाल, ब्रजमोहन कबटियाल, चंडी प्रसाद भट्ट व्यथित’, गोविन्द राम सेमवाल, जयानंद किशवान, शम्भू प्रसाद धस्माना, जग्गू नौडियाल, घनश्याम रतूड़ी, धर्मानन्द उनियाल, बद्रीश पोखरियाल, जयंती प्रसाद बुड़ाकोटी, पाराशर गौड़ जैसे कवि मुख्य हैं। इनमे से कईयों ने आगे जाकर कई प्रसिद्ध कवितायेँ गढ़वाली कविता को दीं। जैसे पाराशर गौड़ का इन्टरनेट माध्यम में कई तरह का योगदान
 @Bhishma Kukreti 

19 October, 2010

इतिहास में एक मील पत्थर

प्रिय मित्रों आप को खुशी होगी कि चिट्ठी पत्री का एक प्रसिद्ध विशेष कविता विशेषांक प्रकाशित होने की इन्तजार में है। चिट्ठी पत्री गढ़वाली भाषा की सम्मानित पत्रिकाओं में शुमार है यह गढ़वाली साहित्य के लिए ऐतिहासिक क्षण है कि एक पत्रिका 150 कविताओं के साथ एकल अंक में ही 123 गढ़वाली भाषा कवियों को कविताओं एक साथ प्रकाशित करने जा रही है। विशेषांक में अलग-अलग भावों, रूपों, शैलियों, मुद्दों प्रतीकों, छवियों से जुड़ी कविताएं शामिल हैं। यह हम सभी के लिए एक गौरवशाली क्षण है। जो लोग इस मुद्दे में रुचि रखते हैं, कृपया संपर्क के लिए कॉल काल करें।

श्री मदन डुकलान, m_duklan@yahoo.com 09412993417बीसी कुकरेती 09702716940 मुम्बई।

१९२५ से १९५० का काल

सामाजिक स्थिति तो वही रही किन्तु स्थितियों में गुणकारक वृद्धि हुई। याने की शिक्षा वृद्धि, उच्च शिक्षा के प्रति प्रबल इच्छा, कृषि पैदावार की जगह धन की अत्यंत आवश्यकता, गढ़वाल से पलायन में वृद्धि, कई सामजिक कुरीतियों व सामजिक ढांचों पर कई तरह के सामाजिक आक्रमण में वृद्धि, सैकड़ों साल से चली आ रही जातिगत व्यवस्था पर प्रहार, स्वतंत्र आन्दोलन में तीव्रता और ग्रामीणों का इसमें अभिनव योगदान, शिक्षा में ब्राह्मणों के एकाधिकार पर प्रबल आघात, नए सामाजिक समीकरणों की उत्पत्ति आदि इस काल की मुख्य सामाजिक प्रवृतियां रही हैं। १९४७ में भारत को स्वतंत्रता मिलना भी इसी काल में हुआ और इस घटना का प्रभाव आने वाली कविताओं पर पड़ा। इस काल में पुरूष वर्ग का नौकरी हेतु गढ़वाली से बाहर रहने से श्रृंगार विरह रस में भी वृद्धि हुई, हिंदी व अंग्रेजी से अति मोह, वास्तुशिल्प में बदलाव, धार्मिक अनुष्ठानो में बदलाव के संकेत, कृषि उपकरणों, कपड़ों में परिवर्तन, गढ़वाली सभ्यता में बाह्य प्रभाव जैसे सामजिक स्थिति इस काल की देन है। प्रवास में गढ़वाली सामाजिक संस्थाएं गढ़वाली साहित्यिक उत्थान में कार्यरत होने लग गयीं थीं
जहाँ तक कविताओं का प्रश्न है सभी कुछ प्रथम काल जैसा ही रहा। हाँ कवियों की भाषा अधिक मुखर दिखती है और गढ़वाली कविताओं पर हिंदी साहित्य विकास का सीधा प्रभाव अधिक मुखर होकर आया है। अंग्रेजी साहित्य का भी प्रभाव कहीं-कहीं दिखने लगता है। यद्यपि यह मुखर होकर नहीं आयी है। गढ़वाली लोकवृति एवं छ्न्द्शैली में कमी दिखने लगी है। विषयों में सामजिक सुधार को प्रधानता मिली है, विषयगत व कविता शैली में नये प्रयोग भी इस काल में मिलने लगे हैं।
इस काल में जनमानस को यदि किसी कवि ने उद्वेलित किया है तो वह हैं रामी बौराणी के रचयिता बलदेव प्रसाद शर्मा दीन’, रामी बौराणी कविता आज कुमाऊनी और गढ़वाली समाज में लोकगीत का स्थान ग्रहण कर चुकी है। इस काल की दूसरी महत्वपूर्ण घटना अथवा उपलब्धि रूपमोहन सकलानी द्वारा रचित गढ़वाली में प्रथम महाकाव्य 'गढ़ बीर महाकाव्य’ (१९२७-२८) है। महाकवि भजनसिंह सिंहका इस क्षेत्र में आना एक अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धि है, कई संस्कृत साहित्य का अनुवाद भी इस युग में हुआ यथा ऋग्वेद का अनुवाद, कालिदास की अनुकृति आदि।
इस काल के कवियों में तोताकृष्ण गैरोला, योगेन्द्र पुरी , केशवानन्द कैंथोला, शिवनारायण सिंह बिष्ट, बलदेव प्रसाद नौटियाल, सदानंद जखमोला, भोलादत्त देवरानी, कमल साहित्यालंकार, भगवतीचरण निर्मोही’, सत्य प्रसाद रतूड़ी, दयाधर भट्ट आदि प्रमुख कवि हैं  
@Bhishma Kukreti

18 October, 2010

१८५० ई. से १९२५ ई. तक

गढवाली में आधुनिक कविताएँ लिखने का आरम्भ ब्रिटिशकाल में ही शुरू हुआ। हाँ १८७५ ई. के बाद प. हरिकृष्ण रुडोला, लीलादत्त कोटनाला एवं महंत हर्षपुरी कि त्रिमूर्ति ने गढवाली आधुनिक कविताओं का श्रीगणेश किया यद्यपि इन्होंने कविता रचना उन्नीसवीं सदी में कर दिया था। इन कविताओं का प्रकाशन ' गढ़वाली' पत्रिका एवं गढ़वाली का प्रथम कविता संग्रह 'गढवाली कवितावली' में ही हो सका। 

बीसवीं सदी के प्रारम्भिक काल गढ़वाली समाज का एक अति महत्वपूर्ण काल रहा है। ब्रिटिश शासन कि कृपा से ग्रामीणों को शासन के तहत पहली बार शिक्षा ग्रहण का वस्र मिला जो कि गढवाली राजा के शासन में उपलब्ध नहीं था। प्राथमिक स्कूलों के खुलने से ग्रामीण गढ़वाल में शिक्षा के प्रति रूचि पैदा हुई। पैसा आने से व नौकरी के अवसर प्राप्त होने से गढ़वाली गढ़वाल से बहार जाने लगे खासकर सेना में नौकरी करने लगे। पलायन का यह प्राथमिक दौर था। समाज में प्रवासियों और शिक्षितों कि पूछ होने लगी थी एवं समाज में इनकी सुनवाई भी होने लगी थी। समाज एक नये समाज में बदलने को आतुर हो रहा था। धन कि आवश्यकता का महत्व बढने लगा था। व्यापार में अदला-बदली (बार्टर) व्यवस्था और सहकारिता के सिद्धांत पर चोट लगनी शुरू हो गयी थी और कहीं ना कहीं सामाजिक सुधार कि आवश्यकता महसूस भी हो रही थी। स्वतंत्रता आन्दोलन गढवाल में जड़ें जुमा चुका ही था।


इस दौर में सामाजिक बदलाव व समाज कि अपेक्षाएं व आवश्यकताओं का सीधा प्रभाव गढ़वाली कविताओं पर पड़ा। सामाजिक उत्थान, प्रेरणादायक, जागरण, धार्मिक, देशभक्ति जैसी ब्रिटी इस समय कि कविताओं में मिलती है। कवित्व संस्कृत और खड़ीबोली से पूरी तरह प्रभावित है। यहाँ तक कि गढ़वाली भाषा के शब्दों को छोड़ हिंदी शब्दों कि भरमार इस युग की कृतियों में मिलती हैं। यह कर्म आज तक चला आ रहा है। चूँकि कर्मकांडी ब्राह्मणों में पढ़ने-पढ़ाने का रिवाज था और आधुनिक शिक्षा ग्रहण में भी ब्राह्मणों ने अगल्यार ल़ी अतः १९२५ तक आधुनिक कवि ब्राह्मण ही हुए हैं। 


इस समय के कवियों में रुडोला, कोटनाला, पूरी त्रिमूर्ति के अतिरिक्त आत्माराम गैरोला, सत्यशरण रतूड़ी, भवानीदत्त थपलियाल, तारादत्त गैरोला, चंद्रमोहन रतूड़ी, शशि शेखारानंद सकलानी, सनातन सकलानी, देवेन्द्र रतूड़ी, गिरिजा दत्त नैथाणी, मथुरादत्त नैथाणी सुर्द्त्त सकलानी, अम्बिका प्रसाद शर्मा, रत्नाम्बर चंदोला, दयानन्द बहुगुणा, सदानन्द कुकरेती मुख्य कवि हैं। 


काव्य संकलनों में गढ़वाली कवितावली (१९३२) का विशेष स्थान है, जोकि विभिन्न कवियों की कविताओं का प्रथम संकलन भी है। इसके सम्पादक तारादत्त गैरोला हैं और प्रकाशक विश्वम्बर दत्त चंदोला हैं। इस संग्रह का परिवर्तित रूप में दूसरा संग्रह १९८४ में चंदोला की सुपुत्री ललिता वैष्णव ने प्रकाशित किया। गढ़वाली कवितावली गढ़वाली भाषा का प्रथम संग्रह है और ऐतिहासिक है। किन्तु इस संग्रह में भूमिका व कवियों के बारे में समालोचना व जीवनवृति हिंदी भाषा में है। गढ़वाली साहित्य की विडम्बना ही है क़ि आज भी काव्य संग्रहों में भूमिका अधिकतर हिंदी में होती है।


@ Bhishma Kukreti 

पूर्व - आधुनिक काल

गढवाली साहित्य का आधुनिक काल १८५० ई. से शुरू होता है। किन्तु आधुनिक रूप में कविताएँ पूर्व में भी रची जाती रही हैं। हाँ उनका लेखाजोखा कालग्रसित हो गया है। किन्तु कुछ काव्य का रिकॉर्ड मिलता है। तेरहवीं सदी में रचित काशिराज जयचंद कि कविता का रिकॉर्ड बताता है कि, कविताएँ गढवाल में विद्यमान थीं। डा. हरिदत्त भट्ट शैलेश’, भजनसिंह सिंह, मोहनलाल बाबुलकर, अबोधबंधु बहुगुणा, चक्रधर बहुगुणा एवं शम्भुप्रसाद बहुगुणा आदि अन्वेषकों ने उन्नीसवीं सदी से पहले उपलब्ध (रेकॉर्डेड) साहित्य के बारे में पूर्ण जानकारी दी है। अट्ठारहवीं सदी कि कविता जैसे 'मांगळ' गोबिंद फुलारी' घुर्बन्शी' घोड़ी' पक्षी संघार (१७५० ई. से पहले) जैसी कविताएँ अपने कवित्व पक्ष कि उच्चता और गढवाली जनजीवन कि झलक दर्शाती हैं। गढवाल के महारजा सुदर्शनशाह कृत सभासार (१८२८) यद्यपि ब्रज भाषा में है। किन्तु प्रत्येक कविता का सार गढवाली कविता में है। इसी तरह दुनिया में एकमात्र कवि जिसने पांच भाषाओँ में कविताएँ (संस्कृत, गढवाली, कुमाउनी, नेपाली और खड़ीबोली) रचीं और एक अनोखा प्रयोग भी किया कि, दो भाषाओँ को एक ही कविता में लाना याने एक पद एक भाषा का और दूसरा पद दूसरी भाषा का. ऐसे कवि थे गुमानी पन्त (१७८०-१८४०
@ Bhishma Kukreti 

आधुनिक कविता इतिहास

यद्यपि गढवाली कविता कि समालोचना एवं कवियों कि जीवनवृति लिखने कि शुरुआत पंडित तारादत्त गैरोला ने १९३७ ई. से की किन्तु अबोधबंधु बहुगुणा को गढवाली कविता और गद्य का क्रमगत इतिहास लिखने का श्रेय जाता है। अतः कविता काल कि परिसीमन उन्हीं के अनुसार आज भी हो रही है। इस लेख में भी गढवाली कविता कालखंड बहुगुणा के अनुसार ही विभाजित की जाएगी डा. नन्दकिशोर ढौंडियाल ने कालखंड के स्थान पर नामों को महत्व दिया। जैसे पांथरी युग या सिंह युग।
@Bhishma Kukreti

17 October, 2010

परम्पराओं में निहित लोककल्याण

श्री बदरीनाथ मंदिर के कपाट खुलने और बंद किये जाने की मान्य परम्पराओं के तहत ज्योतिषीय गणनाओं में लोक कल्याण के साथ ही देश, राज्य की भविष्यगत प्रगति व सुख समृद्धि का भी ख्याल रखा जाता है। श्री बदरीनाथ मंदिर के कपाट बंदी की प्रक्रिया में संपादित की जाने वाली ज्योतिषीय गणना के अन्तर्गत मुहूर्त तिथि में ग्रह व नक्षत्रों की पुण्य योगीय उपस्थिति का सर्वथा ध्यान रखे जाने का विधान है। इसके तहत मुहूर्त के लिए ज्योतीष गणना मंे भगवान बदरीनाथ, मुख्य आराधक रावल व देश की राशियों में नियतकाल में मौजुद ग्रह-नक्षत्र की स्थितियों का आंकलन कर पुण्य तिथि का निर्धारण किया जाता है।

आंकलन में माना गया है कि, नियतकाल के संपादन में देश, राज्य व लौकिक जगत का कल्याण निहित हो। निर्वह्न की जाने वाली वैदिक रीतियों में भगवान बदरीश की राशि वृश्चिक में सूर्य का संक्रमण होना अनिवार्य है। वहीं दोषरहित नक्षत्रों व ग्रहों की उपस्थिति का भी विशेष महत्व माना गया। है।

इस वर्ष दैवीय आपदाओं के कारण राज्य में हुई क्षति और तीर्थस्थलों को पहुंचे नुकसान के दृष्टिगत भी बदरीनाथ मंदिर के कपाटबंदी के मुहूर्तकाल की तिथि निर्धारण में आने वाले समय का खास ख्याल रखा गया। इसी के तहत कपाट बंदी से पूर्व संपादित पंच पूजाओं के शुभारम्भ तिथि के निर्धारण में भी ग्रह नक्षत्रों की पुण्य स्थिति का आंकलन तय किया जाता है। धर्माधिकारी जेपी सती ने कहा कि भगवान बदरीश स्वयं इस तीर्थ में लोक कल्याण के लिए ध्यानस्थ हैं। लिहाजा धार्मिक रीति नीति के तहत भी ज्योतिषीय गणनाओं में जगत कल्याण की अवधारणा को महत्व दिया गया। है। विश्व के सर्वोच्च तीर्थ होने के नाते श्री बदरीनाथ धाम के कपाट खुलने और बंद किये जाने में भी इसी बात का ख्याल रखा जाता है। 


@ Dhanesh Kothari

16 October, 2010

नाथ संप्रदायी साहित्य का प्रभाव

चूँकि गढवाल में नाथ सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव सातवीं सदी से होना शुरू हो गया था और इस साहित्य ने गढ़वाल के जनजीवन में स्थान बनाना शुरू कर दिया था और ग्यारवीं सदी तक यह साहित्य जनजीवन का अभिन्न अंग बन गया था। अथ इस साहित्य के भाषा ने खश जनित गढ़वाली भाषा में परिवर्तन किये। नाथ साहित्य ने खश जनित गढ़वाली भाषा पर शैलीगत एवम शब्द सम्पदा गत प्रभाव डाला किन्तु उसकी आत्मा एवं व्याकरणीय संरचना पर कोई खास प्रभाव ना डाल सकी। 

हाँ नाथ सप्रदायी साहित्य ने गढवाली भाषा को खड़ी बोली, बर्ज और राजस्थानी भाषाओँ के निकट लाने में एक उत्प्रेरणा का काम अवश्य किया। यदि गढ़वाल में दरिया वाणी में मन्तर पढ़े जायेंगे तो राजस्थानी भाषा का प्रभाव गढवाली पर आना ही था। जिस तरह कर्मकांड की संस्कृत भाषा ने गढ़वाली भाषा को प्रभावित किया उसी तरह नाथ साहित्य ने गढवाली भाषा को प्रभावित किया। किन्तु यह कहना कि नाथ साहित्य गढवाली कि आदि भाषा है, इतिहास व भाषा के दोनों के साथ अन्याय करना होगा। यदि ऐसा होता तो अन्य लोक साहित्य में भी हमें इसी तरह क़ी भाषा के दर्शन होते। 

अबोधबंधु बहुगुणा ने क्योंकर नाथ संप्रदायी काव्य को आदि-गढवाली काव्य/गद्य नाम दिया होगा? किन्तु यह भी सही है नाथ सम्प्रदायी साहित्य ने मूल गढवाली भाषा को प्रभावित अवश्य किया है। नाथ समप्रदायी साहित्य के प्रभाव ने कुछ बदलाव किये किन्तु गढवाली भाषा में आमूल चूल परिवर्तन नहीं किया। यदि ऐसा होता तो आज की नेपाली सर्वथा गढवाली से भिन्न होती। हमें किसी भी भाषा के इतिहास लिखते समय निकटस्थ क्षेत्र के कृषिगत या कृषि में होने वाली भाषा /ज्ञान पर भी पुरा ध्यान देना चाहिए जिस पर अबोधबंधु बहुगुणा ने ध्यान नहीं दिया कि गढवाली, कुमाउनी और नेपाली भाषाओँ में कृषि गत ज्ञान या कृषि सम्बन्धी शब्द एक जैसे हैं। इस दृष्टि से भी नाथपंथी साहित्य गढवाली का आदि साहित्य नहीं माना जाना चाहिए। 

@Bhishma Kukreti

15 October, 2010

नाथपंथी साहित्य सन्दर्भ

बगैर नाथपंथी साहित्य सन्दर्भ रहित लेख गढवाली कविता इतिहास नहीं

डा. विष्णु दत्त कुकरेती के अनुसार नाथ साहित्य में ढोलसागर, दमौसागर, घटस्थापना, नाद्बुद, चौडियावीर, मसाण, समैण, इंद्रजाल, कामरूप जाप, महाविद्या, नर्सिंग की चौकी, अथ हणमंत, भैर्बावली, नर्सिंग्वाळी, छिद्रवाळी, अन्छरवाळी, सैदवाळी, मोचवाळी, रखवाळी, मैमदा रखवाळी, काली रखवाळी. कलुवा रखवाळी, डैण रखवाळी, ज्यूडतोड़ी रखवाळी, मन्तरवाळी, फोड़ी बयाळी, कुर्माख़टक, गणित प्रकाश, संक्राचारी विधि, दरीयाऊ, ओल्याचार, भौणा बीर, मन्तर गोरील काई, पंचमुखी हनुमान, भैर्वाष्ट्क, दरिया मन्तर, सर्व जादू उक्खेल, सब्दियाँ, आप रक्षा, चुड़ा मन्तर, चुड़ैल का मन्त्र, दक्खण दिसा, लोचडा की वैढाई, गुरु पादिका, श्रीनाथ का सकुलेश, नाथ निघंटु आदि काव्य शास्त्र प्रमुख हैं।  
@Bhishma Kukreti 

लोकसाहित्य में मनोविज्ञान एवं दर्शन

नाथपन्थी साहित्य और गढ़वाली लोकसाहित्य में मनोविज्ञान एवम दर्शनशास्त्र

नाथपंथी साहित्य आने से गढवाली भाषा में मनोविज्ञान और दर्शनशास्त्र की व्याख्याएं जनजीवन में आया। यह एक विडम्बना ही है की कर्मकांडी ब्राह्मण जिस साहित्य की व्याख्या कर्मकांड के समय करते हैं वह विद्वता की दृष्टि से उथला है, और जो जन साहित्य सारगर्भित है, जिसमें मनोविज्ञान की परिभाषाएं छुपी हैं, जिस साहित्य में भारतीय षट दर्शनशास्त्र का निचोड़ है उसे सदियों से वह सर्वोच्च स्थान नहीं मिला जिसका यह साहित्य हकदार है। नाथपंथी साहित्य के वाचक डळया नाथ या गोस्वामी, ओल्या, जागरी, औजी/दास होते हैं। किन्तु सामजिक स्थिति के हिसाब से इन वाचकों को अछूतों की श्रेणी में रखा गया और आश्चर्य यह भी है की आमजनों को यह साहित्य अधिक भाता था/है और उनके निकट भी रहा है। 
@Bhishma Kukreti

गढ़वाली की आदिकाव्य शैली

गढवाली भाषा का आदिकाव्य (Prilimitive Poetry) बाजूबंद काव्य है जो की दुनिया की किसी भी भाषा कविता क्षेत्र में लघुतम रूप की कविताएँ हैं। ये कविताएँ दो पदों की होती हैं जिसमें प्रथम पद निरर्थक होता है पट मिलाने के निहित प्रयोग होता है द्वितीय चरण सार्थक व सार्ग्वित होता है। गढवाली काव्य की यह अपनी विशेषता लिए विशिष्ठ काव्य शैली है बाजूबंद काव्य अन्य लोक गीतों के प्रकार और कवित्व में भी गढ़वाली भाषा किसी भी बड़ी भाषा के अनुसार वृहद रूप वाली है, सभी प्रकार के छंद, कवित्व शैली गढवाली लोकगीतों में मिलता है। 
@Bhishma Kukreti

14 October, 2010

आधुनिक गढ़वाळी कविता का इतिहास

गढवाली भाषा का प्रारम्भिक काल
गढवाली भाषायी इतिहास अन्वेषण हेतु कोई विशेष प्रयत्न नही हुए हैं, अन्वेषणीय वैज्ञानिक आधारों पर कतिपय प्रयत्न डा गुणा नन्द जुयाल, डा गोविन्द चातक, डा. बिहारीलाल जालंधरी, डा. जयंती प्रसाद नौटियाल ने अवश्य किया। किन्तु तदुपरांत पीएचड़ी करने के पश्चात इन सुधिजनो ने अपनी खोजों का विकास नहीं किया और इनके शोध भी थमे रह गये डा. नन्दकिशोर ढौंडियाल व इनके शिष्यों के कतिपय शोध प्रशंसनीय हैं पर इनके शोध में भी क्रमता का नितांत अभाव है. चूँकि भाषा इतिहास में क्षेत्रीय इतिहास, सामाजिक विश्लेषण, भाषा विज्ञान आदि का अथक ज्ञान व अन्वेषण आवश्यक है। अतः इस विषय पर वांछनीय अन्वेषण की अभी भी आवश्यकता है. अन्य विद्वानों में श्री बलदेव प्रसाद नौटियाल, संस्कृत विद्वान् धस्माना, भजनसिंह ’सिंह’, अबोधबंधु बहुगुणा, मोहनलाल बाबुलकर, रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी', भीष्म कुकरेती आदि के गढवाळी भाषा का इतिहास खोज कार्य वैज्ञानिक कम भावनात्मक अधिक हैं। इन विद्वानो के कार्य में क्रमता और वैज्ञनिक सन्दर्भों का अभाव भी मिलता है. इसके अतिरिक्त सभी विद्वानो के अन्वेषण में समग्रता का अभाव भी है. जैसे डा. चातक और गुणानन्द जुयाल के अन्वेषणों में फोनोलोजी भाषा विज्ञानं है, डा. जालंधरी ने ध्वनियों की खोज की है पर क्षेत्रीय इतिहास के साथ कोई तालमेल नही है. अबोध बन्धु बहुगुणा ने नाथपंथी भाषा साहित्य को आदि गढ़वाली का नाम दिया है। किन्तु यह कथन भी भ्रामक कथन है. नाथपंथी साहित्य में गढ़वाली है, किन्तु नाथपंथी साहित्य संस्कृत के धार्मिक, अध्यात्मिक, कर्मकांडी साहित्य जैसा है जिसे सभी हिन्दू कर्मकांड या अध्यात्मिक अवसरों पर प्रयोग करते हैं. उसी तरह नाथपंथी साहित्य में गढवाली अवश्य है पर यह नितांत गढवाली भाषा नही कहलायी जाएगी।
डा. शिवप्रसाद डबराल ने अपने उत्तराखंड के इतिहास में पुरुषोत्तम सिंह समय वाले शिलालेख, अशोक चल का गोपेश्वर (उत्तरखंड का इतिहास भाग -१ पृष्ठ -९७-९८), मंकोद्य काव्य, दिल्ली सल्तनत, आदि के सन्दर्भ से सिद्ध किया की गढवाली और कुमाउनी भाषाओँ का उद्भव खश भाषा से हुआ यानि की कुमाउनी और गढवाली भाषाओँ का उद्भव कैंतुरा शासनकाल (६५० ई. से पहले)
, ( कुमाऊं पर कैंतुरा वंशीय शासन था, और गढ़वाल में चौहान/पंवार बंशीय शासन ६५० ईसवी से १९४७ तक रहा है) में हुआ. डा. बिहारी लाल जालंधरी (२००६ इ.) के गढ़वाली -कुमाउनी भाषाई ध्वनियों के अन्वेषण से भी सिद्ध हुआ है कि कुमाउनी-गढवाली भाषाओं की मा एक ही भाषा थीं . कुमाउनी भाषा लोक साहित्य के संकलनकर्ता भी स्वीकार करते हैं कि गढ़वाली कुमाउनी कि माँ एक ही भाषा रही होगी। चूँकि गढवाली भाषा के अतिरिक्त अभी तक यह सिद्ध नहीं हुआ/अथवा प्रमाण मिले हैं कि पंवार वंशीय या चौहान वंशीय शासनकालों में गढवाळी भाषा के अतिरिक्त कोई अन्य भाषा भी गढ़वाल की जन भाषा थी तो सिद्ध होता है कि गढ़वाल राष्ट्र में खश भाषा समापन के उपरान्त गढवाली भाषा ही गढ़वाल कि जन भाषा थी। प्रथम ईसवी के करीब खश भाषा गढवाल में बोली जाती रही है और धीरे-धीरे खश भाषा की अवन्नति या क्षरण हुआ। वह खश अपभ्रंश में बदली और धीरे इसने गढ़वाली का रूप लिया और छटी सदी आते-आते खश अपभ्रंश गढ़वाली में बदल चुकी थी। छटी सदी से गढवाल में यद्यपि शासन का चक्र बदलता गया किन्तु चौहान /पंवार वंशीय शासन में नवीं सदी से अठारवीं सदी तक कोई भारी परिवर्तन गढ़वाल में नहीं आया हाँ भारत से प्रवासी गढ़वाल में बसते गये किन्तु उन्होंने गढ़वाली भाषा में कोई आमूल परिवर्तन नहीं किया। बस अपने साथ लाये शब्दों को गढवाली में मिलाते गए होंगे। निष्कर्ष में कह सकते हैं कि गढवाली भाषा से पहले गढ़वाल में खश अपभ्रंश का बोलबाला था जो कि खश भाषा कि उपज थी या यों कह सकते हैं कि गढ़वाली भाषा की माँ खश भाषा है और छटी सदी से लेकर ब्रिटिश काल के प्रारम्भ होने तक गढ़वाल राष्ट्र में एक ही जन भाषा थी और वह थी गढवाली भाषा। और यदि खश अपभ्रंश को गढवाली भाषा माने तो गढवाल देश में गढवाली भाषा प्रथम सदी से विद्यमान रही है। 
@Bhishma Kukreti

13 October, 2010

समौ

चंदरु दिल्ली बिटि घौर जाणों तय्यार छौ, अर वेका गैल मा छौ तय्यार झबरु। झबरु उमेद कु पाळ्यूं कुत्ता छौ। पाल्ळं से लेकि कुछ दिन पैलि तक उमेद अर वेकी स्वेण थैं झबरु से भारी आस छै। लेकिन अजकाल द्वी बड़ा परेशान छा। ठीक इन बग्त चंदरु दिल्ली काम से पौंछी। माना कि, उमेदा कु द्‍यब्ता दैणूं ह्‍वेगे हो। हलांकि दिल्ली कि लाइफ़ मा चंदरु कि द्वी चार दिनै कि खातिरदारी मा ही उमेदा थैं असंद औंण लगि छै। पण, यख त मोल हर चीज कू च। स्यू उमेदा का घौर रयां कु कर्ज चंदरु परैं बि ह्‍वे। ये ऐसान का बदला ही चंदरु झबरु सणिं घौर लिजाण कू राजी ह्‍वे।
उमेदन् बोली
खुब बोलि ब्यट्टा तिन
चंदरु कि बात बीच मा ही काटिक उमेदन् बोलि
ज्यूंद रौ म्यरा लाटा
अफ्वू उमेद बर्सूं बिटि घौर नि गै छौ। ब्वै आज बि यकुलासी का दिन छै काटणीं च घौर मु। उमेद कु ध्यान ब्वै परैं वन्न त कबि नि जागी। पण, आज उमेद थैं ब्वै का यकुलास कि भारी चिंता ह्‍वईं छै। घैर मु ब्वै क दगड़ रिश्ता कि तरां दिल्ली कि मैंगै मा झबरु बि भारी प्वड़न लगि छौ। तन्न बि यूं शैरूं कु रिवाज च कि, बिगर आमदनी का त शैद ही क्वी मनख्यात बि कैमा जोड़ू। स्यू चंदरु कु दिल्ली आगमन जोड़ जुगति अर उमेद का तड़तड़ा भाग कि ही बात छै। झबरु कि गाड़ीं असंद मा ब्वै याद औण बि लाजिमी ही छै। उमेद का चंट्ट दिमाग कि चकरापत्ती मा मुश्किल से पण, चंदरु फ़ंसी ही गे। , काका कुछ न सै त घौर फ़ण्ड सुदी भुकी बि करलु माचु त जग्वाळ त ह्‍वे जाली। तब्बि घड़ेक बैठण पर छुं- बत्थ का बीच उमेदन् चंदरु काका तैं झबरु कु जीवन परिचय दे। क्य बोल्दन कि, ‘हौर्यौं कि हौर्यि छविं बल म्यर काले वी छविं। पंदरा दिनौ लै छौ वू ये सणिं मल्या मुल्क बिटि। तबारि लाटू सि छौ माद! घौर फ़ुंडा सि छोरों कि तरां..........। तुम जणदै छां काका कि शैरूं मा लंडेरु बि कुछ दिन मा चकड़ैत ह्‍वे जांदन्।...........। कबारि तू बि त घौर फ़ंडु कु ही छै। काका कि सच बाणी पर उमेद अर वेकि जनानि खित्त हैंसिक रैगेन। जनभुल्यो काकान् क्वी चखन्यो करि हो। तबारि चंदरु काकान हर्बि घौरै डोखरी, पुंगड़्यों कि दग्ड़ सौब धाणि कि छविं मिसैन अर हर्बि उमेद कि ब्वै का यकुलास कि खैरि बि वे मा लगै। इतगा मा ही घौर बिटि ब्वै का बांध्यां च्यूड़ा बुखणौं कि रस्याण द्वी स्वेण-मैसा कु जन असवादी सि ह्‍वेगे छै। उमेदन् अपणा गौळा पर हाथ फ़ेरी, जनकि ब्वै का यकुलास का रैबार से वेका गौळा पर गेड़ाख सि पड़ीगे हो। स्यू च्यूड़ा घुटणा कु उमेद थैं पाणि पेण पोड़्ये। अब तक वे तैं ब्वै कि खैर्यौं कि जगा सिर्फ़ वींकि देयिं समोण ही भलि लगदी छै।...... देख भै काका यूं शैरूं का जंजाळ मा समौमोल्येक बि नि मिल्द, अर फेर ब्वै जना र्ह्‍यन् कू टैम कैमु च। यना मनख्यों कि खातिर मि अपणा ये बग्त थैं हात से बि त नि जाण दे सकदू। काका तु बि जाण्णीं छैं कि यिं सदी मा जब सर्रि दुन्या अगनै हिटणि च, तब ब्वै जना र्ह्‍यन मा क्य समझदारी च? आखिर त्वी बोल.........सवाल काका कि तर्फ़ उछाळीक्। ब्वै त ब्याळी च। मिन अपणौ आज, भोळ बि त द्‍यखण........ अर भविष्य बि......! ज्यूंद रौ!! क्य खूब परिभाषा गढ़ीं च तेरि। चंदरुन् उमेद कि दार्शनिकताका बीच मा ही वेकि बात काटि अर बोली...... उमेद! शैद तू जात, थात अर मात (मां) कु मतबल बि भूलिगें। समौ तुम्मू त नि च पण, वीं ब्वैंल बि त कबि अपणि दुदलि चुंवैक समौ जग्वाळी होलू। छुचा! घौर मु निसक्कु शरेल....... मंगरा ह्‍वेगेन् दूर......... अर काचा लखड़ौं कु धुंयेरु जुद्‍दू। अबारि त पुंगड़ा जागदा कि क्वी नेळदू छौ त खार कि खार उपजौंदु। सोरौं का ओड़ा दिन रात बोदा कि कतगा जि सर्कि जां। आखिर ई बि त समौ ही च। उमेद, काका कि छविं सुणिं बि अजाण सि बण्यूं रै। पण, वेकि स्वेण का गौळा खिकरांण सि लगि। किलै कि तबारि ब्वै चै जादा ऊंकि फ़िकर झबरु का बारै छै। हालांकि सब्बि तरै का ढंड करि आखिर द्वी स्वेण मैसान् चंदरु तैं झबरु घौर लिजाण का बारा राजि करि ही दे।
दिल्ली बिटि घौर पौंछिक् झबरु त जन बगच्छट्ट ह्‍वेगे। जनकि वे सणिं असल आजादी अब मिली हो। चंदरु से दिल्ली कि सर्रि स्वाल खबर जण्ण का बाद ब्वैन् बि चित्‍त बुझौ कै कि शैद यि जोग भाग च। चंदरु मा बचल्ये वा कि, द्‍यूरा! ये मुल्क मा ज्वान होंण ही भलु, बुढेण त अखर्त च। खैर, उमेद कि जगा झबरु ही सै......। बार बग्त जाग त रखलु। युधिष्ठिर का त दग्ड़ा तक गै छौ........
अबि तकै का यकुलासी दिन वींल् कतगि दां बेऴ मा ही काटीन्। पण, अब झबरु कि खातिर द्वि-येक ढ्बाड़ी त ढोळन् जरूरी छा। चा काचा लखड़ौं कु धुंयेरु आंखा ही फ़ोड़ू। निथर भोळ उमेदन् सवाल भ्यजण... येक झबरु बि नि राखि जाणीं ब्वैन्। वीं थैं अजौं बि.........यिं बातै फ़िकर छै। त सना-सना यख ब्वै अपणा समौतैं जग्वाळन् लगिं छै अर सोरौं कि तरां ज्यूंराबि दूर बिटि हैंसणूं छौ..........समौ का बारा स्वोचिक्।
Copyright@ Dhanesh Kothari

शब्द हैं......



पहरों में
कुंठित नहीं होते शब्द
मुखर होते हैं
गुंगे नहीं हैं वे
बोलते हैं
शुन्य का भेद खोलते हैं


उनके काले चेहरे
सफ़ेद दुधली धुप में चमकने को
वजूद नहीं खोते अपना
मेरी या तुम्हारी तरह
झूठलाते नहीं रंगों को
काली रात या सफ़ेद दिन में

नईं सुबह की उम्मीद में

जागते हैं शब्द
 
सीलन भरे कमरों की
खिड़कियों से झांकते हुए
बंद दरवाजों से
दस्तकों का जवाब देते हैं
अपने होने के अर्थ में

शब्द हैं

पैरवी का हक है उन्हें
अपनी तटस्थता
साबित कर लेंगे वे
पैरवी करने दो उन्हें
मरेंगे नहीं शब्द
........

सर्वाधिकार- धनेश कोठारी 

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