उत्तराखंड को प्रकृति ने बेपनाह सौंदर्य से लकदक किया है। हरसाल हजारों लोग
इसी खूबसूरती के दीदार को यहां पहुंचते हैं। विश्व विख्यात फूलों की घाटी, हिमक्रीड़ा स्थल औली, झीलों की नगरी नैनीताल, पहाड़ों की रानी मसूरी, मिनी स्विट्जरलैंड पिथौरागढ़, कौसानी आदि के बाद सैलानी जब
चोपता-दुग्लबिटा पहुंचते हैं, तो
कश्मीर जैसी यहां की सुंदरता को देखकर अवाक रह जाते हैं। उन्हें विश्वास नहीं होता, कि वाकई उत्तराखंड में कोई जन्नत है।
यही कारण है कि रुद्रप्रयाग जनपद में चोपता-दुग्लबिटा आज देश विदेश के
सैलानियों की पहली पसंद बन गया है। प्रचार प्रसार और सुविधाओं के अभाव के चलते एक
दशक पहले तक यहां गिने चुने पर्यटक ही पहुंचते थे। जिन्हें जानकारी भी थी, वह भी यहां जाने से कतराते थे।
मगर, इस जगह को लाइमलाइट में
लाने के लिए 2007 में
दो दोस्तों ने हिमालय जैसे हौसले के साथ पहल की। वह थे रुद्रप्रयाग अंतर्गत उखीमठ
ब्लाक के किमाणा गांव के भारत पुष्पवान और चमोली गोपेश्वर के मनोज भंडारी।
गोपेश्वर में अचानक मुलाकात के दौरान भारत ने मनोज से चोपता-दुग्लबिटा में ईको
टूरिज्म पर चर्चा की। विचार विमर्श के बाद उन्होंने अपने ड्रीम प्रोजेक्ट पर काम शुरू
किया। सबसे पहले ईको टूरिज्म पर बेसिक जानकारी जुटाई। प्रोजेक्ट के लिए विभागों से
मदद मांगी। एक-दो विभाग तैयार भी हुए, लेकिन
जानकारी के अभाव में वह भी पीछे हट गए। तब उन्होंने खुद ही अपनी मंजिल की तरपफ
बढ़ने का निर्णय लिया।
उन्हें सबसे पहले चोपता-दुग्लबिटा में जमीन और धन की जरूरत थी। किसी तरह एक
लाख का कर्ज जुटाया और चोपता-दुग्लबिटा में ऊषाडा ग्राम पंचायत की जमीन लीज पर ली।
तत्कालीन सरपंच और ग्राम प्रधान ने इस शर्त पर अपने बुग्याळ और पंयार की भूमि दी
कि वह यहां प्रकृति से छेड़छाड़ किए बिना अपना कारोबार शुरू करेंगे, उनके द्वारा यहां किसी तरह का सीमेंट का
निर्माण नहीं किया जाएगा। पिफर उन्होंने उच्च गुणवत्ता के चार टैंट, स्लीपिंग बैग और अन्य सामान जोड़ा।
इस दौरान उन्होंने स्थानीय युवकों को साथ जोड़ने के प्रयास किए, मगर उन्हें पागल समझकर साथ नहीं आया। खैर, अपनी धुन के पक्के और हिमालय जैसे हौसले
वाले भारत और मनोज ने हार नहीं मानी। बेसिक तैयारियों के बाद उनके सामने सैलानियों
को यहां तक लाने की चुनौती थी। 2007 से 2010 तक उन्होंने सड़क इस ओर आने वाले पर्यटकों
को आमंत्रित किया, पर
कोई दुग्लबिटा में रुकने को तैयार नहीं हुआ। इसीबीच टूर ऑपेरेटर एजेंसियों से भी
संपर्क साधा। देश दुनिया में हजारों मेल भेजे और मैगपाई नाम की एक वेबसाइट बनाई।
करीब तीन साल मेहनत के बाद आखिरकार उनकी जुगलबंदी रंग लाई।
नतीजा, आज
यहां आने वाले पर्यटकों में देश के अलावा इटली, यूएसए, इंग्लैंड, नार्वे आदि के सैलानी भी शामिल हैं। मैगपाई
ईको टूरिज्म कैंप में वह पर्यटकों को ट्रेकिंग, एडवेंचर, माउंटेनिंग, रॉक क्लाइम्बिंग, स्कीइंग, बर्ड वाचिंग, पैराग्लाडिंग, योगा समेत कई गतिविधियों को संचालित करते
हैं। साथ ही केदारनाथ, तुंगनाथ, देवरियाताल, फूलों की घाटी, नीति
मलारी घाटी, हरकीदून, गंगोत्री, सहित कई स्थानों के भ्रमण की सुविधाएं भी प्रोवाइड कराते हैं।
दोनों दोस्तों की पहल का परिणाम है, कि जो लोग पहले इन वीरान बुग्याळों और पंयारों में जाने से भी हिचकते थे, यहां ईको टूरिज्म के उनके निर्णय को पागलों
वालो पफैसला बताते थे, उनके
से कई अब यहां खुद भी ईको टूरिज्म कैंप बनाकर रोजगार से जुड़ चुके हैं।
मनोज भंडारी और भारत पुष्पवान की इस जुगलबंदी से सापफ है कि चाहत हो तो
वीरानों में भी बहार लाई जा सकती है। यहां रोजगार सृजित किया जा सकता है। पहाड़ में
उनकी यह कोशिश रिवर्स माइग्रेशन की उम्मीदों को भी पंख लगा सकती है।
पहाड़ों में सपने हो सकते हैं साकार
राजनीति विज्ञान में पीजी मनोज भंडारी और गणित व समाजशास्त्र में पीजी भारत
पुष्पवान को हिमालय, बुग्याल, पेड़ पौधों, पक्षियों, वन्यजीवों, और अपने पहाड़ से बेहद प्यार है। उनका कहना
है कि हम दोनों के विचारों में समानता के चलते ही यह सब संभव हो सका। शुरूआत में
हमें भी यह रास्ता कठिन लगा, लेकिन
हमने हार नहीं मानी। 10 साल
पहले चोपता दुगलबिटा में ईको टूरिज्म शुरू करने के हमारे निर्णय को हरकोई बेकूफी
भरा फैसला मानता था। हम पहाड़ में रहकर ही रोजगार जुटाने के पक्ष में थे। बकौल भारत
मेरे पिताजी ने हमेशा हौसला दिया। वह कहते थे कि जो भी काम करो मेहनत और दिल से
करो। पीछे मुड़कर मत देखो, सफलता
जरुर मिलेगी। युवा खुद पर विश्वास करें, तो इन पहाड़ में ही अपने सपनों को साकार किया जा सकता है। युवाओं को धारणाओं
को तोड़ना होगा, तो
सरकार को भी ईको टूरिज्म के लिए युवाओं की मदद को आगे आना होगा। तभी पलायन जैसी
त्रासद स्थिति से निपटा जा सकता है।
सैलानियों को खूब भाते हैं पहाड़ी व्यंजन
मैगपाई कैंप में पर्यटकों के लिए उनकी पसंदीदा डिशेज के साथ ही स्थानीय
उत्पादों से बने भोजन को भी परोसा जाता है। जिसमें मंडवे की रोटी, गहथ का साग, झंगोरे की खीर, चौंसा, कापलू, भट्ट का राबडू, लिकुड़े
की सब्जी, लाल चावल का भात, राजमा, तोर की दाल, भंगजीरे
की चटनी, ककड़ी का रायता आदि
शामिल हैं। सीजन में उन्हें काफल और बुरांस का जूस भी उपलब्ध कराया जाता है। मनोज
कहते हैं पर्यटकों को पहाड़ी व्यंजन खूब भाते हैं। बताया कि वह आसपास के ग्रामीणों
से ही स्थानीय दालें और अन्य उत्पादों को खरीदते हैं। इससे ग्रामीणों को भी अच्छी
खासी आमदनी हो जाती है।
आलेख- संजय चौहान