जगमोहन 'आज़ाद'//
खुद के दुखों का पिटारा ले
खुशीयां समेटने गए थे वो सब
जो अब नहीं है...साथ हमारे,बाबा केदार के दरबार में
हाथ उठे थे...सर झुके थे
दुआ मांगने के लिए...बहुत कुछ पाने के लिए
अपनो के लिए-मगर पता नहीं...बाबा ने क्यों बंद कर ली-आंखे
हो गए मौन-मां मंदाकिनी भी गयी रूठ ...और...फिर..
सूनी हो गयी कई मांओं की गोद
बिछुड़ गया बूढे मां-पिता का सहारा
उझड़ गयी मांग सुहानगों की
छिन गया निवाला कई के मुंह से
ढोल-दमाऊ-डोंर-थाली
लोक गीत की गुनगुनाहट
हो गयी मौन....हमेशा-हमेशा के लिए,कुछ नम् आँखे
जो बची रह गयी....खंड-खंड हो चुके
गांव में...वो खोज रही है...उन्हें
जो कल तक खेलते-कुदते थे
गोद में,खेत-खलिहान में इनके,असंख्य लाशों के ऊपर...चिखते-बिलखते हुए
बाबा केदार के दरबार में...।
किसको समेट
किस-किस को गले लगा कर
समेटे आंसू...इनके अंजूरी में अपने
किसी मां की गोद में लेटाएं
उनकी नहीं गुहार
किस पिता को सौंपे...उसका उजास कल
किन बूढी नम् आखों को दे
सहारा दूर तक चलते रहने का
कितने गांव बसाएं...कितने घरों को जोड़े
तिनका-तिनका जोड़
जो जमीजोद हो गए...बाबा केदार के दरबार में...।
मुश्किल बहुत मुश्किल है
इन आसूओं को समेटना
अंजूरी में अपनी
मुश्किल तो यह भी बहुत है
कि कैसे उन बूढ़ी नम् आंखों के सामने
लेटा दें उस इकलौती लाश को
जो इनसे कल ही तो आशीर्वाद ले
गयी थी...दो जून की रोटी कमाने
बाबा केदार के दरबार में...।
कैसे बताएं
उन आश भरी टकटकी लगायी उन निगाहों को
कि...जिनकी रहा वो देख रही है
वो अब कभी नहीं आयेगें लौटकर
बहों में उनकी...उन्हें नहीं बचा पाये
मंदाकिनी के तीव्र बेग के सामने
बाबा केदारा की दरबार में...।
...मगर उनके बिछूड़ो-
उनके आंखों के तारों की लाशों पर
खड़े होकर...कुछ सफेद पोश धारी
चीख रहे है...चिल्ला रहे है...सांत्वना दे रहे है...बूढी नम् आंखों,उजड़ी मांगों को
कि हमने...अपनी पूरी ताकता झोंक कर
हवाई दौरो के दमखम पर
मुआवजे के मरहम पर
तुम्हारे असंख्या रिश्तों को-असंख्य आंसूओं को बचा लिया है
ज़मी पर गिरने से...जिनमें-कुछ गुजराती है...कुछ हिन्दु कुछ मुस्लमान
कुछ सीख-ईसाई के भी...हमने समेट लिया इन सबके दुःखों को
खुद में....हमेशा के लिए
बाबा केदार के दरबार में...।
जगमोहन 'आज़ाद'
खुद के दुखों का पिटारा ले
खुशीयां समेटने गए थे वो सब
जो अब नहीं है...साथ हमारे,बाबा केदार के दरबार में
हाथ उठे थे...सर झुके थे
दुआ मांगने के लिए...बहुत कुछ पाने के लिए
अपनो के लिए-मगर पता नहीं...बाबा ने क्यों बंद कर ली-आंखे
हो गए मौन-मां मंदाकिनी भी गयी रूठ ...और...फिर..
सूनी हो गयी कई मांओं की गोद
बिछुड़ गया बूढे मां-पिता का सहारा
उझड़ गयी मांग सुहानगों की
छिन गया निवाला कई के मुंह से
ढोल-दमाऊ-डोंर-थाली
लोक गीत की गुनगुनाहट
हो गयी मौन....हमेशा-हमेशा के लिए,कुछ नम् आँखे
जो बची रह गयी....खंड-खंड हो चुके
गांव में...वो खोज रही है...उन्हें
जो कल तक खेलते-कुदते थे
गोद में,खेत-खलिहान में इनके,असंख्य लाशों के ऊपर...चिखते-बिलखते हुए
बाबा केदार के दरबार में...।
किसको समेट
किस-किस को गले लगा कर
समेटे आंसू...इनके अंजूरी में अपने
किसी मां की गोद में लेटाएं
उनकी नहीं गुहार
किस पिता को सौंपे...उसका उजास कल
किन बूढी नम् आखों को दे
सहारा दूर तक चलते रहने का
कितने गांव बसाएं...कितने घरों को जोड़े
तिनका-तिनका जोड़
जो जमीजोद हो गए...बाबा केदार के दरबार में...।
मुश्किल बहुत मुश्किल है
इन आसूओं को समेटना
अंजूरी में अपनी
मुश्किल तो यह भी बहुत है
कि कैसे उन बूढ़ी नम् आंखों के सामने
लेटा दें उस इकलौती लाश को
जो इनसे कल ही तो आशीर्वाद ले
गयी थी...दो जून की रोटी कमाने
बाबा केदार के दरबार में...।
कैसे बताएं
उन आश भरी टकटकी लगायी उन निगाहों को
कि...जिनकी रहा वो देख रही है
वो अब कभी नहीं आयेगें लौटकर
बहों में उनकी...उन्हें नहीं बचा पाये
मंदाकिनी के तीव्र बेग के सामने
बाबा केदारा की दरबार में...।
...मगर उनके बिछूड़ो-
उनके आंखों के तारों की लाशों पर
खड़े होकर...कुछ सफेद पोश धारी
चीख रहे है...चिल्ला रहे है...सांत्वना दे रहे है...बूढी नम् आंखों,उजड़ी मांगों को
कि हमने...अपनी पूरी ताकता झोंक कर
हवाई दौरो के दमखम पर
मुआवजे के मरहम पर
तुम्हारे असंख्या रिश्तों को-असंख्य आंसूओं को बचा लिया है
ज़मी पर गिरने से...जिनमें-कुछ गुजराती है...कुछ हिन्दु कुछ मुस्लमान
कुछ सीख-ईसाई के भी...हमने समेट लिया इन सबके दुःखों को
खुद में....हमेशा के लिए
बाबा केदार के दरबार में...।
जगमोहन 'आज़ाद'