राजशाही को हम आज भी ढो रहे

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डॉ. अरुण कुकसाल/- 
’हे चक्रधर, मुझे मत मार, घर पर मेरी इकत्या भैंस है जो मुझे ही दुहने देती है। हे चक्रधर, मुझे मत मार, घर पर मेरे बूढ़े पिता हैं। तू कितना निर्दयी है चक्रधर जो हमारी प्रार्थना को भी अनुसुना कर रहा है। चक्रधर, तेरी गोली से कोई सामने मर कर गिर रहा है तो बहुत से जान बचाने के लिए युमुना नदी में कूद रहे हैं।’ तिलाड़ी विद्रोह पर आधारित लोकगीत का भावानुवाद।

तिलाड़ी विद्रोह (30 मई,1930) की 89वीं पुण्यतिथि पर यमुना के उन 100 से अधिक बागी बेटों को नमन और सलाम जिन्होंने अपने समाज के प्राकृतिक हक-हकूकों के लिए टिहरी राजशाही के सामने झुकने के बजाय जान देना बेहतर समझा और आज उन्हीं वीरों के हम वशंज तथाकथित जनतंत्र की खाल ओढ़े पहाड़ के जंगलों को मात्र तमाशाबीन बन धूं-धूं कर जलते हुए देखने को विवश हैं।

’तिलाड़ी विद्रोह’ को याद करते हुए रवांई के ‘सरबड़ियाड़’ क्षेत्र की यात्रा 
(13-16 जुलाई 2016) का एक भाग ...

वो रहा तिलाड़ीसेरा रवांई ढंडक का चश्मदीद गवाह
13 जुलाई, 2016 
.......देर शाम रात्रि विश्राम के लिए बड़कोट से गंगनानी (5 किमी.) की ओर चलना हुआ। ‘पलायन एक चिंतन’ अभियान के सक्रिय सदस्य विजयपाल रावत भी अब हमारे साथ हैं। विजय बातों-बातों में बताते हैं कि रवांई में एक कहावत है ‘दुनिया सरनौल तक है उसके बाद बड़ियाड है।’ मतलब यह कि सरनौल गांव के बाद ऐसा लगता है कि हम किसी नयी और अनोखी दुनिया में जा रहे हैं।

विजय सरनौल तक पहले गए हुए हैं, पर पैदल। अब तो सरनौल तक गाडी जाती है। आज के रात्रि ठिकाने पर पहुंचे तो नजर आया ’वन विश्राम गृह, गंगनानी, कुथनौर रेंज’। आपने स्वः विद्यासागर नौटियाल जी का उपन्यास ‘यमुना के बागी बेटे’ पढ़ा है? विजय उत्सुकता से प्रदीप से पूछतें हैं। नहीं, पर अब पढ़ना चाहता हूं, प्रदीप ने कहा। मुझे याद आया, अरे हां, यही तो वो डाकबंगला है, जहां पर टिहरी राजशाही के तत्कालीन दीवान चक्रधर जुयाल ने अन्य राजकर्मियों के साथ मिलकर तिलाडी विद्रोह (30 मई 1930) की साज़िश रची थी।

‘यमुना के बागी बेटे’ उपन्यास में इस डाकबंगले का प्रमुखता से जिक्र है। टिहरी रियासत के इतिहास का वो काला पन्ना याद करते ही सिरहन महसूस होती है। इस 100 साल पुराने डाकबंगले को नया स्वरूप दिया गया है। पर बंगले की आत्मा तो वही होगी, मैंने सोचा। रात इस बंगले में सोने का रोमांच अब और बढ़ गया है। रवांई के लोगों के उस विद्रोह पर बात चल ही रही थी कि खबर आयी कि सरबडियाड़ क्षेत्र के 12 ग्रामीणों को पेड़ों को काटने के जुर्म में आज ही गिरफ्तार किया गया है। माजरा क्या है ? यह समझने में कुछ देर लगी।

उसके बाद तो हर किसी के मोबाइल घनघनाने लगे। बात यह सामने आयी कि बड़ियाड़ क्षेत्र के लिए गंगटाडी पुल से सर बड़ियाड गांव़ को वर्ष 2008 में स्वीकृत 12 किमी. की सड़क के अब तक भी न बनने के विरोध स्वरूप किन्हीं ग्रामीणों ने प्रस्तावित सड़क के आर-पार के सैकडों पेड़ धराशायी कर दिए थे। पता लगा कि बड़ियाड़ क्षेत्र की ओर जाने वाली यह पहली सड़क होगी। 8 साल से सड़क आने की उत्सुकता और धैर्य जब जबाब दे गया तो ग्रामीणों का आक्रोश इस रूप में सामने आया।

पेड़ काटने की जानकारी वन विभाग के अधिकारियों के संज्ञान में आने पर आज ग्रामीणों पर कार्रवाई हुई है। प्रदीप टम्टा (सांसद, राज्यसभा) उच्च अधिकारियों से बात करके यह समझाते हैं कि ग्रामीणों की मंशा कोई गलत नहीं थी। स्वीकृत सडक का 8 साल तक न बनना उनके प्रति एक अन्याय ही है। आखिरकार, देर रात पकडे गये 12 ग्रामीणों को छोडने में सहमति बन ही जाती है।
रात को सोने से पहले की गप-शप को विराम देते हुए विजयपाल रावत ’तिलाड़ी कांड’ में दीवान चक्रधर जुयाल की क्रूरूरता पर बने लोकगीत को पूरी लय-ताल से सुना रहे हैं-

’ऐसी गढ़ी पैंसी, मु ना मा्रया चक्रधर मेरी एकत्या भैंसी,
तिमला को लाबू, मु ना मा्रया चक्रधर मेरा बुड्या बाबू,
भंग कू घोट, कन कटु चक्रधर रैफलु को चोट,
लुआगढ़ी टूटी, कुई मरगाई चक्रधर कुई गंगा पड़ौ छुटी....

’मतलब तो बता भाई, इस गीत का’ मैंने कहा। मतलब ये है भाई सहाब लोगों कि ’ढंडकी (राजशाही के विरुद्ध आन्दोलनकारी) गोलीबारी के दौरान कह रहे हैं कि ’हे चक्रधर मुझे मत मार घर पर मेरी इकत्या भैंस है जो मुझे ही दुहने देती है। हे चक्रधर, मुझे मत मार मेरे पिता बहुत बूढ़े हैं। तू कितना निर्दयी है चक्रधर, जो हमारी प्रार्थना को भी अनसुना कर रहा है। चक्रधर, तेरी गोली से कोई सामने मर कर गिर रहा है, तो बहुत से जान बचाने के लिए यमुना नदी में कूद रहे हैं।’

अब बसकर विजय भाई, कहीं रात को सपने में हमें भी न कहना पड़े कि ’चक्रधर, मुझे मत मार, सोने दे यार’। और वाकई, रवांई ढंडक के इस कुख्यात बंगले में रात को अजीबो-गरीब सपने आते रहे। सुबह बंगले के चौकीदार ने कहा ’हां साब, ऐसा यहां रात रुकने वाले सभी साब बोलते हैं।’

14 जुलाई, 2016
.....बड़कोट के पास ही यमुना पर बने पुल को पार करके तीखी चढ़ाई की एक धार पर पंहुचते ही विजय ने कहा ‘वो रहा तिलाड़ीसेरा रंवाई ढंडक का चश्मदीद गवाह’। (30 मई, 1930 को तिलाड़ीसेरा में तिल रखने की भी जगह नहीं थी। 10 दिन पहले 20 मई 1930 को राड़ी डांडा में हुए गोलीकांड का गुस्सा सारे रंवाई के लोगों में था।
लिहाजा सैकड़ों की संख्या में रंवाई के रवांल्टा टिहरी राजशाही के खिलाफ निर्णायक जंग लड़ने को उस दिन तिलाड़ीसेरा में जमा हुए थे। पर वे कुछ कर पाते उससे पहले ही राजा के करिन्दों ने एकत्रित भीड़ पर गोलियां चला दी, जिससे 100 से ज्यादा लोग मारे गये थे। बहुत से आंदोलनकारियों ने जान बचाने के लिए पास बहती यमुना नदी छलांग लगा दी, पर गदगदाई यमुना के तेज प्रवाह में वे न जाने कहां समा गये।

बताते हैं कि बाद में राजशाही के कारिदों ने यहां-वहां बिखरे शहीद ग्रामीणों को स्वयं ही नदी में प्रवाहित कर दिया था। ताकि गोलीकांड के सबूत मिटा कर घटना की भयावहता को कम दिखाया जा सके। परन्तु टिहरी राजशाही का क्रुर सच छुप नहीं पाया। बाद में इस घटना को उत्तराखण्ड का ‘जलियांवाला कांण्ड’ कहा जाने लगा।)

भाई लोगों, जहां हम खडे़ हैं, यहीं इसी धार से राजा के सैनिकों ने 30 मई, 1930 को ढंडकियों पर कई राउण्ड गोलियां चली थी। धांय-धांय, धांय-धांय। कुछ गिरे, कुछ इधर-उधर भागे, तो कुछ ने यमुना नदी में छलांग लगाई जान बचाने को पर बदकिस्मत जान गवां बैठे। यमुना के उन बागी बेटों को सलामी देते तिलाड़ी सेरा की ओर मुखातिब विजय हमें उस घटना के बारे भी और भी बताते जा रहें हैं। इसी धार के पास बडकोट महाविद्यालय का नवनिर्मित परिसर लगभग तैयार होने को है।

विजय बड़कोट महाविद्यालय छात्रसंघ के वर्ष 2004-05 में अध्यक्ष रहें हैं और बढ़िया बात यह है कि उन्हीं के कार्यकाल में यह परिसर स्वीकृत हुआ था। प्रदीप कहते हैं, बधाई ! विजय, यह कालेज तो तुम्हारा विजय पथ है।..........

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डॉ. अरुण कुकसाल