August 2017 ~ BOL PAHADI

29 August, 2017

सिर्फ भाषणों और नारों से नहीं बचती बेटियां!

जिस पर बेटियों के साथ दुराचार व हत्या के आरोप में सीबीआई जांच के बाद न्यायालय में मुकदमा चल रहा हो, ऐसे व्यक्ति को देश के प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी जी स्वच्छता अभियान का ब्रांड एंबेसडर बनाते हैं। उनकी पार्टी सत्ता में आने के लिए ऐसे व्यक्ति के साथ वोटों का सौदा करती है। वोटों के सौदे से चुनाव जीतने के बाद उनकी पार्टी के कई बड़े नेता दुराचार के आरोपी के घर में मत्था टेकने जाते हैं।
ऐसा ही कुछ विधानसभा चुनाव के समय भी किया जाता है। वहां  भी वोटों को खरीदने के लिए दुराचार के आरोपी के साथ बड़ी ही निर्लज्जता के साथ समझौता किया जाता है। बात यहीं तक नहीं रहती, देश के प्रधान सेवक की पार्टी उनका सार्वजनिक महिमामंडन करती है और ऐसा करते हुए खुद को गौरवान्वित भी महसूस करती है। महिमामंडन के बाकायदा पोस्टर व बैनर तक लगाए जाते हैं।

हरियाणा में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री के अलावा उनके मंत्रिमंडल के अधिकांश सदस्य पिफर से दुराचार के आरोपी के दरबार में मत्था टेकने जाते हैं। इससे समझा जा सकता है कि देश किस राह पर जा रहा है, पर जिन्होंने दुराचार व हत्या के आरोपी को ब्रांड एंबेसडर बनाया। वे इसके लिए देश से माफी मांगने को तैयार नहीं हैं, क्यों? क्या इसका जवाब नहीं मिलना चाहिए देश की जनता को? अब यह कुतर्क देश को मत दीजिए कि आपको दुराचार के आरोपी के बारे कोई जानकारी नहीं थी। सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति की ओर से जब इस तरह की बेदम व लिजलिजी दलील दी जाती हैं, तो हंसी आने के साथ ही भयातुर अफसोस भी होता है। वह इसलिए कि विपक्ष पर नकेल कसने के लिए प्रधानमंत्री सार्वजनिक रुप से धमकी भरे अंदाज में कहते हैं कि विपक्ष के हर नेता की कुंडली मेरे पास है, ज्यादा बोलोगे तो सब की कुंडली सार्वजनिक कर दूंगा। ऐसा कहते हुए प्रधानमंत्री जी विपक्ष को धमकी देते हुए अपनी कुर्सी की सलामती का खेल भी खेलते हैं।

जब देश के हर नेता की कुंडली प्रधानमंत्री के हाथ में हो, तो ऐसे में यह कैसे मान लिया जाए कि जिस दुराचार व हत्या के आरोपी का प्रधानमंत्री जी सार्वजनिक रुप से महिमामंडन कर रहे थे, उसके काले कारनामों की जानकारी तक उन्हें नहीं थी। अगर यह सच है, तो प्रधानमंत्री को अपने सुरक्षा सलाहकार सहित अपनी उस टीम में ऊपर से नीचे तक भारी बदलाव तुरंत कर लेना चाहिए, जो उनको देश-दुनिया की पल-पल की खबर से अवगत कराता है। इसका मतलब यह है प्रधानमंत्री जी! कि आप अपनी जिस टीम पर आंख मूंद कर भरोसा करते हैं, वह भरोसे लायक नहीं है। जो टीम आपको दुराचार व हत्या के आरोपी का गुणगान करने और उससे नजदीकी बनाने से नहीं रोक सकती है, वह आपको कभी भी, कहीं भी भयानक राजनैतिक मुसीबत में जाने-अनजाने फंसा भी सकती है।

कथित तौर पर धर्म की आड़ में कई बेटियों के साथ दुराचार करने वाला एक गुमनाम पत्र की शिकायत के बाद सीबीआई जांच में दोषी पाया जाता है। सीबीआई की जांच के बाद ही उस पर मुकदमा चलता है और न्यायालय में दोषी पाया जाता है। क्या देश के प्रधानमंत्री को सीबीआई जांच पर विश्वास नहीं है? क्या सीबीआई जांच का मतलब हर एक के लिए अलग-अलग होता है? अगर ऐसा नहीं है, तो क्यों नहीं प्रधानमंत्री जी ने उन बेटियों के हौसले को सलाम किया, जिनकी हिम्मत से राम रहीम जैसे व्यक्ति को सलाखों के पीछे जाने को मजबूर होना पड़ा।

प्रधानमंत्री जी! क्या आपने एक बार भी इस बारे में सोचने की जहमत तक नहीं उठाई कि जब आप जैसे सत्ता के शीर्ष पर बैठे और व्यवस्था परिवर्तन की बात करने वाले लोग दुराचारियों से सत्ता प्राप्त करने के लिए समझौते करते हैं, तब उस दुराचारी के खिलाफ अदालत में कानूनी लड़ाई लड़ रही बेटियां और उनके परिवार पर क्या गुजर रही होगी? वे अपने आप को कितना असहाय, कमजोर व अकेला महसूस कर रहे होंगे? वे भले ही अपने मनोबल और साहस से हिम्मत जुटाकर कानूनी लड़ाई लड़ रही थी, लेकिन उसके बाद भी उनके मन में न्याय मिलने तक यह डर हमेशा बना रहा होगा, कि जिस दुराचारी के साथ देश के प्रधानमंत्री तक खड़े हैं और उनकी पार्टी केंद्र व राज्य दोनों जगह सत्ता में है, वह दुराचारी सत्ता के बेलगाम सहयोग के कारण कहीं कानून की कमजोरियों का लाभ उठाकर बच तो नहीं निकलेगा?

उनका यह डर तब सही जान पड़ता है, जब आपकी सरकार उसे जेड प्लस श्रेणी की सुरक्षा बरकरार रखती है। इस कुतर्क का यहां कोई स्थान नहीं है कि यह सुरक्षा तो पिछली सरकार ने दी थी। पिछली सरकार ने कई मामलों सहित इस मामले में भी गलत किया था, तभी तो जनता ने उसे सत्ता से बाहर फेंक दिया था। क्या यह आपके पार्टी की सरकार की जिम्मेदारी नहीं थी कि वह पिछली सरकार द्वारा किए गए इस भयानक भूल को ठीक करे और एक दुराचार के आरोपी को उसकी सही जगह दिखाए?


बेटियां केवल नारों और भाषणों से नहीं बचती प्रधानमंत्री जी! उसके लिए बेटियों को वास्तव में बचाना पड़ता है और दुःख व पीड़ा के वक्त उनके साथ खड़ा भी होना पड़ता है। उन्हें मानसिक शक्ति भी देनी पड़ती है। जो न आपसे हो पाया और न आपकी पार्टी व उसके नेताओं, मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायकों और सांसदों से। ऐसे में कोई भी बेटी खुद के बेटी होने पर गर्व कैसे करेगी प्रधानमंत्री जी? और कैसे हर बेटी खुद को हमेशा सुरक्षित महसूस करेगी? जब सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग और उनकी पार्टी सत्ता का सौदा करने के लिए ऐसे दुराचारियों के साथ खड़ी दिखाई देती हैं, जो बेटियों की अस्मत के साथ खिलवाड़ करना अपना शगल समझते हैं। कभी विदेश दौरे और बेबात ट्वीट करने से फुर्सत मिले तो इस पर थोड़ी देर के लिए अपने मन की बातकी तरह सोचिएगा जरुर! और सोचने के बाद कोई निर्णय कर सकें, तो ट्वीट से ही सही देश की जनता, विशेषकर बेटियों, के साथ साझा जरूर करियेगा। यह देश और इसकी बेटियां आपके विचार व निर्णय की प्रतिक्षा कर रही हैं प्रधानमंत्री जी! आशा है इस बार आप कुछ करें न करें, कम से कम देश की बेटियों को निराश तो नहीं करेंगे!
आलेख- जगमोहन रौतेला, स्वतंत्र पत्रकार

24 August, 2017

कैसा है कीड़ाजड़ी का गोरखधंधा

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देवभूमि उत्तराखंड अपनी नैसर्गिकता के साथ ही प्राकृतिक संपदा से भी परिपूर्ण है। इसी संपदा में शामिल हैं वह हजारों औषधीय पादप, जो आज के दौर में भी उपयोगी हैं। यही कारण है कि आज भी चिकित्सा की आयुर्वेदिक पद्धति के शोधकर्ता हिमालय का रुख करते हैं। खासबात कि यह सब पहाड़ की पुरातन परंपरा का हिस्सा हैं। गांवों में जानकार बुजुर्ग आज भी अपने आसपास से ही इन्हीं औषधियों का उपयोग कर लेते हैं। चीन और तिब्बत में कीड़ाजड़ी परंपरागत चिकित्सा पद्धित का हिस्सा है।

ऐसी ही जड़ी बूटियों में शामिल है औषधीय पौधा कीड़ा-जड़ी। करीब 3500 मीटर से अधिक ऊंचाई पर उगने वाली इस जड़ी के दोहन की इजाजत नहीं होने और विश्व बाजार में इसकी मुहंमांगी कीमत के चलते वर्षों से अवैध दोहन किया जा रहा है। एक तरह से उत्तराखंड में यह अवैध कारोबार की शक्ल ले चुका है।

नेपाल, तिब्बत, भूटान आदि में इसे यारसागुंबाके नाम से भी जाना जाता है। जंगली मशरुम की शक्ल का यह पौधा एक खास कीड़े की इल्लियों यानि कैटरपिलर्स को मारकर उसपर पनपता है। इसका वैज्ञानिक नाम कॉर्डिसेप्स साइनेसिस है। जिस कीड़े के कैटरपिलर्स पर यह उगता है उसका नाम हैपिलस फैब्रिकस है। हिमालय में जहां से ट्री लाइन समाप्त होती है। उस जगह यह जड़ी मई से जुलाई के बीच बर्फ पिघलने के बाद उगनी शुरू होती है।

खास बात कि यह सामान्य नजर से नहीं दिखती है। इसके लिए जानकार होना आवश्यक है। बर्फ पिघलने के बाद नर्म घास के बीच उगती है। यह पौधा आधा जड़ी और और आधा कीड़े की शक्ल का होता है। इसीलिए इसका सामान्य बोलचाल का नाम कीड़ा जड़ी है। जानकारों के मुताबिक इसका सर्वाधिक उपयोग चीन करता है। खिलाड़ियों द्वारा शक्तिवर्धक दवा के रूप में इस्तेमाल होने के बाद भी डोप टेस्ट में इसका पता नहीं चलता है। चीन में इसका उपयोग स्टिरॉयड की तरह किया जाता है।

बताते हैं कि पहले विश्व बाजार में इसकी कीमत चार-पांच लाख प्रति किलोग्राम ही थी। अब एक किलो कीड़ा जड़ी के बदले में 10 से 15 लाख रूपये तक मिल जाते हैं। इसीलिए हाल के वर्षों में इसकी अहमियत बड़ी है, तो अवैध दोहन का सिलसिला भी। सूत्रों के अनुसार हाल में वनविभाग ने इस कारोबार को वैध श्रेणी में लाने का प्रयास किया है। जिसके तहत वह स्वयं लाइसेंस देकर हिमालय क्षेत्र से कीड़ाजड़ी का संग्रह कराएगा। यदि ऐसा होता है, तो युवाओं को रोजगार देने के साथ ही स्वाभाविक तौर पर प्रदेश को राजस्व का भी मिलेगा।

19 August, 2017

वीर भड़ूं कू देस बावन गढ़ कू देस

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वीर भड़ूं कू देस बावन गढ़ कू देस..., प्रख्यात लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी का यह गीत सुना ही होगा। जी हां! गढ़वाल को 52 गढ़ों का देश भी कहा जाता है। इस परिक्षेत्र में 52 राजाओं के आधिपत्य वाले यह राज्य तब स्वतंत्र थे। इनके अलावा भी गढ़वाल हिमालय क्षेत्र में थोकदारों के अधीन छोटे अन्य गढ़ भी थे। छठी शताब्दी में भारत में आए चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी इनमें से कुछ का जिक्र किया था। माना जाता है कि नौवीं शताब्दी से करीब 250 वर्षों तक यह गढ़ अस्तित्व में थे। बाद में राजाओं के बीच आपसी लड़ाईयों का फायदा पंवार वंशीय राजाओं ने उठाया। 15वीं सदी तक यह सब पंवार वंश के अधीन हो गए थे। पंवार वंश के राजा अजयपाल सिंह ने इसके बाद गढ़वाल परिक्षेत्र का सीमांकन किया।

इससे पूर्व 52 गढ़ों किस रूप में थे एक संक्षिप्त विवरण
01- नागपुर गढ़- जौनपुर परगना के इस राज्य का आखिरी राजा भजन सिंह हुआ था।
02- कोली गढ़ - यह बछवाण बिष्ट जाति के लोगों का गढ़ था।
03- रवाण गढ़ - बदरीनाथ मार्ग में इस गढ़ का नाम रवाणी जाति के वर्चस्व के कारण पड़ा।
04- फल्याण गढ़- यह फल्दकोट में था। पहले यह राज्य राजपूत और फिर ब्राहमणों का रहा। शमशेर सिंह नामक व्यक्ति ने इसे दान किया था।

05- बांगर गढ़ - यह नागवंशी राणा जाति का गढ़ था। एक बार घिरवाण खसिया जाति ने भी इस पर अधिकार जमाया था।
06- कुईली गढ़ - यह सजवाण जाति का गढ़ था। जिसे जौरासी गढ़ भी कहते हैं।
07- भरपूर गढ़- यह भी सजवाण जाति का राज्य था। यहां का अंतिम थोकदार गोविंद सिंह सजवाण था।
08- कुंजणी गढ़ - सजवाण जाति से जुड़ा एक और गढ़ जहां का आखिरी थोकदार सुल्तान सिंह था।
09- सिलगढ़ - सजवाण जाति के इस गढ़ अंतिम राजा सवल सिंह हुआ।
10- मुंगरा गढ़ - रवाईं स्थित यह गढ़ रावत जाति का था।
11- रैंका गढ़ - यह रमोला जाति का गढ़ था।
12- मोल्या गढ़ - रमोली स्थित यह गढ़ भी रमोला जाति का ही था।
13- उप्पू गढ़ - उदयपुर स्थित यह गढ़ चौहान जाति का था।
14- नालागढ़ - देहरादून जिले के इस गढ़ को बाद में नालागढ़ी के नाम से जाना गया।
15- सांकरी गढ़ - रवाईं स्थित यह गढ़ राणा जाति का था।
16- रामी गढ़ - इसका संबंध शिमला से था और यह भी रावत जाति का गढ़ था।
17- बिराल्टा गढ़ - जौनपुर में रावत जाति के इस गढ़ का अंतिम थोकदार भूप सिंह था।
18- चांदपुर गढ़- सूर्यवंशी राजा भानुप्रताप का यह गढ़ तैली चांदपुर में था। इसपर पंवार वंशीय राजा कनकपाल ने सबसे पहले जीता था।

19- चौंडा गढ़ - चौंडाल जाति का यह गढ़ सिली चांदपुर में था।
20- तोप गढ़ - यह तोपाल वंश के तुल सिंह के तोप बनाने पर जाति और गढ़ का नाम पड़ा।
21- राणी गढ़ - खासी जाति का यह गढ़ राणीगढ़ पट्टी में पड़ता था।
22- श्रीगुरू गढ़ - सलाण स्थित यह गढ़ पडियार जाति का था। इन्हें अब परिहार कहा जाता है। यहां का अंतिम राजा विनोद सिंह था।

23- बधाण गढ़- बधाणी जाति का यह गढ़ पिंडर नदी के ऊपर स्थित था।
24- लोहाब गढ़ - पहाड़ में लोहाब गढ़ से नेगी जाति का संबंध है। यहां के दिलेवर सिंह और प्रमोद सिंह वीर और साहसी भढ़ थे।
25- दशोली गढ़ - दशोली स्थित इस गढ़ को मानवर नामक राजा ने प्रसिद्धि दिलायी थी।
26- कंडार गढ़ - कंडारी जाति का यह गढ़ नागपुर परगने में था। यहां का अंतिम राजा नरवीर सिंह था। पराजित होने के बाद वह मंदाकिनी नदी में डूब गया था।

27- धौना गढ़ - इडवालस्यूं पट्टी में धौन्याल जाति का गढ़ था।
28- रतनगढ़ - धमादा जाति का यह गढ़ ब्रहमपुरी के ऊपर था।
29- एरासू गढ़ - यह गढ़ श्रीनगर के ऊपर था।
30- इड़िया गढ़ - इड़िया जाति का यह गढ़ रवाई बड़कोट में था। रूपचंद नाम के एक सरदार ने इसे तहस-नहस कर दिया था।
31- लंगूर गढ़ - लंगूर पट्टी स्थिति इस गढ़ में भैरों देव का प्रसिद्ध मंदिर है।
32- बाग गढ़- बागूणी नेगियों का यह गढ़ गंगा सलाण में था।
33- गढ़कोट गढ़ - मल्ला ढांगू स्थित यह गढ़ बगड़वाल बिष्ट जाति का था।
34- गड़तांग गढ़ - भोटिया जाति का यह गढ़ टकनौर में था।
35- वन गढ़ - अलकनंदा के दक्षिण में स्थित बनगढ़ में स्थित था यह गढ़।
36- भरदार गढ़ - यह वनगढ़ के करीब स्थित था।
37- चौंदकोट गढ़ - पौड़ी जिले के प्रसिद्ध गढ़ों में एक। इस गढ़ के अवशेष चौबट्टाखाल की पहाड़ी पर अब भी दिख जाएंगे।

38- नयाल गढ़ - कटुलस्यूं स्थित यह गढ़ नयाल जाति था। जिसका अंतिम सरदार का नाम भग्गू था।
39- अजमीर गढ़ - यह पयाल जाति का गढ़ था।
40- कांडा गढ़ - रावतस्यूं में यह गढ़ रावत जाति का था।
41- सावली गढ़ - यह सबली खाटली में था।
42- बदलपुर गढ़ - पौड़ी जिले के बदलपुर में था यह गढ़।
43- संगेला गढ़ - संगेला बिष्ट जाति का यह गढ़ नैलचामी में था।
44- गुजड़ू गढ़- यह गुजड़ू परगने में था।
45- जौंट गढ़ - यह जौनपुर परगना में था।
46- देवलगढ़ - यह देवलगढ़ परगने में था। इसे देवलराजा ने बनाया था।
47- लोद गढ़ - यह लोदी जाति का था।
48- जौंलपुर गढ़, 49- चम्पा गढ़ ,
50- डोडराकांरा गढ़, 51- भुवना गढ़,

52- लोदन गढ़।

17 August, 2017

यहां है दुनिया का एकलौता 'राहू मंदिर'


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कभी नहीं सुना होगा कि देश के किसी गांव में देवों के साथ दानव की पूजा भी हो सकती है। आश्चर्य होगा सुन और जानकर कि उत्तराखंड के एक गांव में भगवान शिव के साथ राहू को भी पूजा जाता है। इस मंदिर में भोलेनाथ शिव के साथ राहू की प्रतिमा भी स्थापित है। इस मंदिर को देश ही नहीं दुनिया का भी एकमात्र राहू मंदिर माना जाता है।

        यह मंदिर उत्तराखंड के जनपद पौड़ी गढ़वाल अंतर्गत राठ क्षेत्र के पैठाणी गांव में स्थित है। रेलवे हेड कोटद्वार से करीब 150 किमी. थलीसैण विकासखंड के पैठाणी गांव में। यह प्राचीन मंदिर पूर्वी और पश्चिमी नयार नदियो ंके संगम पर स्थापित है। राहू की धड़विहीन प्रतिमा वाला यह मंदिर अपने शिल्प से ही प्राचीनतम जान पड़ता है। मंदिर की शिल्पकला भी अनोखी और आकर्षक है।
        धार्मिक आख्यानों और दंतकथाओं में माना गया है कि जब समुद्र मंथन में चौदह रत्नों में एक रत्न अमृत भी निकला था। जिसे पीने वाला अजर अमर हो जाता। तब राहू अमृत पीने और अमर होने की लालसा में वेश बदलकर देवताओं की कतार में बैठ गया। यहां तक कि राहू ने अमृत पान भी करने लगा, तभी भगवान विष्णु को इस बात का पता चल गया और उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र से राहू का सिर धड़ से अलग कर दिया। तब राहू का सिर इस स्थान पर गिर गया।
        बताते हैं कि जिस स्थान पर राहू का कटा सिर गिरा, वहां मंदिर का निर्माण किया गया और भगवान शिव के साथ राहू की प्रतिमा भी साथ में प्रतिष्ठापित की गई। तभी से यहां देवों के साथ दानव की पूजा भी शुरू हुई। वर्तमान में यह राहू मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है।
        स्थानीय लोगों के मुताबिक यहां देश का एकमात्र राहू मंदिर स्थापित है। इसीलिए धार्मिक स्थलों में इस स्थान को भी अनूठा माना जाता है। क्योंकि यहां सदियों से देव और दानव की पूजा समान रूप से जारी है। यहां के लोगों का यह भी मानना है कि राहू की दशा की शांति और भगवान शिव की आराधना के लिए यह मंदिर पूरी दुनिया में सबसे उपयुक्त स्थान है।

(आलेख- साभार)

11 August, 2017

कब खत्म होगा युवाओं का इंतजार ?

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उत्तराखंड आंदोलन और राज्य गठन के वक्त ही युवाओं ने सपने देखे थे, अपनी मुफलिसी के खत्म होने के। उम्मीद थीं कि नए राज्य में नई सरकारें कम से कम यूपी की तरह बर्ताव नहीं करेंगी, उन्हें रोजगार तो जरूर मिलेगा। जिसके लिए वह हमेशा अपने घरों को छोड़कर मैदानों में निकल पड़ते हैं। सिलसिला आज भी खत्म नहीं हुआ है। वह पहले की तरह ही घरों से पलायन कर रहे हैं। गांव की खाली होने की रफ्तार राज्य निर्माण के बाद ज्यादा बढ़ी। सरकारी आंकड़े ही इसकी गवाही दे रहे हैं। ऐसा क्यों हुआ? जवाब बहुत मुश्किल भी नहीं।

उत्तराखंड को अलग राज्य के तौर पर अस्तित्व में आए 17 साल पूरे होने को हैं। सन् 2000 में जहां प्रदेश में बेरोजगारों की संख्या तीन लाख से कम थी, वह अब 10 लाख पार कर चुकी है। जबकि आज के दिन राज्य के विभागों और सार्वजनिक उपक्रमों में 75 हजार से अधिक पद खाली हैं। सेवायोजन के आंकड़ों के मुताबिक हरसाल करीब 50 हजार बेरोजगार पंजीकृत हो रहे हैं। चुनावी दावों के बावजूद अब तक की कोई सरकार युवाओं को एक साल में 2000 से ज्यादा नौकरियां नहीं दे सकीं।
समूह के पद खत्म कर दिए गए हैं और श्रेणी के पदों पर भर्ती के लिए खास कोशिशें नहीं हुई। अब सरकार तीन साल से अधिक वक्त तक खाली रहने वाले पदों को ही समाप्त करने पर विचार रही है। ताकि जवाबदेही से बच सके। ऐसे में राज्य में बेरोजगारी का आंकड़ा कहां पहुंचेगा अनुमान लगाना मुश्किल नहीं होगा। इसके उलट अब तक की सरकारों ने राज्य में रोजगार नीति बनाने की बजाए विभागीय कामकाज चलाने के लिए आउटसोर्सको प्रमोट करने की नीति पर जरूर फोकस किया।

जबकि, चुनाव दर चुनाव हर राजनीतिक दल युवाओं से रोजगार दिलाने के आश्वासन पर ही वोट पाती रही। फिर क्यों उनके सपनों से छल हुआ? राजनीतिज्ञ सरकारी, गैर सरकारी तमाम आंकड़ों को गिनाकर भले ही साबित कर दें उनके शासनकाल में रोजगार बढ़ा। लेकिन वह केवल सफेद झूठ ही होगा, और कुछ नहीं। लिहाजा, सवाल कि राज्य में अगर बेरोजगारों की संख्या इसी तरह बढ़ती रही, तो हालात क्या होंगे। डिग्री-डिप्लोमा के बाद भी बेरोजगार युवा अपने सपनों को कैसे पूरा करेंगे। कहना मुश्किल है। सरकार अब भी जागेगी या नहीं यह भी कहना मुश्किल है।

06 August, 2017

आखिर क्या मुहं दिखाएंगे ?



किचन में टोकरी पर आराम से पैर पसारे छोटे से टमाटर को मैं ऐसे निहार रहा था, जैसे वो शो-केस में रखा हो। मैं आतुर था कि उसे लपक लूं। इतने में ही बीबी ने कहा- अरे! क्या कर रहे हो, ये एक ही तो बचा है। कोई आ ही गया तो क्या मुहं दिखाएंगे? आजकल किचन में टमाटर होना प्रेस्टीज इश्यू हो गया है। पूरे 100 रुपये किलो हैं।
तब क्या था, मैंने टमाटर की तरफ से मुहं फेरा और चुपचाप प्याज से ही काम चलाने की सोची। दरअसल मैं अपनी भाजीको टमाटर के तड़के के बिना खाने का मोह नहीं त्याग पा रहा था।
मित्रों भोजन! साहित्य पर नजर डालें तो वैदिककाल में टमाटर का उल्लेख शायद ही किसी ने किया हो। हां गुजराती के प्रसिद्ध व्यंग्यकार विनोद भट्ट जी ने जरुर ये खोजकर लिखा कि- महाभारत में विधुर जी के घर भगवान श्रीकृष्ण को शाक-भाजी नहीं, अपितु मशरूम की खीर परोसी गई थी। रामायण को लें तो यहां भी शबरी के बेर के अलावा तुलसीदास जी ने अन्य व्यंजनों पर मौन ही साधा है।  
तो मैं भी इसके बिना मौन साध लेता हूं।

गोल गोल ये लाल टमाटर
कहां से लाएं लाल टमाटर
बीबी बोली लाए टमाटर
हम बोले क्यों लाएं टमाटर
पूरे 100 का भाव चढ़ा है
मंडी में अकड़ा सा पड़ा है
छू लेने पर बोला भईया
मत छेड़ो यार लाल टमाटर

लेने है तो बात करो
समय यूं ना बरबाद करो
मैंने कातर नजरों से देखा-
फूल रहा था लाल टमाटर
मुड़कर देखा बार-बार तो
आंख दिखाता लाल टमाटर

लेख- प्रबोध उनियाल

वह दूसरे जन्म में पानी को तरसती रही

एक परिवार में दो महिलाएं जेठानी और देवरानी रहती थी। जेठानी बहुत दुष्ट और देवरानी शिष्ट, सौम्य, ईमानदार व सेवा भाव वाली थी। दोनों के ही कोई संतान नहीं थी। देवरानी जो भी कमाकर लाती, वह अपनी जेठानी को सौंप देती और दुःख-दर्द के वक्त पूरे मनोयोग से उसकी सेवा करती। ताकि दोनों में प्रेम भाव बना रहे। किंतु देवरानी के इतना करने के बाद भी जेठानी हर समय नाराज रहती, उसके साथ किसी भी काम में हाथ नहीं बंटाती।

एक बार देवरानी बीमार पड़ गई। उसने तब भी कोई काम करना नहीं छोड़ा। वह काफी कमजोर पड़ गई। जब वह काम करने और खुद भोजन आदि तैयार करने में एकदम असमर्थ हो गई, तब उसको अपने लिए सहारे की आवश्यकता अनुभव हुई। उसने अपनी जेठानी से कुछ खाना देने को कहा। लेकिन जेठानी ने उसकी बात अनसुनी कर दी। यहां तक कि वह सिर्फ अपने लिए खाना बनाती और देवरानी को खाना नहीं देती।
जब देवरानी भूख-प्यास से व्याकुल होने लगी, तो उसने फिर अपनी जेठानी से अनुनय-विनय की। लेकिन तब भी जेठानी ने खाना नहीं दिया। जब वह मरणासन्न होकर प्यास से अत्यधिक व्याकुल हो उठी, तो उसने अपनी जेठानी से अपनी अंतिम इच्छा के रूप में एक गिलास पानी देने को कहा। लेकिन जेठानी ने एक गिलास पानी भी नहीं दिया। तब देवरानी ने मरते-मरते उसे शाप दे दिया- जिस प्रकार तूने मुझे एक गिलास पानी तक नहीं दिया, उसी प्रकार तुझे अगले जन्म में इस पृथ्वी का पानी खूंन की तरह नजर आएगा। जीवित रहते तू वर्षा के जल के लिए तड़प उठेगी।
कहावत है कि अगले जन्म में बड़ी बहू एक ऐसा पंछी बनी, जो कि जमीन के पानी को खूंन समझकर नहीं पीता है। सिर्फ वर्षा के जल के लिए तड़पता हुआ वह कहता है-सर्ग दे दी पाणि-पाणि
यानि हे आकाश में छितराए बादलों मुझे पानी दे दो। वर्षा का पानी भी डेढ़ बूंद से ज्यादा उसके गले में नहीं जा पाता।
लोककथा

01 August, 2017

फिर जीवंत हुई ‘सयेल’ की परंपरा

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हरियाली पर्व हरेलाकी तरह पहाड़ के लोकजीवन में धान की रोपाई के दौरान निभाई जाने वाली सयेलकी परंपरा भी हमारे पर्वतीय समाज में सामुहिकता के दर्शन कराती है। हरेला को हमने हाल के दिनों में सरकारी आह्वान पर कुछ हद तक अपनाना शुरू कर दिया है। मगर, सयेल की परंपरा कहीं विस्मृति की खोह में जा चुकी है। यह खेती से हमारी विमुखता को दर्शाती है। हालांकि पिछले दिनों यमकेश्वर विकास खंड के गांव सिंदुड़ी के बैरागढ़ तोक में बुजुर्ग कुंदनलाल जुगलाण की पहल पर जरूर इसे दोबारा से चलन में लाने की कोशिश हुई है।

            पहाड़ में धान की रोपाई के वक्त सयेल की शुरूआत लोक वाद्ययंत्रों ढोल दमाऊं की थाप और जागरों के बीच होती थी। इसका आशय था काश्तकार का अपने ईष्टदेव से अच्छी खेती की कामना करना। मांगलिक कार्य की तरह से धान की रोपाई की यह परंपरा आज बदलते दौर की आपाधापी के बीच लगभग खत्म हो गई। पहाड़ों से पलायन ने हरेला की तरह इसे भी भुला ही दिया।
अच्छी बात यह कि 2014 की आपदा से तबाह बैरागढ़ की खेती को दोबारा जिंदा करने के मकसद से यहां के ग्रामीण 65 वर्षीय बुजुर्ग कुंदनलाल जुगलाण की पहल पर इस सांस्कृतिक विरासत को सहेजने और आगे बढ़ाने की कोशिश से जुड़े हैं। ग्रामीणों ने सामुहिक तौर पर ढोल दमाऊं की थाप और जागरों के बीच उत्साह के साथ धान की रोपाई से पहले अपने खेतों को तैयार करने के लिए खरपतवार को हटाया।

प्रधान अरूण जुगलाण ने बताया कि पहली बार जब सयेल की परंपरा के बारे जाना, उसे लोक वाद्यों के साथ निभाने का मौका मिला, तो अपनी इस विरासत से जुड़ना बेहद अच्छा लगा। इस रिवाज को दोबारा जीवंत करने के सूत्रधार बुजुर्ग कुंदनलाल जुगलाण ने बताया कि उनकी युवावस्था तक गांवों में यह परंपरा बखुबी निभाई जाती रही। लेकिन आधुनिकता के कारण यह हमसे दशकों पीछे छुट गई। लोकवादक दाताराम और प्रकाशचंद्र ने कहा कि बुजुर्गों की यह पहल निश्चित ही नई पीढ़ी को अपने जड़ों से जुड़ने के लिए प्रेरित करेगी।

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