Posts

Showing posts from February, 2018

‘गीतेश’ की कविताओं में बच्चे सा मचलता है ‘पहाड़’

Image
युवा ‘गीतेश सिंह नेगी’ का प्रारंभिक परिचय गढ़वाली कवि, गीतकार, गजलकार, जन्म-फिरोजपुर, मूल निवास- महरगांव मल्ला, पौड़ी गढ़वाल, संप्रति- भू-भौतिकविद, रिलायंस जियो इन्फोकॉम लि. सूरत है। इस सामान्य परिचय में निहित असाधारणता की सुखद अनुभूति से आपको भी साझा करता हूं। जब गढ़वाल के ठेठ पहाड़ी कस्बों में पैदा होने से लेकर वहीं जीवनयापन कर रहे युवा निःसंकोच सबसे कहते हैं कि उन्हें गढ़वाली बोलनी नहीं आती है, तो लगता है हमारे समाज में लोकतत्व खत्म होने के कगार पर है, पर ‘घुर घुघुती घुर’ किताब के हाथ में आते ही मेरी इस नकारात्मकता को ‘गीतेश’ के परिचय ने तड़ाक से तोड़ा है। लगा पहाड़ी समाज में लोकतत्व अपने मूल स्थान में जरूर लड़खड़ाया होगा, पर दूर दिशाओं में वह मजबूती से उभर भी रहा है। जन्म, अध्ययन और रोजगार में पहाड़ का सानिध्य न होने के बाद भी ठेठ पहाड़ी संस्कारों को अपनाये ‘गीतेश’ प्रथम दृष्ट्या मेरी कई सामाजिक चिंताओं को कम करते नजर आते हैं। ‘गीतेश सिंह नेगी’ की कविता, गीत और गजल अक्सर पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ने को मिलती हैं। उनकी ‘वू लोग’ कविता मुझे विशेष पंसद है। परंतु इस कविता संग्रह की गढ़वाली कव

पहाड़ फिर करवट ले रहा है

Image
पहाड़ फिर करवट ले रहा है। युवा चेतना के साथ। वह बेहतर समाज के सपने संजोना चाहता है। वह समतामूलक समाज के साथ आगे बढ़ना चाहता है। उसकी यह उत्कंठा नई नहीं है। बहुत पुरानी है। सदियों की। दशकों की। प्रकृति प्रदत्त भी है। परंपरागत भी। ऐतिहासिक पड़ाव इसकी गवाही देते हैं। यह छटपटाहट फिर युवाओं में देखने को मिल रही है। रुद्रप्रयाग में। रुद्रप्रयाग तो एक प्रतीक है। गैरसैंण को लेकर भले ही यहां के युवक ज्यादा सक्रिय हों, लेकिन उनके स्वर पूरे उत्तराखंड़ में सुनाई दे रहे हैं। अलग-अलग रूपों में। अलग-लग मंचों पर। कहीं टुकड़ों में तो कहीं सामूहिक। कहीं गीत-संगीत में तो कहीं कविताओं में। कहीं सृजन में तो कहीं रंगमंच में। स्कूलों में नौकरी में आये शिक्षकों में भी। प्रवास में रहे रहे युवाओं मे भी। विदेश चली गई प्रतिभाओं में भी। कुछ युवा प्रशासनिक अधिकारियों में भी। युवाओं के इन स्वरों को सुनने की और इस आहट को पहचाने की जरूरत है। युवाओं ने पहाड़ को नये सिरे से समझने की कोशिश की है। नये संदर्भों में। नई चेतना के साथ। इसे एक दिशा देने की जरूरत है। इनका साथ देने की थी। उत्तराखंड में युवा चेतना अलख जगाती दिख

मछेरा जाल लपेटने ही वाला है

Image
गढ़वाली लोक साहित्य के शिखर, डा. गोविंद चातक पर विशेष ‘जब सभ्यता बहुत सभ्य हो जाती है तो वह अपनी प्राचीनता को हीन समझ कर उससे पीछा छुड़ाना चाहती है। हम बातें तो हमेशा ‘लोक’ की करते हैं, पर व्यक्तिगत जीवन अभिजात्य वर्ग जैसा जीना चाहते हैं। गढ़वाली और कुमाऊंनी समाज में यह प्रवृत्ति ज्यादा ही असरकारी हुई है, जिस कारण उनमें ‘लोक’ का तत्व खोता जा रहा है, इतना कि अब ‘मछेरा जाल लपेटने ही वाला है।’ यह कथन था, गढ़वाली लोकसाहित्य के पुरोधा डॉ. गोंवद चातक का। डॉ. चातक का जन्म ग्राम-सरकासैंणी, पट्टी- लोस्तु, (बडियारगड़), टिहरी गढ़वाल में 19 दिसम्बर, 1933 को हुआ था। पिता स्कूल में अध्यापक थे। गांव से दर्जा चार पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए वे पिता के साथ मसूरी आ गए थे। घनानंद इंटर कॉलेज, मसूरी से इंटरमीडिएट के उपरांत स्नातक इलाहबाद विश्वविद्यालय से किया। हाईस्कूल के अध्यापक प्रसिद्ध लेखक और शिक्षाविद शंभुप्रसाद बहुगुणा ने चातक जी की साहित्यिक अभिरुचि को आगे बढ़ाने में योगदान दिया। जाति प्रथा से बचपन से ही मोहभंग होने कारण वे किशोरावस्था में ही गोविंद सिंह कंडारी से गोविंद चातक बन गए थे। ‘