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Showing posts from January, 2018

‘रिवर्स माइग्रेशन’ के किस्से पर हावी ‘लव ट्राएंगल’

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उत्तराखंड में हाल के वर्षों में ‘पलायन’ के समाधान की उम्मीद के तौर पर ‘रिवर्स माइग्रेशन’ की कहानियां अखबारों की सुर्खियां बनीं। ताकि ऐसी कहानियां खाली होते पहाड़ों में फिर से एक सुरक्षित और बेहतर भविष्य के प्रति विश्वास जगाने की सूत्रधार बन सकें। सन् 2018 के पहले हफ्ते में रिलीज गढ़वाली फिल्म ‘बौड़िगी गंगा’ की कहानी भी कुछ ऐसी ही स्थितियों के इर्दगिर्द बुनी हुई है। लव ट्राएंगल के बीच यही विषय फिल्म की क्रेडिट लाइन भी हो सकती है। जिसे जनसरोकारों से जुड़े ‘इमोशन’ को ‘कैश’ करने के लिए ही सही, जोड़ा गया है। ड्रीम्स अनलिमिटेड फिल्म प्रोडक्शन हाउस के बैनर तले बनी ‘बौड़िगी गंगा’ फिल्म का अनिरूद्ध गुप्ता ने निर्माण और निर्देशन किया है। वही सबसे पहले कास्टिंग सॉन्ग ‘चला रे चला पहाड़ चला...’ में एक फौजी के किरदार में दिखते हैं। जो पहाड़ों की नैसर्गिकता, संसाधनों और संभावनाओं की बात करते हुए प्रवासियों से वापस लौटने का संदेश देता है। उसी के गांव में नायिका गंगा (शिवानी भंडारी) का जन्म होता है। जो आखिरकार ‘गंगा’ की तरह ही पहाड़ों से उतरकर मैदान (शहर) में पहुंच जाती है। फिल्म के दूसरे हाफ में हर

सिंह ग्रन्थावली’: भजनसिंह ‘सिंह’ के कृत्तित्व का साक्षात्कार

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‘सिंह ग्रन्थावली’ नाम से गढ़वाली भाषा साहित्य का महत्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है। गढ़वाली साहित्य के युगपुरुष भजन सिंह ‘सिंह’ की पुस्तकों को ग्रन्थाकार सम्पादित किया है, जाने माने पुरातत्वविद एवं भाषाविद डॉ. यशवंत सिह ‘कटोच’ ने। यह ग्रन्थ पाठक को गढ़वाली भाषा के प्रबल समर्थक कवि भजन सिंह ‘सिंह’ के कृत्तित्व का साक्षात्कार कराता है। इस ग्रन्थावली में ‘सिंह’जी की तीन प्रकाशित पुस्तकें तथा उनकी कुछ अप्रकाशित स्फुट रचनाएं संकलित की गई हैं। उनकी प्रकाशित और लोकप्रिय पुस्तकों में ‘सिंहनाद’ (सन 1930), ‘सिंह सतसई’ (सन 1985) और ‘गढ़वाली लोकोक्तियां’ (सन 1970)’ शामिल हैं। संपादक डॉ. कटोच ने इस ग्रंथावली में सिंह जी की उक्त तीन पुस्तकों के अतिरिक्त सिंह जी द्वारा सम्पादित कुछ लोकगाथाएं तथा उनके द्वारा अन्य भाषाओं से गढ़वाली में अनूदित कुछ स्फुट रचनाएं संकलित कर पाठकों के लिए ग्रन्थावली की उपादेयता बढ़ा दी है। एक तरह से ‘सिंहनाद’ का कुल मिलाकर यह चौथा संस्करण प्रकाशित हुआ है। गढ़वाली साहित्य में ‘सिंहनाद’ ने अद्वितीय लोकप्रियता हासिल की। साहित्य मर्मज्ञों ने इसे कविवर की श्रेष्ठतम कृ

अपण ब्वे का मैस

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अपण ब्वे का मैस/ होला वो/ जो हमरि जिकुड़ि मा घैंटणा रैन/ घैंटणा छन कीला/वाडा/दांदा! जो, हमारा नौ फर, कागज लपोड़िकै/ फाइलों का थुपड़ा लगैकै/ कम्प्यूटर मा आंकड़ा भोरिकै/ विकास कना छन/ जो, हम तैं उल्लू का पट्ठा समझिकै हम तै लाटा मानिकै/ हम तैं मूर्ख समझिकै हम तैं सीधा- सरल मानिकै मौज-मस्ती- मटरगस्ती कैरिकै अपणी मवासी बणाण पर मिस्यां छन अपण ब्वेका मैस छन वो।। कवि- स्व. पूरण पंत ’पथिक’, देहरादून (उत्तराखंड)

गैरसैंण से ऐसी ‘दिल्लगी’ ठीक नहीं

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जब नेता ‘बहरूपिये’, अफसर ‘मौकापरस्त’ और जनता ‘मूर्ख’ हो जाए तो राजधानी के सवाल का स्थायी हल मिलना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन है। गैरसैंण (Gairsain) के मुद्दे पर हालात यही हैं। सरकारों की गैरसैंण से ‘दिल्लगी’ आज उन प्रवासियों की तरह है, जिनके लिए उनका गांव सिर्फ गर्मियों की चंद छुट्टियां बिताने या फिर देवी देवताओं की पूजा में शामिल होने भर के लिए है। सरकारें चाहती तो गैरसैंण भी आंध्राप्रदेश के अमरावती की तरह स्थायी राजधानी घोषित हो चुकी होती, लेकिन यहां सरकारों ने यह चाहा ही नहीं। अब तो प्रचंड बहुमत की सरकार भी गैरसैंण में ‘आग ताप’ कर ‘हाथ झाड़कर’ लौट आयी है। हां, अब एक बात जरूर साफ है कि कांग्रेस और भाजपा की सरकारें तो गैरसैंण (Gairsain) को स्थायी राजधानी न कभी बनायेंगी और न बनने देंगी। जो माहौल पिछली हरीश सरकार ने तैयार किया मौजूदा त्रिवेंद्र सरकार भी उसी को आगे बढ़ा रही है। देखा जाए तो अब यह हर सरकार की मजबूरी भी है। लेकिन आने वाले समय में हद से हद कुछ अधिक हुआ भी, तो गैरसैंण सिर्फ ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित कर दी जाएगी। तय मानिये गैरसैंण ग्रीष्मकालीन राजधानी होने का मतलब ह