बारहनाजा : पर्वतजनों के पूर्वजों की सोच की उपज


https://bolpahadi.blogspot.in/

डा0 राजेन्द्र डोभाल
उत्तराखंड एक पर्वतीय राज्य तथा अनुकूल जलवायु होने के कारण एक कृषि प्रधान राज्य भी माना जाता रहा है। सामान्यतः उत्तराखंड मे विभिन्न फसलो की सिंचित, असिंचित, पारंपरिक और व्यसायिक खेती की जाती है। चूंकि स्वयं में कई पीढ़ियों से उत्तराखंड की खेती को पारंपरिक दृष्टिकोण से देखता आया हूं, अब पारंपरिक खेती पद्धतियों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परखने की कोशिश करता हूं, कि क्या हमारी पारंपरिक खेती की पद्धतियो में वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी था या केवल समय की आवश्यकता थी।

जहां तक मैं समझता हूं कि हर कृषक की तरह खेती की मूलभूत आवश्यकता परिवार तथा पशुधन के भरण-पोषण की ही रही होगी। तत्पश्चात जलवायु अनुकूल फसलों का चयन, उत्पादन तथा कम जोत भूमि में संतुलित पोषण के लिए अधिक से अधिक फसलों का समन्वय तथा समावेश कर उत्पादन करना ही रहा होगा। निःसन्देह बारहनाजा जैसे कृषि पद्धति में फसलों का घनत्व बढ़ जाता है तथा वैज्ञानिक रूप से उचित दूरी का भी अभाव पाया जाता है, परन्तु कम जोत, असिंचित खेती की दशा सभी पोषक आहारों की पूर्ति के साथ पशुचारा तथा भूमि उर्वरता को बनाए रखना भी काश्तकारों के लिए जटिल विषय रहा होगा। इन्हीं सब को दृष्टिगत रखते हुए एक अत्यंत प्रचलित एवं महत्वपूर्ण पारम्परिक खेती पद्धति विकसित हो गई, जिसे बारहनाजा के नाम से जाना जाता है।

जैसा कि नाम से ही विदित होता है कि बारहा अनाजों की मिश्रित खेती जिसे मुख्यतः चार या पांच श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है। अनाज जैसे मंडुआ, चौलाई, उगल, ज्वान्याला तथा मक्का जो कि कार्बोहाइड्रेट, कैल्शियम, लोह तथा ऊर्जा के प्रमुख स्रोत माने जाते हैं तथा पशुचारे के लिए भी प्रयुक्त किये जाते हैं। दलहनी फसलों मे राजमा, उड़द, लोबिया, भट्ट तथा नौरंगी आदि जो कि प्रोटीन का मुख्य स्रोत मानी जाती हैं। तिलहनी फसलों मे तिल, भंगजीर, सन्न तथा भांग जो तेल व खल एवं रेशा उत्पादन के लिए प्रयुक्त होती हैं। सब्जियों में उगल, चौलाई तथा मसाले में जख्या आदि, फलों के रुप में पहाडी ककड़ी का उत्पादन किया जाता है।

जहां एक ओर पर्वतीय क्षेत्र अपनी विविधता, पृथकता और अस्थिर पारिस्थितिक तंत्र के लिए जाने जाते हैं। वहीं दूसरी ओर स्थानीय लोगों ने यहां की बदलती जलवायु, मुख्यतः अनियमित वर्षा चक्र, सीमित भूमि संसाधन, भूमि क्षरण इत्यादि को ध्यान मे रखते हुए प्रतिकूल परिस्थितियों में भी प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के साथ-साथ, अपने निजी अनुभवों के आधार पर एक विशेष कृषि प्रणाली विकसित की जो इन सभी प्राकृतिक समस्याओं से निपटने में कारगर साबित हुई है। इसका आभास स्थानीय किसानों को बहुत पहले से ही था। साथ ही फसलों की गुणवत्ता व उत्पादकता में वृद्धि, पहाड़ की भौगोलिक सरंचना, जलवायु आदि को ध्यान में रखते हुए इस प्रणाली का चयन सर्वथा उपयुक्त रहा।

यदि संपूर्ण बारहनाजा प्रणाली पर एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखा जाय तो कई वैज्ञानिक पहलू उजागर होते हैं। जैसे दलहन फसलों के अंतर्गत राजमा, लोबिया, भट्ट, गहत, नौरंगी, उड़द और मूंग के प्रवर्धन के लिए मक्का लगाया जाता है। जो बीन्स के लिए स्तम्भ या आधार की आवश्यकता को पूरा करते हैं। साथ ही दलहनी फसलों मे वातावरणीय नाईट्रोजन स्थिरीकरण का भी अदभूत गुण होता है, जो मिट्टी की उर्वरकता को बनाए रखने और नाइट्रोजन को फिर से भरने में मदद करती है। जिसे अन्य सहजीवी फसलें उपयोग करती है। जबकि फलियां प्रोटीन का समृद्ध स्रोत होती हैं। पोषण सुरक्षा प्रदान करने के अलावा कैल्शियम, लोहा, फास्फोरस और विटामिन में समृद्ध होते हैं।

सब्जियां, टेनड्रिल बेअरिंग जैसे कददू, लौकी, ककड़ी आदि भूमि पर फैलकर, सूरज की रोशनी को अवरुद्ध करके, खरपतवार जैसे अवांछित पौधे को रोकने में मदद करती है। इन टेनड्रिल वाइन्स बेलों की पत्तियां एक लिविंग मल्च के रूप में मिट्टी में नमी बनाए रखने हेतु माइक्रोक्लाइमेट का निर्माण करती है। बेल के कांटेदार रोम कीटों से सुरक्षा प्रदान करते हैं। मक्का, सेम और टेनड्रिल वाइन्स में जटिल कार्बोहाइड्रेट, आवश्यक फैटी एसिड और सभी आठ आवश्यक एमिनो एसिडस इस क्षेत्र के मूल निवासियों की आहार संबन्धी जरूरतें पूरी करने में सहायक सिद्ध होते हैं।

राईजोस्पिफयर में उपस्थित माइक्रोबियल विविधता का प्रबंधन भी एक दीर्घकालिक सस्टेनेबल फसल उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। एक ही प्रकार की फसल का सतत् फसल प्रणाली द्वारा उत्पादन, मिट्टी में मौजूद सहजीवी, सूक्ष्मजीवों की संख्या को प्रभावित कर मिटटी की उर्वरता को कम करता है तथा एकल फसल में प्रचूर मात्रा में पोषक पौधे की उपलब्धता होने के वजह से कीट व्याधि का प्रकोप सर्वथा अधिक देखा गया है।

उत्तरी चीन के एक शोध कार्य के अनुसार दस स्प्रिंग फसलों को मोनोकल्चर प्रणाली व चार अन्य फसलों को इंटरक्रॉपिंग प्रणाली द्वारा उगाया गया और इन फसलों के राईजोस्पिफयर में मौजूद जीवाणु समुदाय की विविधता का तुलनात्मक अध्ययन किया गया जिससे यह ज्ञात हुआ कि एकमात्र फसल प्रणाली के मुकाबले, इंटरक्रॉपिंग के तहत राईजोस्पिफयर मिट्टी में उपस्थित जीवाणु समुदाय की विविधता व फसल की उत्पादन क्षमता में वृद्धि के बीच संभावित संबंध हैं।

मिश्रित फसल प्रणाली मे राईजोस्पिफयर जोन में मुख्य रुप से फ्लेविसोलिबैक्टर, ल्यूटिबैक्टर, राईजोवैसिलस, क्लोरोफलैक्सी वैक्टीरियम, डेल्टा प्रोटिओबैक्टीरयम, स्यूडोमोनास तथा लाइवेनोन्सिस की अधिकता पाई गई है। साथ ही यह भी पाया गया कि ओगल, बाजरा, मिलेट, ज्वार, सोरघम व मूंगफली फसलों का इंटरक्रॉपिंग विधि द्वारा उत्पादन इन्हीं फसलों के मोनोकल्चर उत्पादन की तुलना में माइक्रोबियल समुदाय की विविधता में वृद्धि करने में अधिक प्रभावशाली साबित होता है।

चूंकि बारहनाजा बुआई तथा पकने की अवधि में मानसून भी तेज होता है तथा ढालदार खेत होने के वजह से भूमि अपरदन की आशंका बनी रहती है। जिसके लिए सम्भवतः किसानों द्वारा बारहनाजा में कुछ अधिक ऊंचाई तथा चौड़ी पत्ती वाली फसलों का चयन किया गया। जिससे तेज वर्षा सीधे जमीन पर न गिरकर चौड़ी पत्ती वाले पौधे से टकराकर छोटी-छोटी बूंदो में बदलकर नमी बनाये रखे। दलहनी फसलों की पत्तियां जमीन पर गिरकर आगामी फसलों के लिए कार्बनिक पदार्थ भी बढ़ाती है। संपूर्ण बारहनाजा पद्धति मे फसलों का चयन में भी वैज्ञानिक परख झलकती है। जिसमे कुछ कम गहरी जड़ वाली फसलों के साथ अधिक गहरी जड़ वाली फसलों का भी समावेश दिखता है। जिससे जमीन से पोषक तत्व अलग-अलग सतहों से लिए जा सकें।

एक विविध बहुउद्देशीय प्रणाली के रूप में जैसे अनाज उत्पादकता, पशुओं के लिए चारा, मिट्टी के पोषक तत्वों में वृद्धि आदि के अतिरिक्त भी इस प्रणाली की एक और दिलचस्प बात यह थी, कि मुख्य फसलों जैसे गेहूं, धान, मंडुआ, बाजरा आदि के बीज ही उपयोग में लाये जाते हैं। जबकि कटाई के उपरांत खेत में बची हुई पत्तियां व डंठल मुक्त पशुओं के लिए चारे के रूप में छोड़ दिए जाते हैं। इस प्रक्रिया में पशुओं द्वारा छोड़े गए गोबर, डंठल व मिटटी में मौजूद सहजीवी सूक्ष्मजीवों के साथ साथ मौसमी विभिन्नता जैसे बर्फ, बारिश और धूप के मिले जुले प्रभाव, इन खेतों की उर्वरता बढ़ाने में अवश्य ही फुकुओका फार्मिंग (नेचुरल फार्मिंग और डू नथिंग फार्मिग) की तरह कार्य करते हैं। सीमित भूमि पर मूल भोजन की अलग-अलग फसलें, जिनमें रबी की फसलें, दलहन, मसाले, तिलहन एवं शाक सब्जियां को एक ही खेत में उगाये जाने के संदर्भ में भी, बारहनाजा प्रणाली की अवधारणा वैज्ञानिक और टिकाऊ है।

चूंकि उत्तराखंड की खेती का अधिकतम भूभाग असिंचित है, जोत भूमि कम है एवं मानसून के दौरान उगने वाली फसलों पर दबाव बढ़ना स्वाभाविक था। निसंदेह रुप से हमारे पूर्वज बारहनाजा जैसी पद्धति का वैज्ञानिक व्याख्या कर पाने मे सक्षम न रहे हों, परन्तु उनके द्वारा जलवायु अनुकूल फसलों का चयन, सहवर्ति फसलों का ज्ञान, कम जोत में सभी पोषक आहारों की पूर्ति के साथ-साथ भविष्य के लिए भूमि की उर्वरकता को बनाये रखना आदि जरुर वैज्ञानिक दृष्टिकोण को ही दर्शाता है।

https://bolpahadi.blogspot.in/









(लेखक- महानिदेशक, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद, उत्तराखंड)



Popular posts from this blog

गढ़वाल में क्या है ब्राह्मण जातियों का इतिहास- (भाग 1)

गढ़वाल की राजपूत जातियों का इतिहास (भाग-1)

गढ़वाली भाषा की वृहद शब्द संपदा