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Showing posts from April, 2020

अलविदा इरफान! इतनी भी जल्दी क्या थी..

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• प्रबोध उनियाल फिल्म अभिनेता इरफान खान का यूं चले जाना स्तब्ध करता है। उनके जज्बे से लगने लगा था कि वह अपनी यह लड़ाई जीत लेंगे। जीतकर आए भी लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। गिनतियों में ही इरफान जैसे प्रतिबद्ध कलाकार सिनेमा को मिलते हैं। अभिनय हो या बीमारी की जंग उन्होंने हमेशा अपना जज्बा कायम रखा। यही वजह रही कि वे कई निर्देशकों की पहली पसंद थे। अभिनय की और बारीकियां भले ही उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से सीखी हों लेकिन उनके व्यक्तित्व में कला का एक संपूर्ण व्यक्ति जैसे जन्मजात ही रहता हो। सीधा, सपाट और चेहरे में गंभीरता लिए यह कलाकार कुछ अलग सा ही दिखता था। एक गंभीर और प्रतिभावान कलाकार का यूं चले जाना उदास करता है। इरफान खान ने अपने कैरियर की शुरुआत टेलीविजन से की और फिर यह सफर 50 से अधिक फिल्मों तक जारी रहा। द वॉरियर, मक़बूल, हासिल, लंच बॉक्स और पान सिंह तोमर आदि फिल्मों में उन्होंने कई यादगार किरदार निभाए। ‘अंग्रेजी मीडियम’ उनकी हालिया प्रदर्शित फिल्म थी। असमय ही इरफान के चले जाने से भारतीय और विश्व सिनेमा के साथ सिने प्रेमी खासकर उनके किरदारों से बेइंतिहा प्यार क

मारियो वार्गास ल्योसा की कृति ‘किस्सागो’ का परिचय

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 ● डॉ. अतुल शर्मा ‘किस्सागो’ मारियो वार्गास ल्योसा का महत्वपूर्ण उपन्यास लातिन अमरीकी देश ‘पेरु’ के आदिवासियों पर आधारित है। आधुनिक विकास और नदी, पर्वत, सूरज, चांद, दुष्ट आत्माओं; की एक के बाद एक निकलती कथाओं का सिलसिला है। विषम परिस्थितियों से जूझते और बार-बार स्थानांतरित होने को विवश बंटे हुए माचीग्वेरा समाज को जोड़ने वाली कड़ी है- ‘किस्सागो’ यानि ‘आब्लादोर उपन्यासकार एक किरदार के रुप में उपस्थित है।’ आदिवासी जीवन पर केन्द्रित होने के नाते उपन्यास में बीसियों पेड़, पौधे, पशु, पक्षी, नदियों, पहाड़ों, देवताओं, दानवो के नाम आते हैं। उपन्यास में कथाओं का सिलसिला जारी रहता है। एक जगह वे लिखते हैं- ‘चिन्ता मत करो किस्सागो! अगर ऐसा ही है तो जीवन बदल डालो। एक जगह ठहर कर अपना परिवार बसा लो अपनी झोपड़ी बनाओ, जंगल साफ करो और अपने खेतों की देखभाल करो। तुम्हारे बच्चे हो जाएंगे। भटकते हुए किस्सागो का जीवन छोड़ दो।’ वे आगे चलकर कहते हैं- ‘तुम उस औरत को अपना सकते हो जो शान्त और समझदार है। वह तुम्हारी मदद करेगी रसोई बनाने, सूत कातने में सबसे ज्यादा होशियार है या तुम्हें अगर पसन्द हो तो मेरी

जब देहरादून आए थे राष्ट्रीय कवि 'दिनकर'

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(राष्ट्रीय कवि रामधारी सिंह दिनकर की पुण्यतिथि पर विशेष) - डॉ. अतुल शर्मा  मेरे नगपति! मेरे विशाल!  साकार दिव्य गौरव विराट पौरुष के पुंजीभूत ज्वाल मेरी जननी के हिम किरीट मेरे भारत के दिव्य भाल। मेरे नगपति मेरे विशाल। राष्ट्रीय कवि रामधारी सिंह दिनकर जी की यह प्रसिद्ध कविता “हिमालय के प्रति“ एक कालजयी कविता है। दिनकर जी हिन्दी काव्य साहित्य के सूर्य है। छायावादी युग के बाद प्रगतिवादी काव्यधारा में उनका विशेष स्थान तो है ही पर स्वाधीनता सेनानी के रुप में भी उनका अवदान है।  मुझे याद है कि 70 के दशक में देहरादून में आयोजित एक कवि सम्मेलन के मंच पर अध्यक्षता कर रहे राष्ट्रीय कवि रामधारी सिंह दिनकर जी विराजमान थे। साथ में देश के प्रसिद्ध कवि मौजूद थे। उनकी कविता सुनकर ऐसा लग रहा था कि मानां एक युग हुंकार रहा हो। खादी का धोती कुर्ता दिव्य ललाट तेजस्वी आंखें। दिनकर जी का सानिध्य मंच पर और उसके बाद भी मिला अपने पिता स्वतंत्रता सेनानी कवि श्रीराम शर्मा ‘प्रेम’ के साथ। तब उन्होंने एक बात कही थी कि कविता प्रयोजनमूलक होनी चाहिए। युग के सच्चे मार्गदर्शक थ

मील का पत्थर साबित हुई थी ‘27 डाउन’

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प्रबोध उनियाल ।  फिल्म ‘भुवन शोम’ की कामयाबी के बाद हिंदी सिनेमा के इतिहास में व्यवसायिक सिनेमा के समांतर नए सिनेमा का विकास तेजी से हुआ। फार्मूला फिल्मों की जकड़ से बाहर निकालकर तब नए सिनेमा के आंदोलन में कई बेहतरीन फिल्में बनाई गईं। उन बेहतरीन फिल्मों में से एक फ़िल्म थी ‘27 डाउन’।  युवा निर्देशक अवतार कृष्ण कौल की यह एकमात्र निर्देशित फिल्म थी जिसे 1974 में सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि जब फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार देने की घोषणा हुई तो तभी अवतार कृष्ण कौल एक दुर्घटना के शिकार हो गए और उनकी मृत्यु हो गई। असमय ही नया सिनेमा ने एक प्रतिबद्ध और प्रतिभावान निर्देशक खो दिया।  ‘27 डाउन’( 27 Down ) में निर्देशक ने प्रत्येक दृश्य को प्रतीकात्मक अर्थ देकर फिल्म को बेहतरीन बना दिया। रेलवे स्टेशनों की जिंदगी, रेल का पटरियों में दौड़ना, बनारस की सड़कें और और नायक संजय की जिंदगी में पटरियों पर दौड़ते जीवन का एकाकीपन फिल्म को अविस्मरणीय बना देता है। फिल्म की कहानी प्रसिद्ध साहित्यकार रमेश बख्शी के उपन्यास ’अट्ठारह सूरज के पौधे’

पृथ्वी दिवस पर घरों में बंद दुनिया

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डॉ. अतुल शर्मा । आज धरती को रहने योग्य बनाये रखने के संकल्प का दिन। यह सांकेतिक है। धरती पर प्रदूषण और उसके साथ उस पर भोगवादी सोच की मार। नदियाँ प्रदूषित , वायुमंडल दूषित , कटते जंगल , खेतों पर इमारतें उगना आदि बहुत सी चुनौतियों के बीच धरती दिवस का महत्व और भी ज़रुरी हो गया है। आग के गोले से धरती में बदलने की विस्तृत प्रक्रिया है। फिर उसपर जीवन का उदय। परिवर्तन हुए और लम्बी यात्रा के बाद यह समय आया। अब सब को क्या करना है यह सभी को सोचना और उसपर चलना है। आज के संदर्भ में स्थिति एकदम भिन्न है। पूरा विश्व घरों मे बन्द है। वायुमंडल में एक ऐसा कोरोना वायरस उपस्थित है जो जानलेवा है। उसका कोई वैक्सीन नहीं है। बस घरों में बंद रहकर ही इससे बचा जा सकता है। यह बहुत तेजी से फैलता है। यह वैश्विक महामारी का दौर है। महाशक्तियों ने हथियार बनाये पर इस वायरस स्वय हथियार से कम नहीं। यह कब और कैसे समाप्त होगा , यह पता नहीं। खांसी जुखाम तेज़ बुखार सांस लेने में कठिनाई इसके लक्षण देखे गए है। आईसीयू और वेन्टीलेटर के साथ इसका टेस्ट भी चुनौती बना हुआ है। डाक्टर और व्यवस्था अपने मोर्चे पर हैं। ल

भुवन शोम से हुई प्रयोगधर्मी सिनेमा की शुरूआत

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- प्रबोध उनियाल   ।  फिल्मकार मृणाल सेन द्वारा वर्ष 1969 में ‘भुवन शोम’ का निर्माण आधुनिक भारतीय सिनेमा में मील का पत्थर साबित हुई। ये एक नए सिनेमा के विमर्श का आरंभ था। व्यवसायिक सिनेमा हिंदी दर्शकों के लिए एक स्वस्थ और निरापद मनोरंजन भर था। साफ-सुथरी फिल्में भी थीं जिन्हें पूरा परिवार एक साथ बैठकर देख सकता था। अपवाद हो सकता है लेकिन अधिकांश फिल्मों में कलात्मकता व बौद्धिक संवेदना कम दिखती थी। सिनेमा को लेकर मध्यमवर्गीय सोच अपने तरीके की थी। वह अभी सुदूर देहात तक नहीं पहुंचा था। उसकी पटकथा में आम जनजीवन उतना उभर कर नहीं आया। फिल्म ‘भुवन शोम’ को एक नए सिनेमा की शुरुआत माना जाता है। जो हिंदी दर्शकों को एक मध्यमवर्गीय सोच से खींचकर बाहर निकालने में कामयाब रही। ऐसा पहली बार हुआ जब दर्शक ‘भुवन शोम’ को देखकर इस फिल्म को अपने साथ हॉल से बाहर ले आए। स्वस्थ मनोरंजन अपनी जगह ही रहा लेकिन ‘भुवन शोम’ के बहाने यह माने जाने लगा कि फिल्में, पुस्तक या कोई भी संगीत आपको धीरे से बदलता जरूर है। अगर आप उदासीन और निष्क्रिय हैं तो यह विचार प्रवाह आपको जगाता भी है और शायद उकसाता भी है। यहीं