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Showing posts from April, 2018

हमें सोचना तो होगा...!!

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दिल्ली में निर्भया कांड के बाद जिस तरह से तत्कालीन केंद्र सरकार सक्रिय हुई, नाबालिगों से रेप के मामलों पर कड़ी कार्रवाई के लिए एक नया कानून अस्तित्व में आया। 2014 में केंद्र में आई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार ने भी ऐसे मामलों पर कार्रवाई की अपनी प्रतिबद्धताओं को जाहिर किया, तो लगा कि देश में महिला उत्पीड़न और खासकर रेप जैसी वारदातों पर समाज में डर पैदा होगा। जो कि जरूरी भी था। मगर, एनसीआरबी के आंकड़े इसकी तस्दीक नहीं करते। समाज में ऐसी विकृत मनोवृत्तियों में कानून का खौफ आज भी नहीं दिखता।                 हाल ही में कठुआ (जम्मू कश्मीर) में महज आठ साल, सूरत (गुजरात) में 10 साल, सासाराम (बिहार) में सात साल की बच्चियों से गैंगरेप और रेप, उन्नाव (उत्तरप्रदेश) में नाबालिग से कथित बलात्कार प्रकरण में स्थानीय विधायक का नाम जुड़ना, मौजूदा हालातों को आसानी से समझा दे रहे हैं। यहां सवाल यह नहीं कि ऐसी वारदातों को रोकने और मुजरिमों को सजा देने में सरकारें फेल हुई हैं। बल्कि यह है कि पीड़ितों को न्याय दिलाने की बजाए जम्मू कश्मीर और उत्तर प्रदेश में जिस तरह से रेप के आरोपियों को बचाने के ल

नई इबारत का वक्त

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हाल के वर्षों में पहाड़ों में रिवर्स माइग्रेशन एक उम्मीद बनकर उभरा है। प्रवासी युवाओं का वापस पहाड़ों की तरफ लौटना और यहां की विपरीत स्थितियों के बीच ही रास्ता तलाशने की कोशिशें निश्चित ही भविष्य के प्रति आशान्वित करती हैं, तो दूसरी तरफ पहाड़ों में ही रहते हुए कई लोगों ने अपने ही परिश्रम से अनेकों संभावनाओं को सामने रखा है। यदि उनकी इन्हीं कोशिशों को बल मिला और युवाओं ने प्रेरणा ली, तो पलायन से अभिशप्त उत्तराखंड के पर्वतीय हिस्सों में आने वाला वक्त एक नई ही इबारत लिखेगा।                 दरअसल, आजादी के बाद ही उत्तरप्रदेश का इस हिस्सा रहे उत्तराखंड के पर्वतीय भूभाग को भाषा और सांस्कृतिक भिन्नता के साथ अलग भौगोलिक कारणों से पृथक राज्य के रूप में स्थापित करने की मांग शुरू हो हुई थी। कुछ समय बाद रोजगार की कमी के चलते यहां से शुरू हुए पलायन ने इस मांग को और भी गाढ़ा किया। नतीजा, दशकों पुरानी मांग पर सन् 1994 में स्वतःस्फूर्त पृथक राज्य आंदोलन का संघर्ष निर्णायक साबित हुआ। नौ नवंबर 2000 को अलग राज्य के रूप में पर्वतीय जनमानस का एक सपना पूरा हुआ। मगर, उनकी सोच के विपरीत तकलीफें कम

बारहनाजा : पर्वतजनों के पूर्वजों की सोच की उपज

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डा0 राजेन्द्र डोभाल उत्तराखंड एक पर्वतीय राज्य तथा अनुकूल जलवायु होने के कारण एक कृषि प्रधान राज्य भी माना जाता रहा है। सामान्यतः उत्तराखंड मे विभिन्न फसलो की सिंचित, असिंचित, पारंपरिक और व्यसायिक खेती की जाती है। चूंकि स्वयं में कई पीढ़ियों से उत्तराखंड की खेती को पारंपरिक दृष्टिकोण से देखता आया हूं, अब पारंपरिक खेती पद्धतियों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परखने की कोशिश करता हूं, कि क्या हमारी पारंपरिक खेती की पद्धतियो में वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी था या केवल समय की आवश्यकता थी। जहां तक मैं समझता हूं कि हर कृषक की तरह खेती की मूलभूत आवश्यकता परिवार तथा पशुधन के भरण-पोषण की ही रही होगी। तत्पश्चात जलवायु अनुकूल फसलों का चयन, उत्पादन तथा कम जोत भूमि में संतुलित पोषण के लिए अधिक से अधिक फसलों का समन्वय तथा समावेश कर उत्पादन करना ही रहा होगा। निःसन्देह बारहनाजा जैसे कृषि पद्धति में फसलों का घनत्व बढ़ जाता है तथा वैज्ञानिक रूप से उचित दूरी का भी अभाव पाया जाता है, परन्तु कम जोत, असिंचित खेती की दशा सभी पोषक आहारों की पूर्ति के साथ पशुचारा तथा भूमि उर्वरता को बनाए रखना भी काश्तकारों के

हमरु गढ़वाल

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कवि श्री कन्हैयालाल डंडरियाल खरड़ी डांडी पुन्गड़ी लाल धरती को मुकुट भारत को भाल हमरु गढ़वाल यखै संस्कृति - गिंदडु, भुजयलु, ग्यगुडू, गड्याल। सांस्कृतिक सम्मेलन - अठवाड़। महान बलि - नारायण बलि। तकनीशियन - जन्द्रों सल्ली। दानुम दान - मुकदान। बच्यूं - निरभगी, मवरयूं - भग्यान। परोपकारी - बेटयूं को परवाण। विद्वान - जु गणत के जाण। नेता - जैन सैणों गोर भ्यालम हकाण। समाज सुधारक - जैन छन्यू बैठी दारू बणाण। बडू आदिम - जु बादीण नचाव। श्रद्धापात्र - बुराली, बाघ अर चुड़ाव। मार्गदर्शक - बक्या। मान सम्मान - सिरी, फट्टी, रान। दर्शन - सैद, मशाण, परी, हन्त्या। उपचार - कण्डली टैर, जागरदार मैर, लाल पिंगली सैर। खोज - बुजिना। शोध - सुपिना। उपज - भट्ट अर भंगुलो। योजना - कैकी मौ फुकलो। उद्योग - जागर, साबर, पतड़ी। जीवन - यख बटे वख तैं टिपड़ी। व्यंजन - खूंतड़ों अर बाड़ी। कारिज - ब्या, बर्शी, सप्ताह। प्रीतिभोज - बखरी अर बोतल। पंचैत - कल्यो की कंडी, भाते तौली। राष्ट्रीय पदक - अग्यल पट्टा, पिन्सन पट्टा, कुकर फट्टा। बचपन - कोठयूं मा। जवनी

शुक्रिया कहना मां

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आशीष जोशी ने अपनी वॉल पर एक हृदय विदारक कविता शेयर की है। रचनाकार के बारे में वह नहीं जानते पर अंग्रेजी में लिखी गई उस कविता ने कई बार रुला दिया। अपनी सीमित क्षमता के हिसाब से मैंने हिंदी अनुवाद किया है - हृदयेश जोशी मां घोड़े घर पहुंच गये होंगे मैंने उन्हें रवाना कर दिया था उन्होंने घर का रास्ता ढूंढ लिया ना मां लेकिन मैं खुद आ न सकी तुम अक्सर मुझे कहा करती आसिफा इतना तेज न दौड़ा कर तुम सोचती मैं हिरनी जैसी हूं मां लेकिन तब मेरे पैर जवाब दे गये फिर भी मैंने घोड़ों को घर भेज दिया था मां मां वो अजीब से दिखते थे न जानवर, न इंसान जैसे उनके पास कलेजा नहीं था मां लेकिन उनके सींग या पंख भी नहीं थे उनके पास ख़ूंनी पंजे भी तो नहीं थे मां लेकिन उन्होंने मुझे बहुत सताया मेरे आसपास फूल, पत्तियां, तितलियां जिन्हें मैं अपना दोस्त समझती थी सब चुप बैठी रही मां शायद उनके वश में कुछ नहीं था मैंने घोड़ों को घर भेज दिया पर बब्बा मुझे ढूंढते हुये आये थे मां उनसे कहना मैंने उनकी आवाज सुनी थी लेकिन मैं अर्ध मूर्छा में थी बब्बा मेरा नाम पुकार रहे थ

उत्तराखंड में आज भी जारी है ‘उमेश डोभालों’ की जंग

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सत्तर के दशक में गढ़वाल विश्वविद्यालय का मेघावी छात्र उमेश डोभाल कलम के चश्के के कारण घुमन्तू पत्रकार बन गया। पीठ पर पिठ्ठू लादे दुर्गम पहाड़ों की कोख में समाये गांवों-कस्बों की धूल छानता, भूख-प्यास से बेखबर, धार-खाल की छोटी सी दुकान, खेत, घराट, धारे और दूर डांडे से घास-लकड़ी लाते पुरुषों और महिलाओं से बतियाते हुए वह वहीं बैठे-बैठे अखबारों और पत्रिकाओं के लिए गहन-गंभीर रिपोर्ट बनाता था। एक लंबे झोले में डाक टिकट, लिफाफे, डायरी, गोंद, पेन-पेन्सिल और सफेद कागज तब उसकी बेशकीमती दौलत हुआ करती थी। वह इसी साजों-सामान को कंन्धों पर लटकाये महीनों यायावरी में रहता था। इस नाते वह चौबीसों घन्टों का पत्रकार था। पर पत्रकारिता, उसके लिए मिशन थी, व्यवसाय नहीं। उमेश डोभाल ने पहाड़ और पहाड़ी के हालातों पर बेबाक लिखा। विशेषकर पहाड़ी जनजीवन के लिए आदमखोर बने शराब माफिया के नौकरशाह और राजनेताओं से सांठगांठ के झोल उसने कई बार उतारे। जनपक्षीय पत्रकारिता के खतरों को बखूबी जानते हुए भी वह कभी डरा और डिगा नहीं। 25 मार्च, 1988 को पौड़ी में उसके अपहरण और बाद में हत्या का यही कारण था कि वह शराब माफिया और प्