गंगासलाण याने लंगूर, ढांगु, डबरालस्युं, उदयपुर, अजमेर में मकरसंक्रांति का कुछ अधिक ही महत्व है। सेख या पूस के मासांत के दिन इस क्षेत्र में दोपहर से पहले कई गाँव वाले मिलकर एक स्थान पर हिंगोड़ खेलते हैं। हिंगोड़ हॉकी जैसा खेल है। खेल में बांस कि हॉकी जैसी स्टिक होती है तो गेंद कपड़े कि होती है। मेले के स्थान पर मेला अपने आप उमड़ जाता है। क्योंकि सैकड़ो लोग इसमें भाग लेते हैं। शाम को हथगिंदी (चमड़े की) की क्षेत्रीय प्रतियोगिता होती है और यह हथगिंदी का खेल रात तक चलता है हथगिंदी कुछ-कुछ रग्बी जैसा होता है। पूर्व में हर पट्टी में दसेक जगह ऐसे मेले सेख के दिन होते थे। सेख की रात को लोग स्वाळ पकोड़ी बनाते हैं और इसी के साथ मकर संक्रांति की शुरुआत हो जाती है। मकर संक्रांति की सुबह भी स्वाळ पकोड़ी बनाये जाते हैं। दिन में खिचड़ी बनाई जाती है व तिल गुड़ भी खाया जाता है। इस दिन स्नान का भी महत्व है।
इस दिन गंगा स्नान के लिए लोग देवप्रयाग, ब्यास चट्टी, महादेव चट्टी, बंदर भेळ, गूलर गाड़, फूलचट्टी, ऋषिकेश या हरिद्वार जाते हैं। इन जगहों पर स्नान का धार्मिक महत्व है। गंगा सलाण में संक्रांति के दिन कटघर, थलनदी, देवीखेत व डाडामंडी में हथगिंदी की प्रतियोगिता होती है। इस दिन यहां मेला लगता है। कटघर में ढांगु व उदयपुर वासियों के बीच व थलनदी में उदयपुर व अजमेर पट्टी के मध्य, देवीखेत में डबरालस्यूं के दो भागों के मध्य व डाडामंडी में लंगूर पट्टी के दो भागों के मध्य हथगिंदी की प्रतियोगिता होती है। गेंद के मेले में धार्मिक भावना भी सम्पूर्ण रूप से निहित है। सभी जगहों पर देवी व भैरव कि पूजा की जाती है।
इस दिन खेल के लिए चमड़े की गेंद बनायी जाती है। जिस पर पकड़ने हेतु कंगड़ें बने होते हैं। इस गेंद को शिल्पकार ही बनाना जानते हैं। दोपहर तक गाँवों से सभी लोग अपने-अपने औजियों, मंगलेरों, खिलाडियों व दर्शकों के साथ तलहटियों में गेंद मेले के स्थान पर पहुँच जाते है। देवी, भैरव, देवपूजन के साथ गेंद का मेला शुरू होता है। प्रतियोगिता का सरल नियम है कि गेंद को अपने पाले में स्वतंत्र रूप से ल़े जाना होता है। जो गेंद को स्वतंत्र रूप से अपने गधेरे में ल़े जाय वही पट्टी जीतती है। गेंद पर दसियों सैक्दाक लोग पिलच पड़ते हैं और गेंद लोगों के बीच ही दबी रहती है। कई बार गेंद के एक-एक इंच सरकने में घंटो लग जाते हैं अधिकतर यह देखा जाता है कि देर रात तक भी कोई जीत नहीं पता है। जीतने वाले को बहुत इनाम मिलता है। यदि निर्णय नहीं हुआ तो गेंद को मिटटी में दबा दिया जाता है।
इसी दौरान मेले में रौनक भी बढ़ती रहती है। दास/औजी पांडव शैली में ढोल दमौं बजाते हैं। लोग पांडव, कैंतुरा, नरसिंह (वीर रस के नृत्य) नाचते हैं। मंगल़ेर मांगल (पारंपरिक गीत) लगाते हैं। बादी ढ्वलकी गहराते हैं और टाल में बादण नाचती हैं। लोग झूमते हुए उन्हें इनाम देते रहते हैं। कहीं पुछेर या बाक्की बाक बोलते हैं। कहीं छाया पूजन भी होता है। तो कहीं रखवाळी भी होती रहती है। मेले में मिठाई, खिलोनों की खरीदारी होती है। पुराने ज़माने में तो जलेबी मिठाईयों कि राणी बनी रहती थी। बकरे कटते थे और शराब का प्रचलन तो चालीस साल पहले भी था अब तो ...... गेंद के मेलों में बादी-बादण के गीत प्रसिद्ध थे। मटियाली कालेज के प्रधानाध्यापक श्री पीताम्बर दत्त देवरानी व श्री शिवानन्द नौटियाल द्वारा संकलित एक लोकगीत जो गेंद के मेलों अधिक प्रचलित था-
चरखी टूटी जाली गोविंदी ना बैठ चरखी मा
चरखी मा त्यारो जिठाणो गोविंदी ना बैठ चरखी मा
ना बैठ ना बैठ गोविंदी ना बैठ चरखी मा
पाणि च गरम गोविंदी ना बैठ चरखी मा
त्वेकू नि च शरम गोविंदी ना बैठ चरखी मा
मरे जालो मैर गोविंदी ना बैठ चरखी मा
मरण कि च डौर गोविंदी ना बैठ चरखी मा
ताल की कुखडी गोविंदी ना बैठ चरखी मा
तेरी दिखेली मुखडी गोविंदी ना बैठ चरखी मा
खेली जाला तास गोविंदी ना बैठ चरखी मा
शरील च उदास गोविंदी ना बैठ चरखी मा गोविंदी ना बैठ चरखी मा॥
इस तरह गेंद के मेलों में उत्साह, उमंग एक दुसरे से मिलना सभी कुछ होता था।
Copyright @ Bhishma Kukreti
इस दिन गंगा स्नान के लिए लोग देवप्रयाग, ब्यास चट्टी, महादेव चट्टी, बंदर भेळ, गूलर गाड़, फूलचट्टी, ऋषिकेश या हरिद्वार जाते हैं। इन जगहों पर स्नान का धार्मिक महत्व है। गंगा सलाण में संक्रांति के दिन कटघर, थलनदी, देवीखेत व डाडामंडी में हथगिंदी की प्रतियोगिता होती है। इस दिन यहां मेला लगता है। कटघर में ढांगु व उदयपुर वासियों के बीच व थलनदी में उदयपुर व अजमेर पट्टी के मध्य, देवीखेत में डबरालस्यूं के दो भागों के मध्य व डाडामंडी में लंगूर पट्टी के दो भागों के मध्य हथगिंदी की प्रतियोगिता होती है। गेंद के मेले में धार्मिक भावना भी सम्पूर्ण रूप से निहित है। सभी जगहों पर देवी व भैरव कि पूजा की जाती है।
इस दिन खेल के लिए चमड़े की गेंद बनायी जाती है। जिस पर पकड़ने हेतु कंगड़ें बने होते हैं। इस गेंद को शिल्पकार ही बनाना जानते हैं। दोपहर तक गाँवों से सभी लोग अपने-अपने औजियों, मंगलेरों, खिलाडियों व दर्शकों के साथ तलहटियों में गेंद मेले के स्थान पर पहुँच जाते है। देवी, भैरव, देवपूजन के साथ गेंद का मेला शुरू होता है। प्रतियोगिता का सरल नियम है कि गेंद को अपने पाले में स्वतंत्र रूप से ल़े जाना होता है। जो गेंद को स्वतंत्र रूप से अपने गधेरे में ल़े जाय वही पट्टी जीतती है। गेंद पर दसियों सैक्दाक लोग पिलच पड़ते हैं और गेंद लोगों के बीच ही दबी रहती है। कई बार गेंद के एक-एक इंच सरकने में घंटो लग जाते हैं अधिकतर यह देखा जाता है कि देर रात तक भी कोई जीत नहीं पता है। जीतने वाले को बहुत इनाम मिलता है। यदि निर्णय नहीं हुआ तो गेंद को मिटटी में दबा दिया जाता है।
इसी दौरान मेले में रौनक भी बढ़ती रहती है। दास/औजी पांडव शैली में ढोल दमौं बजाते हैं। लोग पांडव, कैंतुरा, नरसिंह (वीर रस के नृत्य) नाचते हैं। मंगल़ेर मांगल (पारंपरिक गीत) लगाते हैं। बादी ढ्वलकी गहराते हैं और टाल में बादण नाचती हैं। लोग झूमते हुए उन्हें इनाम देते रहते हैं। कहीं पुछेर या बाक्की बाक बोलते हैं। कहीं छाया पूजन भी होता है। तो कहीं रखवाळी भी होती रहती है। मेले में मिठाई, खिलोनों की खरीदारी होती है। पुराने ज़माने में तो जलेबी मिठाईयों कि राणी बनी रहती थी। बकरे कटते थे और शराब का प्रचलन तो चालीस साल पहले भी था अब तो ...... गेंद के मेलों में बादी-बादण के गीत प्रसिद्ध थे। मटियाली कालेज के प्रधानाध्यापक श्री पीताम्बर दत्त देवरानी व श्री शिवानन्द नौटियाल द्वारा संकलित एक लोकगीत जो गेंद के मेलों अधिक प्रचलित था-
चरखी टूटी जाली गोविंदी ना बैठ चरखी मा
चरखी मा त्यारो जिठाणो गोविंदी ना बैठ चरखी मा
ना बैठ ना बैठ गोविंदी ना बैठ चरखी मा
पाणि च गरम गोविंदी ना बैठ चरखी मा
त्वेकू नि च शरम गोविंदी ना बैठ चरखी मा
मरे जालो मैर गोविंदी ना बैठ चरखी मा
मरण कि च डौर गोविंदी ना बैठ चरखी मा
ताल की कुखडी गोविंदी ना बैठ चरखी मा
तेरी दिखेली मुखडी गोविंदी ना बैठ चरखी मा
खेली जाला तास गोविंदी ना बैठ चरखी मा
शरील च उदास गोविंदी ना बैठ चरखी मा गोविंदी ना बैठ चरखी मा॥
इस तरह गेंद के मेलों में उत्साह, उमंग एक दुसरे से मिलना सभी कुछ होता था।
Copyright @ Bhishma Kukreti