उत्तराखंड
में हाल के वर्षों में ‘पलायन’ के समाधान की उम्मीद के तौर पर ‘रिवर्स माइग्रेशन’ की
कहानियां अखबारों की सुर्खियां बनीं। ताकि ऐसी कहानियां खाली होते पहाड़ों में फिर से
एक सुरक्षित और बेहतर भविष्य के प्रति विश्वास जगाने की सूत्रधार बन सकें। सन्
2018 के पहले हफ्ते में रिलीज गढ़वाली फिल्म ‘बौड़िगी गंगा’ की कहानी भी कुछ ऐसी ही स्थितियों
के इर्दगिर्द बुनी हुई है। लव ट्राएंगल के बीच यही विषय फिल्म की क्रेडिट लाइन भी हो
सकती है। जिसे जनसरोकारों से जुड़े ‘इमोशन’ को ‘कैश’ करने के लिए ही सही, जोड़ा गया है।
ड्रीम्स
अनलिमिटेड फिल्म प्रोडक्शन हाउस के बैनर तले बनी ‘बौड़िगी गंगा’ फिल्म का अनिरूद्ध गुप्ता
ने निर्माण और निर्देशन किया है। वही सबसे पहले कास्टिंग सॉन्ग ‘चला रे चला पहाड़ चला...’
में एक फौजी के किरदार में दिखते हैं। जो पहाड़ों की नैसर्गिकता, संसाधनों और संभावनाओं
की बात करते हुए प्रवासियों से वापस लौटने का संदेश देता है। उसी के गांव में नायिका
गंगा (शिवानी भंडारी) का जन्म होता है। जो आखिरकार ‘गंगा’ की तरह ही पहाड़ों से उतरकर
मैदान (शहर) में पहुंच जाती है।
फिल्म
के दूसरे हाफ में हर्षिल पहुंचे कॉलेज टूर के दौरान बांसुरी की धुन और दो अलग-अलग हादसे
गंगा को नायक जगत (प्रशांत गगोड़िया) से मिलाते हैं। गंगा को जगत के गांव लौटने की वह
वजह प्रभावित करती है, जिसमें जगत उसे नौकरी के दौरान पहाड़ी होने के कारण एक दिन स्वाभिमान
आहत होने पर गांव लौटने और यहां स्वरोजगार विकसित करने की बात बताता है। इसी दरमियां
भावावेश में उनके बीच अंतरंग संबंध बने, विवाह हुआ और फिर सैकड़ों फिल्मी कहानियों के
बतर्ज वियोग के सीन्स बौड़िगी गंगा में भी चलते चले गए।
लव
ट्राएंगल का तीसरा सिरा विलेन रणवीर (रणवीर चौहान) है। जिसने गंगा को पाने के लिए जगत
को भी अपने रास्ते से हटाने की नाकाम कोशिशें कीं। कुंवारी मां गंगा को जगत के मरने
की खबर लगी, तो वह गांव लौट गई। चमकृत ढंग से जगत उसे एक आश्रम में जिन्दा मिला और
फिर अपहरण, मारधाड़, पुलिस, विलेन की अरेस्टिंग और मां बापों का अपनी भूलों पर प्रायश्चित...
के साथ फिल्म का द एंड।
फिल्म
की कथा-पटकथा, संवाद और गीत अरुण प्रकाश बडोनी ने लिखे हैं। मनोरंजक फिल्म बनाने के
फेर में पूरी स्क्रिप्ट पुरानी हिंदी फिल्मों के कट-पेस्ट सीक्वेंस में सिमटकर रह गई।
फिल्म में ‘पलायन’ का मात्र ‘तड़का’ भर जिक्र दर्शकों को जरूर बांधे रखता है।
फिल्म
की कमजोरियों की बात करें, तो कई हैं। मसलन, कैमरावर्क, स्लिप होती एडिटिंग, कई जगह
शोर पैदा करता बैकग्राउंड स्कोर, कई किरदारों के लिए एक-दो ही आवाजों में डबिंग, किरदारों
की बेवजह भीड़, हर्षिल जैसी जगह पर आइटम सॉन्ग के अलावा प्रेगनेंसी, नायक का उपचार,
सड़कों पर लड़कियों से छेड़छाड़, कॉलेज के शिक्षक-शिक्षिका के बीच रोमांस जैसे कई लंबे
और अनावश्यक सीन आदि स्क्रिप्ट की कमजोरी को साबित करते हैं।
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हां,
‘बौड़िगी गंगा’ से आंचलिक फिल्मों को रणवीर चौहान के रूप में एक अच्छा अभिनेता जरूर
मिल गया है। बौड़िगी गंगा में शुरू से ही रणवीर अपने शानदार अभिनय, डायलॉग डिलीवरी से
अलग ही चमकते हैं। जबकि स्पेस के बावजूद शिवानी और प्रशांत खास नहीं कर पाए। पूजा काला,
राजेश मालगुड़ी, कविता बौड़ाई, विकेश, पुरूषोत्तम जेठूड़ी की परफोरमेंस ठीकठाक रही है।
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सत्या
अधिकारी की आवाज में ‘चला रे चला’ गीत आसानी से जुबां पर चढ़ता है। संजय कुमोला का संगीत
और प्रीतम भरतवाण, गजेंद्र राणा, जितेंद्र पंवार, मीना राणा, उमा पांडेय की आवाजें
कामचलाऊ ही हैं।
कुल
जमा फिल्म के तकनीकी पक्ष, स्क्रिप्ट की खामियों और भाषा के कठमालीपन को छोड़ दें, तो
‘बौड़िगी गंगा’ मूलरूप से एक प्रेमकथा होने के बाद भी जिक्रभर ही सही ‘रिवर्स माइग्रेशन’
के किस्से को गढ़ने का जोखिम जरूर उठाती है। सुबेरो घाम, भूली ऐ भूली के बाद बौड़िगी
गंगा से यह संकेत साफ है, कि फिलहाल जनसरोकारों से जुड़े विषयों की फिल्में दर्शकों
को हॉल तक खींच सकती हैं।
फिल्म
समीक्षा - गढ़वाली
फीचर फिल्म- बौड़िगी गंगा
समीक्षक-
धनेश कोठारी