भाषा संबंधी ऐतिहासिक वाद-विवाद के सार्थक सम्वाद


गढवाली भाषा में भाषा सम्बन्धी वाद-विवाद गढवाली भाषा हेतु विटामिन का काम करने वाले हैं.
जब भीष्म कुकरेती के 'गढ़ ऐना (मार्च १९९०), में 'गढवाली साहित्यकारुं तैं फ्यूचरेस्टिक साहित्य' लिखण चएंद' जैसे लेख प्रकाशित हुए तो अबोधबंधु बहुगुणा का प्रतिक्रिया सहित मौलिक लिखाण सम्बन्धी कतोळ-पतोळ' लेख गढ़ ऐना (अप्रैल १९९०) में प्रकाशित हुआ व यह सिलसिला लम्बा चला. भाषा सम्बन्धी कई सवाल भीष्म कुकरेती के लेख 'बौगुणा सवाल त उख्मी च' गढ़ ऐना मई १९९०), बहुगुणा के लेख 'खुत अर खपत' (गढ़ऐना, जूंन १९९० ), भीष्म कुकरेती का लेख 'बहुगुणाश्री ई त सियाँ छन' (गढ़ ऐना, १९९०) व 'बहुगुणाश्री बात या बि त च' व बहुगुणा का लेख 'गाड का हाल' (सभी गढ़ ऐना १९९०) गढवाली समालोचना इतिहास के मोती हैं. इस लेखों में गढवाली साहित्य के वर्तमान व भविष्य, गढवाली साहित्य में पाठकों के प्रति साहित्यकारों की जुमेवारियां, साहित्य में साहित्य वितरण की अहमियत, साहित्य कैसा हो जैसे ज्वलंत विषयों पर गहन विचार हुए.

कवि व समालोचक वीरेन्द्र पंवार के एक वाक्य 'गढवाली न मै क्या दे' पर सुदामा प्रसाद 'प्रेमी' जब आलोचना की तो खबरसार में प्रतिक्रियास्वरूप में कई लेख प्रकाशित हुए.
२००८ में जब भीष्म कुकरेती का लम्बा लेख (२२ अध्याय) 'आवा गढ़वाळी तैं मोरण से बचावा' एवं 'हिंदी साहित्य का उपनिवेशवाद को वायसराय' (जिसमे भाषा क्यों मरती है, भाषा को कैसे बचाया जा सकता है, व पलायन, पर्यटन का भाषा संस्कृति पर असर, प्रवास का भाषा साहित्य पर प्रभाव, जैसे विषय उठाये गये हैं) खबरसार में प्रकाशित हुआ तो इस लेखमाला की प्रतिक्रियास्वरूप एक सार्थक बहस खबरसार में शुरू हुयी और इस बहस में डा नन्दकिशोर नौटियाल, बालेन्दु बडोला, प्रीतम अपछ्याण, सुशील पोखरियाल सरीखे साहित्यकारों ने भाग लिया. भीष्म कुकरेती का यह लंबा लेख रंत रैबार व शैलवाणी में भी प्रकाशित हुआ.
इसी तरह जब भीष्म कुकरेती ने व्यंग्यकार नरेंद्र कठैत के एक वाक्य पर इन्टरनेट माध्यम में टिपण्णी के तो भीष्म कुकरेती की टिप्पणी के विरुद्ध नरेंद्र कठैत व विमल नेगी की प्रतिक्रियां खबरसार में प्रकाशित हुईं (२००९) और भीष्म की टिप्पणी व प्रतिक्रिया आलोचनात्मक साहित्य की धरोहर बन गईं.
मोबाइल माध्यम में भी गढवाली भाषा साहित्य पर एक बाद अच्छी खासी बहस चली थी जिसका वर्णन वीरेन्द्र पंवार ने खबरसार में प्रकाशित की.
पाणी के व्यंग्य लेखों को लेखक नरेंद्र कठैत व भूमिका लेखक 'निसंग' द्वारा निबंध साबित करने पर डा नन्दकिशोर ढौंडियाल ने खबरसार (२०११) में लिखा कि यह व्यंग्य संग्रह लेख संग्रह है ना कि निबंध संग्रह तो भ.प्र. नौटियाल ने प्रतिक्रिया दी (खबरसार, २०११).
सुदामा प्रसाद प्रेमी व डा महावीर प्रसाद गैरोला के मध्य भी साहित्यिक वाद हुआ जो खबरसार ( २००८ ) में चार अंकों तक छाया रहा.
इसी तरह कवि जैपाल सिंह रावत 'छिपडू दादा' के एक आलेख पर सुदामा प्रसाद प्रेमी ने खबरसार (२०११) में तर्कसंगत प्रतिक्रया दी.
क्रमश:--
द्वारा- भीष्म कुकरेती

Popular posts from this blog

गढ़वाल में क्या है ब्राह्मण जातियों का इतिहास- (भाग 1)

गढ़वाल की राजपूत जातियों का इतिहास (भाग-1)

गढ़वाली भाषा की वृहद शब्द संपदा