28 May, 2020

त्राही-त्राही त्राहिमाम... (गढ़वाली कविता)

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• दुर्गा नौटियाल

त्राही-त्राही त्राहिमाम, 
तेरि सरण मा छां आज।
कर दे कुछ यनु काज, 
रखि दे हमारि लाज।।

संगता ढक्यां छन द्वार,
मुस्कौं न घिच्चा बुज्यान।
खट्टी-मिट्ठी भितर-भैर,
ह्वेगे कनि या जिबाळ।
बिधाता अब त्वी बचो, 
ईं विपदा तैं हरो।
करदे कुछ यनु काज, 
रखि दे हमारी लाज।।
त्राही-त्राही त्राहिमाम...

पित्र होला दोष देंणा,
देवता होलु नाराज क्वी।
लोग सब्बि बोळ्न लग्यां,
त्वी कारण निवारण त्वी।
मेरा इष्ट, कुल देबतों, 
अब त दिश्ना द्या चुचों।
करदे कुछ यनु काज, 
रखि दे हमारी लाज।।
त्राही-त्राही त्राहिमाम...

धाण काज अब नि राई,
खिस्सा बटुवा ह्वेगे खालि।
लोण तेल लौण कनै,
लाला बंद करिगे पगाळी।
हे भगवती अब दैणि हो, 
ईं बैतरणी तै तरो।
करदे कुछ यनु काज, 
रखि दे हमारी लाज।।
त्राही-त्राही त्राहिमाम...

रीता गौं बच्याण लग्यां,
तिवारी हैंसण बैठिगे।
बिसरिगे था जु बाटा,
आज तखि उलार बौडिगे।
हे भूमि का भूम्याल, 
तुम दैणा ह्वेजा आज।
करदे कुछ यनु काज, 
रखि दे हमारी लाज।।
त्राही-त्राही त्राहिमाम...

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(लेखक दुर्गा नौटियाल वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार हैं)

21 May, 2020

मैं पहाड़ हूं (हिन्दी कविता)

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• मदन मोहन थपलियाल ’शैल’

मैं पहाड़ (हिमालय) हूं
विज्ञान कहता है
यहां पहले हिलोरें मारता सागर था
दो भुजाएं आपस में टकराईं
पहाड़ का जन्म हुआ
हिमालय का अवतरण हुआ
सदियों वीरान रहा
धीरे-धीरे 
वादियों और कंदराओं का उद्गम हुआ
गंगा पृथ्वी पर आईं
कंद मूल फलों से धरा का श्रंगार हुआ
सब खुशहाल थे
मेरे ही गीत गुनगुनाते थे
शांत एकांत निर्जन विजन
ऋषि मुनियों को बहुत भाया
देवताओं ने अपनी शरणस्थली बनाई
तपस्वी रम गए प्रभु आराधना में
मनीषियों ने ग्रंथ लिखे
काव्य खंड लिखे
चहुंओर 
संस्कृति औ संस्कृत की ध्वनि गूंजने लगी
वेदों की ऋचाएं गाई जाने लगीं
आक्रमणकारियों ने मेरी शांति भंग कर दी
आततायियों के भय से
मनुज ने पहाड़ों का आश्रय लिया
पहाड़ सैरगाह बन गए
सब खुशहाल थे
मेरे ही गीत गुनगुनाते थे
मैदानी क्षेत्रों में बस्तियां बसने लगीं
आधुनिक चकाचौंध ने 
मेरे अस्तित्व को कम करके आंकना शुरू कर दिया
फिर क्या था
चल पड़े दरिया के मानिंद
मैदानों के विस्तार में अपने को खोने
बस वहीं के हो गए
नौकर बन गए
श्रम, पसीना, मनोबल सब बेच दिया
भौतिक सुख और दो जून रोटी के लिए
बाजार हो गए
योग्यतानुसार दाम तय होने लगे
पैसे की हवस का जादू सिर चढ़कर बोला
सब अधिकार की लड़ाई लड़ने लगे
लेकिन सब व्यर्थ
पलायन रुका नहीं
बहाने लाख बने
मैं आज भी वहीं खड़ा हूं
शांत एकांत सा
अपनों की प्रतीक्षा में
मैंने नहीं, उन्होंने मुझे ठुकराया
मेरी छाती में धमाचौकड़ी करने
फिर आओगे न
मैं सदियों प्रतीक्षा करूंगा
तुम्हारी पग ध्वनि सुनने को उत्सुक
तुम्हारा अपना वैभव
पहाड़ (हिमालय)

पेंटिंग फोटो - ईशान बहुगुणा

20 May, 2020

कल की सी ही बात है

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•  डॉ. अतुल शर्मा

प्रकृति के सुकुमारतम कवि श्री सुमित्रानंदन पंत की आज शुभ जयंती है। कल की सी ही बात लगती है कि 1980 के दशक में लेखिका और दिल्ली दूरदर्शन की निदेशिका डॉ. कांता पंत के नई दिल्ली गोल मार्केट एसई जोड एरिया स्थित आवास पर प्रायः पंत जी के दर्शन का सौभाग्य मिलता रहता था। कांता भारती जी का पंत जी ने अपने भतीजे गोर्की पंत से विवाह करा दिया था। इस प्रकार वह कांता पंत हो गयी थीं। 

‘‘मैं पंत जी के दर्शनार्थ प्रायः कवि एवं समीक्षक श्री गोपाल कृष्ण कौल के साथ जाया करता था, कभी-कभी अकेला भी जाता था। पंत जी की बादल और परिवर्तन जैसी कविताएं और उनका सौम्य सुदर्शन व्यक्तित्व आज भी स्मृति में सुरक्षित है। उनकी पावन स्मृति को सश्रद्ध नमन!’’ यह कहना है प्रसिद्ध कवि धनंजय सिह का।

कवि सुमित्रानन्दन पंत का जन्म 20 मई 1900 के दिन कौसानी उत्तराखंड में हुआ था। वे छायावादी युग के स्तंभ थे। उनके काव्य साहित्य पर जहां गांधी का प्रभाव था वहीं कई जगह मार्क्स और फ्रायड का प्रभाव बताया गया। आप हिन्दी साहित्य की काव्य परम्परा के कीर्ति स्तंभ हैं। उन्होंने पद्य के साथ गद्य रचनाएं की। 

कवि पंत को पद्मभूषण सम्मान प्रदान किया गया था। साथ ही भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ। साहित्य अकादमी सम्मान प्रदान किया गया। उनकी काव्य पुस्तकें हैं- वीणा, ग्रन्थि, पल्लव, गुंजन, युगवाणी, ग्राम्या, उत्तरा आदि। गद्य पुस्तकों में ‘हार’ उपन्यास, ज्योत्सना,  पांच कहानी साठ वर्ष और अन्य निबन्ध, कला और संस्कृति निबंध आदि। सुमित्रानन्दन पन्त की स्मृति में कौसानी में संग्रहालय है।


(लेखक डॉ. अतुल शर्मा जाने माने साहित्यकार एवं जनकवि हैं।)


19 May, 2020

जरा बच के ... (व्यंग्य)

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•  प्रबोध उनियाल


बहुत समय पहले की बात है, तब इतनी मोटर गाड़ियां नहीं थीं। सबके अपने-अपने घोड़े होते थे। भले ही हम तब भी गधे ही रहे। अस्तु! उस समय मकान की दीवारें 'टच' नहीं होती थी बीच में नाली या नाला आपकी सुविधा अनुसार होता था। 'टच' के जमाने तो अब आये, चाहे दीवारें 'टच' हो या मोबाइल टच...।

पुराने लोग गवाह हैं। उनके जमाने की फिल्मों में शम्मी कपूर और मनोज कुमार पेड़ के ही आसपास घूमते हुए हीरोइन को रिझाते थे लेकिन 'टच' नहीं करते थे। ये सोशल डिस्टेंस ( Social distance ) के जमाने थे। यही वजह थी कि ये फिल्में बेहद मनोरंजक और घर के लोगों के साथ देखने वाली होती थीं। साम्बा इसीलिए हमेशा दूर पत्थर पर बैठा रहता था।

सोशल डिस्टेंस पर कई हिट गाने भी बने हैं। 'दूर रहकर न करो बात करीब आ जाओ..।' लेकिन साहब मजाल है जो हीरो या हीरोइन इतने करीब आ जाएं। समय बैल गाड़ियों से होता हुआ इलेक्ट्रॉनिक रेलगाड़ियों तक आ गया। दूरियां घटने लगी। यानि no distance ...

गांव की बात छोड़ दें तो शहरों में बहुमंजिला इमारतें खड़ी हो गयीं। इन इमारतों में घर तो थे लेकिन छत नहीं। इन घरों में रह रहे लोग एक दूसरे से डिस्टेंस में ही रहते हैं। फ्लैट कल्चर है साहब! सही बात कहें तो ये डिस्टेंस तो आम लोगों के लिए है। उसे संभलना होगा। तभी कोरोना से बचा जा सकता है ...!


(लेखक प्रबोध उनियाल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

11 May, 2020

लॉकडाउन में गूंज रही कोयल की मधुर तान

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• प्रबोध उनियाल

ये एक भीड़ भरा इलाका है, जहां मैं रहता हूं। मेरी घर की बालकनी से सड़क पर अक्सर भागते लोग और दौड़ती गाड़ियां ही दिखती हैं। तब कहीं न कहीं इस भीड़ में आप भी हैं। अभी तक मैंने इस सड़क को देर रात में ही थोड़ी सी सांस लेते देखा है। लेकिन लॉकडाउन के चलते एक निश्चित समय की छूट के बाद ये सुनसान सी पसरी पड़ी देख रहा हूं।

आजकल दिनचर्या सामान्य नहीं है। कामकाज के दिनों में आपका समय उसी हिसाब से बंधा होता है। पूरे दिन के इस खाली समय में आपको अपने आप को नियत करना होता है। तब आप कहीं ना कहीं सुकून ढूंढ रहे होते हैं।

लेकिन कुछ दिनों से मेरे लिए ढलती सांझ सुकून भरी आती है। बचपन यूं ही उन तमाम बच्चों की चुहलबाजियों सा ही बीता। मुझे याद है कि मेरे घर के पास तब इस तरह की ये तमाम सीमेंटेड अट्टालिकाएं नहीं थी। घर में सिर्फ कमरे होते थे दुकाने नहीं! बाजारीकरण के चलते दृश्य बदला और कई कमरे दुकानों में तब्दील हो गए।

मैं लौटता हूं आजकल की अपनी सांझ पर। पानी पीने के लिए फ्रिज को खोलते हुए मैं अचानक कोयल की मधुर तान सुन रहा हूं। बचपन में, मैंने कोयल की इस कुहू को बखूबी सुना है जो अभी तक भी मेरी स्मृतियों में है। हमारे दौर के बचपन आंगन में ही खेलते हुए बड़े होते थे। आज की तरह बच्चों के हाथ में मोबाइल और सामने टीवी स्क्रीन नहीं होता था।

कोयल का वैज्ञानिक नाम यूडाइनेमिस स्कोलोपेकस है। कोयल सभी पक्षियों में अपनी तरह की एक नीड परजीविता पक्षी है जो कभी भी अपने घोंसला नहीं बनाती। सभी पक्षियों में कोयल की बोली सबसे मधुर होती है। लेकिन केवल नर कोयल ही गाता है। कोयल कभी जमीन पर नहीं उतरती है, पेड़ों पर ही गुनगुनाती है और वह भी आम के पेड़ों पर। 

उर्वर जमीन को उगल रहे यूकेलिप्टस के पेड़ पर तो ये बिल्कुल भी नहीं मंडराती। दुनियाभर के साहित्यकारों ने कोयल की मीठी बोली पर खूब लिखा है। रोमांटिक कवि विलियम वर्ड्सवर्थ कहते हैं- O Cuckoo! Shell I Call Thee Birds, Or but a Wandering Voice! (ओ कोयल! क्या मैं तुम्हें पक्षी कहूंगा, या फिर भटकती आवाज?)

बसंत आते ही कोयल कूकने लगती है। लेकिन इनदिनों सन्नाटे के बीच मैं कोयल की कूक को बेहतर सुन रहा हूं। हो सकता है कि ये इत्तेफाक हो कि वह आजकल हर शाम को मुझे कुकते हुए सुनाई दे रही है। मौसम कोई भी हो कोयल गा रही है, आओ हम सब भी इसकी तान के संग हो लें...।

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लेखक प्रबोध  उनियाल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। 
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01 May, 2020

भाई साहब घर में हैं (व्यंग्य)


• प्रबोध उनियाल

कुछ भाई साहब तो आजकल बर्तनों के साथ फर्श को भी रगड़-रगड़ कर चमका रहे हैं। आजकल अधिकांश पत्नियां, पतियों को क्या काम देना है इसका खूब गुपचुप सलाह मशविरा सहेलियों से ले रही हैं?
        पहली बार आप कई दिनों से चौबीस घंटे पत्नी के साथ हैं। कुछ गजब ही हो रहा है। आदमी जहां हर वक्त दरवाजे से बाहर जाने की जुगत देखता था वहीं कुछ ऐसा हो रहा है कि पत्नी उठे, आगे चले तो पीछे-पीछे भाई साहब भी! 

इनदिनों कुछ यंत्रवत से तमाम पति, पत्नी के चारों ओर ना जाने कितनी बार एक संपूर्ण कोण घूम जा रहे हैं? ‘पत्नीश्री’ किचन की ओर चले तो भाई साहब भी किचन की ओर, पत्नी ड्राइंगरूम  की ओर घूमे तो पति पहले ही घूम जाये।
आखिर पत्नी झल्ला कर बोल ही उठी- ’अरे! तुम एक जगह बैठ जाओ ना, मेरे पीछे-पीछे क्यों चल पड़ते हो?’

भाई साहब को बहुत आत्मग्लानि हुई। वह बता रहे थे कि यार! जीवन में ऐसा पहली बार हो रहा है। इतना तो यार तब भी नहीं हुआ था जब कुछ- कुछ हुआ था। भाई साहब! भाभी जी को ‘कुछ-कुछ होता है’ पिक्चर देखने के बाद ही घर लाए थे। मित्रों! ऐसे कई भाई साहब आजकल परेशान हैं तो कई पत्नीश्री भी। 

एक भाई साहब को मैंने फोन लगाया और पूछा-’कहां हो? ’बोले- ’यार! क्या करूं, छत पर झूला झूल रहा हूं?’ दूसरे भाई साहब के किस्से सुनो, इन्होंने जिंदगीभर चाय नहीं बनाई लेकिन दिन में जितनी बार मिल जाये पीने से गुरेज नहीं करते। आजकल घर में टंगे हैं। बेचारे जब हर एक-दो घंटे बाद बीवी से चाय की फरमाइश करने लगे तो एक दिन बीवी ने झल्लाते हुए कह ही दिया- ’सुनो जी! चाय पीने का इतना शौक है तो खुद उठो और बना लो’। मुझे दुखड़ा सुना रहे थे कि 'यार! इतनी घनघोर बेइज्जती कभी नहीं हुई?'

कुछ भाई साहब तो आजकल बर्तनों के साथ फर्श को भी रगड़-रगड़ कर चमका रहे हैं। आजकल अधिकांश पत्नियां, पतियों को क्या काम देना है इसकी खूब गुपचुप सलाह मशविरा सहेलियों से ले रही हैं? एक भाई साहब को तो जब पत्नी ने मजाक में कहा कि ’उठ जाओ, ऑफिस जाना है’ तो बेचारे ने बिना देरी किए झाड़ू थाम लिया। 

हे भगवान! ये कैसा संकट आया है। पता नहीं दिमाग तो लॉकडाउन हो रखा है, काम ही नहीं कर रहा है। बार-बार गलती से मिस्टेक हो जा रही है, पत्नी हंस दी। मैं भी हैरत में हूं! और तमाम भाई साहब भी। क्या कहें- दरअसल "हम हेरत, हम आप हेरानी--।

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लेखक प्रबोध उनियाल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। 

महा क्रांति आमंत्रित कर (हिन्दी कविता)


• श्रीराम शर्मा ‘प्रेम’

तेरे शोणित, तेरी मज्जा से - 
सने धवल प्रासाद खड़े।
तेरी जीवन से ही निर्मित,
तेरी छाती पर किन्तु अड़े
इनको करके दृढ़ से दृढ़तर,
तू स्वयं बना कृश से कृशतर।
नर कहूं तूझे।

तेरे विनाश के नित नूतन
षडयंत्रों के मंत्रणागार।
तेरी ही शोषण का इनमें,
होता है क्षण-क्षण पर विचार।
तेरी करुणा, तेरे कुन्दन,
ठुकराए जाते हँस हँस कर
कर महा क्रान्ति आमंत्रित कर
नर कहूं तुझे।

अपना जीवन यौवन देकर,
अपना प्यारा तन-मन देकर,
कुछ, चांदी के टुकड़ों पर ही -
अपने जीवन को खो, खोकर,
तूने ही इनको खड़ा किया,
तेरे गवाह ईटें पत्थर।
कर महा क्रांन्ति आमंत्रित कर
नर कहूं तुझे।

अपना सब कुछ खोकर जीना
यह ग्लानि-गरल पीना, पीना।
कैसे सह लेता है सीना ?
यह भी कुछ मानव का जीना।
थोड़ी ही हिम्मत कर उठ जा!
उठकर कह दे जय प्रलयंकर।
कर महा क्रान्ति आमंत्रित कर
नर कहूं तुझे।

पृथ्वी काँपे आकाश हिले,
तारे नभ के कुछ, थर्राये।
अत्याचारी जग के प्रहरी -
ये सूर्य चन्द्र कुछ घबरावें।
ऐसी हो क्रान्ति विशाल विपलु।
काँपे हिमनग थर-थर-थर-थर।
कर महा क्रान्ति कर
नर कहूं तुझे।

सब कुछ, समाप्त करने वाला-
प्रलयंकर नृत्य भयंकर हो।
उस सर्वनाश की ज्वाला में -
जलता सब अशिव अशंकर हो।
ओ रे! शोषित! ओ रे! पीड़ित!
गा क्रान्ति गीत! पंचम स्वर भर।
कर महा क्रान्ति आमंत्रित कर,
नर कहूं तुझे।

काव्य संग्रह - अग्निपुरुष से साभार
कविता काल- 1946
द्वारा- डॉ. अतुल शर्मा 

29 April, 2020

अलविदा इरफान! इतनी भी जल्दी क्या थी..

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प्रबोध उनियाल

फिल्म अभिनेता इरफान खान का यूं चले जाना स्तब्ध करता है। उनके जज्बे से लगने लगा था कि वह अपनी यह लड़ाई जीत लेंगे। जीतकर आए भी लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। गिनतियों में ही इरफान जैसे प्रतिबद्ध कलाकार सिनेमा को मिलते हैं। अभिनय हो या बीमारी की जंग उन्होंने हमेशा अपना जज्बा कायम रखा। यही वजह रही कि वे कई निर्देशकों की पहली पसंद थे।

अभिनय की और बारीकियां भले ही उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से सीखी हों लेकिन उनके व्यक्तित्व में कला का एक संपूर्ण व्यक्ति जैसे जन्मजात ही रहता हो। सीधा, सपाट और चेहरे में गंभीरता लिए यह कलाकार कुछ अलग सा ही दिखता था। एक गंभीर और प्रतिभावान कलाकार का यूं चले जाना उदास करता है।

इरफान खान ने अपने कैरियर की शुरुआत टेलीविजन से की और फिर यह सफर 50 से अधिक फिल्मों तक जारी रहा। द वॉरियर, मक़बूल, हासिल, लंच बॉक्स और पान सिंह तोमर आदि फिल्मों में उन्होंने कई यादगार किरदार निभाए। ‘अंग्रेजी मीडियम’ उनकी हालिया प्रदर्शित फिल्म थी।

असमय ही इरफान के चले जाने से भारतीय और विश्व सिनेमा के साथ सिने प्रेमी खासकर उनके किरदारों से बेइंतिहा प्यार करने वाले बेहद दुखी हैं। अब उनकी फिल्में ही उनकी यादों को जिंदा रखेंगी। अलविदा दोस्त!
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26 April, 2020

मारियो वार्गास ल्योसा की कृति ‘किस्सागो’ का परिचय

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  •  ● डॉ. अतुल शर्मा


    ‘किस्सागो’ मारियो वार्गास ल्योसा का महत्वपूर्ण उपन्यास लातिन अमरीकी देश ‘पेरु’ के आदिवासियों पर आधारित है। आधुनिक विकास और नदी, पर्वत, सूरज, चांद, दुष्ट आत्माओं; की एक के बाद एक निकलती कथाओं का सिलसिला है। विषम परिस्थितियों से जूझते और बार-बार स्थानांतरित होने को विवश बंटे हुए माचीग्वेरा समाज को जोड़ने वाली कड़ी है- ‘किस्सागो’ यानि ‘आब्लादोर उपन्यासकार एक किरदार के रुप में उपस्थित है।’ आदिवासी जीवन पर केन्द्रित होने के नाते उपन्यास में बीसियों पेड़, पौधे, पशु, पक्षी, नदियों, पहाड़ों, देवताओं, दानवो के नाम आते हैं।

    उपन्यास में कथाओं का सिलसिला जारी रहता है। एक जगह वे लिखते हैं- ‘चिन्ता मत करो किस्सागो! अगर ऐसा ही है तो जीवन बदल डालो। एक जगह ठहर कर अपना परिवार बसा लो अपनी झोपड़ी बनाओ, जंगल साफ करो और अपने खेतों की देखभाल करो। तुम्हारे बच्चे हो जाएंगे। भटकते हुए किस्सागो का जीवन छोड़ दो।’ वे आगे चलकर कहते हैं- ‘तुम उस औरत को अपना सकते हो जो शान्त और समझदार है। वह तुम्हारी मदद करेगी रसोई बनाने, सूत कातने में सबसे ज्यादा होशियार है या तुम्हें अगर पसन्द हो तो मेरी सबसे छोटी बेटी को भी अपना सकते हो।’

    इसके बाद उस बेटी का मार्मिक प्रसंग आता है। वह ऐसे है- वह छोटी बेटी नहीं रही। मर गई और मरने से पहले वह बड़बड़ा रही थी- ‘मै दूसरों के क्रोध का का कारण नहीं बनना चाहती। क्रोधित हो वो कहेंगे इसी के कारण अब हमारे पास कोई किस्सागो नही है।’ यानि किस्सागो होने की जरुरत का अतिरेक दिखाई देता है।

    ऐसी ही घटनाएं हैं इस उपन्यास में। यह अद्भुत और पठनीय होने के साथ-साथ जीवन को प्रस्तुत करता है। वर्ष 2010 के नोबल पुरुस्कार विजेता इस लेखक का यह सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है। राजकमल प्रकाशन से छपा यह उपन्यास महत्वपूर्ण पुस्तक  परिचय के लिए इसीलिए चुना है।

    उपन्यास- किस्सागो
    लेखक- मारियो वार्गास ल्योसा
    हिंदी अनुवाद- शंपा शाह
    प्रकाशन- राजकमल

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    (पुस्तक परिचय के लेखक डॉ. अतुल शर्म जाने माने जनकवि व साहित्यकार हैं।)

    24 April, 2020

    जब देहरादून आए थे राष्ट्रीय कवि 'दिनकर'

    (राष्ट्रीय कवि रामधारी सिंह दिनकर की पुण्यतिथि पर विशेष)

    https://www.bolpahadi.in/2020/04/blog-post-jab-dehradun-aaye-the-rashtriya-kavi-dinkar.html


    - डॉ. अतुल शर्मा 

    मेरे नगपति! मेरे विशाल! 
    साकार दिव्य गौरव विराट
    पौरुष के पुंजीभूत ज्वाल

    मेरी जननी के हिम किरीट


    मेरे भारत के दिव्य भाल।

    मेरे नगपति मेरे विशाल।

    राष्ट्रीय कवि रामधारी सिंह दिनकर जी की यह प्रसिद्ध कविता “हिमालय के प्रति“ एक कालजयी कविता है। दिनकर जी हिन्दी काव्य साहित्य के सूर्य है। छायावादी युग के बाद प्रगतिवादी काव्यधारा में उनका विशेष स्थान तो है ही पर स्वाधीनता सेनानी के रुप में भी उनका अवदान है। 

    मुझे याद है कि 70 के दशक में देहरादून में आयोजित एक कवि सम्मेलन के मंच पर अध्यक्षता कर रहे राष्ट्रीय कवि रामधारी सिंह दिनकर जी विराजमान थे। साथ में देश के प्रसिद्ध कवि मौजूद थे। उनकी कविता सुनकर ऐसा लग रहा था कि मानां एक युग हुंकार रहा हो। खादी का धोती कुर्ता दिव्य ललाट तेजस्वी आंखें। दिनकर जी का सानिध्य मंच पर और उसके बाद भी मिला अपने पिता स्वतंत्रता सेनानी कवि श्रीराम शर्मा ‘प्रेम’ के साथ। तब उन्होंने एक बात कही थी कि कविता प्रयोजनमूलक होनी चाहिए।

    युग के सच्चे मार्गदर्शक थे दिनकर जी। उनकी यह कविता आज स्मरण करता हूं तो लगता है कि यह कालजयी कवि यूग- युगों तक जीवित रहेगा...

    सदियों की ठंडी बुझी राख सुगबुगा उठी।
    मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है

    दो राह समय के रथ का धर्धर नाद सुनो

    सिहांसन खाली करो कि जनता आती है।

    कवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 1908 में और निधन 1974 में हुआ। उनके काव्य संग्रह में ‘रेणुका’, ‘हुंकार‘, ‘रसवंती’ शामिल हैं। जबकि ‘कुरुक्षेत्र’,  ’रश्मिरथी और उर्वशी उनके प्रबंध काव्य संग्रह हैं।

    हिन्दी काव्य साहित्य में सुमित्रानंदन पंत, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, रामधारी सिंह दिनकर और महादेवी वर्मा आदि महत्वपूर्ण नाम हैं जिनसे युग की पहचान होती है। 

    उन्हें पद्मभूषण सम्मान प्रदान किया गया। ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुए। उन्होंने भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार और भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति पद को भी सुशोभित किया था। दिनकर जी आज की पीढ़ी के लिए प्रेरणास्रोत है। देहरादून मे दिनकर जी का आना एक ऐतिहासिक साहित्यिक घटना है। आज उनकी पुण्यतिथि पर हम उन्हें नमन करते है।

    (इस दुर्लभ चित्र में राष्ट्रीय कवि रामधारी सिंह दिनकर, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व कवि श्रीराम शर्मा ‘प्रेम’, सोम ठाकुर, बालकवि बैरागी, डॉ. पार्थ सारथि डबराल आदि मौजूद।)

    https://www.bolpahadi.in/2020/04/blog-post-jab-dehradun-aaye-the-rashtriya-kavi-dinkar.html

    लेखक डॉ. अतुल शर्मा जाने माने जनकवि व साहित्यकार हैं। 

    फोटो स्रोत- ‘अग्नि पुरुष’ पुस्तक से

    मील का पत्थर साबित हुई थी ‘27 डाउन’

    https://www.bolpahadi.in/2020/04/27-hindi-film-27-down-proved-to-be-a-milestone.html

    प्रबोध उनियाल । 

    फिल्म ‘भुवन शोम’ की कामयाबी के बाद हिंदी सिनेमा के इतिहास में व्यवसायिक सिनेमा के समांतर नए सिनेमा का विकास तेजी से हुआ। फार्मूला फिल्मों की जकड़ से बाहर निकालकर तब नए सिनेमा के आंदोलन में कई बेहतरीन फिल्में बनाई गईं। उन बेहतरीन फिल्मों में से एक फ़िल्म थी ‘27 डाउन’। 

    युवा निर्देशक अवतार कृष्ण कौल की यह एकमात्र निर्देशित फिल्म थी जिसे 1974 में सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि जब फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार देने की घोषणा हुई तो तभी अवतार कृष्ण कौल एक दुर्घटना के शिकार हो गए और उनकी मृत्यु हो गई। असमय ही नया सिनेमा ने एक प्रतिबद्ध और प्रतिभावान निर्देशक खो दिया। 

    ‘27 डाउन’( 27 Down ) में निर्देशक ने प्रत्येक दृश्य को प्रतीकात्मक अर्थ देकर फिल्म को बेहतरीन बना दिया। रेलवे स्टेशनों की जिंदगी, रेल का पटरियों में दौड़ना, बनारस की सड़कें और और नायक संजय की जिंदगी में पटरियों पर दौड़ते जीवन का एकाकीपन फिल्म को अविस्मरणीय बना देता है।

    फिल्म की कहानी प्रसिद्ध साहित्यकार रमेश बख्शी के उपन्यास ’अट्ठारह सूरज के पौधे’ पर आधारित है। नायक के अपने सपने हैं लेकिन पिता के कठोर अनुशासन के कारण उसके सपनों की उड़ान में विराम लग जाता है। फिल्म का नायक संजय 27 डाउन में टिकट कलेक्टर है। संजय के पिता भी रेलवे में है और इंजन ड्राइवर हैं। रेल के डिब्बों में भागती जिंदगी के साथ एक दिन अचानक रेल में ही नायक की मुलाकात नायिका से होती है। फिल्म की नायिका शालिनी बेहद संवेदनशील है और मुंबई में नौकरी करती है। उसकी कमाई से ही उसके घर का खर्चा चलता है।

    नायक शालिनी से विवाह करना चाहता है लेकिन उसके पिता उसके सपने को पूरा नहीं होने देते और नायक संजय का विवाह एक ऐसी युवती से कर देते हैं जो दहेज में चार भैंसे लेकर आती है। इसके बाद की कहानी बेहद रोचक है। लेकिन फिलहाल संजय तब तक चलती फिरती रेलगाड़ी में ही अपना घर बना लेता है।

    फिल्म में एमके रैना और नायिका की भूमिका उस समय की मेनस्ट्रीम की जानी-मानी कलाकार राखी ने अदा की है। बेहद कम बजट पर तैयार यह फ़िल्म, नये सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई।

    https://www.bolpahadi.in/2020/04/27-hindi-film-27-down-proved-to-be-a-milestone.html

    लेखक प्रबोध उनियाल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

    Film Photo Source - google

    22 April, 2020

    पृथ्वी दिवस पर घरों में बंद दुनिया


    https://www.bolpahadi.in/2020/04/blog-post-the-world-is-closed-in-houses-on-earth-day.html

    डॉ. अतुल शर्मा ।

    आज धरती को रहने योग्य बनाये रखने के संकल्प का दिन। यह सांकेतिक है। धरती पर प्रदूषण और उसके साथ उस पर भोगवादी सोच की मार। नदियाँ प्रदूषित, वायुमंडल दूषित, कटते जंगल, खेतों पर इमारतें उगना आदि बहुत सी चुनौतियों के बीच धरती दिवस का महत्व और भी ज़रुरी हो गया है।

    आग के गोले से धरती में बदलने की विस्तृत प्रक्रिया है। फिर उसपर जीवन का उदय। परिवर्तन हुए और लम्बी यात्रा के बाद यह समय आया। अब सब को क्या करना है यह सभी को सोचना और उसपर चलना है। आज के संदर्भ में स्थिति एकदम भिन्न है। पूरा विश्व घरों मे बन्द है। वायुमंडल में एक ऐसा कोरोना वायरस उपस्थित है जो जानलेवा है। उसका कोई वैक्सीन नहीं है। बस घरों में बंद रहकर ही इससे बचा जा सकता है। यह बहुत तेजी से फैलता है।

    यह वैश्विक महामारी का दौर है। महाशक्तियों ने हथियार बनाये पर इस वायरस स्वय हथियार से कम नहीं। यह कब और कैसे समाप्त होगा, यह पता नहीं। खांसी जुखाम तेज़ बुखार सांस लेने में कठिनाई इसके लक्षण देखे गए है। आईसीयू और वेन्टीलेटर के साथ इसका टेस्ट भी चुनौती बना हुआ है। डाक्टर और व्यवस्था अपने मोर्चे पर हैं। लाखों लोगों के मरने की खबर है। संख्या बढ रही है। बार-बार हाथ धोने और सोशल डिस्टेंसिंग ज़रुरी है। विश्व की यह बड़ी चुनौती दुर्भाग्यपूर्ण और त्रासद है।

    हम इसी समय में जी रहे हैं। सभी गतिविधियां बन्द है। सार्वजनिक लॉकडाउन है। ऐसा न सोचा था न पढ़ा था। वह आज सामने है। दूसरी तरफ कुछ महत्वपूर्ण सोचने का का भी वक्त है यह। विश्व घरों में बंद है और प्रकृति अपने नैसर्गिक रुप की तरफ मुड़ती दिख रही है। भारत में प्रदूषित यमुना और गंगा अविरल साफ सुथरी बहने लगी है। आकाश और पर्यावरण शुद्ध हो रहा है।

    अब फिर से हर विषय में नई दिशा में सोचना होगा। बहुत सी स्थितियों में परिवर्तन आ सकता है। सांस लेने के लिए स्वच्छ वायु भी मिलनी मुश्किल हो गई। ऐसी भोगवादी व्यवस्था बन गई जिसे बदलना जरुरी हो गया। कोरोना से एक चीज़ बदल सकती है वह है हमारी इम्यूनिटी। यह बेहद जरुरी है। इसके लिए जीवनचर्या को ही बदलना जरुरी हो गया। विकास मनुष्य के लिए आक्सीजन के लिए हो, न कि सिर्फ मुनाफे के लिए। हिमालय बचाना, विश्व बचाना और धरती बचाना जरूरी हो गया।

    अब बिजली बनानी है तो नदी को रोक दिया। सड़कें बनानी है तो पेड़ काट दिए। प्राकृतिक तौर से जीने की जगह प्रकृति को नष्ट करने में लगे लोगों को अब सोचना होगा। विकास जरुरी है और धरती और मानव सभ्यता बचा रहना भी जरुरी है। उम्मीद करनी ही चाहिए कि आज दुनियां वैश्विक महामारी से बचेगी और नए सवालों के नए उत्तर भी ढूंढ लेगी। धरती बचेगी और हम और आने वाला समय मुस्काएगा।
    https://www.bolpahadi.in/2020/04/blog-post-the-world-is-closed-in-houses-on-earth-day.html

    लेखक डॉ. अुतल शर्मा जाने माने जनकवि, साहित्यकार हैं।
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    15 April, 2020

    भुवन शोम से हुई प्रयोगधर्मी सिनेमा की शुरूआत

    https://www.bolpahadi.in/2020/04/blog-post-experimental-film-bhuvan-shome.html

    - प्रबोध उनियाल  । 


    फिल्मकार मृणाल सेन द्वारा वर्ष 1969 में ‘भुवन शोम’ का निर्माण आधुनिक भारतीय सिनेमा में मील का पत्थर साबित हुई। ये एक नए सिनेमा के विमर्श का आरंभ था। व्यवसायिक सिनेमा हिंदी दर्शकों के लिए एक स्वस्थ और निरापद मनोरंजन भर था। साफ-सुथरी फिल्में भी थीं जिन्हें पूरा परिवार एक साथ बैठकर देख सकता था। अपवाद हो सकता है लेकिन अधिकांश फिल्मों में कलात्मकता व बौद्धिक संवेदना कम दिखती थी। सिनेमा को लेकर मध्यमवर्गीय सोच अपने तरीके की थी। वह अभी सुदूर देहात तक नहीं पहुंचा था। उसकी पटकथा में आम जनजीवन उतना उभर कर नहीं आया।

    फिल्म ‘भुवन शोम’ को एक नए सिनेमा की शुरुआत माना जाता है। जो हिंदी दर्शकों को एक मध्यमवर्गीय सोच से खींचकर बाहर निकालने में कामयाब रही। ऐसा पहली बार हुआ जब दर्शक ‘भुवन शोम’ को देखकर इस फिल्म को अपने साथ हॉल से बाहर ले आए। स्वस्थ मनोरंजन अपनी जगह ही रहा लेकिन ‘भुवन शोम’ के बहाने यह माने जाने लगा कि फिल्में, पुस्तक या कोई भी संगीत आपको धीरे से बदलता जरूर है। अगर आप उदासीन और निष्क्रिय हैं तो यह विचार प्रवाह आपको जगाता भी है और शायद उकसाता भी है।

    यहीं से नए सिनेमा और अच्छे सिनेमा में भेद होने लगा। जानकारों का कहना है कि दरअसल सन् 1969 से पूर्व हम एक ही प्रकार का सिनेमा का निर्माण करते आ रहे थे। भारतीय दर्शकों की सिनेमा को लेकर एक विशिष्ट किस्म की मानसिकता बन चुकी थी। तब मृणाल सेन की फिल्म ‘भुवन शोम’ ने एक प्रयोगधर्मी सिनेमा की ओर राह बढ़ाई।

    फिल्म बांग्ला कहानीकार बलाई चंद मुखर्जी की कहानी पर आधारित है। नायक के किरदार में प्रसिद्ध अभिनेता उत्पल दत्त हैं। नायक रेल महकमे में एक बड़ा अधिकारी है। सख्त है और अनुशासन प्रिय भी। इतना सख्त और अनुशासन प्रिय कि रेलवे में ही काम करने वाले अपने बेटे को भी नहीं बख़्सते। शोमबाबू विधुर हैं, जाहिर सी बात है कि जीवन में बहुत ज्यादा आनंद नहीं है। जीवन शुष्क है।

    कहानी में मोड़ तब आता है जब एक दिन वे अचानक ऑफिस की चारदीवारी से बाहर निकलकर कच्छ इलाके में गांव की एक चंचल युवती से मिलते हैं। युवती का पति भी रेलवे में कर्मचारी है। देहात का धूलभरा जीवन लेकिन यहां का निश्चल सौंदर्य उनको आकर्षित करता है।

    यहां आकर शोमबाबू का नजरिया बदलने लगता है जो जीवन कभी सख्त और एकाकी था, वह जीवन धीरे से छूटने लगता है। और रेलवे का वह सख्त नौकरशाह एक अल्हड़ बच्चा बन जाता है।

    नायिका सुहासिनी मुले ने अपना फिल्मी सफर इसी फिल्म से शुरू किया था। अमिताभ बच्चन ने ‘भुवन शोम’ में पहली बार वॉयस ओवर किया था। कुल एक लाख रुपये के बजट से तैयार ‘भुवन शोम’ में उत्पल दत्त के शानदार अभिनय ने फिल्म को ऐतिहासिक बना दिया था।

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    https://www.bolpahadi.in/2020/04/blog-post-experimental-film-bhuvan-shome.html
    - लेखक प्रबोध उनियाल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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    06 March, 2020

    सद्भाव के रंगों का पर्व है होली

    https://www.bolpahadi.in/2020/03/blog-post-sadbhav-ke-rangon-ka-parv-hai-holi.html
    प्रबोध उनियाल |

    फागुन पूर्णिमा को मनाए जाने वाला होली का पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार वर्ष का अंतिम तथा जन सामान्य द्वारा मनाये जाने वाला सबसे बड़ा रंगों का त्योहार है. यह पर्व उल्लास का पर्व भी है, जिसमें सभी वर्ण एवं जाति के लोग बिना वर्ग भेद के सम्मिलित होते हैं. आदि -स्रोत वेदों और पुराण में उल्लेख होने के कारण होली का पर्व वैदिक कालीन पर्व भी कहा जा सकता है. प्राचीन मान्यता है कि लोग इस पर्व में खेतों में उगी आषाढ़ी फसल  गेहूं ,जौ व चना आदि की आहुति देकर तदनंतर यज्ञशेष प्रसाद ग्रहण करते थे. जैसे-जैसे समय बीतता गया होली के इस पर्व के साथ अन्य किंवदंतियां और ऐतिहासिक स्मृतियां भी जुड़ती चली गयीं.

    प्रह्लाद की विजय उत्सव का दिन
    नारद पुराण में यह पवित्र दिन भगवद भक्त प्रह्लाद की विजय उत्सव का दिन है. भले ही वरदान से गर्वित हिरण्यकश्यप की बहन होलिका अपने कुत्सित अभिप्राय के साथ प्रह्लाद को अपनी गोदी में लेकर अग्नि चिता में बैठ गई हो लेकिन प्रह्लाद सुरक्षित बच निकले.सच ही है कि अन्याय व क्षुद्र पाप अपने ही ताप से नष्ट हो जाते हैं. इस वजह से भी इस पर्व को सत्य एवं न्याय की विजय का स्मृति पर्व भी कह सकते हैं. भविष्य पुराण में भी उल्लेख आता है कि महाराजा रघु ने राक्षसी के उपद्रव से भयभीत होकर महर्षि वशिष्ठ के आदेशानुसार इस दिन अग्नि प्रज्वलन कर अपनी प्रजा को राक्षसी बाधाओं से मुक्त कराया था.

    होली एक वैदिककालीन पर्व
    इन संदर्भों से कहा जा सकता है कि होली एक वैदिककालीन पर्व है और माना जा सकता है कि होली उस समय भी  किसी ना किसी रूप में प्रचलित थी. यही नहीं भारत से बाहर सुदूर विदेशों में भी यह पर्व अपनी मूल भावना को सुरक्षित रखते हुए बड़े ही सद्भाव से मनाया जाता है.

    विज्ञान आश्रित पर्व भी है होली
    वैज्ञानिक विवेचन की दृष्टि से देखें तो होली का यह पर्व भी विज्ञान आश्रित पर्व है. कह सकते हैं कि होलिका दहन से इस जाड़े और गर्मी की ऋतु संधि में कई संक्रामक रोगों के रोगाणुओं व कीटाणु स्वयं ही इस दहन ज्वाला में नष्ट हो जाते होंगे. यूँ भी ऋतुराज बसंत के अप्रतिम प्रभाव के अनुग्रह के बाद होली महोत्सव का आयोजन नव स्फूर्ति और नव चेतना का संचार कर देता है. मानव ही नहीं संपूर्ण जीव- बनस्पति जगत भी अपने अभिनव विकास की एक नई परिभाषाएं लिखने लगता है. इस पर्व का यदि सीधा, सच्चा संदेश ग्रहण करें तो निश्चय ही होली के अवसर पर नाच, गाना व मनोविनोद हमें हमारे चित् को प्रसन्नचित्त रखते हैं. जो हमको मानसिक अस्वस्थता से बचाता है.

    पलाश और ढाक के फूलों -टेसुओं का रंग जगाता है शरीर में चेतना
    होली का पर्व रंगों का पर्व है. इन्हीं रंगों का हमारे भौतिक जीवन में गहरा प्रभाव रहता है. पाश्चात्य चिकित्सा शास्त्रियों का मानना है कि विविध प्रकार के रंगों का हमारे शरीर और चेतना पर सीधे-सीधे असर होता है. उसी कमी को पूरा करने लिए प्राचीन चिकित्सक रंग से युक्त औषधि से ही से समुचित उपचार किया करता था.

    वास्तविक दृष्टि से देखा जाए तो होली के पर्व में पलाश और ढाक के फूलों -टेसुओं का रंग के प्रयोग का विधान ही शास्त्रकारों ने कहा है. विदित है कि ढाक का प्रयोग नाना प्रकार की औषधियों के निर्माण में भी किया जाता है. कहा जाता है कि ढाक के फूलों से तैयार रंग  शरीर को कई संक्रामक बीमारियों से बचाता है.

    कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि होली का यह पर्व एक विश्वव्यापी पर्व है, जो विभिन्न रंगों के बहाने आपसी सद्भाव के रंगों को और गहरा कर सकता है. आज भले ही इस वैदिककालीन पर्व के साथ बहुत से दोष और अपवाद जुड़ गए हों लेकिन हम सब इसके उदात्त आदर्शों को पुनः स्थापित कर इस पर्व को विशुद्ध कर सकते हैं.

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