साहित्यकारों के कमरों की कहानी 'मेरा कमरा'


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प्रबोध उनियाल द्वारा संपादित 'मेरा कमरा' चालीस लेखकों के अपने अध्ययन कक्ष के संबन्ध में सुखद-दुःखद अनुभवों को समेटे पठनीय व संग्रहणीय कृति है। 

पुस्तक में साहित्यकारों के अध्ययन कक्ष या आवासीय लेखन कक्ष का लेखा-जोखा अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। समकालीन और तत्कालीन जीवन शैली की विविध चुनौतियों, रचनाधर्मिता में उपस्थित होने वाली समस्याओं, अनेक विसंगतियों और कुछ सकारात्मक पक्षों पर प्रकाश डालने वाली यह कृति लेखकों के जीवन के अनछुए पक्षों को प्रस्तुत करती है। इसमें संगृहीत वरिष्ठ व नए लेखकों के लेखों का सार प्रस्तुत करते हुए हर्ष हो रहा है। 

पुस्तक का पहला आलेख स्वयं सम्पादक प्रबोध उनियाल का है; शीर्षक है- वह अपना कमरा। इस आलेख को पढ़ते हुए लेखक के जीवन की अविस्मरणीय झलकियाँ मिलती हैं। उनके जीवन की अध्ययन और साहित्यिक प्रतिबद्धता स्पष्ट होती है। वे किस प्रकार से किसी कम्पनी में नौकरी करते हुए भी किस प्रकार साहित्य को समर्पित रहे और उनके सामने क्या परिवारिक परिदृश्य उपस्थित हुए यही प्रमुख बात उभरकर आती है। साहित्य के प्रति लेखक की तन्मयता प्रेरणादायक है। 

अगला आलेख प्रसिद्ध साहित्यकार स्मृतिशेष गंगा प्रसाद विमल का है। मुझे 2019 में उनसे मिलने का सौभाग्य मिला था, उन्हें और मुझे नई दिल्ली में स्मृतिशेष डॉ. मृदुला सिन्हा द्वारा अंतरराष्ट्रीय जेपी अवार्ड से साहित्य सेवा के क्षेत्र में एक ही मंच पर सम्मानित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 

विमल जी सरल और विद्वान व्यक्ति थे। उनका आलेख इस पुस्तक में संगृहीत होना प्रसन्नता देता है। विमल जी के अंतिम आलेखों में से यह आलेख 'उस एकांत का अकेलापन' टिहरी गढ़वाल के चम्बा और सुरकण्डा क्षेत्र की सुंदरता के साथ ही लेखक के तत्कालीन अध्ययन और लेखन सम्बन्धी विवेचन को प्रस्तुत करता है। यह सुन्दर विवेचन है। 
अगला आलेख जनकवि और लाखों हृदयों के प्रिय डॉ. अतुल शर्मा का 'वो बुलाता है... हमेशा पास रहता है' शीर्षक से है। अतुल जी ने अपने पिता स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व कवि श्रीराम शर्मा 'प्रेम' के के संदर्भों को प्रस्तुत करते हुए अपने बचपन, किशोरवय और युवावस्था के दिनों की स्मृतियों को अपने कमरे के साथ जोड़ते हुए प्रस्तुत किया है। 

उन्होंने बाबा नागार्जुन सहित अनेक साहित्यकारों की यादों को उकेरने के साथ ही उत्तराखण्ड आंदोलन के लिए लिखे गए अपने जनगीतों को भी उद्धृत किया है। लिटन रोड स्थित अपने घर के अध्ययन कक्ष को उन्होंने बहुत रोचक ढंग से प्रस्तुत किया। 

सुरेश उनियाल जी का आलेख 'जहाँ मेरे लेखक ने जन्म लिया' में गढ़वाल में पुराने समय में लैंप की रोशनी में अध्ययन करने से लेकर सुविधाओं के पहुँचने तक का सुन्दर शब्द चित्रण किया है। 

इसी क्रम में गंभीर सिंह पालनी का लेख 'किसको कहूँ - मेरा कमरा' ऋण लेकर बनाए गए शहरी आवासों की व्यवस्था और गहरा चिंतन है। उन्होंने अपनी समय-समय पर प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित और पुरस्कृत कहानियों की चर्चा आलेख में की है। उनके आलेख से प्रेरणा मिलती है कि विपरीत परिस्थितियों में भी व्यक्ति साहित्य को समर्पित रह सकता है। 

फिर शिवप्रसाद जोशी द्वारा लिखित 'जिंदगी के कमरे से होकर गुजरती दुनिया' टिहरी गढ़वाल के जाख-मरोड़ा से जयपुर, बॉन और फ्राईबुर्ग तक का सफर है। ग्रामीण जीवन के अध्ययन से शहरी जीवन तक कि झलकियों से सजा आलेख सुन्दर है। 

मदन शर्मा का लेख 'बीसवें मकान का कोने वाला कमरा' एक ही शहर में बदले गए अनेक कमरों का लेखा-जोखा है। इस लेख में लेखकों की पीड़ा प्रस्तुत की गई है। पत्नी हो या घर के सदस्य लेखक द्वारा रची गयी, प्राप्त हुई या प्रकाशनाधीन पुस्तकों के साथ कितनी उपेक्षा, दुराग्रह और निंदा का भाव रखते हैं यह आलेख में पठनीय और विचाणीय है। 

डॉ. सविता मोहन का लेख 'जब कमरा आकाश हो गया' बचपन की सुन्दर स्मृतियों- जिनमें उनकी दीदी की मार, लैंप, गिट्टे, पुराना पिचका सन्दूक और उनके पिता के नैनीताल के मकान की एक कोठरी इत्यादि हैं। निश्चित रूप से आलेख श्रेष्ठ है। बिना लाग-लपेट के लेखिका ने मन के उद्गार और तत्कालीन परिस्थितियों को प्रस्तुत किया है। 

कृष्ण कुमार भगत का लेख 'कमरा सँवारने का अधूरा ख्याल' में उन्होंने गृहशोभा, जाह्नवी और सरिता आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित अपनी कहानियों तथा अपना कमरा न बन पाने की पीड़ा उकेरी है। 

शालिनी जोशी का लेख 'सन्दूक वाला कमरा' उनके बचपन, दादी, मायके और एक सन्दूक की स्मृतियों को प्रस्तुत करते हुए महिलाओं की गहन पीड़ा को प्रस्तुत करता है। 

रामकिशोर मेहता का लेख 'मैं और मेरा कमरा' अपने कमरे पर एकछत्र अधिकार की पठनीय संकल्पना को प्रस्तुत करता है। 

डॉ. एचसी पाठक के लेख 'कई कमरों से गुजरी जिंदगी' छात्रावास से लेकर सरकारी आवास मिलने तक का चित्र खींचता है; जो पठनीय है। 

रणवीर सिंह चौहान का लेख 'पुराने घर की सूरत टटोलता हूँ' उर्दू के कुछ शब्दों को सहेजते हुए  उनके जीवन की झलकियों को प्रस्तुत करता है।

ललित मोहन रयाल का लेख 'कमरे के केंद्र में रहता हूँ मैं' लोकसेवक के जीवन के चित्रांकन से प्रारम्भ होता है और होम तथा स्वछंद कमरे की अवधारणा को पुष्ट करता है। लेख अच्छा है। 

अमित श्रीवास्तव का लेख 'मैं बार-बार लौटता हूँ वहाँ' सपनों और हकीकत के घर के बीच का तारतम्य प्रस्तुत करता है। 

हेमचंद्र सकलानी का लेख 'मेरा कमरा और माँ की सीख' टिहरी गढ़वाल भगवतपुर गाँव की स्मृतियों और उनकी माँ के संस्कारों पर प्रकाश डालता है; सुन्दर लेखन है। 

शशिभूषण बडोनी का लेख 'अपना कमरा जो आज भी सपना है' पारिवारिक जीवन की भेंट चढ़े कमरे के बाद अपना कोई निजी अध्ययन कक्ष न होने की पीड़ा प्रस्तुत करता है।

गुरुचरन लिखित 'कमरे का कंसेप्ट सोचकर अच्छा लगता है' श्रीनगर गढ़वाल में अपनी पढ़ाई के दिनों से लेकर बाद में परिवार तक का चित्रण है। 

जहूर आलम लिखित 'अपने कोने की तलाश आज भी' अभावों के जीवन को चित्रित करता पठनीय लेख है।
 
महिपाल सिंह नेगी 'हम किताबों के कमरे में रहते हैं' किताबों के साथ परिवार और अपना सामंजस्य और आत्मीयता को प्रस्तुत करता सुन्दर लेख है। 

जगमोहन रौतेला का लेख 'आज भी प्रतीक्षा है उस कोने की' पत्रकारिता के जीवन में अध्ययन कक्ष की महत्ता का सुन्दर प्रस्तुतीकरण है। 

योगेश भट्ट का लेख 'मैं, मेरा कमरा और खुली खिड़कियाँ' घर में अपने एक अलग कमरे की विशेषता को दर्शाता सुन्दर आलेख है। 

रंजना शर्मा का लेख 'हम बहते धारे' यादों के कैनवास पर अतीत और वर्तमान के दृश्यों को सुन्दर ढंग से प्रस्तुत करता है। 

शिवप्रसाद सेमवाल का लेख 'न मालूम कितने घर और कमरे बदले' गढ़वाल के रुद्रप्रयाग, उखीमठ से शुरू करते हुए बेसिक शिक्षा अधिकारी, देहरादून बनने तक और उसके बाद कि उनकी जीवन यात्रा को प्रस्तुत करता है। 

मुकेश नौटियाल का लेख 'जहाँ शब्द ढल जाए वही लेखन कक्ष' उनके गाँव से लेकर अपना व्यक्तिगत अध्ययन कक्ष तक के सफर को सुन्दर ढंग से प्रस्तुत करता है। 

अनिल कार्की का लेख 'मेरे पढ़ने-लिखने का कमरा' कुमायूँ मण्डल के पिथौरागढ़ और नैनीताल की स्मृतियों को पठनीय बनाता है। 

डॉ. एमआर सकलानी का लेख 'मेरा कमरा' उनके दादाजी के घर चम्बा तथा उनके ननिहाल (जो अमर शहीद श्रीदेव सुमन का भी गाँव है- जौल) की महत्त्वपूर्ण स्मृतियों को दर्शाता श्रेष्ठ आलेख है। 

जगमोहन 'आजाद' 'वजूद का हिस्सा है वह कोना'  गाँव से शुरू करके परिवार और बेराजगारी की  पीड़ा को प्रस्तुत करता उत्तम आलेख है। 

चंद्र बी. रसाइली का लेख 'मेरे दिल और दिमाग का वर्कशॉप' उनकी अपनी आलमारियों में 30 वर्ष का स्केच है। यह लेख उनकी अध्ययनशीलता को दर्शाता है। 

राजेश पाण्डेय का लेख 'जिसकी दीवारों से बातें की मैंने' कमरे की सजीवता को प्रस्तुत करने वाला सुन्दर आलेख है। 

दिनेश कुकरेती का लेख 'एक कमरा बने न्यारा' देहरादून और मेरठ की उनकी स्मृतियों को प्रस्तुत करते हुए अध्ययन कक्ष की आवश्यकता व महत्त्व को दर्शाता है।

राजेश सकलानी का लेख 'लेखन की जगहें' अध्ययन कक्ष की उनकी संकल्पना को प्रस्तुत करता है। 

रुचिता उनियाल का लेख 'मेरा कमरा मेरा साथी' उनके विद्यार्थी जीवन में उनके मायके के कमरे से विवाहोपरांत बिछड़ने की पीड़ा को प्रस्तुत करता है। 

नवीन चन्द्र उपाध्याय का लेख 'जहाँ रहा वहाँ अपना कोना दूँढ लिया' परिवर्तनशील जीवन का यथार्थ दर्शाता है। 

महेश चिटकारिया का लेख 'बिना खिड़की के वह कमरा' उनके कॉलेज के दिनों की यादों को सुन्दर ढंग से प्रस्तुत करता है। 

ज्योति शर्मा का लेख 'कमरे की दीवारें अब आँसुओं से भीग गई' ससुराल के रिवाजों और मायके के विविध घटनाक्रम और पीड़ाओं को अभिव्यक्त करता है।

डॉ. अशोक शर्मा का लेख 'कमरों के साथ होता रहा बदलाव' ऋषिकेश, पठानकोट और लैंसडाउन इत्यादि स्थानों पर प्राचार्य रहते हुए उनके जीवन के विविध पक्षों का चित्रण है। 

प्रीति बहुखंडी के लेख ' कमरे में मैं और मुझमें कमरा' 'घर' और मन की संकल्पना को दर्शाता है। 

वैशाली डबराल का लेख 'साहित्य साधक का कमरा' 20 वर्षों के उनके अनुभव और अध्ययन को समेटे हुए है। 

रोशनी उनियाल का लेख 'मिट्टी की महक वाला कमरा' उनके बचपन की यादों को सँजोये हुए है।


किताब- मेरा कमरा, 
सम्पादक- प्रबोध उनियाल, 
प्रकाशक- काव्यांश प्रकाशन, ऋषिकेश, 
पृष्ठ- 180  
मूल्य- रु. 250
समीक्षक- डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'

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