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Showing posts from 2020

त्राही-त्राही त्राहिमाम... (गढ़वाली कविता)

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• दुर्गा नौटियाल त्राही-त्राही त्राहिमाम,  तेरि सरण मा छां आज। कर दे कुछ यनु काज,  रखि दे हमारि लाज।। संगता ढक्यां छन द्वार, मुस्कौं न घिच्चा बुज्यान। खट्टी-मिट्ठी भितर-भैर, ह्वेगे कनि या जिबाळ। बिधाता अब त्वी बचो,  ईं विपदा तैं हरो। करदे कुछ यनु काज,  रखि दे हमारी लाज।। त्राही-त्राही त्राहिमाम... पित्र होला दोष देंणा, देवता होलु नाराज क्वी। लोग सब्बि बोळ्न लग्यां, त्वी कारण निवारण त्वी। मेरा इष्ट, कुल देबतों,  अब त दिश्ना द्या चुचों। करदे कुछ यनु काज,  रखि दे हमारी लाज।। त्राही-त्राही त्राहिमाम... धाण काज अब नि राई, खिस्सा बटुवा ह्वेगे खालि। लोण तेल लौण कनै, लाला बंद करिगे पगाळी। हे भगवती अब दैणि हो,  ईं बैतरणी तै तरो। करदे कुछ यनु काज,  रखि दे हमारी लाज।। त्राही-त्राही त्राहिमाम... रीता गौं बच्याण लग्यां, तिवारी हैंसण बैठिगे। बिसरिगे था जु बाटा, आज तखि उलार बौडिगे। हे भूमि का भूम्याल,  तुम दैणा ह्वेजा आज। करदे कुछ यनु काज,  रखि दे हमारी लाज।। त्राही-त्राही त्राहिमाम... (लेखक दुर्ग

मैं पहाड़ हूं (हिन्दी कविता)

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• मदन मोहन थपलियाल ’शैल’ मैं पहाड़ (हिमालय) हूं विज्ञान कहता है यहां पहले हिलोरें मारता सागर था दो भुजाएं आपस में टकराईं पहाड़ का जन्म हुआ हिमालय का अवतरण हुआ सदियों वीरान रहा धीरे-धीरे  वादियों और कंदराओं का उद्गम हुआ गंगा पृथ्वी पर आईं कंद मूल फलों से धरा का श्रंगार हुआ सब खुशहाल थे मेरे ही गीत गुनगुनाते थे शांत एकांत निर्जन विजन ऋषि मुनियों को बहुत भाया देवताओं ने अपनी शरणस्थली बनाई तपस्वी रम गए प्रभु आराधना में मनीषियों ने ग्रंथ लिखे काव्य खंड लिखे चहुंओर  संस्कृति औ संस्कृत की ध्वनि गूंजने लगी वेदों की ऋचाएं गाई जाने लगीं आक्रमणकारियों ने मेरी शांति भंग कर दी आततायियों के भय से मनुज ने पहाड़ों का आश्रय लिया पहाड़ सैरगाह बन गए सब खुशहाल थे मेरे ही गीत गुनगुनाते थे मैदानी क्षेत्रों में बस्तियां बसने लगीं आधुनिक चकाचौंध ने  मेरे अस्तित्व को कम करके आंकना शुरू कर दिया फिर क्या था चल पड़े दरिया के मानिंद मैदानों के विस्तार में अपने को खोने बस वहीं के हो गए नौकर बन गए श्रम, पसीना, मनोबल सब बेच दिया भौतिक स

कल की सी ही बात है

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•  डॉ. अतुल शर्मा प्रकृति के सुकुमारतम कवि श्री सुमित्रानंदन पंत की आज शुभ जयंती है। कल की सी ही बात लगती है कि 1980 के दशक में लेखिका और दिल्ली दूरदर्शन की निदेशिका डॉ. कांता पंत के नई दिल्ली गोल मार्केट एसई जोड एरिया स्थित आवास पर प्रायः पंत जी के दर्शन का सौभाग्य मिलता रहता था। कांता भारती जी का पंत जी ने अपने भतीजे गोर्की पंत से विवाह करा दिया था। इस प्रकार वह कांता पंत हो गयी थीं।  ‘‘मैं पंत जी के दर्शनार्थ प्रायः कवि एवं समीक्षक श्री गोपाल कृष्ण कौल के साथ जाया करता था, कभी-कभी अकेला भी जाता था। पंत जी की बादल और परिवर्तन जैसी कविताएं और उनका सौम्य सुदर्शन व्यक्तित्व आज भी स्मृति में सुरक्षित है। उनकी पावन स्मृति को सश्रद्ध नमन!’’ यह कहना है प्रसिद्ध कवि धनंजय सिह का। कवि सुमित्रानन्दन पंत का जन्म 20 मई 1900 के दिन कौसानी उत्तराखंड में हुआ था। वे छायावादी युग के स्तंभ थे। उनके काव्य साहित्य पर जहां गांधी का प्रभाव था वहीं कई जगह मार्क्स और फ्रायड का प्रभाव बताया गया। आप हिन्दी साहित्य की काव्य परम्परा के कीर्ति स्तंभ हैं। उन्होंने पद्य के साथ गद्य रचनाएं की। 

जरा बच के ... (व्यंग्य)

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•  प्रबोध उनियाल बहुत समय पहले की बात है, तब इतनी मोटर गाड़ियां नहीं थीं। सबके अपने-अपने घोड़े होते थे। भले ही हम तब भी गधे ही रहे। अस्तु! उस समय मकान की दीवारें 'टच' नहीं होती थी बीच में नाली या नाला आपकी सुविधा अनुसार होता था। 'टच' के जमाने तो अब आये, चाहे दीवारें 'टच' हो या मोबाइल टच...। पुराने लोग गवाह हैं। उनके जमाने की फिल्मों में शम्मी कपूर और मनोज कुमार पेड़ के ही आसपास घूमते हुए हीरोइन को रिझाते थे लेकिन 'टच' नहीं करते थे। ये सोशल डिस्टेंस ( Social distance ) के जमाने थे। यही वजह थी कि ये फिल्में बेहद मनोरंजक और घर के लोगों के साथ देखने वाली होती थीं। साम्बा इसीलिए हमेशा दूर पत्थर पर बैठा रहता था। सोशल डिस्टेंस पर कई हिट गाने भी बने हैं। 'दूर रहकर न करो बात करीब आ जाओ..।' लेकिन साहब मजाल है जो हीरो या हीरोइन इतने करीब आ जाएं। समय बैल गाड़ियों से होता हुआ इलेक्ट्रॉनिक रेलगाड़ियों तक आ गया। दूरियां घटने लगी। यानि no distance ... गांव की बात छोड़ दें तो शहरों में बहुमंजिला इमारतें खड़ी हो गयीं। इन इमारतों में घर तो थे लेकिन

लॉकडाउन में गूंज रही कोयल की मधुर तान

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• प्रबोध उनियाल ये एक भीड़ भरा इलाका है, जहां मैं रहता हूं। मेरी घर की बालकनी से सड़क पर अक्सर भागते लोग और दौड़ती गाड़ियां ही दिखती हैं। तब कहीं न कहीं इस भीड़ में आप भी हैं। अभी तक मैंने इस सड़क को देर रात में ही थोड़ी सी सांस लेते देखा है। लेकिन लॉकडाउन के चलते एक निश्चित समय की छूट के बाद ये सुनसान सी पसरी पड़ी देख रहा हूं। आजकल दिनचर्या सामान्य नहीं है। कामकाज के दिनों में आपका समय उसी हिसाब से बंधा होता है। पूरे दिन के इस खाली समय में आपको अपने आप को नियत करना होता है। तब आप कहीं ना कहीं सुकून ढूंढ रहे होते हैं। लेकिन कुछ दिनों से मेरे लिए ढलती सांझ सुकून भरी आती है। बचपन यूं ही उन तमाम बच्चों की चुहलबाजियों सा ही बीता। मुझे याद है कि मेरे घर के पास तब इस तरह की ये तमाम सीमेंटेड अट्टालिकाएं नहीं थी। घर में सिर्फ कमरे होते थे दुकाने नहीं! बाजारीकरण के चलते दृश्य बदला और कई कमरे दुकानों में तब्दील हो गए। मैं लौटता हूं आजकल की अपनी सांझ पर। पानी पीने के लिए फ्रिज को खोलते हुए मैं अचानक कोयल की मधुर तान सुन रहा हूं। बचपन में, मैंने कोयल की इस कुहू को बखूबी सुना है जो अभी

भाई साहब घर में हैं (व्यंग्य)

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• प्रबोध उनियाल कुछ भाई साहब तो आजकल बर्तनों के साथ फर्श को भी रगड़-रगड़ कर चमका रहे हैं। आजकल अधिकांश पत्नियां, पतियों को क्या काम देना है इसका खूब गुपचुप सलाह मशविरा सहेलियों से ले रही हैं?         पहली बार आप कई दिनों से चौबीस घंटे पत्नी के साथ हैं। कुछ गजब ही हो रहा है। आदमी जहां हर वक्त दरवाजे से बाहर जाने की जुगत देखता था वहीं कुछ ऐसा हो रहा है कि पत्नी उठे, आगे चले तो पीछे-पीछे भाई साहब भी!  इनदिनों कुछ यंत्रवत से तमाम पति, पत्नी के चारों ओर ना जाने कितनी बार एक संपूर्ण कोण घूम जा रहे हैं? ‘पत्नीश्री’ किचन की ओर चले तो भाई साहब भी किचन की ओर, पत्नी ड्राइंगरूम  की ओर घूमे तो पति पहले ही घूम जाये। आखिर पत्नी झल्ला कर बोल ही उठी- ’अरे! तुम एक जगह बैठ जाओ ना, मेरे पीछे-पीछे क्यों चल पड़ते हो?’ भाई साहब को बहुत आत्मग्लानि हुई। वह बता रहे थे कि यार! जीवन में ऐसा पहली बार हो रहा है। इतना तो यार तब भी नहीं हुआ था जब कुछ- कुछ हुआ था। भाई साहब! भाभी जी को ‘कुछ-कुछ होता है’ पिक्चर देखने के बाद ही घर लाए थे। मित्रों! ऐसे कई भाई साहब आजकल परेशान हैं तो कई पत्नीश्री भी। 

महा क्रांति आमंत्रित कर (हिन्दी कविता)

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• श्रीराम शर्मा ‘प्रेम’ तेरे शोणित, तेरी मज्जा से -  सने धवल प्रासाद खड़े। तेरी जीवन से ही निर्मित, तेरी छाती पर किन्तु अड़े इनको करके दृढ़ से दृढ़तर, तू स्वयं बना कृश से कृशतर। नर कहूं तूझे। तेरे विनाश के नित नूतन षडयंत्रों के मंत्रणागार। तेरी ही शोषण का इनमें, होता है क्षण-क्षण पर विचार। तेरी करुणा, तेरे कुन्दन, ठुकराए जाते हँस हँस कर कर महा क्रान्ति आमंत्रित कर नर कहूं तुझे। अपना जीवन यौवन देकर, अपना प्यारा तन-मन देकर, कुछ, चांदी के टुकड़ों पर ही - अपने जीवन को खो, खोकर, तूने ही इनको खड़ा किया, तेरे गवाह ईटें पत्थर। कर महा क्रांन्ति आमंत्रित कर नर कहूं तुझे। अपना सब कुछ खोकर जीना यह ग्लानि-गरल पीना, पीना। कैसे सह लेता है सीना ? यह भी कुछ मानव का जीना। थोड़ी ही हिम्मत कर उठ जा! उठकर कह दे जय प्रलयंकर। कर महा क्रान्ति आमंत्रित कर नर कहूं तुझे। पृथ्वी काँपे आकाश हिले, तारे नभ के कुछ, थर्राये। अत्याचारी जग के प्रहरी - ये सूर्य चन्द्र कुछ घबरावें। ऐसी हो क्रान्ति विशाल विपलु। काँपे हिमनग थर-थर-थर-थर। कर महा क्रान्ति कर नर कहूं तुझे। सब कुछ, सम

अलविदा इरफान! इतनी भी जल्दी क्या थी..

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• प्रबोध उनियाल फिल्म अभिनेता इरफान खान का यूं चले जाना स्तब्ध करता है। उनके जज्बे से लगने लगा था कि वह अपनी यह लड़ाई जीत लेंगे। जीतकर आए भी लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। गिनतियों में ही इरफान जैसे प्रतिबद्ध कलाकार सिनेमा को मिलते हैं। अभिनय हो या बीमारी की जंग उन्होंने हमेशा अपना जज्बा कायम रखा। यही वजह रही कि वे कई निर्देशकों की पहली पसंद थे। अभिनय की और बारीकियां भले ही उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से सीखी हों लेकिन उनके व्यक्तित्व में कला का एक संपूर्ण व्यक्ति जैसे जन्मजात ही रहता हो। सीधा, सपाट और चेहरे में गंभीरता लिए यह कलाकार कुछ अलग सा ही दिखता था। एक गंभीर और प्रतिभावान कलाकार का यूं चले जाना उदास करता है। इरफान खान ने अपने कैरियर की शुरुआत टेलीविजन से की और फिर यह सफर 50 से अधिक फिल्मों तक जारी रहा। द वॉरियर, मक़बूल, हासिल, लंच बॉक्स और पान सिंह तोमर आदि फिल्मों में उन्होंने कई यादगार किरदार निभाए। ‘अंग्रेजी मीडियम’ उनकी हालिया प्रदर्शित फिल्म थी। असमय ही इरफान के चले जाने से भारतीय और विश्व सिनेमा के साथ सिने प्रेमी खासकर उनके किरदारों से बेइंतिहा प्यार क

मारियो वार्गास ल्योसा की कृति ‘किस्सागो’ का परिचय

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 ● डॉ. अतुल शर्मा ‘किस्सागो’ मारियो वार्गास ल्योसा का महत्वपूर्ण उपन्यास लातिन अमरीकी देश ‘पेरु’ के आदिवासियों पर आधारित है। आधुनिक विकास और नदी, पर्वत, सूरज, चांद, दुष्ट आत्माओं; की एक के बाद एक निकलती कथाओं का सिलसिला है। विषम परिस्थितियों से जूझते और बार-बार स्थानांतरित होने को विवश बंटे हुए माचीग्वेरा समाज को जोड़ने वाली कड़ी है- ‘किस्सागो’ यानि ‘आब्लादोर उपन्यासकार एक किरदार के रुप में उपस्थित है।’ आदिवासी जीवन पर केन्द्रित होने के नाते उपन्यास में बीसियों पेड़, पौधे, पशु, पक्षी, नदियों, पहाड़ों, देवताओं, दानवो के नाम आते हैं। उपन्यास में कथाओं का सिलसिला जारी रहता है। एक जगह वे लिखते हैं- ‘चिन्ता मत करो किस्सागो! अगर ऐसा ही है तो जीवन बदल डालो। एक जगह ठहर कर अपना परिवार बसा लो अपनी झोपड़ी बनाओ, जंगल साफ करो और अपने खेतों की देखभाल करो। तुम्हारे बच्चे हो जाएंगे। भटकते हुए किस्सागो का जीवन छोड़ दो।’ वे आगे चलकर कहते हैं- ‘तुम उस औरत को अपना सकते हो जो शान्त और समझदार है। वह तुम्हारी मदद करेगी रसोई बनाने, सूत कातने में सबसे ज्यादा होशियार है या तुम्हें अगर पसन्द हो तो मेरी

जब देहरादून आए थे राष्ट्रीय कवि 'दिनकर'

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(राष्ट्रीय कवि रामधारी सिंह दिनकर की पुण्यतिथि पर विशेष) - डॉ. अतुल शर्मा  मेरे नगपति! मेरे विशाल!  साकार दिव्य गौरव विराट पौरुष के पुंजीभूत ज्वाल मेरी जननी के हिम किरीट मेरे भारत के दिव्य भाल। मेरे नगपति मेरे विशाल। राष्ट्रीय कवि रामधारी सिंह दिनकर जी की यह प्रसिद्ध कविता “हिमालय के प्रति“ एक कालजयी कविता है। दिनकर जी हिन्दी काव्य साहित्य के सूर्य है। छायावादी युग के बाद प्रगतिवादी काव्यधारा में उनका विशेष स्थान तो है ही पर स्वाधीनता सेनानी के रुप में भी उनका अवदान है।  मुझे याद है कि 70 के दशक में देहरादून में आयोजित एक कवि सम्मेलन के मंच पर अध्यक्षता कर रहे राष्ट्रीय कवि रामधारी सिंह दिनकर जी विराजमान थे। साथ में देश के प्रसिद्ध कवि मौजूद थे। उनकी कविता सुनकर ऐसा लग रहा था कि मानां एक युग हुंकार रहा हो। खादी का धोती कुर्ता दिव्य ललाट तेजस्वी आंखें। दिनकर जी का सानिध्य मंच पर और उसके बाद भी मिला अपने पिता स्वतंत्रता सेनानी कवि श्रीराम शर्मा ‘प्रेम’ के साथ। तब उन्होंने एक बात कही थी कि कविता प्रयोजनमूलक होनी चाहिए। युग के सच्चे मार्गदर्शक थ

मील का पत्थर साबित हुई थी ‘27 डाउन’

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प्रबोध उनियाल ।  फिल्म ‘भुवन शोम’ की कामयाबी के बाद हिंदी सिनेमा के इतिहास में व्यवसायिक सिनेमा के समांतर नए सिनेमा का विकास तेजी से हुआ। फार्मूला फिल्मों की जकड़ से बाहर निकालकर तब नए सिनेमा के आंदोलन में कई बेहतरीन फिल्में बनाई गईं। उन बेहतरीन फिल्मों में से एक फ़िल्म थी ‘27 डाउन’।  युवा निर्देशक अवतार कृष्ण कौल की यह एकमात्र निर्देशित फिल्म थी जिसे 1974 में सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि जब फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार देने की घोषणा हुई तो तभी अवतार कृष्ण कौल एक दुर्घटना के शिकार हो गए और उनकी मृत्यु हो गई। असमय ही नया सिनेमा ने एक प्रतिबद्ध और प्रतिभावान निर्देशक खो दिया।  ‘27 डाउन’( 27 Down ) में निर्देशक ने प्रत्येक दृश्य को प्रतीकात्मक अर्थ देकर फिल्म को बेहतरीन बना दिया। रेलवे स्टेशनों की जिंदगी, रेल का पटरियों में दौड़ना, बनारस की सड़कें और और नायक संजय की जिंदगी में पटरियों पर दौड़ते जीवन का एकाकीपन फिल्म को अविस्मरणीय बना देता है। फिल्म की कहानी प्रसिद्ध साहित्यकार रमेश बख्शी के उपन्यास ’अट्ठारह सूरज के पौधे’

पृथ्वी दिवस पर घरों में बंद दुनिया

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डॉ. अतुल शर्मा । आज धरती को रहने योग्य बनाये रखने के संकल्प का दिन। यह सांकेतिक है। धरती पर प्रदूषण और उसके साथ उस पर भोगवादी सोच की मार। नदियाँ प्रदूषित , वायुमंडल दूषित , कटते जंगल , खेतों पर इमारतें उगना आदि बहुत सी चुनौतियों के बीच धरती दिवस का महत्व और भी ज़रुरी हो गया है। आग के गोले से धरती में बदलने की विस्तृत प्रक्रिया है। फिर उसपर जीवन का उदय। परिवर्तन हुए और लम्बी यात्रा के बाद यह समय आया। अब सब को क्या करना है यह सभी को सोचना और उसपर चलना है। आज के संदर्भ में स्थिति एकदम भिन्न है। पूरा विश्व घरों मे बन्द है। वायुमंडल में एक ऐसा कोरोना वायरस उपस्थित है जो जानलेवा है। उसका कोई वैक्सीन नहीं है। बस घरों में बंद रहकर ही इससे बचा जा सकता है। यह बहुत तेजी से फैलता है। यह वैश्विक महामारी का दौर है। महाशक्तियों ने हथियार बनाये पर इस वायरस स्वय हथियार से कम नहीं। यह कब और कैसे समाप्त होगा , यह पता नहीं। खांसी जुखाम तेज़ बुखार सांस लेने में कठिनाई इसके लक्षण देखे गए है। आईसीयू और वेन्टीलेटर के साथ इसका टेस्ट भी चुनौती बना हुआ है। डाक्टर और व्यवस्था अपने मोर्चे पर हैं। ल

भुवन शोम से हुई प्रयोगधर्मी सिनेमा की शुरूआत

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- प्रबोध उनियाल   ।  फिल्मकार मृणाल सेन द्वारा वर्ष 1969 में ‘भुवन शोम’ का निर्माण आधुनिक भारतीय सिनेमा में मील का पत्थर साबित हुई। ये एक नए सिनेमा के विमर्श का आरंभ था। व्यवसायिक सिनेमा हिंदी दर्शकों के लिए एक स्वस्थ और निरापद मनोरंजन भर था। साफ-सुथरी फिल्में भी थीं जिन्हें पूरा परिवार एक साथ बैठकर देख सकता था। अपवाद हो सकता है लेकिन अधिकांश फिल्मों में कलात्मकता व बौद्धिक संवेदना कम दिखती थी। सिनेमा को लेकर मध्यमवर्गीय सोच अपने तरीके की थी। वह अभी सुदूर देहात तक नहीं पहुंचा था। उसकी पटकथा में आम जनजीवन उतना उभर कर नहीं आया। फिल्म ‘भुवन शोम’ को एक नए सिनेमा की शुरुआत माना जाता है। जो हिंदी दर्शकों को एक मध्यमवर्गीय सोच से खींचकर बाहर निकालने में कामयाब रही। ऐसा पहली बार हुआ जब दर्शक ‘भुवन शोम’ को देखकर इस फिल्म को अपने साथ हॉल से बाहर ले आए। स्वस्थ मनोरंजन अपनी जगह ही रहा लेकिन ‘भुवन शोम’ के बहाने यह माने जाने लगा कि फिल्में, पुस्तक या कोई भी संगीत आपको धीरे से बदलता जरूर है। अगर आप उदासीन और निष्क्रिय हैं तो यह विचार प्रवाह आपको जगाता भी है और शायद उकसाता भी है। यहीं

सद्भाव के रंगों का पर्व है होली

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प्रबोध उनियाल  | फागुन पूर्णिमा को मनाए जाने वाला होली का पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार वर्ष का अंतिम तथा जन सामान्य द्वारा मनाये जाने वाला सबसे बड़ा रंगों का त्योहार है. यह पर्व उल्लास का पर्व भी है, जिसमें सभी वर्ण एवं जाति के लोग बिना वर्ग भेद के सम्मिलित होते हैं. आदि -स्रोत वेदों और पुराण में उल्लेख होने के कारण होली का पर्व वैदिक कालीन पर्व भी कहा जा सकता है. प्राचीन मान्यता है कि लोग इस पर्व में खेतों में उगी आषाढ़ी फसल  गेहूं ,जौ व चना आदि की आहुति देकर तदनंतर यज्ञशेष प्रसाद ग्रहण करते थे. जैसे-जैसे समय बीतता गया होली के इस पर्व के साथ अन्य किंवदंतियां और ऐतिहासिक स्मृतियां भी जुड़ती चली गयीं. प्रह्लाद की विजय उत्सव का दिन नारद पुराण में यह पवित्र दिन भगवद भक्त प्रह्लाद की विजय उत्सव का दिन है. भले ही वरदान से गर्वित हिरण्यकश्यप की बहन होलिका अपने कुत्सित अभिप्राय के साथ प्रह्लाद को अपनी गोदी में लेकर अग्नि चिता में बैठ गई हो लेकिन प्रह्लाद सुरक्षित बच निकले.सच ही है कि अन्याय व क्षुद्र पाप अपने ही ताप से नष्ट हो जाते हैं. इस वजह से भी इस पर्व को सत्य एवं न्याय की विजय का स