निःसंग जी के बहाने वर्तमान संदर्भ पर दो शब्द

bol pahadi
नरेन्द्र कठैत //
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श्री शिवराज सिंह रावत निःसंग जी पर अभिनन्दन ग्रंथ और वर्तमान सन्दर्भ में दो शब्द!
          पाश्चात्य कलमकारों ने इस देवभूमि से जो कुछ समेटा उसका आंकलन करने के लिए किसी कलमकार की लिखी यह पंक्ति  ‘धनुष भी उनके, बाण भी उनके, अपनी केवल आंख’ ही पर्याप्त है। कौन नहीं जानता एटकिन्सन हो या ग्रियसन, दोनों ने वर्णित सामग्री अपनी तात्कालीन आंख अर्थात अपने मातहतों के माध्यम से ही जुटाई। किन्तु क्या कारण है कि आज भी हम भूत-पिचास-अयेड, बांज-बुरांस, घास-पात को पहचानने के लिए इ.टी. एटकिन्सन और अपनी भाषा की व्यवहारिकता जानने के लिए ग्रियसन का मुंह ताकते हैं।

जबकि एटकिन्सन महोदय ने जो भौगोलिक, सांस्कृतिक जानकारी दी है उनसे ज्यादा प्रमाणिक विवेचन महीधर शर्मा बड़थ्वाल जी ने अपनी पुस्तक ‘गढ़वाल में कौन’ में किया है। महीधर शर्मा बड़थ्वाल, जिनके पास अपनी आंख के सिवाय दूसरी कोई आंख थी ही नहीं। एक स्थान पर महीधर शर्मा जी ने लिखा भी है कि ‘विभिन्न परिस्थितियों और कौटुम्बिक क्लेशों के कारण मेरे इस कार्य में बाधा होती रही; बल्कि मुद्रण के समय पुस्तक के पू्रफ भी मैंने अस्वस्थ स्थिति में ही पढ़े।’ इसी पुस्तक पर उन्हें न्यायालयी प्रक्रिया से भी गुजरना पड़ा। एक अकेला, सब कुछ झेला। आज कितने विर्मर्शोंं में महीधर शर्मा बड़थ्वाल जी पर चर्चा होती है? प्रश्न विचारणीय है!

ग्रियसन महोदय का ही संदर्भ लें तो ग्रियसन महोदय ने जितना श्रम और कल्पना, हमारी भाषाओं को विभक्त करने में व्यय किया, उतना यदि देवभूमि की भाषाओं के विकास में लगाते तो आज उत्तराखण्डी भाषाओं का स्वरूप ही कुछ और होता। किन्तु यह विडम्बना ही है कि ग्रियसन की ओर ताकती हमारी वे आंखे आज भी दृष्टिभ्रम की स्थिति में हैं। कई बार तो हम ग्रियसन की विभक्तिकरण की कल्पना से इतना आगे निकल जाते हैं कि हमें यह भी ध्यान नहीं रहता कि इतने टुकड़ों में विभक्त कर हम अपनी मातृभाषा के किस स्वरूप को आठवीं सूची तक पहुंचाना चाहते हैं?

आश्चर्य है! खेत की बात करते हैं। लेकिन खेत की चिंता नहीं! चिंता है तो उपज को ही नकार जाते हैं! उपज को सिरे से नकारने की बात कितनी अव्यवहारिक है सोचा ही नहीं! यह स्वभावगत जटिलता है या खीज? इसको बेध्यानी में घटी घटना भी कैसे मान लें? मालूम नहीं, कौन से रास्ते को पकड़कर इस खेत तक पहुंचे हैं लेकिन जिस खेत में भव्य इमारत खड़ी की जानी है उसके लिए इतना तंग गलियारा? क्या भाषा को आठवीं अनुसूची तक पहुंचने का यही मार्ग है? ऐसे निठल्ले चिन्तन का क्या लाभ जिसमें स्वयं ही झुलस जाने का अंदेशा है।

किन्तु निठल्ले चिन्तन से दूर हमारे बीच कुछ ऐसी प्रखर मेघा के चिन्तन शील व्यक्ति भी हैं जो अपनी लेखनी के बल पर बरबस ध्यान आकृष्ठ करते हैं। इन्ही चेतना शील व्यक्तियों के मध्य प्रखर मेघा के धनी आदरणीय श्रीयुत शिवराज सिंह रावत निःसंग  अपनी दमदार लेखनी की उपस्थिति से जब-तब अवगत कराते रहे हैं।

गोपेश्वर के विद्धतजनों यथा डॉ. भगवती प्रसाद पुरोहित एवं अनुज डॉ. चरण सिंह केदारखण्डी ने वर्तमान भाषायी मौखिक मुहिम की अंधड़ से दूर ऋषि परम्परा के मनीषी निःसंग जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केन्द्रित ‘अभिनन्दन ग्रंथ’ को अंतिम सोपान तक पहुंचाया, इसके लिए दोनों विद्वतजनों के साथ उनके इस यज्ञ में जुड़े समस्त बुद्धिजीवियों का साधुवाद!

यूं तो धर्म, दर्शन, साहित्य, संस्कृति पर निःसंग जी की अनेकों पुस्तकें हैं। किन्तु विन्सर पब्लिशिंग कं0 से प्रकाशित ‘भाषा तत्व और आर्य भाषा का विकास’ भाषा संबन्धी जानकारी के लिए एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। इसी पुस्तक में भाषा शास्त्री ग्रिसयन के संबन्ध में आपने लिखा है कि -‘यद्यपि डॉ. जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने मध्य पहाड़ी गढ़वाली-कुमाउंनी भाषा को हिन्दी की किसी अन्य भाषा की विभाषा मानकर इसके अपुष्ट पक्ष को सिद्ध करने प्रयास किया है परन्तु मध्य हिमालय के ग्रामीण क्षेत्रों में प्रयुक्त प्राकृत संस्कृत भाषा के अनगिनत शब्द इन्हीं पहाड़ी भाषा के शब्द भण्डार से निकलकर मानवीय संस्कृति के साथ निःसरित होकर समस्त भारत में फैली और अनेक प्रान्तों की भाषा के निर्माण में सहयोगी सिद्ध हुई। इस ओर डॉ. गियर्सन का ध्यान नहीं गया।’

निःसंग जी ग्रिसयन के इस भाषाई विभेद को मात्र उच्चारण का भेद मानते हैं। आपने स्पष्ट लिखा कि ‘उच्चारण भेद से गढ़वाली ने कई रूप धारण किये हैं। प्राचीन काल में भी यही प्रवृत्ति रही है। इसका कारण... भौगोलिक बनावट, जलवायु की विविधता और दूर-दूर तक दिनों महीनों की पैदल यात्रा आदि रहा है।’ कटु सत्य है।

वहीं एक अन्य स्थान पर ग्रियसन की भाषाई कांट-छांट पर व्याख्या और शोधकर्ताओं के संदर्भ में निःसंग जी के ये शब्द भी विचारणीय हैं। आपने लिखा ‘भाषाविदों ने, भाषायी सर्वेक्षण में, डॉ. गियर्सन के भाषायी धुवीकरण पर ही अपना भाषायी चिन्तन केन्द्रित किया है, ऐसा प्रतीत होता है। वे इस विश्वास को पालते रहे कि, भारत में आर्य बाहर से आये। यही कारण है कि वे मध्य भाषाओं का सम्बन्ध कभी महाराष्ट्र प्राकृत से जोड़ते रहे तो कभी शौरसेनी और कभी आवन्ती से। इन्ही निराधार सिद्धान्तों को वे पाठकों के ऊपर थोपते रहे। यह भी एक कारण है कि गढ़वाली भाषा भारतीय संविधान की आठवीं सूची में स्थान नहीं पा सकी।’ इतना गम्मीर विवेचन शायद ही किसी अन्य भाषा शास्त्री ने किया हो। 

आपकी उक्त पुस्तक में ‘वाणी की व्युत्पति, स्वर तंत्रियां और ध्वनि’, वैदिक संस्कृति में स्वर और व्यजनों की स्थिति’, शब्द की उत्पति, अक्षर और उनके जन्मदाता, अंक और उनके जन्मदाता, सृष्टि रचना, आर्य सभ्यता और भाषा की उत्पति, आर्य भाषा और उसका प्रभाव, आर्य भाषा का काल विभाजन, गढ़वाली भाषा और उसकी साहित्यिक परम्परा, गढ़वाली भाषा के शब्द स्रोत, ‘गढ़वाली, हिन्दी और पाणिनी का व्याकरण’, गढ़वाली भाषा की उत्पति और उसका विकास,  हिन्दी का स्रोत-प्राकृत पहाड़ी अपभ्रंश, लिपि और उसका विकास’, भोटिया संस्कृति और भाषा’, ‘राष्ट्र भाषा हिन्दी और उसकी वर्तमान स्थिति’, तथा अन्य अनेकों अध्यायों में भाषा विषयक गूढ़ जानकारी एवं वैदिक, संस्कृत, राजस्थानी, गुजराती, बंगाली, सिन्धी, मराठी, नेपाली, पंजाबी तथा अंग्रेजी, अरबी, फारसी, तुर्की, पुर्तगाली, तिब्बती-बर्मी विदेशी भाषाओं के शब्दों के साथ गढ़वाली भाषा के शब्दों की साम्यता एवं ध्वन्यात्मक, आदिम जातीय शब्दों का वृहद विवेचन समाहित हैं।

ल़ अथवा ळ अक्षर की व्यवहारिकता पर आपने लिखा कि ‘महर्षि माण्डव्य, जो पाश्चात्य दार्शनिक सुकरात के भी गुरू रहे हैं, ने यहां तपश्चर्या की। वर्णमाला में गढ़वाली ल, ळ जैसे अक्षरों का अनुसंधान इन्होंने ही किया था।’  

आप गढ़वाली ही नहीं अपितु हिन्दी और संस्कृत के मूर्धन्य विद्वान हैं। हिन्दी को केन्द्र में रखकर इसी पुस्तक के एक अंश में  आपने लिखा है कि ‘हिन्दी भाषा की रूपरेखा तैयार करते समय भाषाविदों द्वारा मध्य हिमालय की पहाड़ी बोली-भाषा को महत्वपूर्ण स्थान न देना, आज भी चुभन पैदा करता है। हिन्दी शब्दकोश का भण्डार जिन मौलिक शब्दों से भर रहा था, उनमें मध्य हिमालय के पहाड़ी क्षेत्रों गढ़वाली, कुमाउंनी, नेपाली एवं त्रिगर्त देशी भाषाओं का दुर्लभ संयोग रहा है। शब्द निर्माण और समान संप्रयोजन का वही रूप गढ़वाली भाषा में परिरक्षित होने से हिन्दी की उत्पति भारत की भाषा के रूप में हुई।’

इसी संदर्भ में एक अन्य स्थान पर शब्द दिये हैं कि ‘इतिहास इस बात का साक्षी है कि प्राचीनकाल में गंगा और यमुना के बीच का देश अन्तर्वेदि या मध्यदेश कहलाता था। जिसके अन्तर्गत मध्य हिमालय के पहाड़ी प्रदेश गढ़वाल, कुमांउ, कुरूक्षेत्र, कांगड़ा, जौनसार, नेपाल, प्रयाग एंव विन्ध्या आदि आते हैं। प्राकृत संस्कृत, वैदिक काल के अति निकट की भाषा होने से, इन क्षेत्रों की बोली-भाषा रही है किन्तु भाषाविदों ने इन पहाड़ी प्रदेशों की मौलिक भाषा तत्वों में स्थान देने के बजाय यह जताने का प्रयास किया कि मध्य पहाड़ी कोई भाषा ही नहीं। परिणामस्वरूप संस्कृत के स्रोत और हिन्दी की मौलिकता को एक धक्का लगा। उसके निर्माण में मौलिकता का अभाव होने से उसे भाषा-सागर में कई थपेड़े सहन करने पड़े।’ 

भाषा के सार तत्वों से सम्माहित इस पुस्तक के साथ ही निःसंग जी की ‘भारतीय जीवन दर्शन और सृष्टि का रहस्य, विविध धर्मों में मानव अधिकार सहित अन्य अनेकों पुस्तकें सारग्रभित, शोधपरक एंव संग्रहणीय हैं। साथ ही वृहद त्रिभाषी शब्दकोश (गढ़वाली-हिन्दी-अंग्रेजी) के सह-सम्पादन में आपने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उम्र के इस पड़ाव पर विस्मृति की छाया   स्वाभाविक है। लेकिन इधर से -‘निःसंग जी!’ का नामोचारण सुनते ही तुरन्त संज्ञान ले लेतेे हैं।

कुशल क्षेम हेतु अभी कुछ दिन पूर्व फोन किया- ‘निःसंग जी प्रणाम! कैसा है आपका स्वास्थ्य?’ उनके श्री मुख से सुनाई दिया-‘ ओ हो! कठैत जी! अभी आपसे पहले नागो मोहन माली से बात कर रहा था!‘ दिमाग में प्रश्न कौंधा-‘ नागो मोहन माली?’ भला ये कौन व्यक्ति है? पूछ ही लिया-‘ निःसंग जी नागो मोहन माली कौन हैं?’  थोड़ा हंसे! सांस को थामा! और जबाब साफ-साफ सुनाई दिया-‘ कठैत जी! ये दक्षिण भारतीय हैं। मिले कभी नहीं पर कहते हैं मेरे पाठक हैं। अक्सर फोन पर कुशल क्षेम पूछ लेते हैं!’

कल 12 अगस्त को गोपेश्वर शहर में सम्पन्न होन वाले निःसंग जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केन्द्रित ‘अभिनन्दन ग्रंथ’ के लोकार्पण के निमित्त भेजे गये निमंत्रण पत्र के एक वाक्य पर नजर टिक गई। लिखा है -‘उत्तराखण्ड सहित भारत भर में हजारों साहित्य रसिकों ने उनके लेखकीय अवदान से लाभ उठाया है।’ कहना प्रयाप्त होगा कि नागो मोहन माली जी निःसंग जी के उन्हीं हजारों साहित्य रसिकों के बीच से एक सौभाग्यशाली होंगे।

उम्र के नौवें दशक को पूर्ण करने के बाद भी सम्पूर्ण सजगता के साथ निःसंग जी की लेखनी का गतिशील रहना मां सरस्वती का ही वरदहस्त है। कामना करता हूं निःसंग जी की लेखनी में आगे भी निरन्तरता बनी रहे।
निःसंग जी के कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर केन्द्रित ‘अभिनन्दन ग्रंथ’ को साकार रूप प्रदाता डॉ. भगवती प्रसाद पुरोहित एवं डॉ. चरण सिंह उत्तराखण्डी अपने इस श्रम साध्य कार्य के लिए एक बार पुनः हार्दिक बधाई स्वीकार करें!

व्यंगकार/कवि/समीक्षक
पौड़ी गढ़वाल

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