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Showing posts from 2021

अब....!

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गिर्दा ! आपने कहा था हमारी हिम्मत बांधे रखने के लिए ‘जैंता इक दिन त आलो ये दिन ये दुनि में’ तब से हम भी इंतजार में हैं वो ‘दिन’ आने के  हिम्मत हमने अब भी बांधी हुई है उसी एक पंक्ति के भरोसे दिन हमारे आएंगे; नहीं मालूम हाँ, उन ब्योपारियों के आ गए जिनसे तुमने पूछा था ‘बोल ब्योपारी अब क्या होगा..’ तुम्हारे चले जाने के दस साल/ और उत्तराखंड राज्य बनने के बीस साल/ बाद हमारे अंदर टूटते ‘पहाड़’ को  अब कौन थामे हुए रखेगा गिर्दा! कदाचित अब हम  हिम्मत को बांध कर नहीं रख सके तो कौन कहेगा फिर हमसे ‘जैंता इक दिन त आलो ये दिन ये दुनि में’ गिर्दा! चले आओ फिर से और गाओ बार बार गाओ ... धन मयेड़ी मेरो यो जनम तेरि कोखि महान, मेरा हिमाला..... • धनेश कोठारी -  फोटो साभार - Google

साहित्यकारों के कमरों की कहानी 'मेरा कमरा'

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प्रबोध उनियाल द्वारा संपादित 'मेरा कमरा' चालीस लेखकों के अपने अध्ययन कक्ष के संबन्ध में सुखद-दुःखद अनुभवों को समेटे पठनीय व संग्रहणीय कृति है।  पुस्तक में साहित्यकारों के अध्ययन कक्ष या आवासीय लेखन कक्ष का लेखा-जोखा अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। समकालीन और तत्कालीन जीवन शैली की विविध चुनौतियों, रचनाधर्मिता में उपस्थित होने वाली समस्याओं, अनेक विसंगतियों और कुछ सकारात्मक पक्षों पर प्रकाश डालने वाली यह कृति लेखकों के जीवन के अनछुए पक्षों को प्रस्तुत करती है। इसमें संगृहीत वरिष्ठ व नए लेखकों के लेखों का सार प्रस्तुत करते हुए हर्ष हो रहा है।  पुस्तक का पहला आलेख स्वयं सम्पादक प्रबोध उनियाल का है; शीर्षक है- वह अपना कमरा। इस आलेख को पढ़ते हुए लेखक के जीवन की अविस्मरणीय झलकियाँ मिलती हैं। उनके जीवन की अध्ययन और साहित्यिक प्रतिबद्धता स्पष्ट होती है। वे किस प्रकार से किसी कम्पनी में नौकरी करते हुए भी किस प्रकार साहित्य को समर्पित रहे और उनके सामने क्या परिवारिक परिदृश्य उपस्थित हुए यही प्रमुख बात उभरकर आती है। साहित्य के प्रति लेखक की तन्मयता प्रेरणादायक है।  अगला आलेख प्रसिद्ध साहित्यकार स्

अद्भुत थी कवि चंद्रकुँवर बर्त्वाल की काव्य-दृष्टि

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• बीना बेंजवाल /  कैलासों पर उगे रैमासी के दिव्य फूलों को निहारने वाली कवि चंद्रकुँवर बर्त्वाल की काव्य-दृष्टि उस विराट सौंदर्य चेतना से संपन्न हो उन्हें रैमासी कविता का कवि बना गई। प्रकृति के इस सान्निध्य में ऋषियों जैसी सौम्यता लिए कवि स्वयं कहते हैं-  मेरी आँखों में आए वे रैमासी के दिव्य फूल!  मैं भूल गया इस पृथ्वी को मैं अपने को ही भूल गया!  सम्मोहन की इस स्थिति में जागृत हुई उनकी काव्य चेतना! और ऐसी उच्च भावभूमि पर खिली कविता का परिवेश भी हिमालयी हो गया! फूलों के ऐसे देश चलकर घन छाया में नाचते मनोहर झरने देखने तथा तरुओं के वृंतों पर बैठे विहगों की मधुर ध्वनियाँ सुनने के साथ कविता समवेत स्वर में गाने का भी ’आमंत्रण’ देने लगी- आओ गाएँ छोटे गीत पेड़ और पौधों के गीत आओ गाएँ सुन्दर गीत नदी और पर्वत के गीत आओ गाएँ मीठे गीत पवन और माटी के गीत आओ गाएँ प्यारे गीत भूमि और भुवन के गीत।  कवि इस पर्वत प्रदेश में ’नागनाथ’ की महापुरातन नगरी के बाँज, हिम-से ठण्डे पानी, लाल संध्या-से फूलों को देखते हुए काफल से स्नेह रखने वाले काफल पाक्कू का स्वर पूरे साहित्य जगत को सुनाने लगा- मेरे घर के भीतर, आकर

प्रकृति का हमसफ़र छायाकार डॉ. मनोज रांगड़

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• प्रबोध उनियाल चेहरे में हमेशा मुस्कान, व्यवहार में बेहद आत्मीयता और प्रकृति को अपनी ही नजर से देखने का अंदाज अगर देखना हो तो एक बार आप जरूर डॉ. मनोज रांगड़ से मिल सकते हैं. यूँ तो तस्वीरें बोलती ही हैं लेकिन अगर ये मनोज रांगड़ के कैमरे से खींची हों तो रुकिए! ये तस्वीरें आपसे संवाद भी करेंगी. उनका कहना है कि फोटोग्राफी उनका पेशा नहीं, ये तो उनका जुनून है या कह लो कि सुकून भी. मनोज जी टीएसडीसी में प्रबंधक पर्यावरण के पद पर कार्यरत हैं. वही ओशो ध्यान केंद्र से भी जुड़े हैं. जहाँ वे अध्यात्म और ध्यान-योग में लीन होकर स्वामी बोधि वर्त्तमान हो जाते हैं. अध्यात्म दर्शन नहीं है, अध्ययन-आत्म इसका शाब्दिक अर्थ है. तब जब ये आत्मा और प्रकृति के साथ हो तो विग्रह में अलौकिक छवि का उतरना स्वाभाविक ही है. आज विश्व फोटोग्राफी दिवस है। ऐसे में प्रकृति के इस चितेरे फोटोग्राफर को शुभकामनाएं तो दी ही जानी चाहिए. उम्मीद है कि आगे भी आपकी आँख और कैमरे के बेहतर सामंजस्य से हमें प्रकृति के अद्भुत नजारे देखने को मिलते रहेंगे जो आप अपने किसी मन के कोने से खींच कर लाते हैं।  प्रत्येक वर्ष एक जनवरी को वे ऋषिकेश में

गढ़वाली भाषा के 'की-बोर्ड' हैं 'नरेन्द्र सिंह नेगी'

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• बीना बेंजवाल शब्द विभूति एवं लोकानुभूति के माध्यम से गढ़वाली भाषा के संरक्षण, उसके प्रचार-प्रसार में अभूतपूर्व योगदान देने वाले नरेन्द्र सिंह नेगी युग प्रतिनिधि गीतकार एवं गायक हैं। उन्होंने शुरुआती दौर में पारंपरिक लोकगीतों को गाकर गढ़वाली भाषा को एक पहचान दी। लगभग तीन दर्जन कैसेट्स में लोकगीतों, गढ़वाली गीतकारों द्वारा रचे गीतों को गाने के साथ-साथ स्वयं 200 से अधिक गीत रचकर, उन गीतों को संगीत एवं स्वर देते हुए गढ़वाली भाषा के विकास में अपना ऐतिहासिक योगदान देते आ रहे हैं।  गढ़वाली भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की बात जोर-शोर से उठ रही है। बोलने वालों की संख्या कम होते जाने के कारण इसे उस मुकाम तक पहुँचाना चुनौतीपूर्ण है। ऐसी स्थिति में आप गीत, कविता, संगीत एवं गायन के साथ विभिन्न मंचों और अब सोशल मीडिया के माध्यम से भी गढ़वाली भाषा के प्रति जन-जन में लगाव पैदा करते आ रहे हैं। भाषा के जिस मानक रूप को आपने अपनाया है, वह सर्वमान्य एवं सर्वस्वीकृत है। यही कारण है कि आपके गीतों को इतनी ख्याति मिली है।  अभी तक नेगी जी के चार गीत संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं इनके गीत साहित्य मे

विलक्षण, बहुमुखी, प्रखर मेधा के धनी हैं ‘गणी’

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• नरेंद्र कठैत -  अग्नि, हवा और पानी- इन तीन ईश्वर प्रदत्त तत्वों के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। चाहे हम मंगल तक की दौड़ लगा लें या दूर प्लेटो तक की। किंतु जहां जीव जगत के लिए ये तत्व हितकर हैं वहीं इनकी अति भी अहितकर सिद्ध हुई। इसलिए ये तीन तत्व हमारे लिए अमरतत्व भी हैं और गरल भी। किंतु जिसने इन तीन तत्वों में स्वयं को ढालने की आत्मशक्ति विकसित कर ली वही सच्चा साधक है और लोकप्रिय भी। सच्चे साधक और लोकप्रियता की इसी श्रेणी में आते हैं विलक्षण, बहुमुखी, प्रखर मेधा के धनी, मातृभाषा प्रेमी भ्राता गणेश खुगशाल ‘गणी’! गणी दा की गिनती जनप्रिय अथवा लोकप्रिय महानुभावों की श्रेणी में यूं ही नहीं होती। मंच संचालन और गणी- यह अब एक किवदंती सी है बन पड़ी। किंतु मंच संचालन और ध्वनि यंत्रों से पहले आपकी सजग जनपक्षीय लेखन यात्रा 1989 से 2001 तक क्रमशः ‘दैनिक अमर उजाला’ तथा ‘दैनिक जागरण’ के संवाददाता से शुरू हुई। यकीनन कविताएं उससे पहले भी आपके लहू में रही होंगी। स्वनामधन्य गीतकार नरेन्द्रसिंह नेगी का सानिंध्य मिला तो भाषा पर पकड़ और कविता की समझ बढ़ी। अतः यह लिखने में भी कदापि गुरेज नहीं कि आप

अब नहीं दिखते पहाड़ के नए मकानों में उरख्याळी गंज्याळी

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- डॉ. सुनील दत्त थपलियाल ओखली अब हिन्दी की किताबों में ‘ओ’ से ओखली के अलावा शायद ही कहीं देखने को मिले. उत्तराखंड में ओखली को ओखल, ऊखल या उरख्याळी कहा जाता है. आज भी किसी पुराने मकान के आँगन में ओखल दिख जायेगा. आज यह घर के आँगन में बरसाती मेढ़कों के आश्रय-स्थल से ज्यादा कुछ नहीं लगते हैं. एक समय था जब ओखल का हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान हुआ करता था, हमारे आँगन का राजा हुआ करता था. ओखली को और नामों से भी जाना जाता है. कहीं इसे ओखल तो कहीं खरल कहा जाता है. अंग्रेज़ी में इसे ‘मोर्टार’ (mortar) और मूसल को ‘पॅसल’ (Pestle) कहते हैं. पॅसल शब्द वास्तव में लैटिन भाषा के ‘पिस्तिलम’ (Pistillum) शब्द से सम्बंधित है. लैटिन में इसका अर्थ ‘कुचलकर तोड़ना’ है. मारवाड़ी भाषा में ‘ओखली’ को ‘उकला’ तथा ‘मूसल’ को ‘सोबीला’ कहते हैं. कूटने को मारवाड़ी में ‘खोडना’ कहा जाता है. डेढ़ दशक पहले की बात होगी उत्तराखंड के गाँवों में सभी शुभ कार्य ओखल से ही शुरू होते थे. किसी के घर पर होने वाले मंगल कार्य से कुछ दिन पहले गाँव की महिलाएं एक तय तारीख को उस घर में इकट्ठा होती थी. जहाँ सबसे पहले ओखल को साफ़ करते और उसमें टीका

साहित्य प्रेमियों के बीच आज भी जिंदा हैं अबोध बन्धु बहुगुणा

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- आशीष सुंदरियाल गढ़वाळी भाषा का सुप्रसिद्ध साहित्यकार अबोध बन्धु बहुगुणा जी जौंको वास्तविक नाम नागेन्द्र प्रसाद बहुगुणा छौ, को जन्म 15 जून सन् 1927 मा ग्राम- झाला, पट्टी- चलणस्यूं, पौड़ी गढ़वाल मा ह्वे। आरम्भिक शिक्षा गौं मा ल्हेणा बाद बहुगुणा जी रोजगार का वास्ता भैर ऐगिन् अर वूंन अपणि उच्च शिक्षा एम.ए. (हिन्दी, राजनीति शास्त्र) नागपुर विश्वविद्यालय बटे पूरी करे। कार्य क्षेत्र का रूप मा वूंन सरकारी सेवा को चुनाव करे अर वो उपनिदेशक का पद से सेवानिवृत्त ह्वेनी।  अबोध बन्धु बहुगुणा जी को रचना संसार भौत बड़ु छ। गढ़वाळी का दगड़ दगड़ वूंन हिन्दी मा भि भौत लेखी। परन्तु गढ़वाळी साहित्य जगत मा वूंको काम असाधारण व अद्वितीय छ। शायद ही साहित्य कि क्वी इनि विधा होली जैमा अबोध जीन् गढ़वाळी भाषा मा नि लेखी हो। भुम्याळ (महाकाव्य), तिड़का (दोहा), रण-मण्डाण ( देशभक्ति कविताएं), पार्वती (गीत), घोल (अतुकांत कविताएं), दैसत (उत्तराखंड आन्दोलन से प्रेरित कविताएं), भारत-भावना (देशप्रेम कविताएं), कणखिला (चार पंक्तियों की कविताएं), शैलोदय (कविता संग्रै) अर अंख-पंख (बालगीत) गढ़वाळी पद्य साहित्य तैं अबोध जी की अनमोल देन छ।