अपण ब्वे का मैस

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अपण ब्वे का मैस/
होला वो/
जो
हमरि जिकुड़ि मा
घैंटणा रैन/
घैंटणा छन
कीला/वाडा/दांदा!

जो,
हमारा नौ फर,
कागज लपोड़िकै/
फाइलों का थुपड़ा लगैकै/
कम्प्यूटर मा आंकड़ा भोरिकै/
विकास कना छन/

जो,
हम तैं उल्लू का पट्ठा समझिकै
हम तै लाटा मानिकै/
हम तैं मूर्ख समझिकै
हम तैं सीधा- सरल मानिकै
मौज-मस्ती- मटरगस्ती कैरिकै
अपणी मवासी बणाण पर मिस्यां छन
अपण ब्वेका मैस छन वो।।

कवि- स्व. पूरण पंत ’पथिक’, देहरादून (उत्तराखंड)

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