अद्भुत थी कवि चंद्रकुँवर बर्त्वाल की काव्य-दृष्टि

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• बीना बेंजवाल / 

कैलासों पर उगे रैमासी के दिव्य फूलों को निहारने वाली कवि चंद्रकुँवर बर्त्वाल की काव्य-दृष्टि उस विराट सौंदर्य चेतना से संपन्न हो उन्हें रैमासी कविता का कवि बना गई। प्रकृति के इस सान्निध्य में ऋषियों जैसी सौम्यता लिए कवि स्वयं कहते हैं- 

मेरी आँखों में आए वे
रैमासी के दिव्य फूल! 
मैं भूल गया इस पृथ्वी को
मैं अपने को ही भूल गया! 

सम्मोहन की इस स्थिति में जागृत हुई उनकी काव्य चेतना! और ऐसी उच्च भावभूमि पर खिली कविता का परिवेश भी हिमालयी हो गया! फूलों के ऐसे देश चलकर घन छाया में नाचते मनोहर झरने देखने तथा तरुओं के वृंतों पर बैठे विहगों की मधुर ध्वनियाँ सुनने के साथ कविता समवेत स्वर में गाने का भी ’आमंत्रण’ देने लगी-

आओ गाएँ छोटे गीत
पेड़ और पौधों के गीत
आओ गाएँ सुन्दर गीत
नदी और पर्वत के गीत
आओ गाएँ मीठे गीत
पवन और माटी के गीत
आओ गाएँ प्यारे गीत
भूमि और भुवन के गीत। 

कवि इस पर्वत प्रदेश में ’नागनाथ’ की महापुरातन नगरी के बाँज, हिम-से ठण्डे पानी, लाल संध्या-से फूलों को देखते हुए काफल से स्नेह रखने वाले काफल पाक्कू का स्वर पूरे साहित्य जगत को सुनाने लगा-
मेरे घर के भीतर, आकर लगा गूंजने धीरे एक मधुर परिचित स्वर-

’काफल-पाक्कू’ ’काफल-पाक्कू’
’काफल-पाक्कू’ ’काफल-पाक्कू’। 

प्रेम को गहराई से जीने वाला यह कवि गिरि शिखरों पर छाये ’घन’ के गर्जन में सागर का संदेश पढ़ता रहा। मछलियों की चल-चितवन देखता रहा। और ’मन्दाकिनी’ से उसकी कविता इस तरह संवाद करती रही-

हे तट मृदंगोत्ताल ध्वनिते,
लहर वीणा-वादिनी
मुझको डुबा निज काव्य में 
हे स्वर्गसरि मन्दाकिनी।

प्रकृति की स्थानीयता के साथ कवि की वैश्विक दृष्टि संपन्नता मानवता की रक्षा हेतु वृक्षों से छाया, नदियों से पानी लेने वाले ’मनुष्य’ से स्वार्थ छोड़ प्रेम भाव अपनाने की बात कहते हुए ’नवयुग’ का आह्वान करती है-

आओ, हे नवीन युग, आओ हे सखा शान्ति के 
चलकर झरे हुए पत्रों पर गत अशान्ति के। 

’हिमालय’ और ’कालिदास के प्रति’ जैसी कविता लिखने वाली कवि की कलम यथार्थ के धरातल पर खड़ी हो ’कंकड़-पत्थर’ के माध्यम से बदलाव का संकेत देती हुई प्रयोगधर्मिता की ओर बढ़ती नजर आती है। 

प्रकृति के विराट रूप के दर्शन कराती कवि की कविता उनकी अस्वस्थता के कारण अंत में ’क्यों ये इतने फूल खिले’, ’रुग्ण द्रुम’ और ’क्षयरोग’ की बात करती हुई द्वार पर अतिथि बन आए मृत्युदेव ’यम’ को भी संबोधित करने लगी। ’पृथ्वी’ कविता का यह कवि प्राणों के दीपक को विलीन कर देने वाले अंधकार में अपने उर की ज्योति को शब्दों में सहेज यह कहकर 14 सितम्बर 1947 को अपनी इहलीला संवरण कर गया कि -

मैं न चाहता युग-युग तक 
पृथ्वी पर जीना
पर उतना जी लूँ
जितना जीना सुंदर हो।

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( लेखिका बीना बेंजवाल उत्तराखंड की वरिष्ठ साहित्यकार हैं )

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