मजबूत इच्छाशक्ति से मिला ‘महेशानन्द को मुकाम

डॉ. अरुण कुकसाल //

‘गांव में डड्वार मांगने गई मेरी मां जब घर वापस आई तो उसकी आखें आसूओं से ड़बडबाई हुई और हाथ खाली थे। मैं समझ गया कि आज भी निपट ’मरसा का झोल’ ही सपोड़ना पड़ेगा।...

गांव में शिल्पकार-सर्वण सभी गरीब थे इसलिए गरीबी नहीं सामाजिक भेदभाव मेरे मन-मस्तिष्क को परेशान करते थे।... मैं समझ चुका था कि अच्छी पढ़ाई हासिल करके ही इस सामाजिक अपमान को सम्मान में बदला जा सकता है। पर उस काल में भरपेट भोजन नसीब नहीं था तब अच्छी पढ़ाई की मैं कल्पना ही कर सकता था। पर मैंने अपना मन दृड किया और संकल्प लिया कि नियमित पढ़ाई न सही टुकड़े-टुकड़े में उच्च शिक्षा हासिल करूंगा। मुझे खुशी है कि यह मैं कर पाया।

आज मैं शिक्षक के रूप में समाज के सबसे सम्मानित पेशे में हूं।... पर जीवन में भोगा गया सच कहां पीछा छोड़ता है। अतीत में मिली सामाजिक ठ्साक वर्तमान में भी उतनी ही चुभती है। तब मेरा लेखन उसमें मरहम लगाता है। पाठकों के लिए वे कहानियां हैं परन्तु मेरे लिए अतीत के छाया चित्र हैं।’

हाल ही में अजीम़ प्रेमजी, पौड़ी की लाइब्रेरी में मित्र महेशानन्द जी मेरी तरफ मुखातिब थे। मजे की बात यह रही कि सामाजिक विभेद पर हुई लम्बी बातचीत में दोनों अंदर से असहज होते हुए भी चेहरों पर मुस्कराहट बनाये हुए थे।

अध्यापक एवं साहित्यकार महेशानन्द का जन्म 15 नवम्बर, 1967 को किवर्स गांव, पैडुलस्यूं पट्टी, पौड़ी गढ़वाल में हुआ। महेशानन्द की माता सतरी देवी और पिता सन्तू लाल मिस्त्री का तीन बच्चों वाला एक आम पहाड़ी शिल्पकार परिवार था। पुस्तैनी लोहारगिरी और मिस्त्री के काम में उनके पिता की पूरे इलाके में ख्याति थी। इसके बावजूद भी रोज की कड़ी मेहनत-मजदूरी के बाद ही घर-गृहस्थी की गाड़ी किसी तरह चलती थी।
ये बात जरूर है कि उस दौर के सामाजिक जीवन में अभाव तो थे परन्तु कुंठाओं ने आम आदमी के मन-मस्तिष्क में पनाह नहीं ली थी। कभी कई दिनों तक काम का जुगाड़ नहीं बन पाया तो उनके परिवार को फाका-मस्ती में भी रहना होता था। गरीब परिवार के लिए यह जीवन का सामान्य हिस्सा भर था इससे समाज में किसी तरह की असामान्यता का बोध नहीं होता था।

अपने गांव किवर्स से 1976 में 5वीं, दोमटखाल से 1981 में 8वीं, पौड़ी से 1985 में हाईस्कूल, 1987 में इंटर, 1994 में बी.ए. एवं 2010 में हिन्दी विषय में एम.ए. एवं श्रीनगर से 1997 में बी.एड. तथा 1999 में डायट, पौड़ी से विशिष्ट बीटीसी की शिक्षा प्राप्त करने में महेशानन्द जी का साथ अभावों और सामाजिक विसंगतियों ने कभी नहीं छोड़ा। परन्तु अपने नाम के अनुरूप भगवान ‘महेश’ की तरह अभावों एवं अपमानों के घूंट उनकी पढ़ने और बेहतर जीवन जीने की ललक को कम नहीं कर पाये।

हां, अतीत में भोगे गए यर्थाथ के निशां आज भी उनके व्यक्तित्व में गहरी जड़ों के साथ पैठ बनाये हुए हैं। तभी तो जीवन के किन्हीं लम्हों में वे याद आते ही साहित्यिक लेखन की विविध विधाओं के पात्रों का रूप अपने आप ही ले लेते हैं।

पौड़ी-अदवानी सड़क मार्ग पर टेका स्थल के पास ही किवर्स गांव है। किवर्स आज भी खेती से सम्पन्न और लोगों से भरा-पूरा गांव है। समृद्ध खेती और पौड़ी नगर से नजदीकी का सुखद परिणाम यह रहा कि यहां के ग्रामीणों ने गांव से पलायन कम किया है। बांज-चीड़ से घिरा पहाडी ढलान पर बसा किवर्स गांव महेशानन्द जी के जीवनीय संघर्षों की दास्तां को अपने में छुपाये हुए है। बचपन से ही उनके लिए गरीबी और जातीय विभेद से पार पाना आसान नहीं था। जहां स्कूल में प्यास लगने पर पानी पीने के लिए सर्वण मित्रों से गुहार करनी पड़ती हो, शिक्षक जातीय भेदभाव की मानसिकता से ग्रसित हो फिर घर आकर रोज देर रात जीविका के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती हो वहां पढ़ाई कहां मायने रखती होगी।

परन्तु महेशानन्द ने इस मिथक को तोड़ा। महेशानन्द बेहतर जीवन के लिए पढाई और जीविका हेतु मेहनत-मजदूरी को साथ-साथ रखते हुए इंटर पास हुए तो आगे पढ़ने की कोई गुंजाइश नहीं दिखी। तब अन्य पहाड़ी युवाओं की तरह रोजगार के लिए उनके पास ‘चलो दिल्ली’ की परम्परा को स्वीकारने के अलावा कोई चारा नहीं था। उन्हें दिल्ली के होटल लाइन में काम और पनाह दोनों मिली। सन् 1992 में शादी हो गई तो लगा गांव के आस-पास रहकर रोजगार करना ठीक रहेगा।

खेती, मजदूरी, बढ़ईगिरी और हल लगाने का ठेका जो भी रोजगार मिला उसे अपनाया। खुशकिस्मती यह रही कि आगे पढ़ने की इच्छा कम नहीं हुई थी। प्राईवेट बी.ए. करने के लिए प्रयास जारी थे। दिन-भर की हाड़-तोड़ मेहनत के बाद पूरी रात ढ़ेपुर (कमरे और छत के बीच ढाईफुट की जगह) में लैम्पू जलाकर पढ़ना होता था। अगली सुबह पढ़ाई छोड पेट के लिए जूझना मजबूरी थी। एक किताब भी साथ रहती ताकि पढ़ने का कोई मौका खाली न जा पाये।

बी.ए. पास कर लिया तब भी बेहतर रोजगार कहीं नजर नहीं आया। मजबूरन, पुस्तैनी काम-धंधा ही आय का साधन रहा। बी.एड. में चयन हुआ तो आर्थिक तंगी सामने दरवाजा रोके खड़ी थी। मददगारों ने हौसला दिया तो बी.एड. के बाद विशिष्ट बीटीसी की उपाधि भी प्राप्त कर ली। उसी के बदौलत 1999 में प्राथमिक विद्यालय कनोठाखाल, पोखड़ा में शिक्षक के पद पर नियुक्ति हो गई। वर्तमान में रा. पूर्व मा. विद्यालय, बाड़ा, पौड़ी (गढ़वाल) में वरिष्ठ अघ्यापक हैं।

महेशानन्द बचपन में पूरे गांव-इलाके में ‘बढ़िया चिट्ठी लिख्वार’ के नाम से लोकप्रिय थे। इसका फायदा यह हुआ कि गढ़वाली के लोक-शब्द, शब्द-विन्यास, शैली और प्रवाह उन अनपढ़ परन्तु पहाड़ी जीवन की पढ़ाई में निपुण महिलाओं से स्वतः ही मिल गए जो उनसे चिट्ठी लिखवाती थी। चिट्ठी लिखवाने वाली महिला अपने दुखः-दर्द बोलती हुई सुबकती रहती तो लिख्वार महेशानन्द के आंखों में भी आंसू होते थे।

ताज्जुब तब और होता जब वो परदेशी भाई या चाचा घर वापस आकर महेशानन्द से कहता कि भुला/बेटा तूने क्या चिट्ठी लिखी मेरे तो पढ़ते हुए आसूं आ गए थे। इसी चिट्ठी लिख्वार का एक पत्र सन् 1988 में दैनिक जागरण के ‘पाठकों के पत्र कालम’ में छपा। उसके कुछ दिनों बाद एक कविता भी प्रकाशित हुई तो लेखन की स्वाभाविक प्रतिभा ने अपनी राह पकड़ ली। उसके बाद पौड़ी से प्रकाशित गढ़वाली पत्र ‘खबरसार’ ने महेशानन्द को लिखने का प्लेटफार्म प्रदान किया।

महेशानन्द मूलतः कथाकार हैं। गढ़वाली भाषा के सिद्धहस्त साहित्यकार। ‘औगार’, ‘डड्वार’, ‘उलार’ और ‘पराज’ उनके प्रकाशित गढ़वाली कहानी संग्रह हैं। इसके अलावा एक 41 लघु गढ़वाली कहानियों का संग्रह ‘लकार’ भी प्रकाशित हुआ है। महेशानन्द की कहानियां पहाड़ी जन-जीवन की कथा-व्यथा से पल्लवित हुई हैं। पहाड़ के भूगोल की तरह उनके कथानकों में उतार-चढ़ाव और घुमाव हर वक्त सजीव रहता है।

उनकी कहानियां भले ही बोलती कम हों पर लोक शब्दों की ‘चटाक’ की गर्माहट उसमें हर समय मौजूद रहती है। वो अतीत के मोह और भविष्य की चिंता से ज्यादा वास्ता न रखते हुए वर्तमान का हिसाब-किताब करती हुई लगती हैं। अतीत और भविष्य के मुकाबले वर्तमान पर बात करना एवं लिखना ज्यादा चुनौतीपूर्ण और असज होता है। यह चुनौती कहानीकार महेशानन्द ने सहर्ष स्वीकारी है।

यह मानना पड़ेगा कि उसमें वह खरे साबित हुए हैं। लुप्तप्रायः हो गए गढ़वाली शब्दों, लोकोक्तियों और उच्चारणों को बेहद संजीदगी और सहजता से उन्होने अपनी कहानियों में उकेरा है। आज हमारे परिवारों में गढ़वाली भाषा का ठिंया किंचित मात्र भी नहीं रह गया है। ऐसे में महेशानन्द जी की कहानियों के पात्र ठेठ गढ़वाली में मजे से संवाद करते नजर आते हैं। वे हिन्दीनुमा गढ़वाली नहीं वरन असल गढ़वाली भाषा में अपने चरित्र को जीवंत किए हुए हैं।

महेशानन्द जी ने कहानियों से हटकर 17 गढ़वाली निबंधों का संग्रह ‘स्वीलू घाम’ पुस्तक का प्रकाशन किया है। साहित्यकार विमल नेगी के साथ गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की विश्व प्रसिद्ध कृति ‘गीतांजलि’ का गढ़वाली अनुवाद महेशानन्द की नवीनतम प्रकाशित रचना है। इसी वर्ष 2019 में सार्वजनिक हुई इस पुस्तक की चर्चा वृहद पाठक वर्ग में तेजी से हो रही है। वे आजकल ‘गढ़वाली-हिन्दी शब्दकोश’ एवं पहाड़ी महिला के जीवन-संघर्ष पर केन्द्रित ‘छिमला’ उपन्यास पर लेखन कार्य कर रहे है। ‘तैलु घाम’ काव्य संग्रह प्रकाशन में है जिसका 26 दिसम्बर, 2019 को लोकापर्ण होना है।

महत्वपूर्ण है कि अपने पिता के 26 दिसम्बर, 2013 को स्वर्गवास होने के बाद उनकी स्मृति में महेशानन्द प्रत्येक 26 दिसम्बर को अपनी एक नवीन साहित्यिक ति को लोकार्पित करते हैं। इसी के तहत उनके द्वारा वर्ष 2014 में ‘औगार’ (गढ़वाली कहानी संग्रह), वर्ष 2015 में डड्वार (गढ़वाली कहानी संग्रह), वर्ष 2016 में ‘उलार’ (गढ़वाली कहानी संग्रह), वर्ष 2017 में ‘पराज’ (गढ़वाली कहानी संग्रह) और वर्ष 2018 में ‘लकार’ (गढ़वाली लघु कहानी संग्रह) को लोकार्पित किया गया था।

अध्यापन और लेखन के अलावा महेशानन्द जी पेड़-पौंधों की देख-भाल में बेहद अभिरुचि रखते हैं। अपने गांव और स्कूल में तैयार नर्सरी पर्यावरण के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को प्रमाणित करती हैं। एक योग्य, नवाचारी, कुशल एवं मार्गदर्शी शिक्षक की प्रसिद्धि उनको मिली है। अनेकों पुरस्कारों के साथ प्रतिष्ठित ’कर्मवीर जयानंद भारतीय सम्मान-2018’ एवं ‘शैलेश मटियानी राज्य शैक्षिक पुरस्कार-2014’ से वे सम्मानित हैं।

आज के गढ़वाली साहित्यकारों की भीड़ में महेशानन्द वाकई ‘महेश’ हैं। वैसे मंडाण में तो हर कोई यही सोचता है कि मैं ही बेहतर कलाकार हूं। अच्छा रहेगा कि गढ़वाली के युवा लिख्वार महेशानन्द जी के साहित्य का अध्ययन करें ताकि वे हिन्दीनुमा गढ़वाली लिखने से अपने को उभार सकने में सक्षम हो सकें। साथ ही पहाड़ी समाज की अंतर आत्मा को वो समझ सकें।

डॉ. अरुण कुकसाल

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