पहाड़ फिर करवट ले रहा है

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पहाड़ फिर करवट ले रहा है। युवा चेतना के साथ। वह बेहतर समाज के सपने संजोना चाहता है। वह समतामूलक समाज के साथ आगे बढ़ना चाहता है। उसकी यह उत्कंठा नई नहीं है। बहुत पुरानी है। सदियों की। दशकों की। प्रकृति प्रदत्त भी है। परंपरागत भी। ऐतिहासिक पड़ाव इसकी गवाही देते हैं। यह छटपटाहट फिर युवाओं में देखने को मिल रही है। रुद्रप्रयाग में। रुद्रप्रयाग तो एक प्रतीक है। गैरसैंण को लेकर भले ही यहां के युवक ज्यादा सक्रिय हों, लेकिन उनके स्वर पूरे उत्तराखंड़ में सुनाई दे रहे हैं। अलग-अलग रूपों में। अलग-लग मंचों पर। कहीं टुकड़ों में तो कहीं सामूहिक। कहीं गीत-संगीत में तो कहीं कविताओं में। कहीं सृजन में तो कहीं रंगमंच में।

स्कूलों में नौकरी में आये शिक्षकों में भी। प्रवास में रहे रहे युवाओं मे भी। विदेश चली गई प्रतिभाओं में भी। कुछ युवा प्रशासनिक अधिकारियों में भी। युवाओं के इन स्वरों को सुनने की और इस आहट को पहचाने की जरूरत है। युवाओं ने पहाड़ को नये सिरे से समझने की कोशिश की है। नये संदर्भों में। नई चेतना के साथ। इसे एक दिशा देने की जरूरत है। इनका साथ देने की थी। उत्तराखंड में युवा चेतना अलख जगाती दिख रही है। सत्तर के दशक की तरह। उसने माना कि हमारी राजनीतिक समझ ही समाज बदल सकती है। उन्होंने तत्कालीन व्यवस्था से मुठभेड़ की।

बहुत सारे आंदोलन बने। गढ़वाल विश्वविद्यालय का आंदोलन, वन आंदोलन, नशा नहीं रोजगार दो, राजनीतिक अपसंस्कृति के खिलाफ आंदोलन, तराई में जमीनों की लूट हो या महतोष मोड़ कांड, कमला कांड हो या शराब माफिया या फिर आपातकाल के खिलाफ भी स्वर। कार रैली को रोकने से लेकर गांवों के विकास की बात। सहकारिता की बात। विश्वविद्यालयों के अंदर से छात्रों की हुंकार। चेतना का एक नया आकाश बना था। उसी छात्र-युवा चेतना ने आज तक वैकल्पिक विचार की धारा को बनाये रखा है। सत्तर के दशक में उत्तराखंड युवा मोर्चा ने एक पर्चा निकला था, जिसमें गांव के आदमी से पूछा गया कि आप अपने सांसद या विधायक को जानते हो? गांव वाले ने कहा, ‘हमारे यहां गेहूं-चावल तो होता है लेकिन सांसद-विधायक नहीं होते।’ 

शायद फिर उत्तराखंड में यही माहौल बन रहा है। मैं इस बार अपने युवा साथियों के साथ था। रुद्रप्रयाग में। मौका था गैरसैंण को राजधानी बनाने के लिये महापंचायत का। बहुत सारे साथी जुटे थे। संख्या जो भी हो, लेकिन उनमें पहाड़ को देखने का अपना नजरिया था। समस्याओं को समझने और उसके समाधान भी थे। उनके पास एक खुली खिड़की है। उनके पास एक बड़ा दरवाजा है, जिसमें कई लोग आ सकते हैं। सहमति और असहमति के बीच संवाद कायम करने की क्षमता भी है। बहस की गुजाइश भी। आगे बढ़ने के लिये संकल्प भी। प्रतिकार के लिये साहस भी। गैरसैंण तो एक बहाना है। एक मुद्दा है। गैरसैंण में हमारी भावनायें भी हैं आकांक्षायें भी। उसे हम सजाना चाहते हैं, संवारना चाहते हैं। अपने मन मुताबिक बनाना भी चाहते हैं। यही भावना लगातार हमारे हाथ से छूटते जाते पहाड़ के बारे में भी है।

हिमालय के अपने हाथ से निकल जाने के संकट हम इन युवाओं में देख सकते हैं। मैं शुरुआत रुद्रप्राग के युवाओं से ही करता हूं। जब गैरसैंण का आंदोलन चला तो यहां कुछ युवा-छात्र सक्रिय हुये। लगातार वे इस मुहिम में लगे भी हैं। यहां मोहित डिमरी हैं। लगातार लोगों को इकट्ठा कर रहे हैं। बहुत कम उम्र है अभी उनकी। लेकिन बहुत गंभीरता से वे इस मुद्दे के लिये काम कर रहे हैं। पत्रकारिता में पहले से आ गये थे। एक तरह से उन्हें विरासत में पत्रकारिता मिली है। वे हमसे पहली पीढ़ी और हमारी पीढ़ी की सामाजिक धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रदीप सती ने तो अपने को बहुत मांजा है। उनके अंदर फूटने वाला गुस्सा शायद उत्तराखंड के सरोकारों से छात्र जीवन से संचित हो रहा हो। उन्होंने दिल्ली में मुख्य धारा की पत्रकारिता से भी अपने को मांजा। बहुत तरीके से। उन्होंने देश की चर्चित पत्रिका ‘तहलका’ में काम किया है। चाहते तो आगे ही बढ़ सकते थे। दिल्ली में भी वे बैचेन ही थे। उनकी बैचेनी मुझे लगता है अब शक्ल लेने लगी है। यह हमारे लिये अच्छे संकेत हैं।

दीपक बेंजवाल से आप मिलते हैं तो आपके सामने विचार और गंभीरता में लिपटी पहाड़ की वह संवेदना स्फुटित होती है जो एक सार्थंक बदलाव के लिये अपने को समर्पित कर सकती है। ऊखीमठ जैसी जगह से पत्रिका निकालना और वह भी स्तरीय सामग्री के साथ अपने आप में एक चुनौती है। चुनौती ही नहीं, इस तरह का जोखिम वही उठा सकते हैं, जिनके पास संवेदनायें हों। जो समाज के मर्म को जानते-समझते हों।

अभी एक बिल्कुल नये छात्र से हमारा परिचय हुआ है सचिन थपलियाल से। वे देहरादून डीएवी कालेज के छात्र संघ महासचिव रहे हैं। उनके अंदर बदलाव की छटपटाहट है। उनके पिता लक्ष्मी प्रसाद थपलियाल हमारे हमारे गहरे मित्रों में से हैं। 

बहुत अच्छा लगा जब हमारे सीनियर रहे सुपरिचित पत्रकार राजेन टोडरिया के पुत्र लुसन टोडरिया. ने इस पूरी मुहिम में उसी तरह अपनी उपस्थिति दर्ज कराई जैसे कभी उनके पिता पहाड़ के लिये हुंकार भरते थे।

गंगा असनोड़ा के बारे में क्या कहना। वह तो पहाड़ हैं। अडिग, थपेड़ों को झेलने वाली। संकल्प और प्रतिबद्धता में लिपटी एक ऐसी नदी का प्रवाह जो बहुत शीतल होने के बावजूद रुकावटों से टकराती है। और उन लोगों को भी चेताती जो सोचते हैं कि नहरें बनाकर वह नदियों का प्रवाह रोक सकते हैं। उन्हें नहीं पता कि नदियां अपना रास्ता खुद तैयार कर लेती है। उन्होंनें छोटी उम्र में जिस तरह से पूरी दुनिया को देख लिया है, उसके सामने अब हर बात, हर एहसास हर चुनौती बहुत छोटी है, बहुत बौनी है। उन्होंने वैकल्पिक पत्रकारिता के माध्यम से ‘रीजनल रिपोर्टर’ को जिस तरह से जनपक्षीय बनाया है वह बेमिसाल है। हमारे सीनियर और बड़े भाई पुरुषोत्तम असनोड़ा की सुपुत्री हैं। यहां और भी बहुत सारे युवाओं से मुलाकात हुई। उनमें जो जज्बा है वह नई उम्मीद जगाता है।


आलेख- चारु तिवारी, वरिष्ठ पत्रकार

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