18 January, 2018

‘रिवर्स माइग्रेशन’ के किस्से पर हावी ‘लव ट्राएंगल’

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उत्तराखंड में हाल के वर्षों में ‘पलायन’ के समाधान की उम्मीद के तौर पर ‘रिवर्स माइग्रेशन’ की कहानियां अखबारों की सुर्खियां बनीं। ताकि ऐसी कहानियां खाली होते पहाड़ों में फिर से एक सुरक्षित और बेहतर भविष्य के प्रति विश्वास जगाने की सूत्रधार बन सकें। सन् 2018 के पहले हफ्ते में रिलीज गढ़वाली फिल्म ‘बौड़िगी गंगा’ की कहानी भी कुछ ऐसी ही स्थितियों के इर्दगिर्द बुनी हुई है। लव ट्राएंगल के बीच यही विषय फिल्म की क्रेडिट लाइन भी हो सकती है। जिसे जनसरोकारों से जुड़े ‘इमोशन’ को ‘कैश’ करने के लिए ही सही, जोड़ा गया है।

ड्रीम्स अनलिमिटेड फिल्म प्रोडक्शन हाउस के बैनर तले बनी ‘बौड़िगी गंगा’ फिल्म का अनिरूद्ध गुप्ता ने निर्माण और निर्देशन किया है। वही सबसे पहले कास्टिंग सॉन्ग ‘चला रे चला पहाड़ चला...’ में एक फौजी के किरदार में दिखते हैं। जो पहाड़ों की नैसर्गिकता, संसाधनों और संभावनाओं की बात करते हुए प्रवासियों से वापस लौटने का संदेश देता है। उसी के गांव में नायिका गंगा (शिवानी भंडारी) का जन्म होता है। जो आखिरकार ‘गंगा’ की तरह ही पहाड़ों से उतरकर मैदान (शहर) में पहुंच जाती है।

फिल्म के दूसरे हाफ में हर्षिल पहुंचे कॉलेज टूर के दौरान बांसुरी की धुन और दो अलग-अलग हादसे गंगा को नायक जगत (प्रशांत गगोड़िया) से मिलाते हैं। गंगा को जगत के गांव लौटने की वह वजह प्रभावित करती है, जिसमें जगत उसे नौकरी के दौरान पहाड़ी होने के कारण एक दिन स्वाभिमान आहत होने पर गांव लौटने और यहां स्वरोजगार विकसित करने की बात बताता है। इसी दरमियां भावावेश में उनके बीच अंतरंग संबंध बने, विवाह हुआ और फिर सैकड़ों फिल्मी कहानियों के बतर्ज वियोग के सीन्स बौड़िगी गंगा में भी चलते चले गए।

लव ट्राएंगल का तीसरा सिरा विलेन रणवीर (रणवीर चौहान) है। जिसने गंगा को पाने के लिए जगत को भी अपने रास्ते से हटाने की नाकाम कोशिशें कीं। कुंवारी मां गंगा को जगत के मरने की खबर लगी, तो वह गांव लौट गई। चमकृत ढंग से जगत उसे एक आश्रम में जिन्दा मिला और फिर अपहरण, मारधाड़, पुलिस, विलेन की अरेस्टिंग और मां बापों का अपनी भूलों पर प्रायश्चित... के साथ फिल्म का द एंड।

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फिल्म की कथा-पटकथा, संवाद और गीत अरुण प्रकाश बडोनी ने लिखे हैं। मनोरंजक फिल्म बनाने के फेर में पूरी स्क्रिप्ट पुरानी हिंदी फिल्मों के कट-पेस्ट सीक्वेंस में सिमटकर रह गई। फिल्म में ‘पलायन’ का मात्र ‘तड़का’ भर जिक्र दर्शकों को जरूर बांधे रखता है।

फिल्म की कमजोरियों की बात करें, तो कई हैं। मसलन, कैमरावर्क, स्लिप होती एडिटिंग, कई जगह शोर पैदा करता बैकग्राउंड स्कोर, कई किरदारों के लिए एक-दो ही आवाजों में डबिंग, किरदारों की बेवजह भीड़, हर्षिल जैसी जगह पर आइटम सॉन्ग के अलावा प्रेगनेंसी, नायक का उपचार, सड़कों पर लड़कियों से छेड़छाड़, कॉलेज के शिक्षक-शिक्षिका के बीच रोमांस जैसे कई लंबे और अनावश्यक सीन आदि स्क्रिप्ट की कमजोरी को साबित करते हैं।


हां, ‘बौड़िगी गंगा’ से आंचलिक फिल्मों को रणवीर चौहान के रूप में एक अच्छा अभिनेता जरूर मिल गया है। बौड़िगी गंगा में शुरू से ही रणवीर अपने शानदार अभिनय, डायलॉग डिलीवरी से अलग ही चमकते हैं। जबकि स्पेस के बावजूद शिवानी और प्रशांत खास नहीं कर पाए। पूजा काला, राजेश मालगुड़ी, कविता बौड़ाई, विकेश, पुरूषोत्तम जेठूड़ी की परफोरमेंस ठीकठाक रही है।


सत्या अधिकारी की आवाज में ‘चला रे चला’ गीत आसानी से जुबां पर चढ़ता है। संजय कुमोला का संगीत और प्रीतम भरतवाण, गजेंद्र राणा, जितेंद्र पंवार, मीना राणा, उमा पांडेय की आवाजें कामचलाऊ ही हैं।

कुल जमा फिल्म के तकनीकी पक्ष, स्क्रिप्ट की खामियों और भाषा के कठमालीपन को छोड़ दें, तो ‘बौड़िगी गंगा’ मूलरूप से एक प्रेमकथा होने के बाद भी जिक्रभर ही सही ‘रिवर्स माइग्रेशन’ के किस्से को गढ़ने का जोखिम जरूर उठाती है। सुबेरो घाम, भूली ऐ भूली के बाद बौड़िगी गंगा से यह संकेत साफ है, कि फिलहाल जनसरोकारों से जुड़े विषयों की फिल्में दर्शकों को हॉल तक खींच सकती हैं।

फिल्म समीक्षा - गढ़वाली फीचर फिल्म- बौड़िगी गंगा

समीक्षक- धनेश कोठारी

04 January, 2018

सिंह ग्रन्थावली’: भजनसिंह ‘सिंह’ के कृत्तित्व का साक्षात्कार


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‘सिंह ग्रन्थावली’ नाम से गढ़वाली भाषा साहित्य का महत्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है। गढ़वाली साहित्य के युगपुरुष भजन सिंह ‘सिंह’ की पुस्तकों को ग्रन्थाकार सम्पादित किया है, जाने माने पुरातत्वविद एवं भाषाविद डॉ. यशवंत सिह ‘कटोच’ ने। यह ग्रन्थ पाठक को गढ़वाली भाषा के प्रबल समर्थक कवि भजन सिंह ‘सिंह’ के कृत्तित्व का साक्षात्कार कराता है।

इस ग्रन्थावली में ‘सिंह’जी की तीन प्रकाशित पुस्तकें तथा उनकी कुछ अप्रकाशित स्फुट रचनाएं संकलित की गई हैं। उनकी प्रकाशित और लोकप्रिय पुस्तकों में ‘सिंहनाद’ (सन 1930), ‘सिंह सतसई’ (सन 1985) और ‘गढ़वाली लोकोक्तियां’ (सन 1970)’ शामिल हैं। संपादक डॉ. कटोच ने इस ग्रंथावली में सिंह जी की उक्त तीन पुस्तकों के अतिरिक्त सिंह जी द्वारा सम्पादित कुछ लोकगाथाएं तथा उनके द्वारा अन्य भाषाओं से गढ़वाली में अनूदित कुछ स्फुट रचनाएं संकलित कर पाठकों के लिए ग्रन्थावली की उपादेयता बढ़ा दी है।

एक तरह से ‘सिंहनाद’ का कुल मिलाकर यह चौथा संस्करण प्रकाशित हुआ है। गढ़वाली साहित्य में ‘सिंहनाद’ ने अद्वितीय लोकप्रियता हासिल की। साहित्य मर्मज्ञों ने इसे कविवर की श्रेष्ठतम कृति बताया। यह सिंह ग्रंथावली युगपुरुष भजन सिंह ‘सिंह’ के प्रशंसको के लिए एक नायाब तोहफा है।

भजन सिंह ‘सिंह’ जी का जन्म 29 अक्टूबर 1905 में हुआ। संयोग से आधुनिक दौर में गढ़वाली की पहली कविता ‘गढ़वाली’ नामक मासिक पत्रिका में सन 1905 में ही प्रकाशित हुई। गढ़वाली भाषा और साहित्य के पुनर्जागरण के वर्तमान दौर में अगर सन 1905 को आधार मानकर चलें, तो भी 100 साल से भी अधिक समय के गढ़वाली भाषा के सक्रिय लेखन के बाद भी गढ़वाली भाषा का पाठक भाषा संबन्धी जानकारी के बारे में शंकित एवं भ्रमित रहा है। गढ़वाली भाषा के साहित्य की अनुपलब्धत्ता अथवा कमी इस बात का प्रमुख कारण हो सकती है।

गढ़वाली साहित्य में भजन सिंह ‘सिंह’ को युग प्रवर्तक के रूप में जाना जाता है। गढ़वाली साहित्य में स्वतन्त्रता पूर्व का युग ‘सिंह’ युग के नाम से जाना जाता है। सिंह ने पर्वतीय जनपदों में सुधारवादी आंदोलन का नेतृत्व किया। अतः तत्कालीन सुधारवादी युग ‘सिंह’ युग के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

सिंह जी की रचनाएं ‘सिंहनाद’ और ‘सिंह सतसई’ मूलतः काव्य कृतियां हैं। परन्तु अपनी इन दोनों पुस्तकों की भूमिका में सिंह जी ने गढ़वाली भाषा के बारे में काफी विस्तार से चर्चा की है, और जानकारी देने का प्रयास किया है। ‘सिंह ग्रन्थावली’ का अध्ययन कर लेने के पश्चात पाठकवृंद गढ़वाली भाषा के अपने दृष्टिकोण में बड़ा और सकारात्मक फर्क महसूस करेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। ‘सिंहनाद’ में सिंह जी ने गढ़वाली भाषा के बारे में कई विचारोत्तेजक दृष्टांत सामने रखे हैं। यही कारण है कि ‘सिंहनाद’ को गढ़वाली भाषा में संपूर्ण क्रांति की पुस्तक कहा जाता है।

गढ़वाली भाषा के बारे में सिंह जी की सोच सुस्पष्ट और प्रखर रही है। ‘‘सिंहनाद के प्रथम खंड गढ़वाली भाषा और लोकसाहित्य शीर्षक के अंतर्गत उन्होंने भाषाविदों को आडे़ हाथों लेते हुए लिखा है-  भाषा विशेषज्ञों ने गढ़वाली भाषा को भारत की आर्य भाषाओं से पृथक ‘मध्य पहाड़ी’ भाषा नाम दिया है। भारतवर्ष के भाषा कोष में ‘मध्य पहाड़ी’ भाषा का कोई अस्तित्व नहीं है।’’

भजन सिंह ‘सिंह’ लीक से हटकर चलने वाले रचनाकार रहे हैं। ‘सतसई’ में परंपरा 700 दोहों की है, परन्तु उनकी काव्यकृति ‘सिंह सतसई’ में 1259 दोहे शामिल हैं। अपने एक आत्मनिवेदन में उन्होंने ये पंक्तियां उदृत की हैं

’’लीक-लीक गाड़ी चले, लीकन्हि चले कपूत,
लीक छोड़ि तीनों चले, शायर, ‘सिंह’, सपूत।’’

भजन सिंह ‘सिंह’ शायर भी थे। वे उर्दू में अच्छी शायरी करते थे। इसका असर उनकी रचनाओं में भी दिखता है। सिंहनाद में ग़जल शैली की उनकी रचनाएं, खासकर मूर्त पत्थर की, काफी चर्चित रही है।

ग्रन्थावली को चार भागों में संकलित किया गया है। अगर आप गढ़वाली भाषा और साहित्य में रूचि रखते हैं, तो फिर यह ग्रन्थ आपके लिए बहुत महत्वपूर्ण कृति है। इस ग्रन्थ में सिंह जी की तीन पुस्तकें एक साथ पढ़ने को मिल रही हैं। साथ ही ग्रन्थ के चौथे भाग प्रकीर्ण के अंतर्गत उपयोगी जानकारी संकलित की गई है।

सिंह जी के कृतित्व पर शोध करने के लिए यह महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। ऐसे दौर में जबकि भाषा और साहित्य के सवाल न केवल भाषा भाषियों के बल्कि सरकारों के द्वारा भी हासिये पर जाते हुए प्रतीत हो रहे हैं। गढ़वाली की नई पीढ़ी गढ़वाली के पूर्वज लेखकों से ज्यादा परिचित नहीं है, ऐसे कठिन समय में सिंह जी की रचनाओं का संकलन कर डॉ. यशवन्त सिंह कटोच ने ऐतिहासिक पहल की है।

समय-समय पर महसूस किया जाता रहा है कि गढ़वाली के महत्वपूर्ण साहित्य का पुनर्प्रकाशन किया जाना चाहिए। डॉ. कटोच द्वारा निजी प्रयासों से भजन सिंह ‘सिंह’ के कृतित्व को पुनर्जीवित करने के इस प्रयास की प्रशंसा की जानी चाहिए। ‘सिंहनाद’ और सिंह सितसई’ मूल पुस्तकों की अपेक्षा इस ग्रन्थावली में डॉ. कटोच जी ने पाठकों के लिए पाठ संसोधन (प्रूफ रीडिंग) का उत्कृष्ट कार्य किया है। ग्रन्थ में कड़ी मेहनत की गई है, इसमें दो राय नहीं।

यह ग्रन्थ इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि भजन सिंह ‘सिंह’ जी की रचनाएं लंबे समय से गढ़वाली साहित्य प्रेमियों के लिए उपलब्ध नहीं थी। उनका बहुत साहित्य अभी भी अप्रकाशित है। गढ़वाल का इतिहास और अन्य कई ग्रन्थों का संपादन कर चुके विद्वान संपादक से इस ग्रन्थ में भजन सिंह ‘सिंह’ का संक्षिप्त जीवन परिचय प्रकाशित न कर एक बड़ी चूक हो गई है। नए पाठक भजन सिंह ‘सिंह’ जी के बारे में परिचयात्मक जानकारी न पाकर जरूर मायूस होंगे।

‘सिंह ग्रन्थावली’
विनसर पब्लिशिंग कम्पनी
केसी सिटी सेन्टर
4 डिस्पेंसरी रोड, देहरादून
पृष्ठ- 438
क़ीमत - रु. 500


समीक्षक - वीरेंद्र पंवार, पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड

03 January, 2018

अपण ब्वे का मैस

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अपण ब्वे का मैस/
होला वो/
जो
हमरि जिकुड़ि मा
घैंटणा रैन/
घैंटणा छन
कीला/वाडा/दांदा!

जो,
हमारा नौ फर,
कागज लपोड़िकै/
फाइलों का थुपड़ा लगैकै/
कम्प्यूटर मा आंकड़ा भोरिकै/
विकास कना छन/

जो,
हम तैं उल्लू का पट्ठा समझिकै
हम तै लाटा मानिकै/
हम तैं मूर्ख समझिकै
हम तैं सीधा- सरल मानिकै
मौज-मस्ती- मटरगस्ती कैरिकै
अपणी मवासी बणाण पर मिस्यां छन
अपण ब्वेका मैस छन वो।।

कवि- स्व. पूरण पंत ’पथिक’, देहरादून (उत्तराखंड)

02 January, 2018

गैरसैंण से ऐसी ‘दिल्लगी’ ठीक नहीं

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जब नेता ‘बहरूपिये’, अफसर ‘मौकापरस्त’ और जनता ‘मूर्ख’ हो जाए तो राजधानी के सवाल का स्थायी हल मिलना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन है। गैरसैंण (Gairsain) के मुद्दे पर हालात यही हैं। सरकारों की गैरसैंण से ‘दिल्लगी’ आज उन प्रवासियों की तरह है, जिनके लिए उनका गांव सिर्फ गर्मियों की चंद छुट्टियां बिताने या फिर देवी देवताओं की पूजा में शामिल होने भर के लिए है। सरकारें चाहती तो गैरसैंण भी आंध्राप्रदेश के अमरावती की तरह स्थायी राजधानी घोषित हो चुकी होती, लेकिन यहां सरकारों ने यह चाहा ही नहीं। अब तो प्रचंड बहुमत की सरकार भी गैरसैंण में ‘आग ताप’ कर ‘हाथ झाड़कर’ लौट आयी है।

हां, अब एक बात जरूर साफ है कि कांग्रेस और भाजपा की सरकारें तो गैरसैंण (Gairsain) को स्थायी राजधानी न कभी बनायेंगी और न बनने देंगी। जो माहौल पिछली हरीश सरकार ने तैयार किया मौजूदा त्रिवेंद्र सरकार भी उसी को आगे बढ़ा रही है। देखा जाए तो अब यह हर सरकार की मजबूरी भी है। लेकिन आने वाले समय में हद से हद कुछ अधिक हुआ भी, तो गैरसैंण सिर्फ ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित कर दी जाएगी। तय मानिये गैरसैंण ग्रीष्मकालीन राजधानी होने का मतलब है उत्तराखंड की भविष्य की संभावनाओं का दम तोड़ना, पहाड़ की राजधानी पहाड़ में होने के सपने का टूटना। ग्रीष्मकालीन राजधानी की घोषणा के बाद उत्तराखंड की स्थायी राजधानी गैरसैंण होने का तो सवाल ही नहीं उठता, यह प्रस्ताव तो गैरसैंण को राजधानी बनाने से टालने की बड़ी कोशिश है। सच यह है कि आज जो हालात राज्य के हैं, उसमें हर समस्या का एकमात्र समाधान सिर्फ और सिर्फ स्थायी राजधानी गैरसैंण ही है।

पहाड़ की राजधानी पहाड़ में पहुंचाकर ही इस प्रदेश को बचा पाना संभव है, वरना देहरादून में बैठकर इस प्रदेश को राजनेता, नौकरशाह और सत्ता के बिचौलिए ‘खोखला’ कर चुके हैं। यह गठजोड़ किसी कीमत पर नहीं चाहता कि गैरसैंण स्थायी राजधानी बने। दुर्भाग्य यह है कि नेता ‘बहरूपिये’ हैं, जब सरकार में होते हैं तो ग्रीष्मकालीन राजधानी का ‘झुनझुना’ बजाते हैं और जब विपक्ष में होते हैं तो तब गैरसैंण को स्थायी राजधानी घोषित करने की बात करते हैं। विपक्ष में होते हैं तो गैरसैंण को राजधानी घोषित करने का प्रस्ताव लाते हैं। वही नेता जब सरकार में आते हैं तो पार्टी के घोषणापत्र का राग अलापते हैं या मुंह में ‘दही’ जमाकर बैठे होते हैं। कुछ तो इतने शातिर हैं कि कैमरे के आगे गैरसैंण को जनभावनाओं का प्रतीक बताते हैं, जनभावनाओं के सम्मान की बात करते हैं और अपनी सियासी जमीन पर गैरसैंण का विरोध करते हैं।

सार्वजनिक मंचों पर पहाड़ की राजधानी पहाड़ में होने की जरूरत बताते हैं और बंद कमरों की बैठकों में इस फैसले के सियासी नफा नुकसान गिनाते हैं। राज्य के भाग्यविधाता अफसरों का तो कहना ही क्या, वह तो इसी में सिद्धहस्त हैं कि कैसे असल ‘मुद्दे’ को ‘हवा’ किया जाए। गैरसैंण के मुद्दे पर नेता एक बार के लिए ‘जनभावना’ के आगे घुटने टेक भी लें, लेकिन नौकरशाह किसी हाल में इसके लिए तैयार नहीं और जब उन पर कसी ‘राजनैतिक लगाम’ कमजोर हो तो फिर तो कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती। यह भी कैसे भूला जा सकता है कि जो ‘झुनझुना’ आज सरकारें बजा रही है, असल में तो वह भी नौकरशाहों का ही थमाया हुआ है। उन्हें नहीं फर्क पड़ता कि प्रदेश पांच हजार करोड़ के कर्ज में हैं, उन्हें यह भी चिंता नहीं कि अदना सा राज्य दो-दो राजधानियों का बोझ कैसे झेलेगा।

उन्हें नहीं है यह फिक्र कि इसमें पैसे की और समय की कितनी बर्बादी होगी। उन्हें इससे भी कोई सरोकार नहीं है कि गैरसैंण राजधानी बनने से ही राज्य की मूल अवधारणा साकार होगी। नौकरशाही का नजरिया बिल्कुल अलग है, उनके लिए तो दो राजधानी बनने के बाद ‘खेलने’ की नई संभावनाएं जन्म लेंगी। उनकी ‘पूछ’ और सिस्टम की उन पर निर्भरता और बढ़ेगी। अब रहा सवाल जनता का तो बकौल मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने गैरसैंण में शीतकालीन सत्र आयोजित कर बहुत बड़ा काम किया है, चौतरफा इसकी प्रशंसा हो रही है। मुख्यमंत्री की यह बात अगर सच है तो फिर जनता तो मूर्ख है? वाकई जनता ‘मूर्ख’ न होती तो ग्रीष्मकालीन राजधानी के प्रस्ताव पर यूं चुप बैठती। सच्चाई यह है कि मुख्यमंत्री गैरसैंण  के मसले पर जिस ‘इंतजार’ की बात कर रहे हैं, वह इंतजार जनता के ‘रुख’ का ही है।

जहां तक गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने का सवाल है तो यह काम तो हरीश सरकार ही कर चुकी होती, लेकिन हरीश सरकार जनता के ‘रुख’ को लेकर आशंकित रही। उस वक्त भाजपा ने भी इसका विरोध किया, लेकिन अब नई सरकार इसी के लिए माहौल तैयार कर रही है। यानि साफ है कि यह सरकार गैरसैंण के मुद्दे पर ‘माइंड गेम’ खेल रही है। कहीं ऐसा न हो कि आम जनता की समझ में जब तक यह खेल आए, तब तक बहुत देर हो चुकी हो। यह सही है कि गैरसैंण को नजरअंदाज करना अब किसी सरकार के बूते की बात नहीं, लेकिन अगर सरकार अपने मंसूबों में कामयाब हुई तो गैरसैंण हमेशा के लिए एक ‘अधूरी कहानी’ बन जाएगा।

बहरहाल सरकारों की ‘दिल्लगी’ के बाद अब गैरसैंण की गेंद जनता के पाले में है। समय की मांग भी है कि अब राज्य की ‘नई’ शुरुआत गैरसैंण राजधानी के नाम से शुरू की जाए। उत्तराखंड में अगर विकास की इबारत लिखी जा रही है तो ऑल वेदर रोड और ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेललाइन के साथ साथ गैरसैंण राज्य की स्थायी राजधानी क्यों नहीं हो सकती? यह संभव है, बशर्ते जनभावनाएं हों और उन्हें पूरा करने की मजबूत राजनैतिक इच्छाशक्ति हो।

आलेख - योगेश भट्ट

(वरिष्ठ पत्रकार)

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